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अ०१. शस्त्रपरिज्ञा, उ०१. सूत्र १-४
१६ ___ एष पूर्वजन्म-पुनर्जन्म-प्रश्नः न केवलमात्मवादिनः पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का यह प्रश्न न केवल आत्मवादी के कृते किन्तु प्रत्येक मतिमतः कृते सर्वाधिको महत्त्व- लिए अपितु प्रत्येक बुद्धिवादी के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। पूर्णोऽस्ति । अस्योपेक्षां कृत्वा वयं जीवनमृत्युविषयकं इसकी उपेक्षा कर हम जीवन-मृत्यु सम्बन्धी सत्य से आंख सत्यमपलपामः । अम प्रश्न विना दर्शनस्य जन्मापि कूतो मूंद लेते हैं । इस प्रश्न के बिना दर्शन का जन्म भी कहां से हो? भवेत् ? किमात्मा शरीरात् पृथक्कर्तुं शक्यः ? यदि क्या आत्मा को शरीर से पृथक् किया जा सकता है ? यदि यह नास्ति शक्यः, तदा पूर्वजन्म-पुनर्जन्मकथा न वास्त- शक्य नहीं है तो पूर्वजन्म और पुनर्जन्म का कथन वास्तविक नहीं विकी। यदि स शरीरात् पृथक्कत शक्यस्तदानीमेव तस्य है। यदि उसको शरीर से पृथक् किया जा सकता है तभी उसका शरीरेण सह अभेदो नास्तीति प्रत्येतुं शक्यम्।
शरीर के साथ अभेद सम्बन्ध नहीं है, यह प्रतीति की जा सकती है। ___अस्ति मे आत्मा औपपातिकः ? नास्ति मे आत्मा मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने वाली है। मेरी आत्मा पुनर्जन्म लेने
औपपातिक: ?' पूर्वजन्मनि कोऽहमासम् ? इतश्च्युत्वा वाली नहीं है । मैं पूर्वजन्म में कौन था? यहां से च्युत होकर परलोक परलोके कोऽहं भविष्यामि ? इति संज्ञापि सर्वषां न हि में मैं क्या होऊंगा-यह संज्ञान भी सब मनुष्यों को नहीं होता। मैं भवति । 'कोऽहमासम्' इति पूर्वजन्मसंज्ञाया विचय- कौन था'-यह पूर्वजन्म के संज्ञान का विचयसूत्र है-चिन्तन, मनन सूत्रम् । 'परलोके कोऽहं भविष्यामि' इति भाविजन्म- और विश्लेषण करने वाला सूत्र है। 'परलोक में मैं क्या होऊंगा?' संज्ञाया विचयसूत्रम् ।
यह भावी-जन्म के संज्ञान का विचयसूत्र है। किमेषा संज्ञा शक्यास्ति ? इतिजिज्ञासायां भगवता क्या यह संज्ञान किया जा सकता है ? इस जिज्ञासा के उत्तर महावीरेण प्रतिपादितम्-पूर्वजन्मनः पुनर्जन्मनश्च में भगवान महावीर ने प्रतिपादन किया कि पूर्वजन्म और पुनर्जन्म संज्ञानं कर्तुं शक्यमस्ति । एतच्छक्यताप्रतिपादने त्रयो का संज्ञान किया जा सकता है। इस शक्यता के प्रतिपादन में तीन हेतवः सन्ति निर्दिष्टाः
हेतुओं का निर्देश किया गया है१. स्वस्मृतिः ।।
१. स्वस्मृति। २. परव्याकरणम् ।
२. परव्याकरण। ३. अन्येषामन्तिके श्रवणम् ।
३. दूसरों के पास सुनना।
स्वस्मृतिः
स्वस्मृति ___एष प्रथमो हेतुः । केचिच्छिशवः बाल्यावस्थायामेव स्वस्मृति यह प्रथम हेतु है। कुछ बच्चों को बाल्यावस्था में पर्वजन्मनः सहज स्मृति प्राप्ता भवन्ति । इदानीन्तनः ही पूर्वजन्म की सहज स्मृति प्राप्त होती है। आधनिक परामनोपरामनोवैज्ञानिकः पूर्वजन्मन: सहजस्मृतेरनेकासां वैज्ञानिकों ने पूर्वजन्म की सहज स्मृति से सम्बन्धित अनेक घटनाओं घटनानां संग्रहः कृतो लभ्यते। जैनसाहित्येऽपि का संग्रह किया है। जैन साहित्य में भी इससे सम्बन्धित अनेक एतत्सम्बन्धिनोऽनेके उल्लेखा उपलभ्यन्ते ।
उल्लेख मिलते हैं। सुश्रुतसंहितायां निर्दिष्टमस्ति-पूर्वजन्मनि शास्त्रा- सुश्रुत संहिता में यह निर्दिष्ट है कि पूर्वजन्म में जो व्यक्ति भ्यासेन भावितान्त:करणाः जनाः पूर्वजातिस्मरा शास्त्रों के अभ्यास से अपना अन्तःकरण भावित कर लेते हैं. उन्हें १. दिगम्बरसाहित्ये 'उपपाद' इति प्रयोगो दृश्यते। (जै.
चूणिकृता एतच्चतुविधमपि ज्ञानं आत्मप्रत्यक्षत्वेन सि. को. भाग १, पृष्ठ ४५५) जन्मप्रसंगे उपपावस्य अर्थ
निर्दिष्टम् -'एसा चउन्विहा वि सहसंमुइया आतपच्चक्खा प्रति सामीप्यमस्ति।
भवति ।' २. (क) सहसम्मुइयाए-अत्र 'सह' पदं स्ववाचकमस्ति,
अत्र प्रसंगं विचारयामस्तदा स्वस्मृतिरथवा जातिस्मृतिरेव यथा शक्रस्तुती 'सहसंबुद्धाणं' इति स्वसंबुद्धानाम् ।
अधिक उपयुक्तास्ति । चूणिकृतापि संज्ञाशब्देन आभिनि(ख) नियुक्तिकृता सहसन्मतिरिति पाठो व्याख्यातः । तस्या
बोधिकज्ञानं प्रतिपादितम्-सण्णागहण आभिनिबोहियअर्थोस्ति ज्ञानम् । तद् अवधिमनःपर्यवकेवलानि जाति
नाणं सूचितं भवति । (आचारांग चूणि, पृष्ठ १२) स्मरणञ्चेति चतुविधं निर्दिष्टं, यथा
अवधिज्ञानस्य प्रासङ्गिकता पुनरपि प्रतिष्ठिता भवेत्, इत्य य सह संमइअत्ति जं एअं तत्थ जाणणा होई ।
किन्तु मनःपर्यायकेवले तु नात्र प्रकृते भवतः । ओहीमणपज्जवनाणकेवले जाइसरणे य॥
(आचारांग नियुक्ति, गाथा ६५)
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