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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ० १. सूत्र ५ __ लोगावाई-प्रस्तुतागमे लोकशब्दस्य अनेकवारं लोकवादी–प्रस्तुत आगम में 'लोक' शब्द का प्रयोग अनेक अनेकार्थेषु प्रयोगो जातः । शरीर-विषय-कषाय-जीव- बार अनेक अर्थों में हुआ है। शरीर, विषय, कषाय, जीव, जगत और जगत-जनसमूहादीनामर्थे'स प्रयुक्तोऽस्ति, तेन यथाप्रसंग- जनसमूह आदि अर्थों में यह प्रयुक्त हुआ है। इसलिए प्रसंग के अनुसार मेव अस्यार्थः संपादनीयो भवति । प्रस्तुतप्रकरणे लोक- ही इसका अर्थ करना होता है। प्रस्तुत प्रकरण में 'लोक' शब्द का अर्थ शब्दस्य 'पौद्गलिकं जगत्' इत्यर्थः प्रासंगिकः प्रतीयते। 'पौदगलिक जगत्' प्रासंगिक लगता है। आत्मा अमूर्त है, इसलिए वह आत्मा अमूर्तोऽस्ति, तेन नास्माभिः स लोक्यते । अजीव- हमें दिखाई नहीं देती। अजीव द्रव्यों में एक पुद्गल द्रव्य ही मूर्त है द्रव्येषु केवलं पुद्गल एव मूर्तिमान् अस्ति, तेन लोक- इसलिए 'लोक' शब्द से यहां उसकी ही अपेक्षा है। भगवती में भी शब्देन अत्र स एव अपेक्षितोऽस्ति । भगवत्यामपि 'लोक' शब्द का निर्वचन इसी अपेक्षा से किया गया है। 'लोक लोकशब्दस्य निर्वचनं अनयापेक्षया एव कृतमस्ति । पंचास्तिकायमय है', 'लोक जीव-अजीवमय है', आदि लोकविषयक पञ्चास्तिकायमयो लोकः, जीवाजीवमयो लोकः, परिभाषाएं आगमों में मिलती हैं, किन्तु यहां वे अपेक्षित नहीं हैं, ऐसा इत्यादयः परिभाषा आगमेषु उपलभ्यन्ते, किन्तु अत्र ता प्रतीत होता है। नापेक्षिताः सन्तीति प्रतीयते।
चर्णिकारेण लोकशब्दस्य योऽर्थः कृतः सोऽपि सङ्गत: चूर्णिकार ने 'लोक' शब्द का जो अर्थ किया है वह भी संगत प्रतीयते-लोगवादी णाम जह चेव अहं अस्थि एवं प्रतीत होता है। 'लोकवादी'---जैसे मैं हूं, इसी तरह अन्य प्राणी भी अन्नेवि देहिणो सन्ति, लोग अब्भंतरे एव जीवा, जीवा- हैं । लोक के भीतर ही जीवों का अस्तित्व है, जीव-अजीव लोक समुदय जीवा लोग समुदओ इति भणितो लोगवादी। हैं, इस प्रकार माननेवाला लोकवादी कहा गया है।
कम्मावाई-जातिस्मृत्या आत्मन: पुद्गलस्य च कर्मवादी-~जातिस्मृति से आत्मा और पुद्गल का संबंध-बोध सम्बन्धबोधोऽपि जायते । आत्मनः पुनर्जन्मग्रहणं, दिशासु भी होता है। आत्मा का पुनः जन्म-ग्रहण तथा दिशाओं और अनुअनुदिशासु वा अनुसंचरणं पुद्गलयोगादेव जायते। दिशाओं में अनुसंचरण पुद्गल के योग से ही होता है । जीवों का शरीर अस्ति जीवानां सूक्ष्मतरं शरीरम् । तस्मिन् स्वयमात्मना सूक्ष्मतर है। उसमें स्वयं आत्मा के द्वारा अपने अध्यवसाय से आकृष्ट स्वकीयेन अध्यवसायेन आकृष्टाः शुभा अशुभा वा पुद्गलाः शुभ-अशुभ पुद्गल संचित रहते हैं । वे पुद्गल आत्मा की अपनी प्रवृत्ति सञ्चिताः सन्ति । ते पुद्गलाः स्वकर्मणा (स्वप्रवृत्त्या) (कर्म) के द्वारा आकृष्ट होते हैं, इसलिए वे 'कर्म' नाम से अभिहित आकृष्टाः सन्ति, अतस्ते कर्म इति नाम्ना संज्ञायन्ते । होते हैं । उनका आधारभूत शरीर भी 'कार्मण शरीर'- इस नाम से तेषामाधारभूतं शरीरमपि 'कर्म' नाम्ना संज्ञातमस्ति। जाना जाता है। ___मुख्यत्वेन कर्म इति प्रवृत्तिः। कर्मणाकृष्टाः पुदगला मुख्यतः कर्म का अर्थ 'प्रवृत्ति' है। कर्म से आकृष्ट पुद्गल भी अपि कर्मशब्देन उपचरिताः। कर्मवादपदेन त एवात्र कर्म शब्द से उपचरित होते हैं । 'कर्मवाद' पद से यहां उन्हीं की विवक्षा विवक्षिताः सन्ति । कर्मवादे कृतप्रतिक्रियासिद्धान्तः की गई है। कर्मवाद में कृत की प्रतिक्रिया का सिद्धांत सम्मत है। सम्मतोऽस्ति। 'अणुसंवेयणमप्पाणणं'' इतिसूत्रेण 'अपना किया हुआ कर्म अपने को ही भुगतना होता है'-इस सूत्र से एतद् बोद्ध शक्यम्।
यह जाना जा सकता है। किरियावाई-आत्मनः कर्मणश्च सम्बन्धः क्रियात एव क्रियावादी-आत्मा और कर्म का सम्बन्ध क्रिया के द्वारा ही भवति । यावदात्मनि रागद्वेषजनितानि प्रकम्पनानि होता है । जब तक आत्मा में रागद्वेषजनित प्रकम्पन विद्यमान हैं, तब विद्यन्ते, तावत् स कर्मपरमाणुभिः सम्बन्धं करोति, अतः तक उसका कर्म परमाणुओं के साथ सम्बन्ध होता रहता है, इसलिए कर्मवादः क्रियावादमुपजीवति । प्रस्तुतागमे क्रियावादस्य कर्मवाद क्रियावाद का उपजीवी है। प्रस्तुत आगम में क्रियावाद का विस्तृत विवरणं दृश्यते । लब्धजातिस्मृतिर्जीवः पूर्वजन्म- विस्तृत विवरण दृष्टिगोचर होता है। जाति-स्मृति ज्ञान से सम्पन्न घटनाक्रमेण स्पष्टमिदं व्यवस्यति-अस्ति आत्मा, अस्ति जीव पूर्वजन्म के घटनाक्रम से यह स्पष्ट जान लेता है-आत्मा है, १. आयारो, २११२५॥
६. वही, २।१९०। २. वही, २११५९ ।
७. अंगसुत्ताणि २, भगवई, श२५५ : अजीवेहि लोक्कइ ३. आयारो, 'लोगविजओ' बीअं अज्झयणं; तथा
पलोक्कइ, जो लोक्कइ से लोए ? आचारांग नियुक्ति, गाथा १७५ ।
८. आजारांग चूणि, पृष्ठ १४ ॥ ४. वही, ३।३।
९. आयारो, ५११०३। ५. वही, ३॥५॥
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