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आचारांगभाष्यम् परिज्ञाया निर्देशः कृतोऽस्ति । अस्य फलितमिदं भवति- असंयममय कर्म (प्रवृत्ति) का परित्याग करना चाहिए। मुनिना असंयममयं कर्म परिहर्तव्यम् । ६. तत्थ खलु भगवया परिण्णा पवेइया। सं०-तत्र खलु भगवता परिज्ञा प्रवेदिता ।
इस विषय (कर्म-समारम्भ) में भगवान् ने परिज्ञा-विवेक का निरूपण किया है। १०. इमस्स चेव जीवियस्स, परिवंदण-माणण-पृयणाए, जाई-मरण-मोयणाए, दुक्खपडिघायहेउं ।
सं०-अस्मै चैव जीविताय, परिवंदन-मानन-पूजनाय, जाति-मरण-मोचनाय, दुःखप्रतिघातहेतुम् । वर्तमान जीवन के लिए, प्रशंसा, सम्मान और पूजा के लिए, जन्म, मरण और मोचन के लिए, दुःख-प्रतिकार के लिए, (मनुष्य कर्म-समारम्भ करता है)।
भाष्यम् ९-१०-लब्धजातिस्मरेण पुरुषेण स्वानुभूत- जातिस्मृति-सम्पन्न पुरुष अपनी अनुभूत घटनाओं के आधार घटनाभि: यज्ज्ञातं तस्य यथार्थतां समर्थयता भगवता पर जो जानता है, उसकी यथार्थता का समर्थन करते हुए भगवान् ने परिज्ञा प्रवेदिता। परिज्ञा-विवेकः । अपरिज्ञातकर्मा परिज्ञा का निरूपण किया है। परिज्ञा का अर्थ है--विवेक । अपरिज्ञातखलु पुरुषो दिशासु वा अनुदिशासु वा अनुसंचरणं कर्मा-कर्म-समारम्भ का ज्ञान और प्रत्याख्यान न करने वाला पुरुष करोति, एतद् वास्तविकम् । परन्तु कर्मसमारम्भस्य दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करता है, यह कथन वास्तविक अपरिज्ञा विद्यते, तस्य कारणानि अन्वेषणीयानि । तानि है। किन्तु कर्म-समारम्भ की जो अपरिज्ञा विद्यमान है, उसके हेतु च इमानि---
अन्वेषणीय हैं । वे ये हैं--- १. जिजीविषा-प्राणिषु अनेका एषणा विद्यन्ते । तासु १. जिजीविषा -प्राणियों में अनेक प्रकार की एषणाएं होती जीवनस्यैषणा प्रबलतमास्ति, अस्ति च प्रथमा। इदं हैं। उनमें जीने की इच्छा अत्यधिक प्रबल और प्रथम है। यह सत्य सत्यमनुभूतिभितेषु पदेषु प्रतिपादितमस्ति, यथा-'सव्वे अनुभूतिगभित पदों में प्रतिपादित किया गया है, जैसे-'सब प्राणियों पाणा पियाउआ......"पियजीविणो जीविउकामा ।' 'ससि को आयुष्य प्रिय है ......"उन्हें जीवन प्रिय है । वे जीवित रहना चाहते जीवियं पियं ।।२ जीवितुकामो मनुष्यः परिग्रहसञ्चयं हैं।' 'सबको जीवन प्रिय है।' जीने का इच्छुक मनुष्य परिग्रह का करोति. क्रराणि कर्माणि हिंसामपि च करोति । एवं संचय करता है, क्रूर कर्म और हिंसा भी करता है। इस प्रकार जिजीविषा कर्मणः स्रोतोभावमापद्यते। अयं भवति जिजीविषा कर्म का स्रोत है। यह दुःख का आवर्त है। दुःखावतः।
२. प्रशंसा–'परिवंदण' इतिपदस्य प्रशंसेति अर्थो २. प्रशंसा–वृत्तिकार ने 'परिवन्दण' पद का अर्थ 'प्रशंसा' विहितोऽस्ति वत्तिकृता । किन्तु वस्तुवृत्त्या पाठपरि- किया है । किन्तु वस्तुतः पाठ-परिवर्तन के कारण अर्थ का परिवर्तन वर्तनपूर्वकमर्थपरिवर्तनं जातमस्ति। अत्र 'जीवियस्स हुआ है। यहां 'जीवियस्स परिबहण' पाठ संगत है। चूर्णि में इस परिबहण' इतिपाठ उपयुक्तोऽस्ति । चूणौं अस्य पाठस्य पाठ का आधार भी उपलब्ध है। आयुर्वेद के ग्रन्थों में प्रतिपादित आधारभूमिरपि उपलब्धास्ति। आयुर्वेदोक्तबृंहणीया- 'बृहणीय आहार के साथ इसका संबंध है। इसका तात्पर्य है-जीवन १. आयारो, २०६३ ।
० इति से परस्स अट्ठाए कूराई कम्माई बाले पकुब्वमाणे २. वही, २०६४ ।
तेण दुक्खेण मूढे विप्परियासुवेइ । ३. वही, २०६५-६९ तं परिगिज्झ दुपयं चउप्पयं अभिमुंजियाणं ४. वही, २७४ : बाले पुण णिहे कामसमणुण्णे असमियदुक्खे संसिंचियाणं तिविहेणं जा वि से तत्थ मत्ता भवइ-अप्पा
दुक्खी दुक्खाणमेव आवटें अणुपरियट्टइ। वा बहुगा वा।
५. आचारांग वृत्ति, पत्र २४ : परिवंदनं संस्तवः प्रशंसा। • से तत्थ गढिए चिट्ठइ, भोयणाए।
६. आचारांग चूणि, पृष्ठ १६ : परिवंदणं नाम छत्ती अवि• तओ से एगया विपरीसिठं संभूयं महोवगरणं भवइ ।
लिओ होहामि, वण्णो वा मे भविस्सइ, तेण णेहमाईणि • तं पि से एगया दायाया विभयंति, अवत्तहारो वा से अवह
करोति, मल्लजुद्धे वा संगामे वा संसारादि बलकरं भोत्तूणं रति, रायाणो वा से विलुपंति, णस्सति वा से, विणस्सति
णित्थरिस्सामि तेण सत्ते हणति । वा से, अगारवाहेण वा से डाइ।
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