________________
९३
आचारांगभाष्यम भाष्यम् ५–वयस्त्रिविधं-प्रथमं मध्यमं पश्चिमञ्च ।' अवस्था तीन प्रकार की होती है-प्रथम, मध्यम और पश्चिमप्रथमं वयः मध्यममभिधावति, मध्यमञ्च पश्चिमम् । अन्तिम । प्रथम अवस्था मध्यम अवस्था की ओर दौड़ती है और मध्यम मध्यमावस्थायामिन्द्रियाणां शक्तेहानिक्रमः प्रारब्धो अवस्था अन्तिम अवस्था की ओर । मध्यम अवस्था में इन्द्रियों की शक्ति भवति' इतिसम्प्रेक्षया अपि ममत्वविसर्जनं प्रति क्षीण होने लगती है। इस तथ्य की अनुप्रेक्षा करने से भी ममत्वदृष्टिरुत्पद्यते ।
विसर्जन की दृष्टि उत्पन्न होती है । अभिक्रान्तं वयः-तृतीयं वयः।
अभिक्रान्त वय का अर्थ है-तीसरी अवस्था । ६. तओ से एगया मृढभावं जणयंति। सं०-ततः तस्य एकदा मूढभावं जनयन्ति । उसके पश्चात् एकदा--जीवन के उत्तरार्द्ध में इन्द्रियां मूढता उत्पन्न कर देती हैं।
भाष्यम् ६.-ततः एकदा-मध्यमावस्थायाःप्रवर्धमाने उसके बाद मध्यम अवस्था के उत्तरार्द्ध में या पश्चिम अवस्था चरणे पश्चिमावस्थायां वा मनुष्यस्य इन्द्रियाणि मूढभावं (अंतिम अवस्था) में मनुष्य की इन्द्रियां मूढभाव को पैदा करती हैं, जनयन्ति, यथा-मनुष्यो न शृणोति उच्चैर्वा शृणोति । जैसे—मनुष्य सुनता नहीं है या ऊंचा सुनता है। इसी प्रकार शेष एवं शेषेन्द्रियविषयेऽपि वक्तव्यता। अस्य वैकल्पिकोऽर्थः- इन्द्रियों की शक्ति भी क्षीण हो जाती है। इसका वैकल्पिक अर्थ यह यथा यथा इन्द्रियाणि हीयमानानि भवन्ति, तथा तथा है—जैसे-जैसे इन्द्रियों की शक्ति क्षीण होती है, वैसे-वैसे पुरुष उन परुषः तदविषयेष आसक्तो भवति । एवं वृद्धत्वे प्रायो इन्द्रिय-विषयों के प्रति अधिक आसक्त होता जाता है। बुढ़ापे में प्रायः जनानां स्वभावः मूर्छामाप्नोति ।
लोगों का स्वभाव मूर्छाग्रस्त हो जाता है, अत्यधिक आसक्त बन जाता
७. जेहिं वा सद्धि संवसति ते वा णं एगया णियगा तं पुदिव परिवयंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिवएज्जा। सं०-यः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्व परिवदन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात् परिवदेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा उसके तिरस्कार की पहल करते हैं। बाद में वह भी उनका तिरस्कार करने लग जाता है।
भाष्यम् ६ --इदानीं अशरणानुप्रेक्षासम्बन्धी नि विचय- प्रस्तुत प्रकरण में अशरण अनुप्रेक्षा संबंधी विचय-सूत्र कहे सूत्राणि । पुरुष: यैः सह ममत्वबन्धं करोति, तेष्वपि जा रहे हैं। पुरुष जिनके साथ ममत्व-बंधन करता है, उनमें भी अनेक बहवः स्वार्थपरायणा भवन्ति । यैः सह संवासोऽस्ति, व्यक्ति स्वार्थ-परायण होते हैं। वह जिनके साथ रहता है, वे निजी तेऽपि निजका जना एकदेति वृद्धावस्थायां, पूर्वमिति व्यक्ति भी वृद्धावस्था में अथवा अपना स्वार्थ-सिद्ध न होने पर पहले स्वार्थासिद्धौ सत्यां तं परिवदन्ति परिभवन्तीत्यर्थः। उसका तिरस्कार करते हैं। अथवा अपना तिरस्कार होने पर, बाद में अथवा पश्चादिति स्वपरिभवानन्तरं सोऽपि तान् वह भी उन आत्मीय लोगों का तिरस्कार करता है। यह पारस्परिक निजकान् जनान् परिभवेत् । एषः पारस्परिक: परि- तिरस्कार भी ममत्व-विसर्जन का आलम्बन-सूत्र बनता है। भवोऽपि ममत्व विसर्जनस्य आलम्बनसूत्रं भवति ।
८. नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुम पि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा ।
१. द्रष्टव्यम्---आयारो ८।१५ भाष्यं टिप्पणं च । २. सामान्यतः मनुष्य की आयु सौ वर्ष की होती है। वह बस दशाओं में विभक्त है। चौथी दशा (४० वर्ष) तक शरीर की आभा और बल पूर्ण विकसित रहते हैं। उसके बाद उनकी हानि शुरू हो जाती है। पचास वर्ष की अवस्था में चक्षु तथा अन्य इन्द्रियों की शक्ति भी क्षीण होने लग जाती है। चूणि में इसका स्पष्ट उल्लेख है-बरिससयायुगस्स पुरिसस्स आयुगं तिधा करेति, ताओ पुण दस
बसाओ, एक्केको वओ साहिया तिन्नि दसा, खणे खणे बट्टमाणस्स छायाबलपमाणातिविसेसा भवंति जाव चउत्थी दसा, तेण परं परिहाणी, भणियं च -
'पंचासगस्स चक्खं हायती मज्झिमं वयं ।
अभिक्कंतं सपेहाए, ततो से एति मूढतं ॥' तओ पढमवयाओ अतीतो मज्झिमस्स एगदेसे पंचमीदसाए वट्टमाणस्स इंदियाणि परिहायति ।
(आचारांग चूणि, पृष्ठ ५१)
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org