Book Title: Tirthankar Charitra
Author(s): Jayanandvijay
Publisher: Ramchandra Prakashan Samiti
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री कृष्णलाल वर्मा लिखीत MAN तीर्थकर व NING संपादन मुनि श्री जयानंदविजयजी Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। श्री शत्रुंजयाधिपति आदिनाथाय नमः।। || प्रभु श्रीमद्विजय राजेन्द्रसूरीश्वराय नमः || श्री कृष्णलाल वर्मा लिखीत श्री तीर्थकर चरित्र : आशीर्वाद : आचार्यदेव श्री विद्याचंद्र सूरीश्वरजी मुनिराज श्री रामचंद्रविजयजी : संपादन : मुनि श्री जयानंदविजयजी : संपादन : . श्री गुरुरामचंद्र प्रकाशन समिति भीनमाल मुख्य संरक्षक मुनि श्री जयानंद विजयजी आदि ठाणा का शत्रुंजय तीर्थे श्रीमती गेरोदेवी जेठमलजी बालगोता परिवार मेंगलवा द्वारा २०६५ में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस निमित्ते लेहर कुंदन गुप मुंबई, दिल्ली, चेन्नई, हरियाणा Page #3 --------------------------------------------------------------------------  Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ : प्रकाशक : श्री गुरु रामचंद्र प्रकाशन समिति, भीनमाल, राज : संचालक : १. सुमेरमल केवलजी नाहर, भीनमाल, राज. २. मीलियन ग्रुप, सूराणा, राज. मुंबई, दिल्ली, विजयवाडा ३. एम. आर. इम्पेक्स, १६ - ए हनुमान टेरेस, दूसरा माला, तारा टेम्पल लेन लेमीग्टन रोड, मुंबई-७. ४. श्री शांतिदेवी बाबुलालजी बाफना चेरीटेबल ट्रस्ट, मुंबई, महाविदेह भीनमालधाम, पालीताना, ३६४२७०. ५. संघवी जुगराज, कांतिलाल, महेन्द्र, सुरेन्द्र, दिलीप, धीरज, संदीप, राज, जैनम, अक्षत बेटा पोता कुंदनमलजी भुताजी श्री श्रीमाळ वर्धमान गौत्रीय आहोर (राज.) कल्पतरु ज्वेलर्स, ३०५ स्टेशन रोड, संघवी भवन, थाना, (५) ९ ६. दोशी अमृतलाल चीमनलाल पांचशो वोरा, थराद पालीताना में उपधान कराया उस निमित्ते । ७. शत्रुंजय तीर्थे नव्वाणुं यात्रा के आयोजन निमित्ते शा. जेठमल, लक्ष्मणराज, पृथ्वीराज, प्रेमचन्द, गौतमचंद, गणपतराज, ललीतकुमार, विक्रमकुमार, पुष्पक, विमल, प्रदीप, चिराग, नितेष बेटा-पोता कीनाजी संकलेचा परिवार मंगलवा, फर्म- अरिहन्त नोवेल्हटी, GF3 आरती शोपींग सेन्टर, कालुपुर टंकशाला रोड, अहमदाबाद. ८. थराद निवासी भणशाळी मधुबेन कांतिलाल अमुलख भाई परिवार ९. शा कांतिलाल केवलजी गांधी सियाना निवासी द्वारा २०६२ में पालीताना में उपधान करवाया उस निमित्ते । १०. लहेर कुंद ग्रुप, शा जेठमलजी कुंदनमलजी मेंगलवा (जालोर) ११. २०६३ में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस समय पद्मावती सुनाने के उपलक्ष में शा चंपालाल, जयंतिलाल, सुरेशकुमार, भरतकुमार प्रिन्केश, केनित, दर्शित, चुन्नीलालजी मकाजी कासम गौत्र त्वर परिवार गुड़ा बालोतान् 'जय चिंतामणी' १०-५४३ संतापेट नेल्लूर (आ.प्र.) A Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. पू. पिताश्री पूनमचंदजी मातुश्री भुरीबाई के स्मरणार्थे पुत्र पुखराज, पुत्रवधु लीलाबाई पौत्र फुटरमल, महेन्द्रकुमार, राजेन्द्रकुमार अशोक कुमार, मिथुन, संकेश, सोमील, बेटा पोता परपोता . शा पूनमचंदजी भीमाजी रामाणी गुडाबालोतान् नाकोडा गोल्ड, ७० कंसारा चाल, बीजा माले रुम नं. ६७, कालबादेवी मुंबई १३. शा सुमेरमल, मुकेशकुमार, नितीन, अमीत, मनीषा, खुशबु बेटा पोता पेराजमलजी प्रतापजी रतनपुरा बोहरा परिवार, मोदरा (राज.) . राजरतन गोल्ड प्रोड., के.वी.एस. कोम्पलेक्ष, ३/१ अरुंडलपेंट, गुन्टूर. १४. एक सद् गृहस्थ, धाणसा १५. गुलाबचंद राजकुमार छगनलालजी कोठारी अमेरीका, आहोर (राज.) १६. शांतिरुपचंद रवीन्द्रचंद्र, मुकेश, संजेश, ऋषभ, लक्षित, यश, ध्रुव, अक्षय ___ बेटा पोता मिलापचंदजी मेहता, जालोर-बेंगलोर. . १७. वि. सं. २०६३ में आहोर में उपधान तप आराधना करवायी एवं पद्मावती श्रवण के उपलक्ष में पिताश्री थानमलजी मातुश्री सुखीदेवी, भंवरलाल, घेवरचंद, शांतिलाल, प्रवीणकुमार, मनीष, निखिल, मित्तुल,आशीष, हर्ष, विनय, विवेक बेटा पोता कनाजी हकमाजीमुथा शा. शांतिलाल प्रवीणकुमार एण्ड को. राम गोपाल स्टीट,विजयवाडा १८. बाफना वाडी में जिन मन्दिर निर्माण के उपलक्ष में मातुश्री प्रकाशदेवी चंपालालजी की भावनानुसार पृथ्वीराज, जितेन्द्रकुमार, राजेशकुमार, रमेशकुमार, वंश, जैनम, राजवीर, बेटा-पोता चंपालालज सांवलचन्दजी बाफना, भीनमाल. नवकार टाइम, ५९,नाकोडा स्टेट न्यू बोहरा बिल्डींग, मुंबई - ३. १९. शा शांतिलाल, दीलीपकुमार, संजयकुमार, अमनकुमार, अखीलकुमार बेटा पोता मूलचंदजी उमाजी तलावत आहोर (राज.) राजेन्द्र मार्केटींग, पो.बो. नं. १०८, विजयवाडा. २०. श्रीमती सकुदेवी सांकलचंदजी नेथीजी हुकमाणी परिवार, पांथेडी, राज. राजेन्द्र ज्वेलर्स, ४ रहेमान भाई बि.एस.जी. मार्ग, ताडदेवं, मुंबई-३४. Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१. पुज्य पिताजी श्री सुमेरमलजी की स्मृति में मातुश्री जेठीबाई की प्रेरणा से जयन्तिलाल, महावीरचंद, दर्शनकुमार, बेटा-पोता सुमेरमल वरदीचंदजी वाणी गोता परिवार आहोर, चेन्नई. जे.जी. इम्पेक्स प्रा. लि.५५ नारायण मुदली स्ट्रीट चेन्नई -७९ | २२. स्व. हस्तीमलजी भलाजी नागोत्रा सोलंकी स्मृति में हस्ते परिवार बाकरा(राज.) . २३. मु.श्री जयानंद विजयजी आदि की निश्रा में चातुर्मास एवं उपधान शत्रुजय तीर्थे करवाया लहेर कुंदन ग्रुप श्रीमती गेरोदेवी जेठमलजी बालगोता परिवार मेंगलवा वासी ने उस समय आराधक एवं भक्त जनों की साधारण की राशी में से सवंत २०६५. २४. कुंदन ग्रुप - मेंगलवा, चेन्नई, दिल्ली, मुंबई. २५. शा. सुमेरमलजी नरसाजी - मेंगलवा, चेन्नई. २६. शा दूधमल, नरेन्द्रकुमार,रमेशकुमार बेटा बोता लालचंदजी मांडोत परिवार बाकरा (राज.)मंगल आर्ट, दोशी बिल्डींग ३-भोईवाडा,भूलेश्वर,मुंबई २ २७. कटारीया संघवी लालचंद, रमेशकुमार, गोतमचंद, दिनेशकुमार, ... महेन्द्रकुमार, रवीन्द्रकुमार बेटा पोता सोनाजी भेराजी धाणसा (राज.) ____ श्री सुपर स्पेअर्स, ११-३२-३ए पार्क रोड, विजयवाडा, सिकन्द्रबाद. २८. शा नरपतराज, ललीतकुमार महेन्द्र, शैलेष, निलेष, कल्पेश, राजेश, ... महीपाल, दिक्षीत, आशीष, केतन, अश्वीन, सीकेश, यश बेटा पोताखीमराजजी थानाजी कटारीया संघवी आहोर (राज.) कलांजली ज्वेलर्स, ४/२, ब्राडी पेठ, गुन्टूर-२. २९. शा लक्ष्मीचंद, शेषमल, राजकुमार, महावीरकुमार, प्रवीणकुमार, दीलीपकुमार, रमेशकुमार बेटा पोता प्रतापचंदजी कालुजी कांकरीया, मोदरा (राज.) गुन्टूर. |३०. एक सद्गृहस्थ (खाचरौद) Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१. श्रीमती सुआदेवी घेवरचंदजी के उपधान निमित्ते चंपालाल, दिनेशकुमार, धर्मेन्द्रकुमार, हितेशकुमार, दिलीप, रोशन, नीखील, हर्ष, जैनम, दिवेश बेटा पोता घेवरचंदजी सरेमलजी दुर्गाणी बाकरा . हितेन्द्र मार्केटींग, 11-X-1काशी, चेटी लेन, सत्तर शाला कोम्प्लेक्स, पहला माला, चेन्नई- ८९. ३२. मंजुलाबेन प्रवीणकुमार पटीयात के मासक्षमण एवं स्व. श्री मंवरलालजी की स्मृति में प्रवीणमुकार, जीतेशकुमार, चेतन, चिराग, कुणाल, बेटा पोता तिलोकचंदजी धर्माजी पटियात धाणसा - मुंबई पी.टी. जैन, रोयल सम्राट, ४०६ - सी वींग, गोरेगांव (वेस्ट) मुंबई-६२. ३३. गोल्ड मेडल इन्डस्ट्रीस प्रा. ली., रेवतडा, मुम्बई, विजयवाडा, दिल्ली ३४. राज राजेन्द्रा टेक्सटाईल्स एक्सपोर्टस लिमीटेड १०१, राजभवन, दौलतनगर, बोरीवली (ईस्ट), मुम्बई, मोधरा निवासी. ३५. प्र.शा.दी.सा.श्री मुक्ति श्रीजी की शिष्या वि. सा. श्री मुक्तिसर्शिता श्रीजी की प्रेरणा से स्व. पिताजी दानमलजी, मातुश्री तीजोदेवी की पुण्य स्मृति में चंपालाल, मोहनलाल, महेंन्द्रकुमार, मनोजकुमार, जितेन्द्रकुमार, विकासकुमार, रविकुमार, रिषभ, मिलन, हितिक, आहोर, कोठारी मार्केटींग १०/११, चितुरी कोम्प्लेक्ष, विजयवाडा - १. ३६. पिताजी श्री सोनराजजी, मातुश्री मदनबाई कटारिया संघवी परिवार आयोजित सम्मेत शिखर यात्रा प्रवास एवं जीवित महोत्सव निमित्ते दीपचंद, उत्तमचंद, अशोककुमार, प्रकाशकुमार, राजेशकुमार, संजयकुमार, विजयकुमार, बेटा - पोता सोनराजजी मेघाजी - धाणसा - पुना. अलका स्टील, ८५८, भवानी पेठ, पुना-५२ ३७. मु. श्री जयानंद विजयजी आदि ठाणा की निश्रा में २०६२ में पालीताणा में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस निमित्ते श्रीमती हजादेवी सुमेरमलजी नागोरी, शांतिलाल, बाबुलाल, मोहनलाल, अशोककुमार, विजयकुमार आहोर / बेंगलोर ३८. मु.श्री जयानंद विजयजी आदि ठाणा की निश्रा में २०६६ में तीर्थेन्द्र नगर बाकरारोड में चातुर्मास एवं उपधान करवाया उस निमीत्ते श्रीमती मेतीदेवी पेराजमलजी, रतनपुरा बोहरा परिवार मोधरा / गुंटूर. D Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९. संघवी मोहनलाल, कान्तीलाल, जयंतीलाल, राजकुमार, राहुलकुमार एवं समस्थ श्री श्री श्रीमाल गुडाल गोत्र फुआनी परिवार आलासण (राज) संघवी इलेक्ट्रीक कंपनी ८५, नारायण मुदाली स्ट्रीट, चेन्नई - ७९. ४०.श्री सोनमलजी के आत्मश्रेयार्थे, सन् १९९२ बस में यात्राप्रवास पालीताना, मोहनखेडा, १९९५ में जीवित महोत्सव निमीत्ते. संघवी भबुतमल, प्रकाशकुमार, प्रवीणकुमार, नवीन, राहुल, अंकुश, रितेष बेटा-पोता परपोता सोनमलजी नाणेशा सियाणा, जे.पी. इन्टरप्राइजस, प्रकाश नोवल्टी, न्यु प्रकाश नोवल्टी, सुंदर फर्नीचर, पुना (महा). ४१. संघवी भंवरलाल, मांगीलाल, महावीर, नीलेश, बन्टी बेटा- पोता हरकचंदजी श्री. श्रीमाल परिवार, आलासन राजेश इलेक्ट्रीकल्स, ४८ राजा बिल्डींग, तिरुनेलवेली -६२७००१. ४२. शा. कान्तीलालजी मंगलचन्दजी हरण, दाँसपा, मुम्बई. . : सह संरक्षक : . ४३.शा समरथमल, सुकराज, मोहनलाल महावीरकुमार, विकासकुमार, कमलेश, • अनिल,विमल, श्रीपाल, भरत फोला मुथा परिवार सायला (राज.) अरुण एन्टरप्राईजेस, ४ लेन, ब्राडी पेठ, गुन्टूर-२. ४४.शातीलोकचंद मयाचंद एन्ड कं. ११६, गुलालवाडी, मुंबई - ४. ४५.शा भंवरलाल, जयंतिलाल, सुरेशकुमार, प्रकाशकुमार, महावीरकुमार, श्रेणिककुमार, प्रितम, प्रतीक, साहिल, पक्षाल बेटा पोता - परपोता शा समरथमलजी सोगाजी दुरगाणी बाकरा (राज.) जैन स्टोर्स, स्टेशन रोड, अंकापाली - ५३१००१. ४६.शा.गजराज,बाबुलाल,मीठालाल,भरत,महेन्द्र,मुकेश,शैलेष,गौतम, नीखील, मनीष, हनी बेटा पोता, रतनचंदजी, नागोत्रा सोलंकी साँथू (राज) फूलचंद भंवरलाल, १०८ गोवींदप्पा नायक स्ट्रीट, चेन्नई-१. ४७. भंसाली भंवरलाल, अशोकुमार,कांतिलाल,गोतमचंद, राजेशकुमार, राहुल, आशीष, नमन, आकाश, योगेश, बेटा पोता लीलाजी कसनाजी मु. सरत. मंगल मोती सेन्डीकेट, १४/१५ एस. एस. जैन मार्केट, एम.पी. लेन चीकपेट क्रोस, बेंगलोर - ५३. Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८. स्व. मातृश्री मोहनदेवी पिताजी श्री गुमानमलजी की स्मृति में पुत्र कांतिलाल जयन्तिलाल, सुरेश, राजेश सोलंकी जालोर . प्रविण एण्ड कं. १५-८-११०/२, बेगम बाजार, हैदराबाद - १२... ४९. शा. ताराचन्दजी भोनाजी, आहोर, मेहता नरेन्द्रकुमार एन्ड को. . १पेहला भोईवाडा लेन, गुलालवाडी, मुम्बई - २ ५०. श्रीमती फेन्सी बेन - सुखराजजी चमनाजी कबदी धाणसा, गोल्डन ग्रूप, ३ - भोईवाडा,भूलेश्वर,मुंबई २ ५१.शा. भंवरलाल, सुरेशकुमार, शैलेषकुमार, राहुल बेटा - पोता. तेजराजजी संघवी कोमतावाला भीनमाल (राज). राजरतन इलेकट्रीकल्स, के.सी.आई.वायर्स प्रा.लि. . १६२, गोवीन्दाप्पा नायकन स्ट्रीट, चेन्नाई - ६०० ००१. .. ५२. बल्लु गगलदास वीरचंदभाई परिवार थराद / मुंबई. ५३. शाजेठमलजी सागरमलजी की स्मृति में मुलचंद, महावीर कुमार, . आयुषी, मेहुल, रियान्सु,डोली, प्रागाणी ग्रुप संखलेचा मेंगलवा... राजरतन एसेंबली वर्क्स १४३/११६९ मोतीलाल नगर नं. १, साई मंदिर के सामने, रोड नं. ३गोरेगांव वें. मुंबई - ४००१०४, संखलेचा मार्केटींग ११-१३-१६, समाचारवारी स्ट्रीट, विजयवाडा -१. श्री आदिनाथ राजेन्द्र जैन पेढी महाविदेह भीनमाल धाम साँथ - 343 026 तलेटी हस्तिगिरि, लिंक रोड, जिला : जालोर (राज.) पालीताणा-364270 फोन : 02973 - 254221 फोन : (02848) 243 018 शा. देवीचंद छगनलालजी सुमति दर्शन, नेहरू पार्क के सामने, माघ कोलोनी, भीनमल-343 029 (राज) फोन : (02969) 220 387 श्री विमलनाथ जैन पेढी श्री तीर्थेन्द्र सूरि स्मारक संघ ट्रस्ट बाकरा गाँव- 343 025 (राज.) तीथेन्द्र नगर, बाकरा रोड - 343 025 फोन : 02973-251 122 जिला-जालोर (राजस्थान) 19413465068 फोन : 02973251 144 Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • आर्थिक सहयोगी संघवी शा. घेवरचंद, छगनलाल, रतनचंद, रमेशकुमार, चंदनमल, अशोककुमार, जितेन्द्रकुमार, प्रदीपकुमार, मुकेशकुमार, प्रवीणकुमार, पंकजकुमार, अभीषेककुमार, व्योमकुमार एवम् समस्थ बालड दुर्गाणी परिवार (मोधरा). -: प्रतिष्ठान : रतन इंडसट्रीज ४१६, रजता महल काम्पलेक्स, नगरथपेट, बेंगलोर - ५६० ००२ - रमेश स्टील हाऊस ' २०४, कालामा मंदिर के सामने, नगरथपेट, बेंगलोर - ५६० ००२ राजेन्द्रा डीस्ट्रीबुटर्स ५, मकलाप्पा लेन, नगरथपेट क्रास, बेंगलोर - ५६० ००२ नोवल्टी स्टोर्स ३६, डी.वी.जी. रोड, बसवनगुडी, गाँधी बजार, बेंगलोर - ५६० ००४ - राजेन्द्रा मेटल इंडसट्रीज . २५, ३ क्रास, मागडी रोड, बेंगलोर - ५६० ०२३ संवत् २०६६ प्रत : ५०० Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कार्यक्रमों में नवकार मंत्र एवं स्तवनादि की दुर्दशा : भारतभर में जहां जहां जैन समुदायों के घर है, जैन मंदिर है, आराधना भवन है, वहां निश्चित रूप से धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन होता है। कार्यक्रमों के दौरान जिनशासन की प्रभावना के नाम पर विभिन्न रथ यात्राएँ निकाली जाती है। बैंडबाजों के साथ शोभायात्रा निकाली जाती है। बैन्डवालों द्वारा स्तवन भजन के साथ महामंत्र नवकार भी गाया जाता है। गाने वाले के मुंह में गुटका चलता रहता है, और जहां कहीं रूके वहां सिगरेट के कस भी। इस तरह से हमारा महामंत्र नवकार अपवित्र मुख अपवित्र स्थान एवं अपवित्र शरीर से सड़कों पर गाया जाता है। स्तवनादि एवं महामंत्र - नवकार, जो आत्मकल्याण के दिव्य, इहलोक, परलोक सर्वत्र सुखदायी महामंत्र, जो चौदह पूर्वो का सार, जिसके अड़सठ अक्षर अड़सठ तीर्थों की यात्रा के समान फल देने वाले कहे जाते हैं। नवकार मंत्र में आठ दिव्य सम्पदाएँ व नव निधियां निहित है जो भव-बंधन से मुक्त करने वाली है, ऐसे महामंगल महाश्रुत स्कंध को क्या सड़कों पर इस तरह गाना उचित है ? क्या कभी सनातन धर्म के गायत्री मंत्र को, गीता के पाठ को इस प्रकार बैन्डवालों से सुना ? क्या मुसलमानों ने कलाम-ऐ-पाक को इस तरह बैन्ड पर बजवाया ? फिर हमारे इस महिमामय नवकार मंत्र एवं स्तवनादि की ऐसी दुर्दशा क्यों ? Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • आर्थिक सहयोगी पिताश्री सुखराजजी भाई श्री डुंगरमलजी की स्मृति में एवं मातुश्री मेतीदेवी के उपधान ८१ आयंबिल आदि एवं अ.सौ. पुष्पादेवी प्रकाशचंदजी, भावनाकुमारी, सोनाकुमारी, मोनाकुमारी प्रकाशचंदजी के उपधान तप, हितेशकुमार प्रकाशचंदजी, त्रिशलादेवी हितेशकुमारजी, पूजाकुमारी प्रकाशचंदजी के नव्वाणुं यात्रा के उपलक्ष में हुक्मीचंद, लालचंद, प्रकाशचंद, राजेन्द्रकुमार, महेन्द्रकुमार, विक्रमकुमार, बंटीकुमार, हितेशकुमार, जशवंतकुमार, अंकुशकुमार, जिनेशकुमार, पवनकुमार, बेटा पोता परपोता सुखराजजी पुनमचंदजी सदाणी परिवार सरत अमरसर (राज). श्री नाकोडा इन्टरप्राइजेस ५१/८, वेस्ट एवनीमूला स्ट्रीट, शंकर काम्पलेक्ष, मदुराई - ६२५००१ संवत् २०६६ प्रत १००० Page #13 --------------------------------------------------------------------------  Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - १. श्री आदिनाथ् चरित्र आदिमं पृथिवीनाथ-मादिमं निष्परिग्रहम् । आदिमं तीर्थनाथं च ऋषभस्वामिनं स्तुमः ॥३॥ . (सकलार्हत् - स्तोत्र) भावार्थ - पृथ्वी के प्रथम स्वामी, प्रथम परिग्रह-त्यागी (साधु) और प्रथम तीर्थंकर श्री 'ऋषभ देव स्वामी की हम स्तुति करते हैं। विकास : जैनधर्म यह मानता है कि, जो जीव श्रेष्ठ कर्म करता है, वह धीरेधीरे उच्च स्थिति को प्राप्त करता हुआ अंत में आत्मस्वरूप का पूर्ण रूप से विकास कर जिन कर्मों के कारण वह दुःख उठाता है उन कर्मों का नाश कर, ईश्वरत्व प्राप्त कर, सिद्ध बन जाता है-मोक्ष में चला जाता है और संसार के जन्म, मरण, से छुटकारा पा जाता है। जैनधर्म के सिद्धांत, उसकी चर्या और उसके क्रियाकांड मनुष्य को इसी लक्ष्य की ओर ले जाते हैं और उसे श्रेष्ठ कर्म में लगाते हैं। जैनधर्म के आगमों में इन्हीं श्रेष्ठ कर्मों के शुभ फलों का और उन्हें छोड़ने वालों पर गिरनेवाले दुःखों का वर्णन किया गया है। - भगवान आदिनाथ के जीव की जब से मुख्यतया उत्क्रांति होनी प्रारंभ हुई तब से लेकर आदिनाथ तक की स्थिति का वर्णन संक्षेप में यहां दे देने से पाठकों को इस बात का ज्ञान होगा कि जीव कैसे उत्तम कर्मों और उत्तम भावनाओं से ऊँचा उठता जाता है; आत्माभिमुख होता जाता है। प्रथम भव : क्षितिप्रतिष्ठित नगर में 'धन' नामक एक साहूकार रहता था। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 1 : Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके पास अतुल संपत्ति थी। एक बार उसने अपने यहां से अनेक प्रकार के पदार्थ लेकर वसंतपुर नाम के नगर को व्यापार के लिए जाने का विचार किया। अपने साथ दूसरे व्यापारी तथा अन्य लोग भी आकर लाभ उठा सकें इस हेतु से उसने सारे नगर में ढिंढोरा पिटवा दिया। यह भी कहला दिया कि, साथ आनेवालों का खर्चा सेठ देगा। सैंकड़ों लोग साथ आने को तैयार हुए। श्री धर्मघोष नाम के आचार्य भगवंत भी अपने साधुमंडल सहित उसके साथ चले। कई दिन के बाद मार्ग में जाते हुए साहूकार का पड़ाव एक जंगल में पड़ा । वर्षाऋतु के कारण इतनी बारिश हुई कि वहां से चलना भारी हो गया। कई दिन तक पड़ाव वहीं रहा। जंगल में पड़े रहने के कारण लोगों के पास का खाना-पीना समाप्त हो गया। लोग बड़ा कष्ट भोगने लगे। सबसे ज्यादा दुःख साधुओं को था; क्योंकि निरंतर जल-वर्षा के कारण उन्हें दोदो, तीन-तीन दीन तक अन्न-जल नहीं मिलता था। एक दिन. साहूकार को खयाल आया कि, मैंने साधुओं को साथ लाकर उनकी खबर न ली। वह तत्काल ही उनके पास गया और उनके चरणों में गिरकर क्षमा मांगने लगा। उसका अंतः करण उस समय पश्चात्ताप के कारण जल रहा था। मुनि ने उसको सांत्वना देकर उठाया। इस समय बारिश बंद थी। 'धन' ने मुनि महाराज से गोचरी लेने के लिए अपने डेरे पर चलने की प्रार्थना की। साधु गोचरी के लिए निकले और फिरते हुए धनसेठ के डेरे पर भी पहुंचे। मगर वहां कोई चीज साधुओं के ग्रहण करने लायक न मिली। 'धन' बड़ा दुःखी हुआ 'और अपने भाग्य को कोसने लगा। मुनि वापिस चलने को तैयार हुए। इतने ही में उसको घी नजर आया। उसने घी ग्रहण करने की प्रार्थना की। शुद्ध समझकर मुनि महाराज ने 'पात्र' रख दिया। धन सेठ को घृत बहोराते समय इतनी प्रसन्नता हुई मानों उसको पड़ी निधि मिल गयी हो । हर्ष से उसका शरीर रोमांचित हो गया। नेत्रों से आनंदाश्रु बह चले। बहोराने के बाद . उसने साधुओं के चरणों में वंदना की। उसके नेत्रों से गिरता हुआ जल ऐसा मालूम होता था, मानो वह पुण्य बीज को सींच रहा हो । : श्री आदिनाथ चरित्र : 2 : Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-त्यागी, निष्परिग्रही साधुओं को इस प्रकार दान देने और उनकी तब तक सेवा न कर सका इसके लिए पश्चात्ताप करने से उसके अंतःकरण की शुद्धि हुई और उसे मोक्ष के कारण में अतीव दुर्लभ बोधीबीज (सम्यक्त्व) प्राप्त हुआ। रात्रि को वह फिर साधुओं के पास गया। धर्मघोष आचार्य ने उसे धर्म का उपदेश दिया। सुनकर उसे अपने कर्तव्य का मान हुआ। वर्षाऋतु बीतने और मार्गों के साफ हो जाने पर साहूकार वहां से रवाना हुआ और अपने नियंत स्थान पर पहुंचा। साधुओं ने भी अपने गंतव्य स्थान की ओर विहार किया। दूसरा भव : मुनियों को शुद्ध अंतःकरण से दान देने के प्रभाव से 'धन' सेठ का जीव, मरकर, उत्तर कुरुक्षेत्र में, सीता नदी के उत्तर तट की तरफ, जंबू वृक्ष के उत्तर भाग में, युगलिया रूप से उत्पन्न हुआ। उस क्षेत्र में हमेशा एकांत सुखमा आरा रहता है। वहां के युगलियों को चौथे दिन भोजन करने की इच्छा होती है। उनका शरीर. तीन कोस का होता है। उनकी पीठ में दो सौ छप्पन पसलियाँ होती हैं। उनकी आयु तीन पल्योपम की होती है। उन्हें कषाय बहुत थोड़ी होती है, ऐसे ही माया-ममता भी बहुत कम होती है। उनकी आयु के जब ४६ दिन रह जाते हैं तब स्त्री के गर्भ से एक संतान का जोड़ा उत्पन्न होता है। उस क्षेत्र की मिट्टी शर्करा के समान मीठी होती है। शरद ऋतु की चंद्रिका के समान जल निर्मल होता है। वहां दश प्रकार के कल्पवृक्ष इच्छित पदार्थ को देते हैं। इस प्रकार के स्थान में धन सेठ का जीव आनंद-भोग करने लगा। युगलिये अपनी आयु समाप्त होने तक (४६ दिन तक) अपनी संतान का पालन कर अंत में वे मरने पर स्वर्ग में जाते तीसरा भव :__ युगलिया का आयु पूर्ण कर धनसेठ का जीव पूर्व संचित पुण्य-बल के कारण सौधर्म देवलोक में देव हुआ। (युगलिये मरकर नियमा देव लोक : श्री तीर्थंकर चरित्र : 3 : Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही जाते है ।) चौथा भव : वहां से च्यवकर धनसेठ का जीव पश्चिम महाविदेह क्षेत्र के अंदर, गंधिलावती विजय प्रांत में, वैताढ्य पर्वत पर, गंधार के गंधस्मृद्धि नगर में, विद्याधरों के राजा शतबल की रानी चंद्रकांता की कूख से पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ। नाम 'महाबल' पड़ा। वयस्क (युवा) होने पर विनयवती नाम की योग्य कन्या के साथ उसका ब्याह हुआ। शतबल ने अपनी ढलती आयु देखकर दीक्षा ग्रहण की। महाबल राज्याधिकारी हुआ। महाबल विषय-भोग में लिप्त होकर काल बिताने लगा | खुशामदी और नीच प्रकृति के लोग उसको नाना भाँति के कौशलों से और भी ज्यादा विषयों के कीच में फँसाने लगे। एक बार उसके स्वयंबुद्ध मंत्री ने इस दुःखदायी विषयवासना से मुंह मोड़कर परमार्थ साधन का उपदेश दिया। विषयपोषक खुशामदियों ने स्वयंबुद्ध का विरोध कर इस आशय का उपदेश दिया कि जहां तक जिंदगी है वहां तक खाना पीना और चैन उड़ाना चाहिए। देह नाश होने पर कोई आता है न जाता है। स्वयंबुद्ध ने अनेक युक्तियों से परलोक और आत्मा के पुनर्जन्म को सिद्ध किया और कहा - शायद आपको याद होगा कि, आप और मैं एक बार नंदनवन में गये थे। वहां हमने एक देवता को देखा था। वे आपके पितामह थे। उन्होंने संसार छोड़कर तपश्चर्या करने से स्वर्ग की प्राप्ति होना बताया था और कहा था कि, आपको भी संसार के दुःखकारी विषय - सुखों में लिप्त न होना चाहिए । महाबल ने परलोक आदि स्वीकार कर इस युवावस्था में संसारत्याग के उपदेश का कारण पूछा। स्वयंबुद्ध ने कहा कि, मैंने एक ज्ञानी मुनि के द्वारा मालूम किया है कि, आपकी आयु केवल एक महीने की ही बाकी रह गयी है। इसलिए आपसे शीघ्र ही धर्म - कार्य में प्रवृत्त होने का अनुरोध करता हूं। यह सुनकर महाबल ने उसी समय, अपने पुत्र को बुलाकर राज्यासन पर बिठा दिया और अपने समस्त कुटुंब परिवार, स्वजन संबंधी, नौकर, रैयत, छोटे बड़े सबसे क्षमा मांगकर मोक्ष की कारण भूत दीक्षा ग्रहण की। फिर उसने चतुर्विध आहार का त्यागकर, शुद्ध आत्मचिंतन में - समाधि में : श्री आदिनाथ चरित्र : 4: — Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन बिताये और क्षुधा पिपासा आदि परिसह सह, दुर्द्धर तप कर, शरीर का त्याग किया। पांचवां भव : धनसेठ का जीव महाबल का शरीर छोड़कर श्रीप्रभनाम के देवलोक में ललितांग नामका देव हुआ। अनेक प्रकार के सुखोपभोगों में समय बिताया और आयु समाप्त होने पर देव-देह का त्याग किया। छट्ठा भव : - छट्ठा भव धनसेठ का जीव वहां से च्यवकर जंबूद्वीप के सागर समीपस्थ पूर्व विदेह में, सीता नामकी महानदी के उत्तर तट पर, पुष्कलावती नामक प्रदेश के लोहार्गल नगर के राजा सुवर्णजंघ की लक्ष्मी नामकी रानी की कूख से जन्मा। उसका नाम वज्रजंघ रक्खा गया। उसका ब्याह वज्रसेन राजा की गुणवती स्त्री की कूख से जन्मी हुई श्रीमती नाम की कन्या के साथ हुआ। वज्रजंघ जब युवा हुआ तब उसके पिता उसको राज्य-गद्दी सौंपकर साधु हो गये। वज्रजंघ न्यायपूर्वक शासन और राज्य-लक्ष्मी का उपभोग करने लगा। .. वज्रजंघ के श्वसुर वज्रसेन ने भी अपने पुत्र पुष्करपाल को राज्य देकर दीक्षा ले ली। कुछ काल के बाद सीमा के सामंत राजा लोग पुष्करपाल से युद्ध करने को खड़े हुए। वज्रजंघ अपने साले की मदद को गया। सामंतों को परास्तक जब वह वापिस लौटा तब मार्ग में उसे सागरसेन और मुनिसेन नामक दो मुनियों के दर्शन हुए। मुनियों की देशना सुनकर उसके हृदय में वैराग्य उत्पन्न हुआ। वह यह विचारता हुआ अपने नगर को चला कि, मैं जाते ही अपने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ग्रहण कर लूंगा। नगर में पहुंचा और वैराग्य की भावना भाता हुआ अपने शयनागार में सो गया। ___-उधर वज्रजंघ के पुत्र ने राज के लोभ से, धन का लालच देकर, मंत्रियों को फोड़ लिया और राजा को मारने का षडयंत्र रचा। आधी रात के समय राजकुमार ने वज्रजंघ के शयनागार में विषधूप किया। जहरीले तेज धूए ने राजा और रानी के नयनों में घुसकर उनका प्राण हर लिया। सातवाँ और आठवाँ भव : : श्री तीर्थंकर चरित्र : 5 : Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा और रानी त्याग की शुभ कामनाओं में मरकर उत्तर कुरुक्षेत्र में युगलिया पैदा हुए। वहां से आयु समाप्त कर दोनों सौधर्म देवलोक में अति स्नेह वाले देवता हुए। दीर्घकाल तक सुखोपभोगकर दोनों ने देवपर्याय का परित्याग किया। नौवाँ भव : वहां से च्यवकर धन सेठ का जीव जंबूद्वीप के विदेह-क्षेत्र में क्षितिप्रतिष्ठितनगर में सुविधि वैद्य के घर जीवानंद नामक पुत्र हुआ। उसी समय नगर में चार लड़के और भी उत्पन्न हुए। उनके नाम क्रमशः महीधर, सुबुद्धि, पूर्णभद्र और गुणाकर थे। श्रीमती का जीव भी देवलोक से च्यवकर उसी नगर में ईश्वरदत्त सेठ का केशव नामक पुत्र हुआ। ये छःहों अभिन्न हृदय मित्र थे। जीवानंद अपने पिता की भाँति ही बहुत अच्छा वैद्य हुआ। एक बार छःहों मित्र वैद्य जीवानंद के घर बैठे थे। अचानक ही एक मुनि महाराज वहां आ गये। तप से उनका शरीर सूख गया था। असमय और अपथ्य कर भोजन करने से उन्हें कृमिकृष्ट व्याधि हो गयी थीं। सारा शरीर कृमि-कृष्ट से व्याप्त हो गया था। तो भी उन महात्मा ने कभी किसी से औषध की याचना नहीं की थी। गोमूत्र के विधान से मुनि महाराज का वहां आगमन देखकर उन्होंने उन्हें नमस्कार किया। उनके चले जाने पर महीधर ने जीवानंद से कहा - तुम्हें चिकित्सा का अच्छा ज्ञान है तो भी तुम वेश्या की भांति पैसे के लोभी हो। मगर हर जगह पैसे ही का खयाल नहीं करना चाहिए। दया धर्म का भी विचार रखना चाहिए। मुनि महाराज के समान निष्परिग्रहियों की चिकित्सा धन प्राप्ति की आशा छोड़कर करनी चाहिए। अगर तुम ऐसे मुनियों की भी चिकित्सा निर्लोभ होकर नहीं करते हो तो तुम्हें और तुम्हारे ज्ञान को धिक्कार है। 1. साधु गोचरी जाते हैं तब उनके लिए जो विधियां है उन में एक विधि जमीन पर पड़े हुए गोमूत्र की भांति भिक्षार्थ जाने की भी है। उस विधि में साधुओं को सिलसिलेवार घरों में गोचरी न जाकर एक घर में जाकर फिर उसके सामनेवले घर में जाना चाहिए, क्रम भी छोड़ के जाना, इससे कोई साधुओं के लिए खास तरह से किसी प्रकार की तैयारी न कर सके। : श्री आदिनाथ चरित्र : 6 : Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवानंद ने कहा – 'मुझे खेद है कि, मुनि की चिकित्सा के लिए जो सामग्रियाँ चाहिए वे मेरे पास नहीं है। मेरे पास केवल लक्षपाक तैल है। गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल नहीं है। अगर तुम ला दो तो मैं मुनि का इलाज करूं।' . - पांचों मित्र दोनों चीजें ला देना स्वीकारकर वहां से रवाना हुए। फिरते-फिरते एक वृद्ध व्यापारी के पास पहुंचे। व्यापारी ने कहा – 'प्रत्येक का मूल्य एक-एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ है।' उन्होंने कहा – 'हम मूल्य देने को तैयार है।' व्यापारी ने कहा – 'ये तुम किसके लिए चाहते हो?' उन्होंने मुनि महाराज का हाल सुनाया। सुनकर व्यापारी ने सोचा, ये बालक होकर मुनि भगवंत की भक्ति कर रहे है और मैं इनसे मूल्य कैसे लूं? और उसने कहा- 'मैं इनका मूल्य नहीं लूंगा। तुम ले.जाओ और मुनि महाराज का इलाज करो।' वे दोनों चीजें लेकर रवाना हुए। मुनि महाराज की दशा का विचार करने से वृद्ध को वैराग्य हो गया। उसने घर-बार त्याग कर दीक्षा ले ली। . . . - जीवानंद को जब गोशीर्षचंदन और रत्नकंबल मिले तब वह बहुत प्रसन्न हुआ। छःहों मित्र मिलकर मुनि महाराज के पास गये। मुनि महाराज नगर से दूर एक वटवृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान में निमग्न थे। तीनों बैठ गये। मुनि महाराज ने जब ध्यान छोड़ा तब उन्होंने सविधि वंदना करके महाराज से इलाज कराने की प्रार्थना की। यह भी निवेदन किया कि चिकित्सा में किसी जीव की हिंसा नहीं होगी। महाराज ने इलाज करने की संमति दे दी। वे तत्काल ही एक गाय का मुर्दा उठा लाये। फिर उन्होंने मुनि महाराज के शरीर में लक्षपाक तैल की मालिश की। तैल सारे शरीर में प्रविष्ट हो गया। तैल की अत्यधिक उष्णता के कारण मुनि महाराज मूर्छित हो गये। शरीर के अंदर के कीड़े व्याकुल होकर शरीर से बाहर निकल आये। जीवानंद ने रत्नकंबल मुनि महाराज के शरीर पर ओढ़ा दिया। कंबल शीतल था इसलिए सारे कीड़े उसमें आ गये। जीवानंद ने धीरे से कंबल को उठाकर गाय के मुर्दै पर डाल दिया। 