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अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ० ३. सूत्र ३७-३६ अतः तेषां जीवत्वप्रतिष्ठापनाय परोक्षबुद्धीनां सिद्धि के लिए तथा परोक्षबुद्धि वाले मनुष्यों को उनका सम्यग अवबोध सम्यगवबोधाय सूत्रकारो ब्रूते-सन्ति अप्कायिकजीवाः। हो, इसलिए सूत्रकार कहते हैं-अप्कायिक जीवों का अस्तित्व है। प्रत्यक्षज्ञानिनस्तान साक्षादवबुध्यन्ते। यदि भवन्तस्तान् प्रत्यक्षज्ञानी उनको साक्षात जानते हैं। यदि आप उन्हें नहीं जानते हैं नावबुध्यन्ते, तदा प्रत्यक्षज्ञानिनामाज्ञया ते अवबोद्धव्याः, तो उन प्रत्यक्षज्ञानियों की आज्ञा (वचन) से उनको जानें और जानने के अवबोधानन्तरञ्च तेषां जीवानां न कुतोऽपि पश्चात उन जीवों को किसी भी प्रकार से भय उत्पन्न न करें। भयमापादनीयम् ।
३६. से बेमि-णेव सयं लोग अब्भाइक्खेज्जा, व अत्ताणं अब्भाइक्खेज्जा । जे लोयं अब्भाइक्खइ, से अत्ताणं अब्भा
इक्खइ । जे अत्ताणं अब्भाइक्खइ, से लोयं अब्भाइक्खइ । सं0-तद् ब्रवीमि-नैव स्वयं लोक अभ्याख्यायात् । नैव आत्मानं अभ्याख्यायात् । यः लोकमभ्याख्याति स आत्मानमभ्याख्याति । यः आत्मानमभ्याख्याति स लोकमभ्याख्याति । मैं कहता हूं-वह जलकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार न करे और न अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करे। जो जलकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है। जो अपनी आत्मा के अस्तित्व को अस्वीकार करता है वह जलकायिक लोक के अस्तित्व को अस्वीकार करता है।
भाष्यम् ३९-अप्कायिकजीवाः सन्ति सूक्ष्माः, अप्कायिक जीव सूक्ष्म हैं, इसलिए उनकी प्रतीति के लिए सूत्रअतस्तत्प्रत्ययार्थ सूत्रकार आत्मतुलानिदर्शनपूर्वकं कार आत्मतुला का निदर्शन देकर कहते हैं -मनुष्य न अप्कायिक जीवप्रवक्ति-नैव अप्कायिकजीवलोकस्य' अभ्याख्यानं लोक को अस्वीकार करे और न अपने आपको अस्वीकार करे । क्यों न कुर्यात्, न चात्मनोऽभ्याख्यानं कुर्यात् । किमर्थं न कुर्याद, करे, इस आशंका का समाधान यह है-अप्कायिक लोक को न इत्याशंकायाः समाधानमिदं-अप्कायिकलोकस्य स्वीकारना, अपने आपको न स्वीकारना है। उसका कारण है कि यह अभ्याख्यानं आत्मनोऽभ्याख्यानमस्ति । तत्र कारणमिदं- आत्मा अप्कायिक जीवलोक में अनन्त बार उत्पन्न हो चुकी है। अयमात्मा अप्कायिकजीवलोकेऽनन्तश उत्पन्नपूर्वोऽस्ति। अप्कायिक जीवों के अस्तित्व का अपलाप अपने अस्तित्व का अपलाप तस्याऽपलाप आत्मनोऽपलापः स्वत एव सञ्जातः। है-यह स्वतः प्राप्त हो जाता है।
शिष्येण पृष्टं -भगवन् ! अप्कायिकजीवा शिष्य ने पूछा-भगवन् ! अप्कायिक जीव अत्यन्त दुर्बोध हैं, अत्यन्तं दुर्गाताः । ते न शृण्वन्ति, न पश्यन्ति, न वे न सुनते हैं, न देखते हैं, न सूंघते हैं, न रस का आस्वाद करते हैं जिघ्रन्ति, न रसं वेदयन्ति, न च ते सुखदुःखमनुभवन्तो और न वे सुख-दुःख का अनुभव करते हुए प्रतीत होते हैं। उनमें न दृश्यन्ते, तेषां न प्राणस्पन्दनं, न चोच्छ्वासनिःश्वासौ प्राण का स्पन्दन दृष्टिगोचर होता है और न ही उच्छ्वास-निःश्वास की दृश्येते, कथं पुनस्ते जीवाः ?
क्रिया दिखाई देती है। फिर उनमें जीवत्व कैसे हो सकता है ? एतत्समाधानार्थ निर्यक्तिकारेण हेतुरपि इसके समाधान के लिए नियुक्तिकार ने हेतु का भी प्रयोग प्रयोजितः-.
किया हैजह हस्थिस्स सरीरं कललावत्यरस अहुणोववन्नस्स । होइ उदगंडगस्स य एसुवमा सव्वजीवाणं॥
यथाऽधुनोत्पन्नस्य कललावस्थस्य हस्तिन उदक- जैसे तत्काल उत्पन्न फलल अवस्था में स्थित हाथी का शरीर प्रधानाण्डकस्य च शरीरं द्रवं सचेतनं दृष्टम् । एव- तथा जल प्रधान अंडे का शरीर द्रव होने पर भी सचेतन देखा जाता मप्कायिकजीवा अपि सचेतनाः सन्ति । प्रयोगश्चायम् -- है वैसे ही अप्कायिक जीव भी सचेतन होते हैं। हेतु का प्रयोग इस
प्रकार हैप्रतिज्ञा-सचेतना आपः ।
प्रतिज्ञा-जल सचेतन है। १. लोग-'लोक्यते इति लोकः' इति व्युत्पत्तिमनुभिरय २. आचारांग नियुक्ति, गाथा ११०।
लोकशब्दस्य नानाप्रकरणेषु प्रयोगो दृश्यते। अत एव ३. कलल-गर्भ का प्रारम्भिक रूप जब वह केवल कुछ कोषों तस्यार्थः प्रकरणानुसारी कार्यः। अप्कायप्रकरणे अप्कायिक
का गोला मात्र रहता है। जीवलोकः, तेजस्कायप्रकरणे तेजस्कायजीवलोक इत्यादि ।
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