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आचारांगभाष्यम् सं०-यदिदं विरूपरूपः शस्त्रः पृथिवीकर्मसमारंभेण पृथिवीशस्त्रं समारभमाणः अन्यानप्यनेकरूपान् प्राणान् विहिंसति । वह नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वी सम्बन्धी क्रिया में व्याप्त होकर पृथ्वीकायिक जीवों की हिंसा करता है, वह केवल उन पृथ्वीकायिक जीवों की ही हिंसा नहीं करता, किन्तु नाना प्रकार के अन्य जीवों को भी हिंसा करता है।
भाष्यम् १९–स पृथिवीशस्त्रं समारभमाण अन्यानपि जो नाना प्रकार के शस्त्रों से पृथ्वीकायिक जीवों का समारम्भ यो नानाविधैः शस्त्रैः पृथ्वीकायिकजीवानां समारम्भं करता है वह पृथ्वी के जीवों की हिंसा करता हुआ पृथ्वी के आश्रित करोति, तदाश्रितान् जीवान् हिनस्ति । भणितञ्च- अन्य जीवों की भी हिंसा करता है । कहा हैपुढविकायं विहिसंतो, हिंसई उ तयस्सिए।
पृथ्वीकाय की हिंसा करता हुआ मनुष्य उसके आश्रित अनेक तसे य विविहे पाणे, चक्खुसे य अचक्खसे ।' प्रकार के चाक्षुष (दृश्य) तथा अचाक्षुष (अदृश्य) बस और स्थावर
प्राणियों की हिंसा करता है। शस्यते येन तत् शस्त्रम्। पृथ्वीसन्दर्भे हलकुद्दाल- जिससे हिंसा की जाती है वह शस्त्र है। पृथ्वी के सन्दर्भ में खनित्रादयः।
हल, कुदाली, फावड़ा आदि शस्त्र हैं । पृथ्वीकर्मसमारम्भ:-पृथिव्यां कर्म-खननं विलेखनं पृथ्वीकर्म अर्थात् पृथ्वी-विषयक क्रिया-खोदना अथवा वा, तस्य समारम्भः-व्यापारः प्रवृत्तिर्वा । कुरेदना । उसका समारम्भ अर्थात् खोदने का प्रयोग करना, प्रवृत्ति
करना। पृथ्वीकर्मसमारम्भ का संयुक्त अर्थ है -पृथ्वी को खोदने आदि
की प्रवृत्ति करना। पृथ्वीशस्त्रम्-पृथ्वी एव शस्त्रमिति पृथ्वीशस्त्रम्,
पृथ्वीशस्त्र---इस शब्द का विग्रह दो प्रकार से होता हैतत् समारभमाण:-हिंसन्निति । पृथिव्याः शस्त्रं पृथ्वी- कोप
हसान्नात । प्राथव्याः शस्त्र पृथ्वा- (१) पृथ्वी ही शस्त्र है वह पृथ्वीशस्त्र है। उसका समारम्भ अर्थात् शस्त्रम्, तत् समारभमाण:-प्रयुञ्जान इति ।
हिंसा । (२) पृथ्वी का शस्त्र पृथ्वीशस्त्र है। उसका समारम्भ अर्थात्
प्रयोग। अत्र शस्त्रपदं विमर्शमर्हति । शस्त्रं द्विविधं भवति- यहां 'शस्त्र' पद विमर्शनीय है । शस्त्र दो प्रकार का होता हैद्रव्यशस्त्र भावशस्त्रञ्च । मारकं वस्तु द्रव्यशस्त्रं, द्रव्य शस्त्र और भावशस्त्र । सभी मारक पदार्थ द्रव्यशस्त्र हैं और असंयमश्च भावशस्त्रम्। उक्तं च स्थानांगे
असंयम भावशस्त्र है । स्थानांग सूत्र में कहा हैसत्थमग्गो विसं लोणं, सिणेहो खारमंबिलं ।
अग्नि, विष, लवण, स्नेह, क्षार तथा अम्ल -ये द्रव्यशस्त्र हैं दुप्पउत्तो मणो वाया, काओ भावो य अविरती ॥ तथा दुष्प्रयुक्त मन, वचन और काया तथा अविरति-ये भावशस्त्र हैं। वक्ष्यमाणेषु द्रव्यशस्त्रेषु सर्वत्रापि भावशस्त्रमूहनी- आगे कहे जाने वाले द्रव्यशस्त्रों के साथ सर्वत्र भावशस्त्र की भी यम् । द्रव्यशस्त्रं त्रिधा विभक्तम्
तर्कणा कर लेनी चाहिए । द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैं :-- १. स्वकायशस्त्रम्-यथा कृष्णमृत्तिका पीतमृत्ति- १. स्वकायशस्त्र :-जैसे—काली मिट्टी पीली मिट्टी का शस्त्र कायाः।
होता है। २. परकायशस्त्रम्-यथा अग्निः ।
२. परकायशस्त्र : ---जैसे- अग्नि (मिट्टी का शस्त्र होता है)। ३. तदुभयशस्त्रम् –यथा मृत्तिकामिश्रितं जलम् । ३. तदुभय :-जैसे-मिट्टी मिश्रित जल (दूसरी मिट्टी का
शस्त्र होता है)। २०. तत्य खलु भगवया परिण्णा पवेइया।
सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता । इस विषय में भगवान महावीर ने परिज्ञा (विवेक) का निरूपण किया है। १. बसवेआलियं ६॥२७॥
किंची सकायसत्थं किंची परकाय तवुभयं किंचि । २. आचारांग चूणि, पृष्ठ २२ : पुढविसत्थंति पुढविमेव सत्थं
एवं तु दवसत्थं, भावे उ असंजमो सत्थं ॥ अप्पणो परेसि च, हलादीणि वा पुढविसत्थाणि ।
३. आचारांग नियुक्ति, गाथा ९६ । ४. ठाणं, १०९३।
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