'सत्पुरुष छोटे से छोटे अपकारी कीड़े जैसे प्राणों की भी रक्षा करते हैं।' कीड़े गाय के शरीर में चले गये। जीवानंद ने मुनि महाराज के शरीर पर अमृतरस के समान प्राणदाता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 7 : Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोशीर्ष चंदन का लेप किया। उससे मुनि महाराज की मूर्छा भंग हुई। थोड़ी देर के बाद और लक्षपाक तैल की मालिश की। पहिली बार चर्मगत कीड़े निकाले थे; अबकी बार मांसगत कीड़े निकल गये। उनको भी पूर्ववत् गाय के शब में छोड़कर तीसरी बार भी इस प्रकार मालिश करने से हड्डियों में से कीड़ेनिकल आये । इसके बाद पुनः बड़े भक्ति भाव से जीवानंद ने मुनिमहाराज के शरीर में गोशीर्ष-चंदन का विलेपन किया। उससे उनका शरीर स्वस्थ होकर कुंदन की मांति चमकने लगा। जीवानंद ने और उसके पांचों साथियों ने भक्ति-पुरस्सर वंदना कर कहा – 'महाराज! हमने इतनी देर तक आप के धर्म-ध्यान में बाधा डाली इसके लिए हमें क्षमा कीजिए।' फिर रत्नकंबल और शेष गोशीर्ष चंदन बेचकर उस राशी को धर्म कार्य में खर्च कर दी। कुछ काल के बाद उन्हें वैराग्य उत्पन्न हुआ। जीवानंद ने अपने पांचों मित्रों सहित दीक्षा ले ली। अनेक प्रकार से जीवों की रक्षा करते और संयम पालते हुए वे तपश्चरण करने लगे। अंत समय में उन्होंने संलेखना करके अनशनव्रत ग्रहण किया और आयु समाप्त होने पर उस देह का परित्याग किया। दसवां भव : धन का जीव मुनि जीवानंद नाम से ख्यात शरीर को छोड़कर अपने पांचों मित्रों सहित, बारहवें देवलोक में इंद्र को सामानिक देव हुआ। यहां बाईस सागरोपम का आयु पूर्ण किया। ग्यारहवां भव : वहां से च्यव कर धनसेठ का (जीवानंद का) जीव जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में, पुष्कलावती विजय में, लवण समुद्र के पास, पुंडरीकिणि नामक नगर के राजा वज्रसेन की धारिणी रानी की कूख से जन्मा। नाम वज्रनाभ रखा गया। जब ये गर्भ में आये थे तब इनकी माता को चौदह महा स्वप्न आये थे। जीवानंद के भव में इनके जो मित्र थे उनमें से चार तो इनके सहोदर भाई हुए और केशव का जीव दूसरे राजा के यहां जन्मा। जब ये वयस्क हुए तब इनके पिता 'वज्रसेन राजा ने दीक्षा ग्रहण : श्री आदिनाथ चरित्र : 8 : Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर ली। ये स्वयं बुद्ध तीर्थंकर भगवान थे। __ वज्रनाभ चक्रवर्ती थे। जब इनके पिता को केवल ज्ञान हुआ तभी इनकी आयुधशाला में भी चक्ररत्न ने प्रवेश किया। अन्यान्य तेरह रत्न भी उनको उसी समय प्राप्त हुए। जब उन्होंने पुष्कलावती विजय के छ खंडों को अपने अधिकार में कर लिया तब समस्त राजाओं ने मिलकर उन पर चक्रवर्तित्व का अभिषेक किया। ये चक्रवर्ती की सारी संपदाओं का भोग करते थे तो भी इनकी बुद्धि हर समय धर्मसाधन की ओर ही रहती थी। एक बार वज्रसेन भगवान विहार करते हुए पुंडरीकिणी नगरी के निकट समोसरे। वज्रनाभ भी धर्मदेशना सुनने के लिए गये। देशना सुनकर उनकी वैराग्य-भावना बहुत ही प्रबल हो गयी। उन्होंने अपने पुत्र को राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली। घोर तपस्या करने लगे। तपश्चरण के प्रभाव से उनको खेलादि लब्धियाँ प्राप्त हुई; परंतु उन्होंने लब्धियों का कभी उपयेग नहीं किया। कारण मुमुक्षु पुरुष प्राप्त वस्तु में भी आकांक्षा रहित होते हैं। 1. १. खेलौषधि लब्धि-इस लब्धिवाले का थूक लगाने से कोढ़ियों के कोढ मिट जाते है। २. जलौषधि लब्धि - इस लब्धिवाले के कान, नाक और शरीर का मैल सारे रोगों को मिटाता है और कस्तूरी के समान सुगंधवाला होता है। ३. आमौषधि लब्धि- इस लब्धिवाले के स्पर्श से सारे रोग मिट जाते हैं। ४. सर्वौषधि लंब्धि- इस लब्धिवाले के शरीर से छूआ हुआ बारिश का जल और नदी का जल सारे रोग मिटाता है। इसके शरीर से स्पर्श करके आया हुआ वायु जहर के असर को दूर करता है। उसके वचन का स्मरण महाविष की पीड़ा को मिटाता है और उसके नख, केश, दांत और शरीर का स्पर्श भी दवा बन जाता है। ५. वैक्रिय लब्धि-इससे नीचे लिखी शक्तियाँ प्राप्त होती हैं - १. अणुत्व शक्ति - छोटी से छोटी वस्तु में भी प्रवेश करने की शक्ति। सूई - के नाके में से इस शक्तिवाला निकल सकता है। २. महत्व शक्ति - इस शक्ति से शरीर इतना बड़ा किया जा सकता है कि मेरु पर्वत के शिखर भूमि पर रहकर स्पर्श कर सके। ३. लघुत्व शक्ति - इस शक्ति से शरीर पवन से भी हलका बनाया जा सकता है। ४. गुरुत्व शक्ति - इससे शरीर इतना भारी बनाया जा सकता है कि इंद्रादि देव भी उसके भार को सहन नहीं कर सकते। ५. प्राप्ति शक्ति - इससे पृथ्वी पर बैठे हुए आकाशस्थ तारों को भी छू सकता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 9 : Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. प्रकाम्य शक्ति - इससे जमीन की तरह पानी पर चल सकता है और जल की तरह जमीन में स्नानादि कर सकता है। ७. ईशत्व शक्ति - इससे चक्रवर्ती और इंद्र के जैसा वैभव किया जा सकता . ८. वशित्व शक्ति - इससे क्रूर प्राणी भी वश में आ जाते हैं। ९. अप्रतिघाती शक्ति - इससे एक द्वार की तरह पर्वतों और चट्टानों में से मनुष्य निकल सकता है। १०. अप्रतिहत अंतर्ध्यान शक्ति - इससे मनुष्य पवन की तरह अदृश्य हो सकता है। ११. कामरूपत्व शक्ति - इससे एक ही समय में अनेक तरह के रूप धारण कर सारा लोक पूर्ण किया जा सकता है। ६. बीज बुद्धि लब्धि - इससे एक अर्थ से अनेक अर्थ जाने. जा सकते हैं। जैसे-एक बीज बोने से अनेक बीज प्राप्त होते हैं। ७. कोष्ट बुद्धि लब्धि - जैसे कोठे में अनाज रहता है वैसे ही इससे पहले सुनी हुई बात पुनरावर्तन न करने पर भी हमेशा याद रहती है। ८. पदानुसारिणी लब्धि - इससे आरंभ का बीच का या अंत का, चाहे किसी स्थल का एक पद सुनने से सारा ग्रंथ याद आ जाता है। ९. मनोबली लब्धि - इससे मनुष्य एक वस्तु को जानकर सारे श्रुतशास्त्रों को जान सकता है। १०. वचनबली लब्धि - इससे मूलाक्षर याद करने से सारे शास्त्र अंतर्मुहर्त में याद कर सकता है। ११. कायबली लब्धि - इससे मनुष्य बहुत कालतक मूर्ति की तरह कार्योत्सर्ग करने पर भी थकता नहीं है। १२. अमृतक्षीर-मध्वाज्याश्रवि लब्धि - इस लब्धिवाले के पात्र में अगर खराब चीज होती है तो भी वह अमृतं, क्षीर (दूध) मधु (शहीद) और घी के समान स्वाद देनेवाली हो जाती है और उसका वचन अमृत, क्षीर, मधु और घी के समान तृप्ति देनेवाला होता है। १३. अक्षीण महानसी लब्धि - इससे पात्र में पड़ा हुआ पदार्थ अक्षय (कभी समाप्त नहीं होनेवाला) हो जाता है। इसी लब्धि के कारण एक बार गौतम स्वामी एक पात्र में क्षीर लाये थे और उससे पंद्रह सौ तपस्वियों को मारणा करवाया था । १४ अक्षीणमहालयलब्धि- इस लब्धि से तीर्थंकरों की पर्षदा की तरह थोडी जगह में अनेक प्राणियों के रहने की व्यवस्था की जा सकती है। १५. संभिन्न श्रोत लब्धि - इसके कारण एक इंद्री से सभी इंद्रियों के विषय का ज्ञान हो जाता है। १६-१७. जंघाचारण और विद्याचारण लब्धियाँ - इन दोनों लब्धियों से जहां .. . : श्री आदिनाथ चरित्र : 10 : Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने वीश स्थानक का1 आराधन कर तीर्थंकर नाम कर्म - बाँधा । वीस स्थानकों में से केवल एक स्थानक का पूर्ण रूप से आराधन भी तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण होता है। परंतु वज्रनाभ ने तो बीसों स्थानकों की आराधना की थी। खड्ग की धारा के समान प्रव्रज्या का चारित्र का - -चौदह लाख पूर्व तक अतिचार रहित उन्होंने पालन किया और अंत में दोनों प्रकार की संलेखना पूर्वक पादपोगमन अनशन - व्रत स्वीकारकर देह त्यागा। उनके पूर्वभव के पांचों मित्रों ने भी चारित्र लिया और निरतिचार चारित्र पालन कर देव हुए। इच्छा हो वहां जा सकते हैं। इनके अलावा और भी अनेक लब्धियाँ हैं कि जिनसे किसी की भलाई या बुराई की जा सकती है। 1. इन्हें बीस पद भी कहते हैं। वे ये हैं १. अरिहंतपद - अर्हत और अर्हंतों : की प्रतिमा की पूजा करना उन पर लगाये हुए अवर्णवाद का निषेध करना और अद्भुत अर्थवाली उनकी स्तुति करना, २ . सिद्धपद-सिद्ध स्थान में रहे हुए सिद्धों की भक्ति के लिए जागरण तथा उत्सव करना और उनका यथार्थ कीर्तन करना, ३. प्रवचनपद - बाल, ग्लान और नव दीक्षित शिष्यादि यतियों पर अनुग्रह करना और प्रवचन यानी चतुर्विध जैनसंघ का वात्सल्य करना; ४. आचार्य पद अत्यंत सत्कार आहार, औषध और वस्त्रादि के दान द्वारा गुरुभक्ति करना, ५ . स्थविरपद - पर्यायस्थविर ( बीस वर्ष की दीक्षापर्यायवाला), वयस्थविर (साठ वर्ष की वयवाला ) और श्रुतस्थविर (समवायांगधारी) की भक्ति करना, ६. उपाध्यायपद - अपनी अपेक्षा बहुश्रुतधारी की अन्न-वस्त्रादि से भक्ति करना, ७. साधुपद - उत्कृष्ट तप करने वाले मुनियों की भक्ति करना, ८. प्रश्न, वाचन, मनन आदि द्वारा निरंतर द्वादशांगी रूप श्रुत का सूत्र अर्थ और उन दोनों से ज्ञानोपयोग करना, ९ दर्शन पद शंकादि दोषरहित स्थैर्य आदि गुणों से भूषित और शमादि लक्षणवाला दर्शन - सम्यक्त्व पालना, १०. विनयपद - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार इन चारों का विनय करना, ११. चारित्रपद - मिथ्या-करणादिक दशविध समाचारी के योग में और आवश्यक में अतिचार रहित यत्न करना, १२. ब्रह्मचर्यपद - अहिंसादि मूल गुणों में और समिति आदि उत्तर गुणों में अतिचार - रहित प्रवृत्ति करना, १३. समाधिपद क्षण में प्रमाद का परिहार कर ध्यान में लीन होना; १४. तपपद ज्ञानपद क्षण मन और - पीड़ा न हो इस तरह तपस्या करना; १५. दानपद - मन, वचन : श्री तीर्थंकर चरित्र : 11 : — शरीर को बाधा - - - Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवा भव : मरकर अनुत्तर विमान में तेतीस सागरोपम की आयुवाले देवता हुए। तेरहवाँ भव : आदिनाथ नामरूप। पूर्वज : जब मनुष्य का अधःपात होने लगता है तब वह परमुखापेक्षी हो • जाता है। तीसरे आरे के अंत में कल्पवृक्षों का दान कम हो जाता है। युगलियों में भी कषायों का थोड़ा उदय हो जाता है। उनके कारण वे कुछ अयोग्य कार्य भी करने लग जाते हैं। उन अयोग्य कार्यों को रोकने के लिए किसी सशक्त मनुष्य की आवश्यकता होती है। युगलिये अपने में से किसी एक मनुष्य को चुन लेते हैं। वह पुरुष कुलकर कहलाता है। वही युगलियों को बुरे कामों से रोकने के लिए दंड भी नियत करता है। तीसरे आरे के अंत में एक युगलियों का जोड़ा उत्पन्न हुआ। पुरुष का नाम सागरचंद्र था और स्त्री का प्रियदर्शना। उनका शरीर नौ सौ धनुष का था। उनकी आयु १/१० पल्योपम की थी। उनका संहनन 'वज्र ऋषभनाराच और संस्थान 'समचतुरस्त्र' था। इनके पूर्व भव में एक मित्र था। वह कपट करने से मरकर उसी स्थान पर चार दांतवाला हाथी हुआ। एक दिन उसने फिरते हुए सागरचंद्र और प्रियदर्शना को देखा। उसके हृदय में पूर्व स्नेह के और कायशुद्धि के साथ तपस्वियों को दान देना, १६. वैयावच्चपद आचार्यादि दस (१ जिनेश्वर २ सूरि ३ वाचक ४ मुनि ५ बालमुनि ६. स्थवरमुनि ७ ग्लानमुनि ८ तपस्वीमुनि ९ चैत्य १० श्रमणसंघ) की अन्न, जल और आसन से सेवा करना, १७. संयमपद - चतुर्विध संघ के सारे विघ्न मिटाकर मन में समाधि उत्पन्न करना, १८. अभिनवज्ञानपद - अपूर्व ऐसे सूत्र, अर्थ तथा दोनों का यत्न पूर्वक ग्रहण करना, १९. श्रुतपद - श्रद्धा से उद्भासन (बहुमान पूर्वक वृद्धि-प्रकाशन) करके तथा अवर्णवाद का नाश करके श्रुतज्ञान. की भक्ति करना। २०. तीर्थपद - विद्या, निमित्त, कविता, वाद और धर्म-कथा आदि से शासन की प्रभावना करना। : श्री आदिनाथ चरित्र : 12 : Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कारण प्रेम का संचार हुआ। उसने दोनों को धीरे से शंड से उठाकर अपनी पीठ पर बिठा लिया। अन्यान्य युगलियों ने, सागरचंद्र को इस हालत में देखकर आश्चर्य किया। उसको विशेष शक्तिसंपन्न समझा और अपना न्यायकर्ता बना लिया। वह विमल-श्वेत, वाहन-सवारी पर बैठा हुआ था, इसलिए लोगों ने उसका नाम 'विमलवाहन' रखा। क्योंकि कल्पवृक्ष उस समय बहुत ही थोड़ा देने लगे थे, इसलिए युगलियों के आपस में झगड़े होने लग गये थे। इन झगड़ों को मिटाना ही विमलवाहन का सबसे प्रथम काम था। उसने सोचा-विचारकर सबको आपस में कल्पवृक्ष बांट दिये। और 'हाकार' का दंड विधान किया। जो कोई दूसरे के कल्पवृक्ष पर हाथ डालता था, वह विमलवाहन के सामने लाया जाता था। विमलवाहन उसे कहता - हा! तूं ने यह क्या किया? इस कथन को वह मौत से भी ज्यादा दंड समझता था और फिर कभी अपराध नहीं करता था। प्रथम कुलकर विमलवाहन के युगल संतान उत्पन्न हुई। पुरुष का नाम चक्षुष्मान था और स्त्री का चंद्रकांता। विमलवाहन के बाद चक्षुष्मान कुलकर हुआ। वह भी अपने पिता ही की मांति 'हाकार' दंड विधान से काम लेता था। यह दूसरा कुलकर था। जोड़े का शरीर आठ सौ धनुष का और आयु असंख्य पूर्व की थी। इनके जो जोड़ा उत्पन्न हुआ उसका नाम यशस्वी और सुरूपा थे। आयु दूसरे कुलकर के जोड़े से कुछ कम और शरीर साढ़े सात सौ धनुष का था। पिता की मृत्यु के बाद यशस्वी तीसरा कुलकर नियत हुआ। उसके समय में 'हाकार' दंडविधान से कार्य न चला। तब उसने 'माकार' का दंडविधान और किया। अल्प अपराधवाले को 'हाकार' का, विशेष अपराधवाले को 'माकार' का और गुरुतर अपराध वाले को दोनों का दंड देने लगा। सुरूपा की कूख से अभिचंद्र और प्रतिरूपा का जोड़ा उत्पन्न हुआ। वह अपने मातापिता से कुछ अल्प आयुवाला और साढ़े छ: सौ धनुष शरीरवाला था। यशस्वी के बाद अमिचंद्र चौथा कुलकर नियत हुआ। वह अपने पिता की 'हाकार' और 'माकार' दोनों नीतियों से काम लेता रहा। