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आमुखम्
'द्वितीयो निष्कर्ष :- स्वात्मगतस्य अलोभस्य अनुभवेन लोभस्य परिष्कारः उन्मूलनञ्च ।
केन्द्रीय तत्त्वमस्ति - 'अपरिग्रहा प्रस्तुताध्ययनस्य भविष्यामः ।" अस्य संकल्पस्य सुरक्षाये शरीरस्य वस्तुनश्च ममत्वत्यागः अत्र प्रसाधितोऽस्ति ।'
आचारांगस्य मुख्पविषयोऽस्ति आचारः तत्रापि मुनेराचार:, सोऽपि सोऽपि निर्वाणसाधनायें प्रतिपादित आचारः । तथापि प्रस्तुताध्ययने अनेकानि जीवनसूत्राणि उपलभ्यन्ते । तानि सन्ति समाजव्यवस्थायें व्यक्तिगत जीवनाय चापि महान्ति उपयोगीनि । इन्द्रियाणां हानौ जरा सम्मुखीना भवतीति सिद्धान्तः अद्यापि सम्मतोऽस्ति । अकृतं करिष्यामीति विकाससूत्रं मन्यन्ते समाजविदः अर्थशास्त्रिणश्च, किन्तु अस्य मन्तव्यस्थ एकiगिता तदानी प्रकटीभवति यदा तद् मन्यमानो जन रोगेण जरसा वा ग्रस्तः मरणासन्नावस्थायां वा असहायो भवति, न क्वचित् त्राणं वा शरणं वा पश्यति ।
एवं प्रस्तुताध्ययने जीवनस्यापि सत्यानां अनावरणमस्ति जातम् । पुनः पुनरस्मिन् सत्यसिन्धी निमज्जन मेव अति उपायः सत्यमुक्ताया उपलब्धः ।।
१. आयारो, २।३७ । २. वही, २।३१ ।
३. वही, २।१२७-१३९ ।
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दूसरा निष्कर्ष है - अपने भीतर विद्यमान अलोभ के अनुभव से लोभवृत्ति का परिष्कार और उन्मूलन ।
प्रस्तुत अध्ययन का केन्द्रीय तत्त्व है- 'हम अपरिग्रही बनेंगे'यह संकल्प । इस संकल्प की सुरक्षा के लिए शरीर और पदार्थ ममत्व का त्याग यहां बतलाया गया है ।
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आचारांग का मुख्य विषय है-आचार । वह भी मुनि का आचार। वह भी निर्वाण की साधना के लिए प्रतिपादित आचार । फिर भी प्रस्तुत अध्ययन में अनेक जीवन-सूत्र उपलब्ध होते हैं। वे सूत्र समाज व्यवस्था तथा व्यक्तिगत जीवन के लिए भी बहुत उपयोगी हैं। इन्द्रिय-शक्ति की क्षीणता होने पर वार्धक्य सम्मुख हो जाता है— यह सिद्धांत आज भी सम्मत है । 'मैं वह काम करूंगा जो आज तक किसी ने नहीं किया इस सूत्र को समाजमारी तथा अर्थशास्त्री विकास का सूत्र मानते हैं। किंतु इस मत की एकांगिता तब प्रगट होती है जब इस सूत्र को मानने वाला व्यक्ति रोग या बुढापे से ग्रस्त होता है। तथा मरणासन्न अवस्था में असहाय होता है, वहीं त्राण या शरण नहीं देखता ।
४. वही, २०४५ ५. वही, ३।१५-१७ ।
इस प्रकार प्रस्तुत अध्ययन में जीवन-सत्यों की भी स्फुट अभिव्यक्ति हुई है। इस सत्य-सिंधु में बार-बार दुबकियां लगाना ही सत्य - मुक्ताओं की प्राप्ति का उपाय है ।
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स्यम्यनम् ।
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