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बीअं अज्झयणं : लोगविजओ
दूसरा अध्ययन : लोकविचय पढभो उद्देसो : पहला उद्देशक
१. जे गुणे से मूलट्ठाणे, जे मूलट्ठाणे से गुणे । सं०-यः गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं स गुणः । जो विषय है, वह आधार (लोभ) है, जो आधार (लोभ) है, वह विषय है।
भाष्यम् १-प्रस्तुताध्ययने लोकस्य-- कषायाङ्ग- प्रस्तुत अध्ययन में लोक-कषाय के अंगभूत लोभ या परिग्रह भूतस्य लोभस्य परिग्रहस्य वा विचयः कर्तव्योऽस्ति। का विचय करणीय है। इन्द्रियों के विषय मुख्यतया लोभ के हेतु हैं। तत्र इन्द्रियविषयाः प्राधान्येन लोभहेतवः । तेनेदं प्रेक्षा- इसलिए इस प्रेक्षा-सूत्र का निर्देश किया गया है-जो गुण है, वह मूलसूत्रं निर्दिष्टम्----यो गुणः स मूलस्थानम् । गुणः- स्थान है। गुण का अर्थ है-इन्द्रिय-विषय । मूलस्थान का अर्थ हैइन्द्रियविषयः । मूलस्थानम्-आधारः ।' इन्द्रियविषया आधार । इन्द्रिय-विषय ही लोभ के उदय के हेतु होते हैं। इसलिए एव लोभोदयस्य हेतवः सन्ति । तेनाभेदोपचारोऽसौ..... अभेदोपचार से कहा गया है-जो गुण है, वह मूलस्थान है, जो मूलयो गुणः स मूलस्थानं, यन्मूलस्थानं स गुणः।' स्थान है, वह गुण है।
एवं विषयलोभयोः कार्यकारणभावेनाभेदः इस प्रकार कार्य-कारण भाव के आधार पर विषय भोर लोभ सचितः। विषयपरित्यागेन विना लोभपरित्यागो न का अभेद सूचित किया गया है। विषय का परित्याग किए बिना लोभ सम्भवति इति वस्तुधर्मस्य विचयोऽत्र प्रस्तुतः। का परित्याग संभव नहीं होता, इस वस्तु-धर्म का विचय (विश्लेषण)
यहां प्रस्तुत किया गया है। गतप्रत्यागतशैल्या रचितं सूत्रमिदम् ।
यह सूत्र गतघ्रत्यागतशैली से रचा गया है । २. इति से गुणठी महता परियावेणं वसे पमत्ते-माया मे, पिया मे, भाया मे, भइणी मे, भज्जा मे, पुत्ता मे, धूया मे,
सुण्हा मे, सहि-सहण-संगंथ-संथया मे, विवित्तोवगरण-परियटण-भोयण-अच्छायणं मे, इच्चत्थं गढिए लोए-बसे पमत्त। सं०-इति स गुणार्थी महता परितापेन वसति प्रमत्तः-माता मे, पिता मे, भ्राता मे, भगिनी मे, भार्या मे, पुत्रा मे, दुहिता मे, स्नुषा मे, सखिस्वजनसंग्रन्थसंस्तुताः मे, विविक्तोपकरणपरिवर्तनभोजनाच्छादनं मे, इत्यथं ग्रथितः लोकः-वसति प्रमत्तः । इस प्रकार विषयार्थी पुरुष महान् परिताप से प्रमत्त होकर वास करता है। मेरी माता, मेरा पिता, मेरा भाई, मेरी बहिन, मेरी पत्नी, मेरे पुत्र, मेरी पुत्री, मेरी वधू, मेरा मित्र, मेरा स्वजन, मेरे स्वजन का स्वजन, मेरा सहवासी, मेरे प्रचुर उपकरण,
परिवर्तन वृद्धि या चक्रवृद्धि), भोजन, वस्त्र--इनमें आसक्त पुरुष प्रमत्त होकर इन परिग्रह-स्थानों में वास करता है। १. आचारांग चूणि, पृष्ठ ४४ : मूलं प्रतिष्ठा आधारो य एगट्ठा। होता है-इष्ट और अनिष्ट । इष्टगुण के प्रति राग और २. (क) गुणमूलस्थानानां अर्थतः एकत्वं प्रतिपादितमस्ति चूणों
अनिष्ट-गुण के प्रति द्वेष होता है। इस प्रकार गुणों से -अस्थतो भंगविकल्पा भवंति, 'जे गुणे से मूले, जे
कषाय बढता है और कषाय से संसार बढता है-जन्ममूले से गुणे ?' आमं, एवं 'जे गुणे से ठाणे, जे ठाणे से
मरण की परंपरा बढती है। इस कारण-कार्य की परम्परा गुणे ?' आमं, अहवा 'जे मूले से ठाणे, जे ठाणे से मूले ?' में गुण संसार का मूल आधार बन जाता है। इसीलिए आमं, अहवा बे गुणेसु वट्टइ से मूले वट्टति, ते चेव विकल्पा, गुण और मूलस्थान (संसार) में एकता आरोपित की गई एवं एतेसिं गुणादीणं वंजणओ नाणत्तं, अस्थओ अनाणतं । (ख) गुण का अर्थ है-इन्द्रिय-विषय । वह दो प्रकार का
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