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 13 : Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिरूपा से एक जोड़ा उत्पन्न हुआ। उसका नाम प्रसेनजित और चक्षुकांता दिया। उनके मातापिता से उनकी आयु कुछ कम थी। शरीर छ: सौ धनुष प्रमाण था। प्रसेनजित अपने पिता के बाद पांचवां कुलकर नियत हुआ। इसके समय में 'हाकार' और 'माकार' नीति से काम नहीं चला तब उसने 'धिक्कार' का तीसरा दंडविधान और बढ़ाया। . चक्षुकांता के गर्भ से मरुदेव और श्रीकांता का जन्म हुआ। वे अपने मातापिता से आयु में कुछ कम और शरीर प्रमाण में साढ़े पांच सौ धनुष थे। प्रसेनजित के बाद मरुदेव छठा कुलकर नियत हुआ। वह तीनों प्रकार के दंडविधान से काम लेता रहा। श्रीकांता ने नाभि और मरुदेवा नामका एक जोड़ा प्रसवा। उसकी आयु अपने मातापिता से कुछ कम और शरीर सवा पांच सौ धनुष था। मरुदेव के बाद नाभि सातवें कुलकर नियत हुए। वे भी अपने पिता की मांति तीनों-'हाकार' 'माकार' और 'धिक्कार' दंडविधान से काम लेते रहे। जन्म और बचपन :- . . . तीसरे आरे के जब चौरासी लाख पूर्व और नवासी पक्ष (तीन बरस साढ़े आठ महीने) बाकी रहे तब आषाढ़ कृष्णा चतुर्दशी के दिन उत्तराषाढ़ा नक्षत्र और चंद्रयोग में धनसेठ' (वज्रनाभ) का जीव तेतीस सागर का आयु पूर्ण कर सर्वार्थसिद्ध विमान से च्यव कर जैसे मान सरोवर के गंगा के तटपर हंस आता है उसी भांति मरुदेवा के गर्भ में आया। उस समय चारों गति के जीवों को अंतर्मुहूर्त तक शाता का अनुभव हुआ। माता मरुदेवा को चौदह महा स्वप्न आये। इंद्र का आसन कंपा। शक्रेन्द्र ने अवधिज्ञान से प्रथम तीर्थंकर का गर्भ में आना देखा। शक्रस्तव से स्तवना कर माता मरुदेवा के पास आया। और स्वप्नों का' फल सुनाया। फिर मरुदेवा को प्रणाम कर अपने स्थान पर चला गया। जब गर्भ को नौ महीने और साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए, सारे ग्रह उच्च स्थान में आये, चंद्रयोग उत्तराषाढा नक्षत्र में स्थित हुआ तब चैत 1. देखो, तीर्थंकर चरित-भूमिका पृ. ३०६ पर। : श्री आदिनाथ चरित्र : 14 : Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महीने की वदि आठम के दिन आधीरात में मरुदेवा माता ने युगल धर्मी पुत्र को उत्पन्न किया। उपपात शय्या में जन्मे हुए देवताओं की तरह भगवान सुशोभित होने लगे। तीन लोक में, अंधकार को नाश करने वाले बिजली के प्रकाश की तरह, उद्योत हुआ। आकाश में दुंदुभि बाजे बजने लगे। अन्तर्मुहूर्त नारकी जीवों को भी उस समय अभूत पूर्व आनंद हुआ। शीतलमंद पवन ने सेवकों की तरह पृथ्वी की रज को साफ करना प्रारंभ किया। मेघ सुगंधित जल की वर्षा करने लगे। _ छप्पन दिककुमारियाँ मरुदेवा माता की सेवा में आयी' सौधर्मेन्द्र व दूसरे तिरसठ इंद्रों ने मिलकर प्रभु का जन्म-कल्याणक किया। ____माता मरुदेवा सवेरे जागृत हुई। रात में स्वप्न आया हो इस तरह उन्होंने इंद्रादि देवों के आगमन की सारी बातें नाभिराजा से कहीं। भगवान के उरु में (जांघ में) ऋषभ का चिह्न था और माता मरुदेवा ने भी स्वप्न में सबसे पहले ऋषभ को देखा था, इसलिए भगवान का नाम 'ऋषभ' रखा. गया। भगवान के साथ जन्मी हुई कन्या का नाम सुमंगला (सुनंदा) रखा गया। भगवान इंद्र के संक्रमण किये हुए अंगूठे के अमृत का पान करते थे। पांच धाएँ-जिन्हें इंद्र ने नियत की थी। हर समय भगवान के पास उपस्थित रहती थी। भगवान की आयु जब एक वरस की हो गयी, तब सौधर्मेन्द्र वंश स्थापन करने के लिए आया। सेवक को खाली हाथ स्वामी के दर्शन करने के लिए नहीं जाना चाहिए, इस खयाल से इंद्र अपने हाथ में इक्षुयष्टि (गन्ना) लेता गया। वह पहुंचा उस समय भगवान नाभि राजा की गोद में बैठे हुए थे। प्रभु ने अवधिज्ञान द्वारा इंद्र के आने का कारण जाना। उन्होंने इक्षु लेने के लिए हाथ बढ़ाया। इंद्र ने प्रणाम करके इक्षुयष्टि प्रभु को अर्पण की। प्रभु ने इक्षु ग्रहण किया। इसलिए उनके वंश का नाम 'इक्ष्वाकु' स्थापन कर इंद्र स्वर्ग में गया। 1. देखो, तीर्थंकर चरित-भूमिका पृ. ३१० पर। 2. तीर्थंकरों को जन्म से ही अवधिज्ञान सहित तीन ज्ञान होते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 15 : Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युगादिनाथ (ऋषभदेव) का शरीर पसीने, रोग और मल से रहित था। वह सुगंधित, सुंदर आकारवाला और स्वर्णकमल के समान शोभता था। उसमें मांस और रुधिर गौ के दुग्ध की धार के समान उज्ज्वल और दुर्गंध विहीन थे। उनके आहार (भोजन) निहार (दिशा फिरने) की विधि चर्मचक्षु से अगोचर थे। उनके श्वास की खुशबू विकसित कमल के समान थी। ये चारों अतिशय प्रभु को जन्म से ही प्राप्त हुए थे।' वृज्र. ऋषभ नाराच संहनन और समचतुरस्र संस्थान के वे धारी थे। देवता बालरूप धारण कर प्रभु के साथ क्रीड़ा करने आते थे। कलिकाल सर्वज्ञ श्री हेमचंद्राचार्य ने उसका वर्णन इन शब्दों में किया है - समचतुरस्र संस्थान' वाला प्रभु का शरीर ऐसा शोभता था मानों वह क्रीडा करने की इच्छा रखने वाली लक्ष्मी की कांचनमय क्रीड़ा-वेदिका है। जो देवकुमार प्रभु के समान उम्र के होकर क्रीड़ा करने को आते थे उनके साथ भगवान उनका मान रखने के लिए खेलते थे। खेलते वक्त धूलधूसरित शरीरवाले और घूघरमाल धारण किये हुए प्रभु ऐसे शोभते थे, मानों मदमस्त राजकुमार है। जो वस्तु प्रभु के लिए सुलभ थी, वही किसी ऋद्धिधारी देव के लिए अलभ्य थी। यदि कोई देव प्रभु के बल की परीक्षा करने के लिए उनकी अंगुली पकड़ता था, तो वह उनके श्वास में रेणु (रेती के दाने) के समान उड़कर दूर जा गिरता था। कई देवकुमार कंदुक (गैंद) की तरह पृथ्वी पर लोटकर प्रभु को विचित्र कंदुकों से खेलाते थे। कई देवकुमार राजशुक (राजा का तोता) बनकर चाटुकार (मीठा बोलने वाले) की तरह 'जीओ! जीओ! आनंद पाओ! आनंद पाओ! इस तरह अनेक प्रकार के शब्द बोलते थे। कई देवकुमार मयूर का रूप धारणकर केकावाणी (मोर की बोली) से षड्ज स्वर में गायन कर नाच करते थे। प्रभु के मनोहर हस्तकमलों को ग्रहण करने की और स्पर्श करने की इच्छा से कई देवकुमार हंसों का रूप धारण कर गांधार स्वर में गायन करते हुए प्रभु के आसपास फिरते थे। कई प्रभु के प्रीतिपूर्ण दृष्टिपातामृत पान करने की इच्छा से क्रौंचपक्षी का रूप 1. तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय होते हैं। उन्हीं में ये प्रारंभ के चार है। देखो तीर्थकरचरित-भूमिका पृष्ठ ३२३ पर। : श्री आदिनाथ चरित्र : 16 : Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धारण कर उनके समक्ष मध्यम स्वर में बोलते थे। कई प्रभु को प्रसन्न करने के लिए कोकिला का रूप धारण कर, पास के वृक्षों की डालियों पर बैठ पंचम स्वर में राग आलापते थे। कई तुरंग (घोड़े) का रूप धरकर, अपने आत्मा क पवित्र करने की इच्छा से, धैवत ध्वनि से हेषारव ( हिनहिनाहट) करते हुए प्रभु के पास आते थे। कई हाथी का स्वरूप धर निषाद स्वर में बोलते हुए अधोमुख होकर अपनी सूंडों से भगवान के चरणों को स्पर्श करते थे। कई बैल का रूप धारण कर अपने सींगों से तट प्रदेश को ताड़न करते और ऋषभ स्वर में बोलते हुए प्रभु की दृष्टि को विनोद कराते थे। कई अंजनाचल के समान भैंसो का रूपधर, परस्पर युद्ध कर प्रभु को युद्धक्रीड़ा बताते थे। कई प्रभु के विनोदार्थ मल्लका रूप धर, भुजाएँ ठोक एक दूसरे को अक्षवाट (अखाडे) में बुलाते थे। इस तरह योगी जिस तरह परमात्मा की उपासना करते हैं, उसी तरह देवकुमार भी विविध विनोदों से निरंतर प्रभु की उपासना करते थे। अंगूठे चूसने की अवस्था बीतने पर अन्य गृहवासी अर्हंत पकाया हुआ भोजन करते हैं, परंतु आदिनाथ भगवान तो देवता उत्तर कुरुक्षेत्र से कल्पवृक्षों के फल लाते थे उन्हें भक्षण करते थे और क्षीर समुद्र का जल पीते थे। यौवनकाल और गृहस्थ जीवन : बालपन बीतने पर भगवान ने युवावस्था में प्रवेश किया। तब भी प्रभु के दोनों चरणों के मध्य भाग समान, मृदु, रक्त, उष्ण, कंप रहित, स्वेदवर्जित और समान तलुए वाले थे। उनमें चक्र, माला, अंकुश, शंख, ध्वजा, कुंभ तथा स्वस्तिक के चिह्न थे। उनके अंगूठे में श्री वत्स था । अंगुलियाँ छिद्ररहित और सीधी थी। अंगुली - तल में नंदावर्त के चिह्न थे। अंगुलियों के प्रत्येक पर्व में जौ थे। इसी भाँति दोनों हाथ भी बहुत सुंदर, नवीन आम्रपल्लव के समान हथेली वाले, कठोर, स्वेदरहित, छिद्रवर्जित और गरम थे। हाथ में दंड, चक्र, धनुष, मत्स्य, श्रीवत्स, वज्र, अंकुश, ध्वज, कमल, चामर, छत्र, शंख, कुंभ, समुद्र, मंदर, मकर, ऋषभ, सिंह, अश्व, रथ, स्वस्तिक, दिग्गज, प्रासाद, तोरण और द्वीप आदि के चिह्न थे। उनकी अंगुलियाँ और अंगूठे : श्री तीर्थंकर चरित्र : 17 : Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल तथा सीधे थे। पांवों में यव थे। अंगुलियों के अग्रभाग में प्रदक्षिणावर्त थे। उनके करकमल के मूल में तीन रेखाएँ शोभती थी। उनका वक्षस्थल स्वर्णशिला के समान, विशाल, उन्नत और श्रीवत्सरत्नपीठ के चिह्नवाला था। उनके कंधे ऊँचे और दृढ़ थे। उनकी बगलें थोड़े केशवाली, उन्नत तथा गंध, पसीना और मलरहित थी। भुजाएँ घुटनों तक लंबी थी। उनकी गर्दन गोल, अदीर्घ और तीन रेखाओंवाली थी। मुख गोल, कांति के तरंगवाला कलंकहीन चंद्रमा के समान था। दोनों गाल कोमल, चिकने और मांसपूर्ण थे। कान कंधे तक लंबे थे। अंदर का आर्वत बहुत ही सुंदर था। होठ बिंबफल के समान लाल और बत्तीसों दांत कुंद-कली के समान सफेद थे। नासिका अनुक्रम से विकासवाली और उन्नत थी। उनके चक्षु अंदर से काले, सफेद, किनारे पर लाल और कानों तक लंबे थे। मांफने काजल के समान श्याम थीं। उनका ललाट विशाल, मांसल, गोल, कठिन, कोमल और समान अष्टमी के चंद्रमा के समान सुशोभित था। इस प्रकार नाना प्रकार के सुलक्षणवाले प्रभु सुर, असुर और मनुष्य सभी के सेवा करने योग्य थे। इंद्र उनका हाथ थामता था, यक्ष चमर ढालते थे, धरणेन्द्र द्वारपाल बनता था और वरुण छत्र रखता था; तो भी प्रभु लेशमात्र भी, गर्व किये बिना यथारुचि विहार करते थे। कई बार प्रभु बलवान इंद्र की गोद में पैर रख, चमरेन्द्र के गोदरूपी पलंग में अपने शरीर का उत्तर भाग स्थापन कर, देवताओं के आसन पर बैठे हुए दिव्य संगीत और नृत्य सुनते और देखते थे। अप्सराएँ प्रभु की हाजिरी में खड़ी रहती थी; परंतु प्रभु के मन में किसी भी तरह की आसक्ति नहीं थी। जब भगवान की उम्र एक बरस से कुछ कम थी, तब की बात है। कोई युगल-अपनी युगल संतान को एक ताड़ वृक्ष के नीचे रखकर-रमण करने की इच्छा से क्रीड़ागृह में गया। हवा के झोंके से एक तांडफल बालक के मस्तक पर गिरा। बालक मर गया। बालक मर गया। बालिका माता पिता के पास अकेली रह गयी। __ थोड़े दिनों के बाद बालिका के मातापिता का भी देहांत हो गया। बालिका वनदेवी की तरह अकेली ही वन में घूमने लगी। देवी की तरह सुंदर रूपवाली उस बालिका को युगल पुरुषों ने आश्चर्य से देखा और फिर वे उसे : श्री आदिनाथ चरित्र : 18 : Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामि कुलकर के पास ले गये। नाभि कुलकर ने उन लोगों के अनुरोध से बालिका को यह कहकर रख लिया कि यह ऋषभ की पत्नी होगी। प्रभु सुमंगला और सुनंदा के साथ बालक्रीडा करते हुए यौवन को प्राप्त हुए। . एक बार सौधर्मेन्द्र प्रभु का विवाह-समय जानकर प्रभु के पास आया और विनयपूर्वक बोला-प्रभो! यद्यपि मैं जानता हूं कि, आप गर्भवास से ही वीतराग हैं, आपको अन्य पुरुषार्थों की आवश्यकता नहीं है इससे चौथे पुरुषार्थ मोक्ष का साधन करने के लिए आप तत्पर हैं; तथापि मोक्षमार्ग की तरह व्यवहार मार्ग भी आप ही से प्रकट होनेवाला है। इसलिए लोकव्यवहार को चलाने के लिए मैं आपका विवाहोत्सव करना चाहता हूं। हे स्वामी, आप प्रसन्न होइए और त्रिभुवन में अद्वितीय रूपवाली सुमंगला और सुनंदा का पाणिग्रहण कीजिए। . . - प्रभु ने अवधिज्ञान से उस समय, यह देखकर कि मुझे अभी तिरयासी लाख पूर्व तक भोगोपभोग भोगने ही पडेंगे, सिर हिला दिया। इंद्र ने प्रभु का अभिप्राय समझकर विवाह की तैयारियाँ की। बड़ी धूमधाम के साथ सुनंदा और सुमंगला के साथ भगवान का ब्याह हो गया। विवाहोत्सव समाप्त कर स्वर्गपति इंद्र अपने स्थान पर गया स्वामी की बतायी हुई ब्याह की रीति तभी से लोक में चली। उस समय कल्पवृक्षों का प्रभाव काल के दोष से कम होने लग गया था। युगलियों में क्रोधादि कषायें बढ़ने लगी थीं। 'हाकार', 'माकार' और 'धिक्कार की' दंडनीति उनके लिए निरुपयोगी हो गयी थी। झगड़ा बढ़ने लगा था। इसलिए एक दिन सब पुरुष जमा होकर प्रभु के पास गये और अपने दुःख सुनाये। प्रभु ने कहा – 'संसार में मर्यादा उल्लंघन करनेवालों को राजा दंड देता है। अतः तुम किसी का राज्याभिषेक करो। चतुरंगिनी सेना से उसे सशक्त बनाओ। वह तुम्हारे सारे दुःखों को दूर करेगा।' उन्होंने कहा – 'हम आपही का राज्याभिषेक करना चाहते हैं।' प्रभु ने कहा – 'तुम नाभि कुलकर के पास जाओ। वे आज्ञा दे . उसका राज्याभिषेक करो।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 19 : Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लोग नामि कुलकर के पास गये। उन्होंने कहा – 'ऋषभ को तुम अपना राजा बनाओ।' लोग वापिस लौटकर आये बोले – 'आपही का राज्याभिषेक करने की नाभि कुलकर ने हमें आज्ञा दी है।' लोग विधि जानते न थे। उन्होंने पहिली बार ही राज्याभिषेक की बात सनी थी। वे केवल जल चढाने ही को अभिषेक करना समझकर जल लेने गये। उस समय इंद्र का आसन कंपा। उसने अवधिज्ञान द्वारा प्रभु के राज्याभिषेक का समय जाना। उसने आकर राज्याभिषेक कर प्रभु को दिव्यवस्रालंकारों से अलंकृत किया। इतने ही में युगलिये पुरुष भी कमल के पत्रों में जल लेकर आ गये। वे प्रभु को वस्त्राभूषणों से अलंकृत देखकर आश्चर्यान्वित हुए। ऐसे सुंदर वस्त्राभूषणों पर जल चढ़ाना उचित न समझ उन्होंने प्रभु के चरणों में जल चढ़ाया और उन्हें अपना राजा स्वीकारा। इंद्र ने उन्हें विनीत समझ उनके लिए एक नगरी निर्माण करने की कुबेर को आज्ञा दी और उसका नाम विनीता.