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अ० १. शस्त्रपरिज्ञा, उ०१. सूत्र ६-८
२७ प्रत्याख्यानपरिज्ञा च। अस्याः फलितं भवति-पूर्वं पहले कर्मसमारम्भों को जानना चाहिए फिर उनका प्रत्याख्यान कर्मसमारम्भा ज्ञेयास्ततश्च ते प्रत्याख्यातव्याः। करना चाहिए। ८. अपरिण्णाय-कम्मे खलु अयं पुरिसे, जो इमाओ दिसाओ वा अण दिसाओ वा अणसंचरइ, सव्वाओ दिसाओ
सव्वाओ अणुदिसाओ सहेति, अणेगरूवाओ जोणीओ संधेइ, विरूवरूवे फासे य पडिसंवेदेइ । सं०-अपरिजातकर्मा खलु अयं पुरुषः य इमा दिशा वा अनुदिशा वा अनुसंचरति सर्वा दिशाः सर्वा अनुदिशाः सहैति । अनेकरूपा योनी: संधते । विरूपरूपान् स्पर्शाश्च प्रतिसंवेदयति । यह पुरुष, जो क्रिया को नहीं जानता और नहीं त्यागता, वही इन दिशाओं या अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है, अपने कृत-कर्मों के साथ सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं में जाता है. अनेक प्रकार की योनियों का संधान करता है और नाना प्रकार के स्पर्शों (आघातों) का प्रतिसंवेदन करता है, अनुभव करता है।
भाष्यम् -लब्धजातिस्मरः पुरुषः पूर्ववतिजन्म- जातिस्मृति-सम्पन्न पुरुष पूर्ववर्ती जन्म की घटनाओं के आधार घटनाभिः इति निश्चयं गच्छति-दिशासु अनुदिशासू वा पर इस निश्चय पर पहुंच जाता है-दिशाओं या अनुदिशाओं में अनुसंचरणं, तासू कर्मणा सह अयनम्-अनुगमनम्, अनुसंचरण करना, उनमें कर्म के साथ अनुगमन करना, अनेक प्रकार अनेकरूपासु योनिषु जन्माऽनुसंधानं, नानाप्रकाराणां की योनियों में जन्म का अनुसंधान (पुनः पुनः ग्रहण) तथा विविध स्पर्शानामिति कष्टानां प्रतिसंवेदनञ्च कर्मणः अपरि- प्रकार के स्पर्शो (कष्टों) का प्रतिसंवेदन (अनुभव) कर्म का परिज्ञान न ज्ञानेनैव जायते । एतत्सर्वं ज्ञात्वा स परिज्ञातकर्मा भवितुं करने के कारण ही होता है। यह सब जानकर वह परिज्ञातकर्मा बनने प्रयतते।
के लिए प्रयत्नशील होता है। अत्रास्ति महान् प्रश्न:-कि कर्मणः परित्यागः कर्तुं इस संदर्भ में एक महत्त्वपूर्ण प्रश्न उपस्थित होता है क्या शक्यः ? शरीरधारणं जीवनयात्रानिर्वहणं च कर्मायत्त- कर्म (प्रवृत्ति) का परित्याग किया जा सकता है ? शरीर-धारण और मस्ति । अकर्मा कथं जीवितुमर्हति ? अत्र कर्मणः प्रत्या- जीवन-यात्रा का निर्वहन कर्म के अधीन है । कर्ममुक्त व्यक्ति जीवन कैसे ख्यानस्य तात्पर्यमस्ति-असंयममयस्य कर्मणः प्रत्याख्या- जी सकता है ? यहां कर्म के प्रत्याख्यान से तात्पर्य है—असंयममय कर्म नम । 'णो णिहेज्ज वीरिय" इति स्वयं भगवता महावीरेण (प्रवृत्ति) का प्रत्याख्यान । 'वीर्य (आत्मशक्ति) का गोपन मत करो'स्वानुभवपूर्वक प्रतिपादितमस्ति । अत्र वीर्यं कर्मणानु- यह स्वयं भगवान् महावीर ने अपने अनुभव के आधार पर प्रतिपादित बद्धमस्ति । 'संजमति णो पगम्भति'२--अस्मिन् सूत्रेऽपि किया है। यहां वीर्य कर्म से अनुबद्ध है। 'साधक इन्द्रियों का संयम संयममयस्य कर्मणो निर्देशोऽस्ति । 'वण्णाएसी णारभे कंचणं करता है, उनका उच्छृखल व्यवहार नहीं करता।' इस सूत्र में संयममय सब्बलोए -अत्रापि यशसः कृते कर्मसमारम्भस्य कर्म का निर्देश है । 'मुनि यश का इच्छुक होकर किसी भी क्षेत्र में निषेधोऽस्ति, न सर्वथा कर्मणो निषेधः । 'अकरणिज्जं कुछ भी न करे'। यहां भी यश के लिए कर्म-समारम्भ का निषेध है, पावकम्मं— इतिसूत्रे स्पष्ट निर्देशोऽस्ति-पापं कर्म सर्वथा कर्म का निषेध नहीं है । 'पाप कर्म (हिंसा का आचरण, विषय अकरणीयमस्ति, न तु सर्वथा कर्मणोऽकरणीयत्वं का सेवन) अकरणीय है'-इस सूत्र में स्पष्ट निर्देश है कि पाप कर्म निर्दिष्टम् ।
. अकरणीय है । कर्म सर्वथा अकरणीय है, ऐसा निर्देश नहीं है। कर्मसमारम्भपरिज्ञाया निर्देशाः कर्मणो विशुद्धः कर्म-समारम्भ की परिज्ञा के निर्देश कर्म की विशुद्धि के निर्देश निर्देशाः सन्ति । पश्यकोऽपि पदार्थानां परिभोगं करोति। हैं । तत्त्वदर्शी भी पदार्थों का परिभोग करता है। वह कर्म से परे नहीं स कर्मणो नास्ति व्यतिरिक्तः । अत एव निर्दिष्टमस्ति- होता। इसलिए निर्देश दिया गया है-'तत्त्वदर्शी पुरुष पदार्थ का 'अण्णहा णं पासए परिहरेज्जा"-'पश्यक: अन्यथा परि- परिभोग भिन्न प्रकार से करे'-जैसे साधारण मनुष्य असयत प्रवृत्ति से भजीत'-यथा साधारणो जनः असंयतेन कर्मणा पदार्थों का परिभोग करता है, संयमी व्यक्ति वैसे नहीं करता, किन्तु पदार्थान् परिभुङ्क्त तथा संयमी न परिभुङ्क्त, किन्तु वह संयत प्रवृत्ति से उनका परिभोग करता है । संयमपूर्वक किया जाने स संयतेन कर्मणा तान् परिभुङ्क्त । संयमपूर्वकं कृतं वाला कर्म अकर्म कहलाता है। उस दृष्टिकोण से ही कर्म-समारम्भ की कर्म अकर्म इत्युच्यते । तेन दृष्टिकोणेनैव कर्मसमारम्भस्य परिज्ञा का निर्देश किया गया है। इसका फलित यह है—मुनि को १. आयारो, ५४१॥
४. वही, ५५५। २. वही, ५१५१ ।
५. वही, २।११८। ३. वही, ॥५३
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