________________
है.
आचारांगभाष्यम् भाष्यम् २-इन्द्रियविषयाः लोभोदयं प्रेरयन्ति । इन्द्रियों के विषय लोभ के उदय में प्रेरक बनते हैं। लोभ की लोभस्य विद्यमानतायामेव इन्द्रियविषयेषु प्रियाप्रिय- विद्यमानता में ही इन्द्रिय-विषयों के प्रति प्रिय-अप्रिय भाव उत्पन्न होता भावः सञ्जायते इतिहेतुना स गुणार्थी पुरुषः महता है, इसलिए वह विषयार्थी पुरुष महान् परिताप--भोगाभिलाषा से परितापेन --भोगाभिलाषेण नानाविधेष परिग्रहस्थानेषु प्रमत्त होकर नाना प्रकार के परिग्रह-स्थानों में वास करता है। वसति प्रमत्तो भूत्वा । परितापश्च ममकारजनित इतिवस्तुसत्यं स्पष्टयति
'परिताप ममकार से उत्पन्न होता है'-इस वस्तु-सत्य को सूत्रकार:-मात्रादिषु तथा नानाप्रकारोपकरणादिषु स्पष्ट करते हुए सूत्रकार कहते हैं-मनुष्य माता-पिता आदि स्वजनों ममत्वं कुर्वाणस्तेष ग्रथितो लोक: प्रमत्तो भूत्वा नाना- तथा नाना प्रकार के उपकरणों में ममत्व करता हआ उनमें आसक्त विधेषु परिग्रहस्थानेषु वसति ।
हो जाता है। फिर वह प्रमत्त होकर नाना प्रकार के परिग्रह-स्थानों में
वास करता है। सखा -सहजातकं मित्रम् ।
सखा का अर्थ है--साथ में जन्मा हुआ मित्र । संग्रन्थः-स्वजनस्य स्वजनः ।
संग्रन्थ का अर्थ है-स्वजन का स्वजन । संस्तुतः-सहवासी।
संस्तुत का अर्थ है-सहवासी । परिवर्तनम् -वृद्धिश्चक्रवृद्धिर्वा ।'
परिवर्तन का अर्थ है-वृद्धि ब्याज या चक्रवृद्धि--ब्याज पर ब्याज ।
३. अहो य राओ य परितप्पमाणे, कालाकाल-समुद्राई, संजोगट्ठो अट्टालोभी, आलुपे सहसक्कारे, विणि विचित्ते, एत्थ
सत्थे पुणो-पुणो। सं०-अहनि च रात्री च परितप्यमानः, कालाकालसमुत्थायी, संयोगार्थी अर्थलोभी, आलुम्पः सहसाकारः, विनिविष्टचित्तः, अत्र शस्त्र पुनः पुनः । वह रात-दिन परितप्त रहता है, काल या अकाल में (अर्थार्जन का) प्रयत्न करता है, संयोग का अर्थी होकर अर्थ-लोलुप, चोर या लुटेरा हो जाता है। उसका चित्त परिवार या विषय-सेवन में ही लगा रहता है। वह पुनः पुनः शस्त्र बनता है।
भाष्यम् ३---लोभवशंवदः पुरुषः मात्रादिनिमित्तं लोभ के वशीभूत होकर पुरुष माता-पिता आदि स्वजनों के तथा अर्थस्योपार्जनरक्षणादिनिमित्तञ्च अहोरात्रं निमित्त तथा धन के उपार्जन और उसकी रक्षा आदि के निमित्त दिनकायिकवाचिकमानसिकेन परितापेन परितप्यमान- रात कायिक, वाचिक और मानसिक परिताप से संतप्त रहता है। वह स्तिष्ठति । स काले अकाले वा अर्थसंग्रहं प्रति मम्मण- समय-असमय का विवेक किए बिना धन का संग्रह करने के लिए वत प्रवर्तते । स मनोज्ञानामिन्दियविषयाणां राज्यवैभवा- 'मम्मण' सेठ की तरह लगा रहता है। वह मनोज्ञ इन्द्रिय-विषयों तथा दोनाञ्च संयोगमर्थयते । स अर्थलोलपो भत्वा चौर्यादिकं रज्य और वैभव आदि की प्राप्ति के लिए निरंतर प्रयत्नशील रहता करोति। सहसाकारी-अविमश्यकारी, असमीक्षित- है। वह अर्थलोलुप होकर चोरी आदि करता है। वह सहसाकारी पूर्वापरदोष: महान्तमनर्थ सम्पादयति । तस्य चित्तं अर्थात् बिना सोचे-विचारे काम करने वाला, पहले पीछे होने वाले परिवारे विषये वा विनिविष्टं भवति । एतादृशः पुरुषः दा
मादा पसप दोषों की समीक्षा न करने वाला पुरुष महान् अनर्थ को जन्म देता है। पुनः पुनः जीवनिकायानां कृते शस्त्रं-उपघातकारी
उसका चित्त परिवार या इन्द्रिय-विषयों में संलग्न रहता है। ऐसा भवति ।
पुरुष जीवनिकायों के लिए बार-बार शस्त्र बनता है -संहारक बनता
४. अप्पं च खलु आउं इहमेगेसि माणवाणं, तं जहा-सोय-परिणाणेहि परिहायमाणेहि, चक्खु-परिणाणेहि
परिहायमाणेहि, घाण-परिणाणेहि परिहायमाणेहिं, रस-परिणाणेहि परिहायमाणेहि, फास-परिणाणेहि १. (क) आचारांग चूणि, पृष्ठ ४९ : परियट्टणं-दुगुणं तिगुणं
उपलभ्यते-राजद्रव्याणामन्यद्रव्येणादानं परिवर्तनम् । एवमादी।
(घ) आप्टे, चक्रवृद्धिः -Interest upon interest, (ख) आचारांग वृत्ति, पत्र ९१ : द्विगुणत्रिगुणादिभेदभिन्नम् ।
Compound interest (ग) कौटिलीयार्थशास्त्रे (२७३६) परिवर्तनस्य एष अर्थ
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org