रखने को कहा। फिर वह अपने स्थान पर चला गया। कुबेर ने बारह योजन लंबी और नौ योजन चौड़ी नगरी बनायी। उसका दूसरा नाम अयोध्या रखा गया। जन्म से बीस लाख पूर्व बीते तब प्रभु प्रजा का पालन करने के लिए विनीता नगरी के स्वामी हुए। अवसर्पिणी काल में ऋषभदेव ही सबसे पहिले राजा हुए। वे अपनी संतान की तरह प्रजा का पालन करने लगे। उन्होंने बदमाशों को दंड देने और सत्पुरुषों की रक्षा करने के लिए उद्यमी मंत्री नियते किये; चोर, डाकुओं से प्रजा को बचाने के लिए रक्षक-सिपाही नियत किये। हाथी, घोड़े रखे; घुड़सवारों की और पैदल सैनिकों की सेनाएँ बनायी। रथ तैयार करवाये। सेनापति नियत किये। ऊँट, गाय, मैंस, बैल, खच्चर आदि उपयोगी पशु भी प्रभु ने पलवाये। - कल्पवृक्षों का सर्वथा अभाव हो गया। लोग कंद, मूल, फलादि खाने लगे। काल के प्रभाव से शालि, गेहूँ, चने आदि पदार्थ अपने आप ही उस समय उत्पन्न होने लगे। लोग उन्हें कच्चे ही, छिलकों सहित खाने लगे। मगर वे हजम न होने लगे इसलिए एक दिन लोग प्रभु के पास गये। प्रभु ने : श्री आदिनाथ चरित्र : 20 : Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा – 'तुम इनको छिलके निकालकर खाओ।' इस तरह कुछ दिन किया तो भी वे अच्छी तरह पचते नहीं थे। तब लोग फिर प्रभु के पास गये। प्रभु ने कहा – 'छिलके निकालकर पहिले हाथों में मलो और फिर भिगोकर किसी पत्ते में लो और खाओ।' ऐसा करने से भी जब वह नहीं पचने लगे, तब लोगों ने फिर से जाकर प्रभु से विनती की। प्रभु ने कहा – 'पूर्वोक्त विधि करने के बाद औषधि को (धान्य को) मुट्ठी में या बगल में, थोड़ी देर दबाओ और उनमें जब गरमी पहुंचे तब उन्हें खाओ।' लोग ऐसा ही करने लगे। मगर फिर भी उनकी शिकायत नहीं मिटी। एक दिन जोर की हवा चली। वृक्ष परस्पर रगड़ाये। उनमें अग्नि पैदा हुई। रत्नों के भ्रम से लोग उसे लेने को दौड़े। मगर वे जलने लगे, तब प्रभु के पास गये। प्रभु ने सब बात समझकर कहा कि, स्निग्ध और रुक्ष काल के योग से अग्नि उत्पन्न हुई है। तुम उसके आसपास से घास फूंस हटाकर, उसमें औषधि पकाओ और खाओ। ... पूर्वोक्त क्रिया करके लोगों ने उसमें अनाज डाला। देखते ही देखते सारा अनाज उसमें जलकर भस्म हो गया। लोग वापिस प्रभु के पास गये। प्रभु उस समय हाथी पर सवार होकर सैर करने चले थे। युगलियों की बातें सनकर उन्होंने थोडी गीली मिट्टी मंगवायी। महावत के स्थान में जाकर हाथी के सिर पर मिट्टी को बढ़ाया और उसका बर्तन बनाया और कहा - 'इसको अग्नि में रखकर सुखा लो। जब यह सूख जाय तब इनमें अनाज रखकर पकाओ और खाओ। सभी ऐसे बर्तन बना लो। उसी समय से बर्तन बनाने की कला का आरंभ हुआ। विनीता नगरी के बाहिर रहनेवाले लोगों को वर्षादि से कष्ट होने लगा। इसलिए प्रभु ने लोगों को मकान बनाने की विद्या सिखायी। चित्रकला भी सिखायी। वस्त्र बनाना भी बताया। जब प्रभु ने बढ़े हुए केशों और नाखूनों से लोगों को पीड़ित होते देखा, तब कुछ को नाई का काम सिखलाया। . स्वभावतः कुछ लोग उक्त प्रकार की भिन्न भिन्न कलाओं में निपुण हो गये। इसलिए उनकी अलग जातियाँ ही बन गयी। उनकी पांच जातियाँ हुई। १.. कुंभार, २. चित्रकार, ३. वार्द्धिक, ४. जुलाहा, ५. नाई। . अनासक्त होते हुए भी अवश्यमेव भोक्तव्य कर्म को भोगने के लिए, : श्री तीर्थंकर चरित्र : 21 : Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह के पश्चात छः लाख से कुछ न्यून पूर्व वर्ष तक प्रभु ने सुमंगला और सुनंदा के साथ विलास किया। सुमंगला ने १४ महास्वप्नों सहित चक्रवर्ती भरत और ब्राह्मी को एक साथ प्रसवा। सुनंदा ने भी बाहुबलि और सुंदरी का जोड़ा सा तत्पश्चात् सुमंगलाने ४६ युग्म पुत्रों को और जन्म दिया। इस तरह प्रभु के कुल मिलाकर १०० पुत्र और २ कन्याएँ उत्पन्न हुई। 1 प्रभु की संतान जब योग्य वय को प्राप्त हुई तब उन्होंने प्रत्येक को भिन्न-भिन्न कलाएँ सिखायी। • भरत को ७२ कलाएँ सिखलायी थी। भरत ने भी अपने भाईयों को 1. एक सौ पुत्रों के नाम १. भरत, २. बाहुबलि, ३. शंख, ४. विश्वकर्मा, ५. विमल, ६. सुलक्षण, ७. अमल, ८. चित्रांग, ९. ख्यातकीर्ति, १०. वरदत्त, ११. सागर, १२. यशोधर, १३. अमर, १४. रथवर, १५. कामदेव, १६. ध्रुव, १७. वत्स, १८. नंद, १९. सुर, २०. कपिल, २१. शैलविहारी, २२. अरिंजय, २३. सुनंद, २४ कुरु, २५. अंग, २६. बंग, २७. कौशल, २८. वीर, २९. कलिंग, ३०. मागध, ३१. विदेह, ३२. संगम, ३३. दशार्ण, ३४. गंभीर, ३५. वसुवर्मा, ३६. सुवर्मा, ३७. राष्ट्र, ३८. सौराष्ट्र, ३९. बुद्धिकर, ४०. विविधकर, ४१. सुयशा, ४२. यश: कीर्ति, ४३. यशस्कर, ४४ कीर्तिकर, ४५. सूरण, ४६. ब्रह्मसेन, ४७. विक्रांत, ४८. नरोत्तम, ४९. पुरुषोत्तम, ५०. चंद्रसेन, ५१: महासेन, ५२. नभसेन, ५३. भानु, ५४. सुकांत, ५५. पुष्पयुत, ५६. श्रीधर, ५७. दुर्धष, ५८. सुसुमार, ५९. दुर्जय, ६०. अजयमान, ६१. सुधर्मा, ६२. धर्मसेन, ६३. आनंदन, ६४. आनंद, ६५. नंदन, ६६. अपराजित, ६७. विश्वसेन, ६८. हरिषेण, ६९. जय, ७०. विजय, ७१. विजयवंत, ७२. प्रभाकर, ७३. अरिदमन, ७४. मान, ७५. महाबाहु, ७६. दीर्घ बाहु, ७७. मेघ, ७८. सुघोष, ७९. विश्व, ८०. वराह, ८१. सुसन, ८२. सेनापति, ८३.. कुंजरबल, ८४. जयदेव, ८५. नागदत्त, ८६. काश्यप, ८७. बल, ८८. सुवीर, ८९. शुभमति, ९०. सुमति, ९१. पद्मनाभ, ९२. सिंह, ९३. सुजाति, ९४. संजय, ९५. सुनाभ, ९६. मरुदेव, (नरदेव) ९७. चित्तहर, ९८. सुख, ९९. दृढरथ, १००. प्रभंजन कन्याओं के नाम ब्राह्मी और सुंदरी । 2. पुरुष की ७२ कलाओं के नाम ये हैं १. लेखन, २. गणित, ३ . गीत, ४. नृत्य, ५. वाद्य, ६. पठन, ७. शिक्षा, ८. ज्योतिष, ९. छंद, १०. अलंकार, ११.व्याकरण, १२. निरुक्ति, १३. काव्य, १४. कात्यायन, १५. निघंटु, १६. गजारोहण, १७. अश्वारोहण उन दोनों की शिक्षा, १८. शास्त्राभ्यास, १९. रस, : श्री आदिनाथ चरित्र : 22 : - Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वे कलाएँ सिखलायी। बाहुबलि को प्रभु ने हस्ति, अच, स्त्री और पुरुष के अनेक प्रकार के भेदवाले लक्षणों का ज्ञान दिया। ब्राह्मी को दाहिने हाथ से अठारह लिपियां बतलायी और सुंदरी को बायें हाथ से गणित का ज्ञान दिया। वस्तुओं का मान (माप) उन्मान (तोला, माशा आदि तोल) अवमान (गज, फुट, इंच आदि माप) और प्रतिमान (तोला, माशा आदि वजन) बताया। मणि आदि पिरोना भी सिखलाया। उनकी आज्ञा से वादी और प्रतिवादी का व्यवहार राजा, अध्यक्ष और कुलगुरु की साक्षी से होने लगा। हस्ति आदि की पूजा; धनुर्वेद तथा वैद्यक की उपासना; संग्राम, अर्थशास्त्र, वध, घात, बंध और गोष्ठी आदि की प्रवृत्ति भी उसी समय से हुई। यह मेरी माता है, यह मेरा पिता है, यह मेरा भाई है, यह मेरी बहिन है, यह मेरी स्त्री है, यह मेरी कन्या है। यह मेरा धन है, यह मेरा मकान है आदि, मेरे-तेरेकी ममता भी उसी समय से प्रारंभ हुई। प्रभु को वस्त्राभूषणों से आच्छादित देखकर लोग भी अपने को वस्त्रालंकार से सजाने लगे। प्रभु ने जिस तरह २०. यंत्र, २१. मंत्र, २२. विष, २३. खन्य गंधवाद, २४. प्राकृत, २५. संस्कृत, २६. पैशाचिक, २७. अपभ्रंश, २८. स्मृति, २९. पुराण, ३०. विधि, ३१. सिद्धांत, ३२. तर्क, ३३. वैदक, ३४. वेद, ३५. आगम, ३६. संहिता, ३७. इतिहास, ३८.सामुद्रिक विज्ञान, ३९. आचार्य विद्याः, ४०. रसायन, ४१. कपट, ४२.विद्यानुवाद, ४३. दर्शन, ४४. संस्कार, ४५. धूत, ४६. संबलक, ४७. मणिकर्म, ४८. तरुचिकित्सा, ४९. खेचरीकला, ५०. अमरीकला, ५१. इंद्रजाल, ५२: पातालसिद्धि, ५३. पंचक, ५४. रसवती, ५५. सर्वकरणी, ५६. प्रासादलक्षण, ५७. पण, ५८. चित्रोपला, ५९. लेप, ६०. चर्मकर्म, ६१. पत्रछेद, ६२. नखछेद, ६३. पत्रपरीक्षा, ६४. वशीकरण, ६५. काष्ट घटन, ६६. देश भाषा, ६७. गारुड, ६८. योगांग, ६९. धातुकर्म, ७०. केवल विधि ७१. शकुन रुत, ७२ नामावली । इसमें दृष्टियुद्ध आदि के नाम नहीं है । (नामो में मतांतर भी है।] 1. १. हंस, २. भूत, ३. यज्ञ, ४. राक्षस, ५. उड्डि , ६. यवनी, ७. तुरकी, ८. किरी, ९. द्राविडी, १०. सेंधवी, ११. मालवी, १२. नडी, १३. नागरी, १४. लाटी, १५. पारसी, १६. अनिमित्ति, १७. चाणक्की, १८. मूलदेवी। ये अठारह लिपियां हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 23 : Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पाणिग्रहण किया था उसी तरह, उसके बाद और लोग भी पाणिग्रहण करने लगे। यह प्रवृत्ति आज भी चल रही है। प्रभु के विवाह के बाद दूसरे की कन्या के साथ व्याह करने का रिवाज हुआ। चूडा, उपनयन आदि व्यवहार भी उसी समय से चले। यद्यपि ये सारी क्रियाएँ सावध हैं तथापि समय को देखकर, लोगों के कल्याणार्थ प्रभु ने इनका व्यवहार चलाया। प्रभु ने जो कलाएँ चलायी, उनका शनैः शनैः विकास हुआ। अर्वाचीन काल के बुद्धि-कुशल लोगों ने उनके शास्त्र बनाये। उनसे लोग आज तक लाभ उठा रहे हैं। प्रभु ने चार प्रकार के कुल बनाये। उनके नाम ये थे; १. उग्र, २. भोग, ३. राजन्य, ४. क्षत्री। १. नगर की रक्षा का काम यानी सिपाहीगिरी करनेवालों को एवं चोर लुटेरे आदि प्रजापीड़क लोगों को दंड देनेवालों का जो. समूह था उस समूह के लोग उग्रकुलवाले कहलाते थे। २. जो लोग मंत्री का कार्य करते थे वे भोगकुलवाले कहलाते थे। ३. जो लोग प्रभु के समयवयस्क थे और प्रभु की सेवा में हर समय रहते थे वे राजन्यकुलवाले कहलाते थे। ४. बाकी के जो लोग थे वे सभी क्षत्री कहलाते थे। चार प्रकार की नीतियाँ भी प्रभु ने नियत की थी। वें थीं शाम, दाम, दंड और भेद। जिस समय जिसकी आवश्यकता होती थी, उस समय उसीसे काम लिया जाता था। प्रभु ने सबको विवेक सिखलाया था, त्याज्य और ग्राह्य का ज्ञान दिया था। एक बार वसंत आया तब प्रभु परिजनों के आग्रह से नंदनोद्यान में क्रीड़ा करने गये। नगर के लोग जब अनेक प्रकार की क्रीड़ा कर रहे थे तब प्रभु एक तरफ बैठे हुए देख रहे थे, देखते ही देखते उनको विचार आया कि अन्यत्र भी कहीं ऐसी सुखसमृद्धि होगी? क्षण भर के बाद उन्होंने अपने पूर्व भव के समस्त सुखोपभोग और फिर उसके बाद होनेवाले जन्म-मरण आदि के दुःख देखे। विचार करते हुए अनेक अंतःकरण में वैराग्य भावना उदित : श्री आदिनाथ चरित्र : 24 : Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुई। कलिकालसर्वज्ञ श्रीमद् हेमचंद्राचार्य ने उसका वर्णन इस तरह किया है 'विषय - सुख में लीन, अपने आत्महित को भूले हुए लोगों को धिक्कार है। इस संसाररूपी कुँए में प्राणी 'अरघट्टघटि न्याय से (रैंट की घेड़ें जैसे कूँए में जाती है, भरती है और वापिस खाली होती है; वे इसी तरह चक्करखाया करती है। वैसे ही अपने कर्म से गमनागमन किया करते हैं। मोह से अंध बने हुए उन प्राणियों को धिक्कार है कि, जिनका जन्म सोते हुए मनुष्य की भांति फिजूल चला जाता है। चूहे जैसे वृक्षों को खा जाते हैं उसी तरह राग, द्वेष और मोह उद्यमी प्राणियों के धर्म को भी मूल में से छेद डालते हैं। मुग्ध लोग वटवृक्ष की भांति इस क्रोध को बढ़ाते हैं कि, जो क्रोध अपने को बढ़ाने वाले ही को जड़ से खा डालता है। हाथी पर चढ़े हुए महावत की तरह मान पर चढ़े हुए लोग भी मर्यादा का उल्लंघन करते हैं। और दूसरों का तिरस्कार करते हैं। माया कोंच की फली की तरह लोगों को संतप्त करती है; परंतु फिर भी लोग माया का परित्याग नहीं करते हैं। तुषोदक से ( चावल की भूसी से) जैसे दुग्ध बिगड जाता है और काजल से जैसे निर्मलसफेद वस्त्र पर दाग लग जाते हैं वैसे ही, लोभ मनुष्य के गुणों को दूषित करता है। जब तक संसार रूपी काराग्रह में (जेलखाने में) ये चार कषाय रूपी चौकीदार सजग ( खबरदारी से ) पहरा देते हैं तब तक जीव इससे निकलकर मोक्ष में कैसे जा सकता है? अहो ! भूत लगे हुए प्राणी की तरह पुरुष अंगना के (स्त्री के) आलिंगन में व्यग्र रहते हैं और यह नहीं देखते हैं किं, उनका आत्महित क्षीण हो रहा है । औषध से जैसे सिंह को नीरोग करके मनुष्य अपना काल बुलाता है वैसे ही मनुष्य अनेक प्रकार के मादक और कामोद्दीपक पदार्थ सेवन कर उन्मादी बन अपने आत्मा को भवभ्रमण में फँसाते हैं। सुगंध यह है या यह ? मैं किसको ग्रहण करूं? इस तरह सोचता हुआ मनुष्य लंपट होकर भ्रमर की तरह भटकता फिरता है। उनको कभी सुख नहीं मिलता। खिलौने से जैसे बच्चों को भुलाते हैं वैसे ही मनुष्य क्षण भर के लिए मनोहर लगनेवाली वस्तुओं में लुभाकर अपने आत्मा को धोखा देते हैं। निद्रालु पुरुष जैसे शास्त्र के चिंतन से भ्रष्ट होता है वैसे : श्री तीर्थंकर चरित्र : 25: Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ही मनुष्य वेणु (बंसी) और वीणा के नाद में कान लगाकर अपने आत्महित भ्रष्ट होता है। एक साथ प्रबल बने हुए वात, पित्त और कफ जैसे जीवन का अंत कर देते हैं वैसे ही प्रबल विषय कषाय भी मनुष्य के आत्महित का अंत कर देते हैं। इसलिए इनमें लिप्त रहनेवाले प्राणियों को धिक्कार है। ' प्रभु जिस समय इस प्रकार वैराग्य की चिंतासंतति के तंतुओं द्वारा व्याप्त हो रहे थे, उस समय ब्रह्म नामक पांचवें देवलोक के अंत में बसने वाले सारस्वत, आदित्य, वन्हि, अरुण, गर्दितोय, तुषिताश्च, अव्याबाध, मरुत और रिष्ट, नौ प्रकार के लोकांतिक देव प्रभु के पास आये और सविनय बोले 'भरतक्षेत्र में नष्ट हुए मोक्षमार्ग को बताने में दीपक के समान हे प्रभो! आपने लोकहितार्थ अन्यान्य प्रकार के व्यवहार जैसे प्रचलित किये हैं वैसे ही अब धर्मतीर्थ को भी चलाइए । ' इतना कह वंदना कर देवता अपने स्थान को गये। प्रभु भी दीक्षा ग्रहण करने का निश्चय कर वहां से अपने महलों में गये। साधुजीवन : प्रभु ने महल में आकर भरत को राज्य ग्रहण करने का आदेश . दिया। भरत ने वह आज्ञा स्वीकार की । प्रभु की आज्ञा से सामन्तों, मंत्रियों और पुरजनों ने मिलकर भरत का राज्याभिषेक किया। प्रभु ने अपने अन्याय पुत्रों को भी अलग-अलग देशों के राज्य दे दिये। फिर प्रभु ने वरसीदान देना प्रारंभ किया। नगर में घोषणा करवा दी कि जो जिसका अर्थी हो वह वही आकर ले जाय। प्रभु सूर्योदय से लेकर मध्याह्न तक एक करोड़ आठ लाख स्वर्णमुद्राओं का दान नित्य प्रति करते थे। तीन सौ अठ्यासी करोड़ और अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राओं का दान प्रभु ने एक वरस में किया था। यह धन देवताओं ने लाकर पूरा किया था। प्रभु दीक्षा लेनेवाले हैं यह जानकर लोग भी वैराग्योन्मुख हो गये थे, इसलिए उन्होंने उतना ही धन ग्रहण किया था, जितनी उनको आवश्यकता थी। तत्पश्चात् इंद्र ने आकर प्रभु का दीक्षा - कल्याणक किया। चैत्रकृष्ण अष्टमी के दिन जब चंद्र उत्तराषाढा नक्षत्र में आया था, तब दिन के पिछले प्रहर में प्रभु ने चार मुष्टि से अपने केशों को लुंचित किया। जब पांचवीं मुष्टि : श्री आदिनाथ चरित्र : 26 : Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से प्रभु ने अवशेष केशों का लोच करना चाहा तब इंद्र ने उतने केश रहने देने की प्रार्थना की। प्रभु ने यह प्रार्थना स्वीकार की; क्योंकि, 'स्वामी अपने एकांत भक्तों की याचना व्यर्थ नहीं करते हैं। प्रभु के दीक्षा महोत्सव से संसार के अन्यान्य जीवों के साथ नारकी जीवों को भी सुख हुआ। उसी समय प्रभु को मनुष्य क्षेत्र के अंदर रहनेवाले समस्त संज्ञी पंचेन्द्री जीवों के मनोद्रव्य को प्रकाशित करनेवाला मनः पर्ययज्ञान प्रकट हुआ। प्रभु के साथ ही कच्छ, महाकच्छ आदि चार हजार राजाओं ने प्रभु के साथ दीक्षा ले ली। प्रभु मौन धारणकर पृथ्वी पर विचरण करने लगे। पारणे वाले दिन प्रभु को कहाँ से भी आहार नहीं मिला। क्योंकि लोग आहारदान की विधि से अपरिचित