________________
अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ६. सूत्र १२३-१३४
७१
१२७. अणगारा मोत्ति एगे पवयमाणा।
सं०---अनगाराः स्मः इति एके प्रवदन्तः ।
और तू देख, कुछ साधु 'हम गृहत्यागी हैं'- यह निरूपित करते हुए भी गहवासी जैसा आचरण करते हैं-त्रसकायिक जीवों की हिंसा करते हैं।
भाष्यम् १२४-१२७–एतानि सूत्राणि पूर्ववद् (१५-१८) पूर्ववत् देखें-सूत्र १५-१८ । द्रष्टव्यानि। १२८. जमिणं विरूवरूवेहि सत्थेहि तसकाय-समारंभेणं तसकाय-सत्थं समारंभमाणे अण्णे बणेगरूवे पाणे विहिसति ।
सं०-यदिदं विरूपरूपैः शस्त्रः त्रसकायसमारम्भेण त्रसकायणस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से त्रस-सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर त्रसकायिक जीवों की हिंसा करता है। वह केवल उन त्रसकायिक जीवों को ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है। भाष्यम् १२८-सकायस्य शस्त्राणि विदितान्येव । त्रसकाय के शस्त्र ज्ञात ही हैं।
१२६. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया ।
सं0-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता ।
इस विषय में भगवान् ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १३०. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पूयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउ ।
सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवन्दन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् ।
वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए१३१. से सयमेव तसकाय-सत्थं समारंभति, अण्णेहिं वा तसकाय-सत्थं समारंभावेइ, अण्णे वा तसकाय-सत्थं समारंभमाणे
समणुजाणइ। सं०-स स्वयमेव त्रसकायशस्त्रं समारभते, अन्यैः वा त्रसकायशस्त्र समारम्भयति, अन्यान् वा त्रसकायशस्त्रं समारभमाणान समनुजानीते।
वह स्वयं प्रसकायिक जीवों को हिंसा करता है, दूसरों से करवाता है तथा करने वाले दूसरों का अनुमोदन करता है। १३२. तं से अहियाए, तं से अबोहीए।
सं०-तत् तस्य अहिताय, तत् तस्य अबोध्यै ।
वह हिंसा उसके अहित के लिए होती है। वह हिंसा उसकी अबोधि के लिए होती है। १३३. से तं संबुज्झमाणे आयाणीयं समुट्ठाए।
सं०- स तत् संबुध्यमानः, आदानीयं समुत्थाय ।
वह उस हिंसा के परिणाम को समीचीन दृष्टि से समझकर संयम की साधना में सावधान हो जाता है । १३४. सोच्चा भगवओ अणगाराणं वा अतिए इहमेगेसि णाय भवइ-एस खलु गथे, एस खलु मोहे, एस खलु मारे, एस
खलु णरए। सं०--श्रुत्वा भगवतः अनगाराणां वा अन्तिके इहैकेषां ज्ञातं भवति-एषा खलु ग्रंथः, एषा खलु मोहः, एषा खलु मारः, एषा खलु नरकः । भगवान् या गृहत्यागी मुनियों के समीप सुनकर कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात हो जाता है-यह (त्रसकायिक जीवों की हिंसा) प्रन्थि है, यह मोह है, यह मृत्यु है, यह नरक है।
Jain Education international
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org