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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०४.५. सूत्र ८५-८९
५६ सं०-तं परिज्ञाय मेधावी नैव स्वयं अग्निशस्त्रं समारभेत, नैव अन्यैः अग्निशस्त्रं समारम्भयेद्, अग्निशस्त्र समारभमाणान् अन्यान न समनुजानीत । यह जानकर मेधावी मनुष्य स्वयं अग्निशस्त्र का समारम्भ न करे, दूसरों से उसका समारम्भ न करवाए तथा उसका समारम्भ करने
वाले दूसरों का अनुमोदन न करे। ८६. जस्सेते अगणि-कम्म-समारंभा परिण्णाया भवंति, से हु मुणी परिण्णाय-कम्मे । -त्ति बेमि ।
सं०-यस्यते अग्निकर्मसमारम्भाः परिज्ञाताः भवन्ति, स खलु मुनि. परिजातकर्मा । - इति ब्रवीमि । जिसके अग्नि सम्बन्धी कर्म-समारम्भ परिज्ञात होते हैं, वही मुनि परिजातकर्मा (कर्म-त्यागी) होता है। ऐसा मैं कहता हूं।
भाष्यम् ८६-८९-एतानि सूत्राणि पूर्ववत् (३१-३४) पूर्ववत् देखें-सूत्र ३१-३४ । ज्ञातव्यानि।
पंचमो उद्देसो : पांचवां उद्देशक
षड़जीवनिकायक्रमे तेजस्कायानन्तरं वायुकाय: षडजीवनिकाय के क्रम में तेजस्काय के पश्चात् वायुकाय का प्रतिपाद्यते।' अत्र क्रमप्राप्तो वायुकायप्रक्रमः, तथाप्यत्र प्रतिपादन होता है। यहां वायुकाय का विषय क्रम-प्राप्त है, फिर भी तं विहाय वनस्पतेरुद्देशः पूर्व नियोजितः । अत्रावश्यं यहां उसको छोड़कर वनस्पति का पहले प्रतिपादन किया गया है। इसमें केनचित् कारणेन भाव्यम् । चूणिकारेण प्रदर्शितमिदं- कोई कारण अवश्य होना चाहिए। चूर्णिकार ने इसका कारण प्रदर्शित अचाक्षुषत्वाद् दुःश्रद्धेयो वायुः, तमश्रद्दधान : शिष्यो मा करते हुए लिखा है-वायु आंखों से दिखाई नहीं देता, इसलिए वह विप्रतिपद्येत, तेनोत्क्रमः कृतः । किन्तु विमर्शयोग्योऽयं दुःश्रद्धेय है । उस पर श्रद्धा न करने वाला शिष्य विपरीत मत न बना हेतुः।
ले, इसलिए क्रम-परिवर्तन किया गया है। चूर्णिकार का यह हेतु
विमर्शनीय है। वायुरचाक्षुष: सन्नपि नास्ति दुःश्रद्धेयः। प्रस्तुता- वायु अचाक्षुष होते हुए भी दुःश्रद्धेय नहीं है। प्रस्तुत अध्ययन ध्ययने वायोः प्रतिपादनमिष्टं नास्ति, किन्तु वायोः में वायु का प्रतिपादन इष्ट नहीं है, किन्तु वायु की सजीवता का प्रतिसजीवताप्रतिपादन मिष्टम् । अस्यां विचारणायां पादन अभिप्रेत है। इस सजीवता की विचारणा में पृथ्वी आदि की पृथिव्यादीनां जीवत्वमपि दुःश्रद्धेयम् । अत्र वयं कारणं सजीवता भो दुःश्रद्धेय है । यदि हम कारण की खोज करें तो वायु की मृगयामहे तदा वायोर्गतिमत्त्वमेवोत्क्रमस्य हेतुर्विभाव्यते। गतिमत्ता ही क्रम-व्यत्यय का कारण प्रतीत होती है । चार स्थावरकायों चत्वारः स्थावरकायाः संलग्नरूपेण प्रतिपादिताः। का संलग्नरूप से प्रतिपादन किया गया है। उसके बाद त्रसकाय का तदनन्तरं त्रसकायस्य प्रतिपादनम् । वायुरपि त्रस- प्रतिपादन है। वायु भी त्रसकाय के अन्तर्गत है, इसलिए त्रसकाय के कायान्तर्गतः, तेन त्रसकायनिरूपणानन्तरं वायुकायस्य निरूपण के पश्चात वायुकाय का निरूपण किया गया है। निरूपणं विहितम् । ___ स्थानाङ्गे तत्त्वार्थसूत्रे च अग्नेरपि त्रसत्वं विवक्षित, स्थानाङ्ग और तत्त्वार्थ सूत्र में अग्नि को भी त्रसकाय माना किन्तु यथा वायुस्तिर्यगगतिमान विद्यते तथा ग्निर्नास्ति। गया है, किन्तु वायु जिस प्रकार तिरछी गति वाला है वैसे अग्नि नहीं तेन तेजस्काय: स्थावरशृखलायामेव निर्दिष्टः । है, इसलिए तेजस्काय का निर्देश स्थावर की शृंखला में ही किया
गया है।
१. आयारो, ९।१।१२। २. आचारांग चूणि, पृष्ठ ३१ । ३. अंगसुत्साणि १, ठाणं, ३३३२६ : तिविहा तसा पण्णत्ता, तं
जहा-तेउकाइया, वाउकाइया, उराला तसा पाणा। ४. तत्त्वार्य, २।१४ : तेजोवायू द्वीन्द्रियादयश्च त्रसाः।
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