थे। वे तो प्रभु को पहिले के समान ही घोड़े, हाथी, वस्त्र, आभूषण आदि भेट करते थे, परंतु प्रभु को तो उनमें से एक की भी आवश्यकता नहीं थी । भिक्षा न मिलने पर भी किसी तरह मनः क्लेश विना जंगम तीर्थ की भांति प्रभु विचरण करते थे और क्षुधापिपासादि भूख प्यास आदि परिसहों को सहते थे । अन्यान्य साधु भी प्रभु के साथ-साथ विहार करते रहते थे। क्षुधा आदि से पीड़ित और तत्त्वज्ञान से अजान साधु विचार करने लगे कि भगवान न जंगल में पके हुए मधुर फल खाते हैं और न निर्मल झरणों का जल ही पीते है। सुंदर शरीर पर इतनी धूल जम गयी है तो भी उसे हटाने का प्रयास नहीं करते। धूप और सरदी को झेलते हैं; भूख प्यास की बाधा सहते हैं; रात को कभी सोते भी नहीं हैं। हम रात दिन इनके साथ रहते हैं। परंतुं कभी दृष्टि उठाकर हमारी तरफ देखते भी नहीं है। न जाने इन्होंने क्या सोचा है? कुछ भी समझ में नही आता । हम इनकी तरह कब तक ऐसे दुःख झेल सकते हैं? और दुःख तो झेले भी जा सकते हैं; परंतु क्षुधातृषा के दुःख झेलना असंभव है। इस तरह विचारकर सभी गंगा तट के नजदीकवाले वन में गये और कंद, मूल, फलादि का आहार करने लगे और गंगा का जल पीने लगे। तभी से जटाधारी तापसों की प्रवृत्ति हुई । कच्छ और महाकच्छ के नमि और विनमि नामक पुत्र थे। वे प्रभु ने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 27 : Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीक्षा ली थी तब कहीं प्रभु की आज्ञा से गये हुए थे। वे जब लौटकर आये तब उन्हें ज्ञात हुआ कि, प्रभु ने दीक्षा ले ली है। वे प्रभु के पास गये और उनकी सेवा करने लगे तथा उनसे प्रार्थना करने लगे कि, हे प्रभो! हमको राज्य दीजिए। ___ एक बार धरणेन्द्र प्रभु को वंदन करने के लिए आया। उस समय उसने नमि विनमि को प्रभु की सेवा करते और राज्य की याचना करते देखकर कहा-'तुम भरत के पास जाओ वह तुम्हें राज्य देगा। प्रभु तो निष्परिग्रही और निर्मोही है।' उन्होंने उत्तर दिया – 'प्रभु के पास कुछ है या नहीं इससे हमें कोई मतलब नहीं है। हमारे तो ये ही स्वामी है। ये देंगे तभी लेंगे हम औरों से याचना नहीं करेंगे।' ... ___ धरणेन्द्र उनकी बातों से प्रसन्न हुआ। उसने प्रभु सेवा के फल स्वरूप गौरी और प्रज्ञप्ति आदि अड़तालीस हजार विद्याएँ उन्हें दी और कहा – 'तुम वैताढ्य पर्वत पर जाकर नगर बसाओ और राज्य करो।' नमि और विनमि ने ऐसा ही किया। कच्छ और महाकच्छ गंगानदी के दक्षिण तंट पर मृग की तरह वनचर होकर फिरते थे और वल्कल से (वृक्षों की छाल से) अपने शरीर को ढकते थे। गृहस्थियों के घर के आहार को वे कभी ग्रहण नहीं करते थे। चतुर्थ और छट्ठ आदि तपों से उनका शरीर सूख गया था। पारणा के दिन सड़े गले और पृथ्वी पर पड़े हुए पत्तों और फलों का भक्षण करते थे और हृदय में प्रभु का ध्यान धरते थे। प्रभु निराहार एक बरस तक आर्य और अनार्य देशों में विहार करते रहे। विहार करते हुए प्रभु गजपुर (हस्तिनापुर) नगर में पहुंचे। वहां बाहुबलि का पुत्र सोमप्रभ राजा राज्य करता था। प्रभु को आते देखकर प्रजाजन विदेश से आये हुए बंधु की तरह प्रभु को घेरकर खड़े हो गये। कोई प्रभु को अपने घर विश्राम लेने की, कोई अपने घर स्नानादि से निपटकर भोजन करने की और कोई अपने घर को चलकर पावन करने की प्रार्थना करने लगा। कोई कहने लगा – 'मेरी यह मुक्ता माल स्वीकारीए।' कोई कहने लगा – 'आपके शरीर के अनुकूल रेशमी वस्त्र में : श्री आदिनाथ चरित्र : 28 : Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मेरा यह तैयार कराता हूं। आप उन्हें धारण कीजिए।' कोई कहने लगा घोड़ा सूर्य के घोड़े को भी परास्त करनेवाला है, आप इसको ग्रहण कीजिए।' कोई बोला- 'आप क्या हम गरीबों की कुछ भी भेट न स्वीकारेंगे?' आदि । मगर प्रभु ने तो किसी को भी कोई उत्तर नहीं दिया। प्रभु आहार के लिए घर-घर जाते थे और कहीं शुद्ध आहार न मिलने से लौट आते थे। - इधर श्रेयांसकुमार को उस रात मलिन बने मेरुपर्वत को स्वच्छ करने का, सोमप्रभ राजा को दुश्मन से घिरे मानव को श्रेयांसकुमार द्वारा विनयी बनाने का, सुबुद्धि सेठ को सूर्य की हजार किरणें गिरती हुई को श्रेयांसकुमार ने पुनः स्थापित करने का स्वप्न आया। तीनों ने राजसभा से आज श्रेयांसकुमार को अनुपम लाभ की बात कही । शहर में प्रभु के आने की धूम मच गयी। सोमप्रभ राजा के पुत्र श्रेयांस कुमार ने भी प्रभु के आगमन के समाचार सुने। यह अपने प्रपितामह के आगमन समाचार सुनकर हर्ष से पागल बना हुआ नंगे पैर अकेला ही प्रभु. के दर्शनार्थ दौड़ा। उसे जाकर प्रभु के चरणों में नमस्कार किया। फिर वह खड़ा होकर उस मूर्ति को देखने लगा। देखते ही देखते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उसने अपने पूर्वभव देखें। उसके द्वारा उसे मालूम हुआ कि, साधुओं को शुद्ध आहार कैसे देना चाहिए। उसी समय प्रजाजनों में से कइयों ने गन्ने के रस से भरे हुए घड़े लाकर श्रेयांस कुमार को भेट किये। कुमार ने उन्हें विधि पूर्वक वंदन कर ईक्षु रस को शुद्ध समझकर प्रभु को स्वीकार करने की प्रार्थना की। प्रभु ने शुद्ध आहार समझ अंजलि जोड़ हस्तरूपी पात्र आगे लिया। उस पात्र में यद्यपि बहुतसा रस समा गया; परंतु कुमार के हृदयरूपी पात्र में हर्ष न समाया। प्रभु ने उस रस से पारणा किया। सुर, नरों ने और असुरों ने प्रभु के दर्शन रूपी अमृत से पारणा किया। मनुष्यों ने आनंदाश्रु बहाये। आकाश में देवताओं ने दुंदुभि - नाद किया और रत्नों की, पंचवर्ण के पुष्पों की, गंधोदक की और दिव्य वस्त्रों की वृष्टि की। वैशाख 1. तीर्थंकरों का जब पारणा होता है तभी ये पंच दिव्य होते हैं। यानी दुंदुभि बजती है और देवता रत्न, पांच प्रकार के पुष्प, सुगंधित जल और उज्ज्वल वस्त्रों की वृष्टि करते है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 29 : Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुदी ३ के दिन श्रेयांस कुमार का दिया हुआ यह दान अक्षय हुआ। इससे वह दिन पर्व हुआ और अक्षय तृतीया के नाम से ख्याति पाया। यह पर्वत्योहार आज भी प्रसिद्ध है। संसार में अन्यान्य व्यवहार भगवान श्रीऋषभदेव ने चलाये, मगर दान देने का व्यवहार श्रेयांसकुमार ने प्रचलित किया। दुंदुभिनाद से और रत्नादि की वृष्टि से नगर के नर-नारी श्रेयांस के महल की ओर आने लगे। कच्छ और महाकच्छ आदि कुछ तापस भी, जो उस समय दैववशात् हस्तिनापुर आये थे, प्रभु के पारणे की बात सुनकर वहां आ गये। सबलोगों ने श्रेयांसकुमार को धन्यधन्य कहा, उसके पुण्य को संराहा और प्रभु को उपालंभ देते हुए कहा – 'हमारा, यद्यपि प्रभु ने पहिले पुत्रवत् पालन किया था, तथापि हमसे कोई पदार्थ भेट में नहीं लिया। हमने कितना अनुनय विनय किया, कितनी आर्त प्रार्थनाएँ की तो भी प्रभु हमारे पर दयालु नहीं हुए, परंतु तुम्हारी बात उन्होंने सहसा मान ली। तुम्हारी दी हुई भेट प्रभु ने तत्काल ही स्वीकार कर ली। श्रेयांस कुमार ने उत्तर दिया - 'तुम प्रभु के ऊपर दोष न लगाओ। वे पहले की तरह अब राजा नहीं है। वे इस समय संसार-विरक्त, सावद्यत्यागी यति है। तुम्हारी भेट की हुई चीजें संसार भोगी ले सकता है, यति नहीं। सजीव फलादि भी प्रभु के लिए अग्राम है। इन्हें तो हिंसक ग्रहण कर सकता है। प्रभु तो केवल ४२ दोषरहित, एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक अन्न ही ग्रहण कर सकते हैं।' उन्होंने कहा – 'युवराज! आजतक प्रभु ने कभी यह बात नहीं कही थी। तुमने कैसे जानी?' श्रेयांस कुमार बोले – 'मुझे भगवान के दर्शन करने से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। सेवक की भांति मैं आठ भव से प्रभु के साथ साथ स्वर्ग और मृत्युलोक सभी स्थानों में रहा हूं। इस भव से तीन भव पहले भगवान विदेह भूमि में उत्पन्न हुए थे। वे चक्रवर्ती थे और मैं इनका सारथि था। इनका नाम वज्रनाभ था। उस समय इनके पिता वज्रसेन तीर्थंकर हुए थे। इन्होंने बहुत काल तक भोग भोगकर दीक्षा ली। मैंने भी इन्हीं के साथ दीक्षा ले ली। जब हमने दीक्षा ली थी तब भगवान वज्रसेन ने कहा था कि, : श्री आदिनाथ चरित्र : 30 : Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वज्रनाभ का जीव भरतखंड में प्रथम तीर्थंकर होगा। उस समय साधुओं को कैसा आहार दिया जाता है सो मैंने देखा था । मैंने खुद ने भी शुद्ध आहार ग्रहण किया था। इसलिए मैं शुद्ध आहार देने की रीति जानता था। इसीसे मैं प्रभु को शुद्ध आहार दिया और प्रभु ने ग्रहण किया।' लोग ये बातें सुनकर प्रसन्न हुए और आनंदपूर्वक अपने घर चले गये। प्रभु वहां से विहारकर अन्यत्र चले गये । श्रेयांसकुमार ने जिस स्थान पर प्रभु ने आहार किया था वहां एक स्वर्ण- वेदी बनवायी और वह उसकी भक्तिभाव से पूजा करने लगा। एक बार विहार करते हुए प्रभु बाहुबलि देश में, बाहुबलि के तक्षशिला नगर के बाहर उद्यान में आकर ठहरे। उद्यान-रक्षक ने ये समाचार बाहुबलि के पास पहुंचाए । बाहुबलि अत्यंत हर्षित हुए। उन्होंने प्रभु का स्वागत करने के लिए अपने नगर को सजाने की आज्ञा दी। नगर सजकर तैयार हो गया। बाहुबलि आतुरतापूर्वक दिन निकलने की प्रतीक्षा करने लगे और विचार करने लगें कि, सवेरे ही मैं प्रभु के दर्शन से अपने को और पुरजनों को पावन करूंगा। इधर प्रभु सवेरा होते ही प्रतिमास्थित समाप्त कर (समाधि छोड़) पवन की भांति अन्यत्र विहार कर गये। बाहुबलि सवेरे ही अपने परिवार और नगरवासियों सहित बड़े जुलूस के साथ प्रभु के दर्शन करने को रवाना हुए। मगर उद्यान में पहुंचकर उन्हें मालूम हुआ कि प्रभु तो विहार कर गये हैं। बाहुबलि को बड़ा दुःख . हुआ। तैयार होकर आने में वक्त खोया इसके लिए वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे। मंत्रियों ने उन्हें समझाया और कहा - 'प्रभु के चरणों के वज्र, अंकुश चक्र, कमल, ध्वज और मत्स्य के जिस स्थान पर चिह्न हो गये हैं उस स्थान के दर्शन करो और भावसहित यह मानो कि, हमने प्रभु के ही दर्शन किये हैं।' बाहुबलि ने अपने परिवार और पुरजनों सहित उस जगह वंदना की और उस स्थान का कोई उल्लंघन न करे इस खयाल से उन्होंने वहां रत्नमय धर्मचक्र स्थापन किया। वह आठ योजन विस्तार वाला, चार योजन ऊंचा और एक हजार आरों वाला था। वह सूर्यबिंब की भांति सुशोभित था। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 31: Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाहुबली ने वहां अठाई महोत्सव किया। अनेक स्थानों से लाये हुए पुष्प वहां चढ़ाए। उनसे एक पहाड़ीसी बन गयी। फिर बाहुबलि नित्य उसकी पूजा और रक्षा करनेवाले लोगों को वहां नियत कर, चक्र को नमस्कार कर, नगर में चला गया। प्रभु तप में निष्ठा रखते हुए विहार करने लगे। भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिग्रह करते थे। मौन धारण किये हुए यवनाडंब आदि म्लेछदेशों में भी प्रभु विहार करते थे और वहां के रहने वाले निवासियों को अपने मौनोपदेश से भद्रिक बनाते थे। अनेक प्रकार के उपसर्ग और परिसह सहन करते हुए प्रभु ने एक हजार वर्ष पूर्ण किये। प्रभु विहार करते हुए अयोध्या नगरी में पहुंचे। वहां पुरिमताल नामक उपनगर की उत्तर दिशा में शकटमुख नामक उद्यान था उसमें गये। वहां अष्टम तप कर प्रतिमारूप में रहे। प्रभु ने वहां अपूर्वकरणं (आठवां) गुणस्थान में आरूढ़ हुए। प्रभु ने 'सविचार पृथकत्व वितर्क' युक्त शुक्ल ध्यान के प्रथम पाये को प्राप्त किया। उसके बाद 'अनिवृत्ति' (नवां) गुणस्थान तथा 'सूक्ष्म संपराय' (दसवां) गुणस्थान को प्राप्त किया और क्षण भर में प्रभु उसी ध्यान से लोभ का हननकर क्षीणकषायी हुए। तत्पश्चात् 'एकत्वश्रुत अविचार' नाम के शुक्ल ध्यान के दूसरे पाये को प्राप्त कर अंत्य क्षण में, तत्काल ही प्रभु ने 'क्षीणमोह' (बारहवें) गुणस्थान को पाया। उसी समय प्रभु के पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अंतराय कर्म भी नष्ट हो गये। प्रभु के घातिया कर्म का हमेशा के लिए नाश हो गया। इस तरह व्रत लेने के बाद एक हजार वर्ष बीतने पर फाल्गुन मास की कृष्णा ११ के दिन, चंद्र जब उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आया था तब, सवेरे ही तीन लोक के पदार्थों को बताने वाला, त्रिकाल-विषयकज्ञान केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उस समय दिशाएँ प्रसन्न हुई। वायु सुखकारी बहने लगा। नारकी के जीवों को भी क्षण भर के लिए सुख हुआ। इंद्रादिक देवों ने आकर प्रभु का केवल ज्ञानकल्याणक किया। समवसरण की रचना हुई। सब प्राणी धर्मदेशना सुनने के लिए बैठे। : श्री आदिनाथ चरित्र : 32 : Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा भरत सदैव सवेरे ही उठकर अपनी दादी मरुदेवा माता के चरणों को नमस्कार करने जाते थे। मरुदेवा माता पुत्रवियोग में रो-रोकर अंधी हो गयी थी। भरत ने जाकर दादी के चरणों में सिर रखा और कहा'आपका पौत्र आपको प्रणाम करता है।' मरुदेवा ने भरत को आशीर्वाद दिया। उनकी आंखों से जल, धारा वह चली। हृदय भर आया। वे भराई हुई आवाज में प्रतिदिन ऐसे ही बोलती थी। ___ 'मरत! मेरी आंखों का तारा! मेरा लाड़ला। मेरे कलेजे का टुकड़ा ऋषभ मुझे, तुझे, समस्त राज्य-संपदा को, प्रजा को और लक्ष्मी को तण की भांति निराधार छोड़कर चला गया। हाय! मेरा प्राण चला गया; परंतु मेरी देह न गिरी। हाय! जिस मस्तक पर चंद्रकांति के समान मुकुट रहता था आज वही मस्तक सूर्य के प्रखर आताप से तप्त हो रहा है। जिस शरीर पर दिव्य वस्त्रालंकार सुशोभित होते थे वही शरीर आज डाँस, मच्छरादि जंतुओं का खाद्य और निवासस्थान हो रहा है। जो पहले रत्नजटित सिंहासन पर आरूढ़ होता था उसीके लिए आज बैठने को भी जगह नहीं है। वह गेंडे की तरह खड़ा ही रहता है। जिसकी हजारों सशस्त्र सैनिक रक्षा करते थे वही आज असहाय, सिंहादि हिंस्र पशुओं के बीच में विचरण करता है। जो सदैव देवताओं का लाया हुआ भोजन जीमता था उसे आज भिक्षान्न भी कठिनता से मिलता है। जिसके कान अप्सराओं के मधुर गायन सुनते थे वही आज सर्पो की कर्णकटु फूत्कार सुनता है। कहां उसका पहले का सुखवैभव और कहां उसकी वर्तमान भिक्षुक स्थिति! उसका उज्ज्वल, कमलनालसा सुकुमार शरीर आंज सूर्य के प्रखर आताप, शीतकाल के भयंकर तुषार और वर्षाऋतु के कठोर जलपात को सहकर काल और रुक्ष हो गया है। उसके भरे हुए गाल और उसका विकसित वदन सूख गये हैं। उसका वह सूखा हुआ मुंह हर समय मेरी आंखों के सामने फिरा करता है। हाय! मेरे लाल! तेरी क्या दशा है? भरत का भी हृदय भर आया। वे थोड़ी देर स्थिर