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आचारांगभाष्यम् सं०-एवमेकेषां यज्ज्ञातं भवति-अस्ति मे आत्मा औपपातिकः । यः अस्या दिशाया अनुदिशाया वा अनुसंचरति, सर्वस्या दिशायाः सर्वस्या अनुदिशाया यः आगतः अनुसंचरति सोऽहम् । इसी प्रकार कुछ मनुष्यों को यह ज्ञात होता है-मेरी आत्मा पुनर्जन्मधर्मा है । जो इन दिशाओं और अनुदिशाओं में अनुसंचरण करती है, जो सब दिशाओं और सब अनुदिशाओं से आकर अनुसंचरण करती है, वह मैं हूं।
भाष्यकर्तुः मंगलाचरणम्
भाष्यकर्ता का मंगलाचरण बिशुद्ध विशदात्मानं, परमात्मानमात्मना ।
मैं विशुद्ध और विशद आत्म-स्वरूप परमात्मा का अपने आत्मभाव सन्निधि सहजं नीत्वा, तनोम्याचारमद्भुतम् ॥ से सहज सान्निध्य प्राप्त कर विरल आचारांग के भाष्य की रचना
कर रहा हूं। भाष्यम् १-४-सुधर्मा गणधरः जम्बुस्वामिनं एवमाह- गणधर सुधर्मा ने जम्बूस्वामी से कहा-'आयुष्मन् ! मैंने आयष्मन ! मया साक्षाद् भगवतः सकाशात् श्रुतम्। भगवान् से साक्षात् सुना है। मैं जो कुछ कह रहा हूं, वह मेरी यद ब्रवीमि तन्न स्वमनीषिकाप्रकल्पितं किन्तु तत् तेन बुद्धि से प्रकल्पित नहीं है किन्तु भगवान् महावीर ने स्वयं ही भगवता महावीरेण स्वयमेवमाख्यातम्
उसका प्रतिपादन किया हैअस्ति जन्म । अस्ति मृत्युः । नात्र कस्यचित् कश्चित जन्म होता है और मृत्यु होती है। इसमें किसी को कोई संदेहः । प्रत्यक्षमिदं घटते सर्वेषाम् । यो जातः स पूर्वमपि ____ संदेह नहीं है । यह सबके सामने घटित होने वाली घटना है। जो मतोऽस्ति । यो मतः स मरणोत्तरं जन्म प्राप्स्यति । इदं । जन्मा है वह पहले मरा भी है। जो मरा है वह मरण के बाद नास्ति प्रत्यक्षम् । तेनात्र परोक्षे विषये सन्देहस्यावकाशः । जन्म लेगा, यह प्रत्यक्ष नहीं है। इसलिए इस परोक्ष विषय में अम संदेहं समाश्रित्य केचित् प्रत्यक्षवादिनः जन्म मृत्यु संदेह का अवकाश है। इस संदेह के आधार पर कुछ प्रत्यक्षवादी च अभूतपूर्वमेव मन्वते--नातः पूर्व जन्म जातम्, जन्मनः । जन्म और मृत्यु को अभूतपूर्व ही मानते हैं। वे कहते हैं-इस जन्म अभावे मृत्योरपि का कथा।
से पूर्व कोई जन्म नहीं हुआ और जन्म के अभाव में मृत्यु का
प्रश्न ही नहीं उठता। केचित तत्त्वदर्शिन: जन्म मृत्युञ्च साक्षात्कर्तुमभ्या- कुछ तत्त्वदर्शी पुरुषों ने जन्म और मृत्यु से साक्षात्कार करने समकृषत । सतताभ्यासेन ते साक्षात्कारभूमिकामारूढा का अभ्यास किया। निरन्तर अभ्यास से वे साक्षात्कार की भूमिका अभवन । तैलब्धमिदम-जन्मनो मृत्योश्च प्रवाहश्चिरन्त- तक पहुंचे। उन्होंने यह पाया कि जन्म और मृत्यु का प्रबाह नोऽस्ति। तस्यानभूत्यनन्तरं तेरुद्घोषणा कृता-अस्ति चिरन्तन है । उसकी अनुभूति के बाद उन्होंने यह उद्घोषणा की पूर्वजन्मनः पुनर्जन्मनश्च केषाञ्चित् संज्ञानम् । केषा- कि कुछ मनुष्यों को पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का संज्ञान होता है। ञ्चिदिदं संज्ञानं नास्ति।
कुछ को इनका संज्ञान नहीं होता। उक्तञ्च वृत्ती-तत्रासंज्ञिनां नैषोऽवबोधोऽस्ति । आचार्य शीलांक ने वृत्ति में कहा है-अमनस्क प्राणियों को संज्ञिनामपि केषाञ्चिद् भवति, केषाञ्चिन्नेति, यथा- यह अवबोध नहीं होता । समनस्क प्राणियों में भी सबको यह अवबोध अहममण्या दिशः समागतो इहेति ।' सूत्रकारः अस्माद् नहीं होता--कुछ को होता है, कुछ को नहीं होता कि मैं यहां अमुक बिन्दोरेव स्वप्रवचनं प्रारभते
दिशा से आया हूं। सूत्रकार इसी बिन्दु से अपना प्रवचन प्रारंभ
करते हैं'पौरस्त्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि,
'मैं पूर्व दिशा से आया हूं, दाक्षिणात्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि,
अथवा मैं दक्षिण दिशा से आया हूं, पाश्चात्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि,
अथवा मैं पश्चिम दिशा से आया हूं, औदीच्यायाः दिशः आगतोऽहमस्मि,
अथवा मैं उत्तर दिशा से आया हूं, ऊर्ध्वतो दिशः आगतोऽहमस्मि,
अथवा मैं ऊर्ध्व दिशा से आया हूं, अधो वा दिश: आगतोऽहमस्मि,
अथवा मैं अधो दिशा से आया हूं, अन्यतरस्याः दिशः आगतोऽहमस्मि,
अथवा मैं किसी अन्य दिशा से आया हूं, अनुदिशो वा आगतोऽहमस्मि ।'
अथवा मैं अनुदिशा (विदिशा) से आया हूं।' १. आचारांग वृत्ति, पत्र १४ ।
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