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आचारांगभाष्यम् २०. जेहिं वा सद्धि संवसति ते वा णं एगया णियगा तं पुब्धि परिहरंति, सो वा ते णियगे पच्छा परिहरेज्जा।
सं0-~-यैः वा सार्द्ध संवसति ते वा एकदा निजकाः तं पूर्व परिहरन्ति, स वा तान् निजकान् पश्चात् परिहरेत् । वह जिनके साथ रहता है, वे आत्मीय जन एकदा उसको छोड़ने की पहल करते हैं। बाद में वह भी उन्हें छोड़ देता है।
भाष्यम् २०---रोगावस्थायां यैः सार्द्ध संवसति ते रोग की अवस्था में जिनके साथ वह रहता है, वे स्वजन भी स्वजना अपि तं पूर्व परिहरन्ति अथवा सेवाद्यभावे उसको छोड़ने की पहल करते हैं अथवा सेवा आदि के अभाव में ग्लानि ग्लानिपरिगत: स तान् परिहरति ।
को प्राप्त होकर वह उनको छोड़ देता है। २१. नालं ते तव ताणाए वा, सरणाए वा । तुमंपि तेसि नालं ताणाए वा, सरणाए वा।
सं०-नालं ते तव त्राणाय वा, शरणाय वा । त्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा, शरणाय वा । हे पुरुष ! वे तुम्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हैं। तुम भी उन्हें त्राण या शरण देने में समर्थ नहीं हो।
भाष्यम् २१- केचित् स्वजनाः स्नेहवशाद् रोगाभि- कुछ स्वजन रोग से अभिभूत व्यक्ति को भी स्नेहवश नहीं भूतमपि जनं न परित्यजन्ति, तथापि ते तं रोगमुक्तं छोड़ते, फिर भी वे उसको रोग-मुक्त नहीं कर सकते। कत न प्रभवन्ति इत्यालम्बनसूत्रम्
इसका आलम्बनसूत्र हैनालं ते तव त्राणाय वा शरणाय वा ।
वे तुम्हारे त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हैं। स्वमपि तेषां नालं त्राणाय वा शरणाय वा ।
तुम भी उनके त्राण या शरण के लिए समर्थ नहीं हो। २२. जाणित्तु दुक्खं पत्तेयं सायं ।
सं०-ज्ञात्वा दुःखं प्रत्येकं सातम् । दुःख और सुख व्यक्ति का अपना-अपना होता है, यह जानकर
भाष्यम २२-दुःखं सुखञ्च प्रत्येकं भवति । न च दु:ख और सुख अपना-अपना होता है। कोई भी किसी के सुख कश्चित् कस्यचित् सुखं दुःखं वा आदातुं समर्थो भवति या दुःख को बंटाने में समर्थ नहीं होता---यह जानकर तू अपनी --इति ज्ञात्वा आत्मनः अत्राणतां वा अशरणतां वा अत्राणता या अशरणता का अनुभव कर । अनुभव। २३. अणभिक्कंतं च खलु वयं संपेहाए।
सं०-अनभिक्रान्तं च खलु वयः संप्रेक्ष्य । अवस्था अतिक्रान्त नहीं हुई है, यह देखकर
भाष्यम् २३-विषया: लोभमुद्दीपयन्ति, लोभश्च इंद्रिय-विषय लोभ को उद्दीप्त करते हैं तथा लोभ मनुष्य को मनुष्यं अर्थार्जनं प्रति प्रेरयति पारिवारिकममत्वं प्रति अर्थार्जन और पारिवारिक ममत्व की ओर प्रेरित करता है। अर्थ का च । अजितेऽपि अर्थे प्रवृद्धऽपि च ममत्वे नास्ति त्राणं अर्जन और ममत्व की प्रगाढ़ता होने पर भी कोई त्राण या शरण नहीं होता। वा शरणं वा । तेन 'अहोविहाराय' समुत्थानं कार्यम्।' इसलिए व्यक्ति को 'अहोविहार'-संयम के लिए समुद्यत होना चाहिए। तत्र अनभिक्रान्तं वयो हेतुरिति संप्रेक्षा कार्या। विष्वपि उसे सोचना चाहिए कि संयम-ग्रहण के लिए अभी अवस्था-यौवन और वयस्सु प्रव्रज्याग्रहणमस्ति सम्मतम् । तथापि अनभि- शक्ति अतिक्रांत नहीं हुई है । यद्यपि तीनों अवस्थाओं में प्रव्रज्या का ग्रहण क्रान्ते वयसि-प्रथमे द्वितीये वा वयसि प्रव्रज्याग्रहणं सम्मत है फिर भी अनभिक्रांत अर्थात् प्रथम या द्वितीय अवस्था में सुकरं, इति निर्दिष्टमिहसूत्रे ।
प्रव्रज्या का ग्रहण सुकर होता है, यह निर्देश इस सूत्र में दिया गया है। अस्यामवस्थायां परिवाद-पोषण-परिहार-सम्बद्धाः इस अवस्था में तिरस्कार, परिवार का पोषण तथा उसे छोड़ने
१. द्रष्टव्यम्-२।१० भाष्यम् । २. द्रष्टव्यम् ---२१५ भाष्यम् ।
३. आयारो, ८१५: जामा तिण्णि उदाहिया, जेसु इमे
आरिया संबुज्ममाणा समुट्ठिया।
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