रहे। आत्मसंवरण : श्री तीर्थंकर चरित्र : 33 : Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया और फिर बोले – 'देवी! धैर्य के पर्वत समान, वज्र के साररूप, महापराक्रमी, मनुष्यों के शिरोमणि, इंद्र जिनकी सेवा करते हैं ऐसे मेरे पिता की माता होकर आप ऐसा दुःख क्यों करती हैं? वे संसार सागर को पार करने के लिए उद्यम कर रहे हैं। हम उनके लिए विघ्न थे। इसलिए उन्होंने हमारा त्याग कर दिया है। भयंकर जीवजंतु उनको पीड़ा नहीं पहुंचा सकते। वे तो प्रभु को देखते ही पाषाणमूर्ति की भांति स्थिर हो जाते हैं। क्षुधा, तृषा, शीत, आतप और वर्षादि तो उनको हानि न पहुंचाकर उल्टे उनको, कर्म-शत्रुओं को नाश करने में, सहायता देते हैं। आप, जब उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त होते की बात सुनेंगी तब मेरी बात पर विश्वास करेंगी।'' __ और उस दिन राज सभा में यमक और शमक नामके दो व्यक्ति आये। यमक ने नमस्कार कर निवेदन किया – 'महाराज! आज पुरिमताल उपनगर के शकटमुख नामक उद्यान में युगादि नाथ को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है।' शमक ने निवेदन किया – 'स्वामिन! आपकी आयुधशाला में आज चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।' भरत विचार करने लगे कि, पहले मुझे किसकी पूजा करनी चाहिए। अंत में उन्होंने प्रभु की ही पूजा करने के लिए जाना स्थिर किया। यमक और शमक को पुरस्कार देकर विदा किया। फिर वे मरुदेव माता के पास जाकर बोले – 'माता! आप हमेशा कहती थी कि, मेरा पुत्र दुःखी है। आज चलकर देखिए कि, आपका पुत्र कैसा सुख संपत्तिवाला है।' मरुदेवा माता को हस्तिपर सवार कर अपने परिजन सहित भरत प्रभु को वंदन करने के लिए चले। दूर से भरत ने समवसरण का रत्नमयगढ़ देखकर कहा- 'माता! देवी और देवताओं के बनाये हुए प्रभु के इस समवसरण को देखिए, पिताजी की चरणसेवा के उत्सुक देवताओं का जयनाद सुनिये, आकाश में बजते हुए दुंदुभि की ध्वनि श्रवण कीजिए, ग्राम (राग का उठाव) और राग से पवित्र बनी हुई प्रभु का यशोगान करनेवाली गंधर्षों की हर्षोत्पादिनी गीती कर्णगोचर कीजिए।' ' पानी के प्रबल प्रवाह से जैसे अनेक दिनों का जमा हुआ कचरा भी : श्री आदिनाथ चरित्र : 34 : Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साफ हो जाता है, उसी तरह आनंदाश्रु के प्रबल प्रवाह से मरुदेवा माता की आंखों में आये हुए जाले साफ हो गये। उन्हें स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगा। उन्होंने अतिशय सहित तीर्थंकरों के समवसरण-वैभव को देखा। उन्हें बड़ा आनंद हुआ। वे प्रभु के उस सुख में तल्लीन हो गयी। और सोचा, कौन पुत्र? कौन माता? कोई किसीका नहीं?' मैं इसके मोह में पागल बनी थी? यह तो निस्पृही है। मुझे इस संसार से क्या लेना देना? इस प्रकार के विचारों से तत्काल ही समकाल में अपूर्वकरण के क्रम से क्षपकश्रेणी आरूढ़ हुई, घातिया कर्मों का नाश होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। वे अंतकृत केवली हुई। उसी समय उनके आयु आदि अघाति कर्म भी नाश हो गये। उनकी आत्मा हाथी के होदे में ही देह को छोड़कर मोक्ष में चली गयी। इस अवसर्पिणी काल में मरुदेवी माता सबसे प्रथम सिद्ध हुई। देवताओं ने उनके शरीर को, सत्कार करके क्षीर-समुद्र में निक्षिप्त किया - डाला। . मरत समवसरण में पहुंचे। प्रभु के तीन प्रदक्षिणा दे, प्रणामकर इंद्र . के पीछे जा बैठे। भगवान ने सर्व भाषाओं को स्पर्श करने वाली (अर्थात् सभी अपनी-अपनी भाषा में समझ सके ऐसी) पैंतीस अतिशयवाली और योजनगामिनी वाणी से देशना दी। उसमें संसार का स्वरूप और उससे छूटने का उपाय बताया तथा सम्यक्त्व के प्रकारों, पंच महाव्रत और श्रावक के बारह व्रतों का विवेचन किया। प्रभु की देशना सुनकर भरत राजा के पुत्र ऋषभसेन ने भरत के अन्यान्य पांच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों सहित दीक्षा ले ली। भरत के पुत्र मरीची ने भी दीक्षा ली। ब्राह्मी ने भी उसी समय दीक्षा ले ली। सुंदरी ने भी दीक्षा लेना चाहा; परंतु भरत ने आज्ञा नहीं दी। इसलिए वह श्राविका हुई। भरत ने भी श्रावक के व्रत ग्रहण किये। मनुष्य तिर्यंच और देवताओं की पर्षदा में से, कइयों ने मुनिव्रत ग्रहण किया, कई श्रावक बनें और कइयों ने केवल सम्यक्त्व ही धारण किया। तापसों में से कच्छ और महाकच्छ को छोड़कर और सभी ने प्रभु के पास आकर फिर से दीक्षा ले ली। उसी समय से ऋषभसेन (पुंडरीक) आदि साधुओं, ब्राह्मी आदि साध्वियों, भरत आदि : श्री तीर्थंकर चरित्र : 35 : Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावकों और सुंदरी आदि श्राविकाओं के समूह को मिलाकर चतुर्विध संघ की स्थापना हुई। उस चतुर्विध संघ की योजना आज भी है। और उसके द्वारा अनेक जीवों का कल्याण होता है। उस समय प्रभु ने गणधर होने योग्य ऋषभसेन आदि चौरासी सदबुद्धि साधुओं का, सर्व शास्त्र समन्वित उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य नामकी पवित्र त्रिपदी का उपदेश दिया। उस त्रिपदी के अनुसार उन्होंने (साधुओं ने) चतुर्दश पूर्व और द्वादशांगी रची। फिर इंद्र दिव्य चूर्ण का (वासक्षेप का) एक थाल भरकर प्रभु के पास खड़ा रहा। प्रभु ने खड़े होकर गणधरों पर, क्रमशः चूर्ण क्षेप किया - डाला और सूत्र से, अर्थ से, सूत्रार्थ से, द्रव्य से, गुण से, पर्याय से और नय से, उन्हें अनुयोग-अनुज्ञा दी, (उपदेश देने की आज्ञा दी) तथा गण की अनुज्ञा भी दी। तत्पश्चात् देवताओं, मनुष्यों और उनकी स्त्रियों ने दुंदुभि की ध्वनिपूर्वक उन पर चारों तरफ से वासक्षेप किया। प्रभु की वाणी को ग्रहण करने वाले सभी गणधर हाथ जोड़कर खड़े रहे। उस समय प्रभु ने पूर्व की तरफ मुंहकर बैठे हुए पुनः धर्मदेशना दी। उज्ज्वल शालि का बना हुआ और देवताओं द्वारा सुगंधमय किया हुआ, बलि (नैवेद्य) समवसरण के पूर्व द्वार से अंदर लाया गया। स्त्रियां मंगल-गीत गाती हुई उसके पीछे-पीछे आयी। वह बलि प्रभु के प्रदक्षिणा करके उछाला गया। उसका आधा भाग पृथ्वी में पड़ने के पहले ही देवताओं ने ग्रहण कर लिया। अवशेष आधे का आधा भरत ने लिया और आधा लोगों ने बांट के ले लिया। उस बलि के प्रभाव से पहले के जो रोग होते हैं वे नष्ट हो जाते हैं और आगामी छः मास तक कोई रोग नहीं होता है। प्रभु वहां से उठकर मध्य भागस्थ देवछंदे में विश्राम करने के लिए बैठे। गणधरों में मुख्य ऋषभसेन ने प्रभु के पादपीठ पर बैठकर धर्मदेशना दी। तत्पश्चात् सभी अपने-अपने स्थान पर चले गये। ___ इस प्रकार तीर्थ की स्थापना होने पर प्रभु के पास रहने वाला 'गोमुख' नाम का यक्ष प्रभु के तीर्थ का अधिष्टायक देवता हुआ। इसी भांति प्रभ के तीर्थ में उनके पास रहने वाली प्रतिचक्रा नाम की देवी शासन देवी हुई, जिसे हम चक्रेश्वरी के नाम से पहचानते हैं। .. : श्री आदिनाथ चरित्र : 36 : Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महर्षियों-साधुओं से परिवृत्त प्रभु ने वहां से विहार किया। उनके केश, डाढ़ी और नाखून बढ़ते नहीं थे। प्रभु जहां जाते थे वहां १. वैर, २. मरी, ३. ईति, ४. अवृष्टि, ५. दुर्भिक्ष, ६. अतिवृष्ठि और ७. स्वचक्र और परचक्र से होनेवाला भय - ये उपद्रव नहीं होते थे। ___ सुंदरी को भरत ने दीक्षा नहीं लेने दी, इससे वह घर ही में आंबिल करके हमेशा रहती थी। भरत जब छः खंड पृथ्वी को विजय करके आये तब उन्होंने सुंदरी की कृश मूर्ति देखी। उसका कारण जाना और उन्हें दीक्षा लेने की आज्ञा दे दी। उस समय अष्टापद पर प्रभु का समवसरण था। सुंदरी ने वहां जाकर प्रभु के पास से दीक्षा ले ली। भरत ने दीक्षा महोत्सव किया। भरत छः खंड पृथ्वी विजय करके आये तब उन्होंने अपने भाइयों से भी कहलाया कि तुम आकर हमारी सेवा करो। अठानवें भाइयों ने उत्तर दिया कि, हम भरत की सेवा नहीं करेंगे। राज्य हमें हमारे पिता ने दिया है। ___ तत्पश्चात् उन्होंने प्रभु के पास जाकर सारी बातें निवेदन की। प्रभु ने . उन्हें धर्मोपदेश देकर संयम ग्रहण करने की सूचना की। तद्नुसार उन्होंने संयम ग्रहण कर लिया। . ..एक बार प्रभु ने आर्या ब्राह्मी और सुंदरी से कहा – 'भरत से विग्रह कर विजयी बनने के बाद बाहुबलि को वैराग्य हो गया; उसने दीक्षा ग्रहण कर घोर तपश्चर्या आरंभ की है। परंतु उसके मान कषाय का अभी तक नाश नहीं हुआ है। वह सोचता है कि, मैं अपने से छोटे भाइयों को कैसे प्रणाम करूं? जब तक यह भाव रहेगा उसे केवलज्ञान नहीं होगा। अतः तुम जाकर उसे उपदेश दो। यह समय है। वह तुम्हारा उपदेश मान लेगा। ब्राह्मी और सुंदरी ने ऐसा ही किया। बाहुबलि ने वंदन के लिए पैर उठाया कि उनको केवल ज्ञान हो गया। ___. परिव्राजक मत की उत्पत्ति - एक बार उष्ण ऋतु में भरत के पुत्र मरिचि मुनि घबराकर विचार करने लगे कि, इस दुस्सह संयम-भार से छूटने के लिए क्या प्रयत्न करना चाहिए? अगर पुनः गृहस्थ होता हूं तो कुल की मर्यादा जाती है और चारित्र पाला नहीं जाता। सोचते-सोचते उन्हें एक : श्री तीर्थंकर चरित्र : 37 : Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाय सूझा - उन्होंने चेत के बजाय कषाय (लाल) रंग के वस्त्र धारण किये। धूप वर्षा से बचने के लिए वे छत्ता रखने लगे। शरीर पर चंदनादि का लेप करने लगे। स्थूल हिंसा का ही त्याग रखा। जोड़े पहिनने लगे। और नदी आदि का जल पीने लगे और हमेशा कच्चे जल से स्नान करने लगे। इतना करने पर भी वे विहार प्रभु के साथ ही करते थे और जो कोई उनसे उपदेश सुनने आता था। उसे शुद्ध धर्म का ही उपदेश देते थे। अगर कोई उनसे पूछता था कि, तुम ऐसा आचरण क्यों करते हो तो उसे वे कहते थे कि, मेरे में इतनी शक्ति नहीं है। एक बार वे रूग्ण हुए। साधुओं ने व्रत-त्यागी समझकर उनकी सेवा नहीं की। इससे उनको विशेष कष्ट हुआ और उन्होंने अपने समान कुछ को बनाने का विचार किया। ये जब अच्छे होकर एक बार प्रभु की देशना में समवसरण के बाहर बैठे हुए थे तब कपिल नामक राजकुमार देशना सुनने आया। उन्होंने उसे देशना देकर भगवान के पास भेजा भगवान का प्रतिपादित धर्म उसे बहुत कठोर जान पड़ा। पुनः विचित्र वेषवाले मरिचि के पास आकर पूछा - आपके पास धर्म है या नहीं? तब उन्होंने अपना सहायक करने के लिए योग्य जानकर मेरे पास भी धर्म है ऐसा उत्सूत्र कथन कर कोटा कोटी सागरोपम संसार भ्रमण बढ़ाया और कपिल को अपना शिष्य बनाया तभी से यह परिव्राजक मत प्रचलित हुआ। ब्राह्मणों की उत्पत्ति - एक बार भरत चक्रवर्ती ने साधु भगवंतों को आहार वहोराने की इच्छा से आहार बनाकर ले गया। भगवंत ने अकल्पनीय कहरकर न लिया। तब इंद्र के कहने से सारे श्रावकों को बुलाकर कहा कि, तुम लोगों को कृषि आदि कार्य न करके केवल पठनपाठन में और ज्ञानार्जन में ही अपना समय बिताना चाहिए और भोजन हमारे रसोड़े में आकर करना चाहिए। वे ऐसा ही करने लगे। मुफ्त का भोजन मिलता देखकर कई आलसी लोग भी अपने को श्रावक बता-बताकर भोजन करने आने लगे। तब श्रावकों की परीक्षा करके उन्हें भोजन दिया जाने लगा। जो श्रावक होते थे उनके, ज्ञान दर्शन और चारित्र के चिह्नवाली, कांकणी रत्न से तीन रेखाएँ : श्री आदिनाथ चरित्र : 38 : Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर दी जाती थी। भरत ने उन्हें यह आज्ञा दे रखी थी कि तुम जब भोजन करके रवाना हो तब मेरे पास आकर यह पद्य बोला करो - 'जितो भवान वर्द्धते भीस्तस्मान्मा हन मा हन।' अर्थात् - तुम जीते हुए हो; भय बढ़ता है इसलिए (आत्मगुण को) न मारो न मारो। सदैव उच्च स्वर से वे लोग इस वाक्य का उच्चारण करते थे, इसलिए लोगों ने उनका नाम 'माहन' रखा। राजा ने उन लोगों को भोजन दिया, इसलिए प्रजा भी उन्हें जिमाने लगी। उनके स्वाध्याय के लिए- ज्ञान के लिए ग्रंथ बनाये गये। उनका नाम वेद (ज्ञान) रखा गया। माहन शब्द अपभ्रंश होते होते 'ब्राह्मण' हो गया। अतः वे लोग और उनकी संतान 'ब्राह्मण' के नाम से ख्यात हुए। भरत चक्रवर्ती के बाद जब कांकणी रत्न का अभाव हो गया तब उनके पुत्र सूर्ययशा ने स्वर्ण के तीन सूत बनाकर उन्हें पहिनने के लिए दिये। पीछे से शनैः ये सूत रूई के हो गये और उसका नाम यज्ञोपवीत पड़ा। एक बार भगवान के समवसरण में चक्रवर्ती भरत के प्रश्न करने पर प्रमु ने कहा कि, इस अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र में मेरे बाद तेईस तीर्थंकर होंगे। और तेरे बाद ११ चक्रवर्ती तथा ६ वासुदेव ६ बलदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे। . . भरत ने पूछा – भगवंत इस पर्षदा में कोई तीर्थंकर का जीव है? तब भगवान ने पर्षदा के बाहर रहे मरिचि को दर्शाकर कहा – यह इस भरत में प्रथम वासुदेव, महाविदेह में चक्रवर्ती होकर २४वां तीर्थंकर होगा। तब भरत ने उनको वासुदेव, चक्रवर्ती के नाते नहीं पर तीर्थंकर आप होंगे इस कारण मैं आपको वंदन करता हूं। वंदन किया। तब मरिचि ने कूल मद कर नीच गौत्र बांधा। दीक्षा के पश्चात् जब लाख पूर्व बीते तब प्रभु ने अपना निर्वाण समय नजदीक समझ अष्टापद पर्वत की तरफ प्रयाण किया। वहां जाकर दस हजार मुनियों के साथ प्रभु ने चतुर्दश तप (छः उपवास) करके पादोपगमन' अनशन किया। 1. वृक्ष की तरह स्वस्थ और निश्चेष्ट रहने को ‘पादोपगमन' कहते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 39 : Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भरत चक्रवर्ती अनशन के समाचार सुनकर व्याकुल हुए और अपने परिवार सहित अष्टापद पर पहुंचे। ध्यानस्थ प्रभु को नमस्कार कर उनके सामने बैठ गये। चौसठ इंद्रों के भी आसन कंपे। उन्होंने प्रभु का निर्वाण समय जाना। वे प्रभु के पास आये और प्रदक्षिणा देकर पाषाणमूर्ति की भांति स्थिर होकर सामने बैठ गये। ___ इस अवसर्पिणीकाल के तीसरे आरे के जब नैव्याशी पक्ष (तीन बरस साढे आठ महिने) रहे तब माघकृष्णा त्रयोदशी के सर्वरे, अमिचि नक्षत्र में, चंद्र का योग आया था उस समय पंर्यकासनस्थ प्रभु ने बादर काययोग में रहकर बादर वचन-योग और बादर मनोयोग को रोका; फिर सूक्ष्म काययोग का आश्रय ले, बादर काययोग, सूक्ष्म मनोयोग तथा सूक्ष्म वचनयोग को रोका। अंत में वे सूक्ष्म काययोग का भी त्यागकर और सूक्ष्म क्रिया' नामक शुक्ल ध्यान के तीसरे पाये के अंत को प्राप्त हए। तत्पश्चात उन्होंने 'उछिन्नक्रिया' नामके शुक्लध्यान के चौथे पाये का जिसका काल केवल पांच ह्रस्व अक्षरों के उच्चारण जितना ही है आश्रय किया। अंत में केवलज्ञानी, केवलदर्शनी, सर्व दुःखविहीन, आठों कर्मों का नाश कर सारे अर्थों को सिद्ध करने वाले अनंत वीर्य, अनंत सुख और अनंत ऋद्धिवाले, प्रभु बंध के अभाव से एरंड फल के बीज की तरह उध्र्व गतिवाले होकर स्वभावतः सरल मार्ग द्वारा लोकाग्र को (मोक्ष को) प्राप्त हुए। प्रभु के निर्वाण से सुख की छाया का भी कभी दर्शन नहीं करनेवाले-नारकी जीवों को भी क्षण वार (अन्तर्मुहूर्त) के लिए सुख हुआ। दस हजार श्रमणों (साधुओं) को भी, अनशन व्रत लेने के और क्षपकश्रेणी में आरूढ़ होने के बाद केवलज्ञान प्राप्त हुआ। फिर मन, वचन और काय के योग को सर्व प्रकार से रुद्धकर वे भी ऋषभदेव स्वामी की भांति ही परम पद को प्राप्त हुए। चक्रवर्ती भरत वज्राहत की भांति इस घटना से मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़े। इंद्र उनके पास बैठकर रूदन करने लगा। देवताओं ने भी इंद्र : श्री आदिनाथ चरित्र : 40 : Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का साथ दिया। मूर्छित चक्री जब चैतन्य हुए तब उन्होंने भी पशुपक्षियों तक को रुला देनेवाला आक्रंद करना प्रारंभ किया। ____ जब सब का शोक रुदन से कुछ कम हुआ तब प्रभु का निर्वाण महोत्सव (निर्वाणकल्याणक) किया गया और प्रभु का भौतिक शरीर भी देखते ही देखते चिता में भस्मसात हो गया। .. इस तरह एक महान आत्मा हमेशा के लिए संसार से मुक्त हो गये। अपने अंतिम भव. में संसार का महान उपकार कर गये और संसार को सुख का वास्तविक स्थान तथा उस स्थान पर पहुंचने का मार्ग दिखा गये। _ प्रभु की चौरासी लाख पूर्व की आयु इस प्रकार पूर्ण हुई। २० लाख पूर्व कुमारावस्था में, ६३ लाख पूर्व राज्य का पालन और सुख भोग में, १००० वर्ष छद्मस्थावस्था में १००० वर्ष कम एक लाखपूर्व केवली पर्याय में। उनका शरीर ५०० धनुष ऊंचा था। . ___ भगवान का धार्मिक परिवार इस प्रकार था - ८४ गणधर ८४ गण;'. ८४ हजार साधु, ३ लाख साध्वियां, ३०५००० श्रावक, ५५४००० श्राविकाएँ, ४७५० चौदह पूर्वधारी श्रुत केवली; ६ हजार.अवधिज्ञानी, २०००० केवलज्ञानी २०६०० वैक्रिय लब्धिवाले, १२६५० ऋजुमति मनःपर्यवज्ञानी और १२६५० वादी थे। २०००० साधु और चालीस हजार साध्वियाँ मोक्ष में गयी। २२६०० साधु अनुत्तर विमान में गये। धरम 'भेद' अभेद सुभाषकं, सुववहार के निश्चय भेदकम् । सकल पाप कुकर्म निकंदकं, ऋषभ वंदन वारक फंदकम् ॥ आदिनाथ है प्रथम यतीश्वर, करम खपावे अष्टापद पर । इगशतअड मुनि शिव पद संगे, वंदन करिए अतीव उमंगे । : श्री तीर्थंकर चरित्र : 41 : Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. श्री अजितनाथ चरित्र | अर्हन्तमजितं विश्व-कमलाकरभास्करम् । . अम्लानकेवलादर्श-सङ्क्रान्तजगतं स्तुवे ॥ भावार्थ - संसार रूपी कमलसरोवर को प्रकाशित करने में सूर्य के समान और जगत को अपने निर्मल केवल ज्ञान द्वारा जानने में दर्पण के समान श्री अजितनाथ स्वामी की मैं स्तुति करता हूं। प्रथम भव : समस्त द्वीपों के मध्य में नाभि के समान जंबूद्वीप है। उसमें महाविदेह क्षेत्र है। इस क्षेत्र में हमेशा 'दुखमा सुखमा' नामक चौथा आरा वर्तता है। इसी क्षेत्र में सीता नामक एक बड़ी नदी थी। उसके दक्षिण तटपर वत्स नाम का देश था। वह बहुत समृद्धिशाली था। उसमें सुसीमा नामकी नगरी थी। उसकी सुंदरता को देखकर देखनेवाले स्वर्ग की कल्पना करने लगते थे। कई कहते थे पातालस्थ असुर देवों की यह भोगवती नगरी है। कई कहते थे यह देवताओं की अमरावती है जो स्वर्ग से यहां उतर आयी है और कई कहते थे यह तो उन दोनों की छोटी बहन है। पाताल और स्वर्ग में उन्होंने अधिकार किया है। इसने मनुष्य लोक में अपना स्थान बनाया है। इसी नगर में विमलवाहन नाम का राजा राज्य करता था। वह प्रजा को संतान की तरह पालता था, पोषता था और उन्नत बनाता था। न्याय तो उसके जीवन का प्रदीप था। ओर तो ओर वह निजकृत अन्याय भी कभी नहीं सहता था। उसके लिए दंड लेता था, प्रायश्चित्त करता था। प्रजा के लिए वह सदा अपना सर्वस्व न्योछावर करने को तत्पर रहता था। प्रजा भी उसको प्राणों से ज्यादा प्यार करती थी। जहां उसका पसीना गिरता वहां 1. देखो तीर्थंकर चरितभूमिका, पेज ३०१ : श्री अजितनाथ चरित्र : 42 : Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रजा अपना रक्त बहा देने को सदा तैयार रहती थी। वह शत्रुओं के लिए जैसा वीर था, वैसा ही नम्र और याचकों के लिए दयालु और दाता था। इसीलिए वह युद्ध वीर, दयावीर और दानवीर कहलाता था। राज-धर्म में रहकर बुद्धि को स्थिर रख, प्रमाद को छोड, जैसे सर्प राज अमृत की रक्षा करता है वैसे ही वह पृथ्वी की रक्षा करता था। . संसार में वैराग्योत्पत्ति के अनेक कारण होते हैं। संस्कारी आत्माओं के अंतःकरणों में तो प्रायः, जब कभी वे सांसारिक कार्यों से निवृत्त होकर बैठे होते हैं, वैराग्य के भाव उदय हो आते हैं। __ राजा विमलवाहन संस्कारी था, धर्मपरायण था। सवेरे के समय, एक दिन, अपने झरोखे में बैठे हुए उसको विचार आया, 'मैं कब तक संसार के इस बोझे को उठाये फिरूंगा। जन्मा, बालक हुआ-बाल्यावस्था दूसरों की संरक्षता में, खेलन कूदने में और लाड़ प्यार में खोयी। जवान हुआ - युवती पत्नी लाया, विषयानंद निमग्न हुआ, इंद्रियों का दास बना, उन्मत्त होकर भोग भोगने लगा, धर्म की थोड़ी बहुत भावनाएँ जो लड़कपन में प्राप्त हुई थी। उन्हें भुला दिया। मगर उसका क्या परिणाम हुआ? पिता के देहांत ने सब सुख छीन लिया। छिः वास्तविक सुख तो कभी छिनता नहीं है। वह विषय-सेवन का उन्माद गया मगर सर्वथा न मिटा। राज्यकार्य के बोझ के तले वह दब गया। राजा होने पर दुःख और चिंता की मात्रा बढ़ गयी। कठोर राज्यशासन चलाने में कितनों को सताया? कितनों का जी दुखाया? उच्चाकांक्षा, राज्यलोभ और अहमन्यता के कारण कितनों को दुःखी किया? यह सब कुछ किया किन्तु आत्मसुख न मिला। अब पवन विकंपित लतापत्र की भांति यौवन की चंचलता भी जाती रही और राज्य वर्ग का उन्माद भी मिट गया। जिन चीजों को मैं सुखदायी समझता था, जिन भोगों के लिए मैंने समझा था कि इन्हें भोग डालूंगा मगर जैसे के तैसे ही हैं। मेरी ही भोगने की शक्ति जाती रही; तो भी तृष्णा न मिटी।' .. पाठकगण! विवेकी और धर्मी मनुष्यों के दिलों में ऐसे विचार प्रायः आया ही करते हैं। भर्तृहरि ने ऐसे ही विचारों से प्रेरित होकर लिखा है - : श्री तीर्थंकर चरित्र : 43 : Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भोगा न भुक्ता वयमेव भुक्ता - स्तपो न तप्तं वयमेव तप्ताः । कालो न यातो वयमेव याता - स्तृष्णा न जीर्णा वयमेव जीर्णाः ।। . भाव यह है कि, हमने बहुत कुछ भोग भोगे परंतु भोगों का अंत न आया; हां हमारा अंत हो गया। हमने तापों को, दुःखों को नहीं सुखाया परंतु संसार के तापों ने शोक, चिन्तादि ने तपा-तपाकर हमारे शरीर को क्षीण कर दिया। काल-समय समाप्त न हुआ, परंतु हमारी आयु समाप्त हो गयी। जिस तृष्णा के वश में होकर हमने अपने कार्य किये वह तृष्णा तो नष्ट न हुई मगर हम ही नष्ट हो गये। उर्दू के कवि जौक ने कहा है - पर जोक तूं न छोड़ेगा इस पीस जाल को, यह पीरा जाल गर तुझे चाहे तो छोड़ दे। अभिप्राय यह है कि, लोग दुनिया को नहीं छोड़ते। दुनिया ही लोगों . को निकम्मे बनाकर छोड़ देती है। . विमलवाहन वैराग्य-भावों में निमग्न था, उसी समय उसने सुना कि अरिंदम नामक आचार्य महाराज विहार करते हुए आये हैं और उद्यान में ठहरे हैं। इस समाचार को सुनकर राजा को इतना हर्ष हुआ जितना हर्ष दाने के मोहताज को अतुल संपत्ति मिलने से या बांझं को सगर्भा होने से होता है। वह तत्काल ही बड़ी धूमधाम के साथ आचार्य महाराज को वंदना करने के लिए रवाना हुआ। उद्यान के समीप पहुंचकर राजा हाथी से उतर गया। उसने अंदर जाकर आचार्य महाराज को विधि पूर्वक वंदन किया। मुनि के चरणों में पहुंचते ही राजा ने अनुभव किया कि, मुनि के दर्शन उसके लिए, कामबाण के आघात से बचाने के लिए वज्रमय बख्तर के समान हो गये हैं; उसका राग-रोग मुनिदर्शन-औषध से मिट गया है। द्वेष-शत्रु मुनिदर्शन-तेज से भाग गया है। क्रोध-अग्नि दर्शन-मेघ से बुझ गयी है; मानवृक्ष को दर्शनगज ने उखाड़ दिया है; माया-सर्पिणी को दर्शनगरुड़ ने डस लिया है। लोभपर्वत को दर्शनव्रज ने विध्वंस कर दिया है; : श्री अजितनाथ चरित्र : 44 : Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मोहांधकार को दर्शनसूर्य ने मिटा दिया है। राजा के अंतःकरण में एक अभूतपूर्व आनंद हुआ। पृथ्वी के समान क्षमा को धारण करनेवाले आचार्य महाराज ने उसको धर्मलाभ दिया। राजा बैठ गया। आचार्य महाराज धर्मोपदेश देने लगे। जब उपदेश समाप्त हो गया, तब राजा ने पूछा – 'दयानाथ! संसार रूपी विषवृक्ष के अनंत दुःख रूपी फलों को भोगते हुए भी मनुष्यों को जब वैराग्य नहीं होता; वे अपने घरबार नहीं छोड़ते; तब आपने कैसे राज्यसुख छोड़कर संयम ग्रहण कर लिया?' मुनि ने अपनी शांत एवं गंभीर वाणी में उत्तर दिया - 'राजन्! संसार में जो सोचता है उसके लिए प्रत्येक पदार्थ वैराग्य का कारण होता है और जो नहीं सोचता उसके लिए भारी से भारी घटना भी वैराग्य का कारण नहीं होती। मैं जब गृहस्थ था तब अपनी चतुरंगिणी सेना सहित दिग्विजय करने निकला। एक जगह बहुत ही सुंदर बगीचा मिला। मैंने वहीं डेरा डाला और एक दिन बिताया। दूसरे दिन मैं वहां से चला गया। कुछ काल के बाद जब. मैं दिग्विजय करके वापिस लौटा तब मैंने देखा कि, वह बगीचा नष्ट हो गया है, सुमन-सौरभपूर्ण वह बगीचा कंटकाकीर्ण हो रहा है। उसी समय मेरे अंतःकरण में वैराग्य - भावना उठी। संसार की असारता और उसका मायाजाल मेरी आंखों के सामने खड़ा हुआ। मैंने, अपने राज्य में पहुंचते ही राज्य लड़के को सौंप दिया और निर्वाण-प्राप्ति के लिए चिंतामणि रत्न के समान फल देनेवाली दीक्षा, महामुनि के पास से ग्रहण कर ली।' . . . . राजा का अंतःकरण पहले ही संसार से उन्मुख हो रहा था। इस समय उसने इसे छोड़ देने का संकल्प कर लिया। उसने आचार्य महाराज से प्रार्थना की – 'गुरुवर्य! मैं जाकर राजभार अपने लड़के को सौमूंगा और कल फिर आपके दर्शन करूंगा। आपसे संयम ग्रहण करूंगा। कल तक आप यहां से विहार न करें।' आचार्य महाराजा ने राजा की प्रार्थना स्वीकार की। राजा नगर में गया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 45 : Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगर में जाकर विमलवाहन ने अपने मंत्रियों को बुलाया। उनके सामने अपनी दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। मंत्रियों ने खिन्न अंतःकरण के साथ राजा की इच्छा में अनुमोदन दिया। तब राजा ने अपने पुत्र को बुलाया और उसे राजभार ग्रहण करने के लिए कहा। यद्यपि उसका हृदय बहुत दुःखी था तथापि पिता की आज्ञा को उसने सिर पर चढ़ाया। विमलवाहन ने पुत्र को राजसिंहासन पर बिठाकर, आचार्य महाराज के पास दूसरे दिन दीक्षा ले ली। इन्होंने समिति, गुप्ति, परिसह आदि क्रियाओं को निर्दोष करते हुए अपने मन को स्थिर किया। वे सिद्ध, गुरु, बहुश्रुत, स्थविर, तपस्वी, श्रुतज्ञान और संघ में भक्ति रखते थे। यही उनका इन स्थानकों का आराधन था। इनसे और अन्यान्य तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन करनेवाले स्थानकों का आराधन करके, तीर्थंकर नामकर्म उपार्जन किया। उन्होंने एकावली, रत्नावली और 'ज्येष्ठ सिंहनिष्क्रीडित' तथा 'कनिष्ठ सिंह निष्क्रीडित' आदि उत्तम तप किये। अंत में उन्होंने दो प्रकार की संलेखना और अनसन व्रत ग्रहण करके पंच परमेष्ठी का ध्यान करते हुए देह का त्याग किया। दूसरा भव : वहां से आयु पूर्ण कर राजा विमलवाहन, का जीव 'विजय' नाम के अनुत्तर विमान में, तैंतीस सागरोपम की आयु वाला देव हुआ। वहां के देवताओं का शरीर एक हाथ. का होता है। उनका शरीर चंद्रकिरणों के समान उज्ज्वल होता है। उन्हें अभिमान नहीं होता। वे सदैव सुखशय्या में सोते रहते हैं। उत्तर क्रिया की शक्ति रखते हुए भी उसका उपयोग करके वे दूसरे स्थानों में नहीं जाते। वे अपने अवधिज्ञान से समस्त लोकनालिका (चौदह राजलोक का) अवलोकन किया करते हैं। वे आयुष्य के सागरोपम की संख्या जितने पक्षों से, यानी तेतीस पक्ष बीतने पर, एक बार वास लेते हैं। तेतीस हजार वरस में एक बार उन्हें भोजन की इच्छा होती है। जो शुभ 1. देखो पेज नं. ११ 2. तपों का हाल जानने के लिए देखो – 'श्री तपोरत्न महोदधिः ‘तपविधि संचय' : श्री अजितनाथ चरित्र : 46 : Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुद्गलों के परिणमन से पूर्ण हो जाती है। इसी प्रकार विमलवाहन राजा के जीव का मी काल बीतने लगा। तब आयु में छः महीने बाकी रहे तब दूसरे देवताओं की तरह उन्हें मोह न हुआ, प्रत्युत पुण्योदय के निकट आने से उनका तेज और भी बढ़ गया। तीसरा भव : . विनीता नगरी के स्वामी आदि तीर्थंकर श्री ऋषभदेव स्वामी के बाद इक्ष्वाकु वंश में असंख्य राजा हुए। उस समय जितशत्रु वहां के राजा थे, विजयादेवी उनकी रानी थी। विजयादेवी ने हस्ती आदिक चौदह स्वप्न देखे। वह सगर्भा हुई। विमलवाहन राजा का जीव विजया विमान से च्यवकर, रत्न की खानि के समान विजयादेवी की कूख में आया। उस दिन वैशाख की शुक्ल त्रयोदशी थी और चंद्र का योग रोहिणी नक्षत्र में आया था। इनको गर्भ में ही तीन ज्ञान (मति, श्रुति और अवधि) थे। उसी दिन रात को राजा के भाई सुमित्र की स्त्री वैजयंती को भीजिसका दूसरा नाम यशोमती था - वे ही चौदह स्वप्न आये। उसकी कूख में भावी चक्रवर्ती का जीव आया। . सवेरा होने पर राजा को दोनों के स्वप्नों की बात मालूम हुई। राजा ने निमत्तिकों से फल पूछा। उन्होंने नक्षत्रादि का विचार करके स्वप्नों का फल बताया कि, विजयादेवी की कूख से तीर्थंकर जन्म लेंगे और यशोमती के गर्भ से चक्रवर्ती। इंद्रादि देवों के आसन विकंपित हुए। उन्होंने नंदीश्वर द्वीप पर जाकर च्यवनकल्याणक का उत्सव किया। . जब नौ महीने और साढ़े आठ दिन व्यतीत हुए तब माघ शुक्ला अष्टमी के दिन विजयादेवी ने, सत्य और प्रिय वाणी जैसे पुन्य को जन्म देती है, वैसे ही पुत्ररत्न को प्रसव किया। मुहूर्त शुभ था। सारे ग्रह उच्च के थे। नक्षत्र रोहिणी था। पुत्र के पैर में हाथी का चिह्न था। प्रसव के समय देवी और पुत्र-दोनों को किसी प्रकार का कष्ट नहीं हुआ। बिजली के प्रकाश के समान कुछ क्षण (अन्तर्मुहूर्त) के लिए तीनों भुवन में उजाला हो गया। क्षण : श्री तीर्थंकर चरित्र : 47 : Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वार के लिए उस समय नारकी जीवों को भी सुख हुआ । चारों दिशाओं में प्रसन्नता हुई। लोगों के अंतःकरण प्रातःकालीन कमल की भांति विकसित हो गये। दक्षिण वायु मंद मंद बहने लगी। चारों तरफ शुभसूचक शकुन होने लगे। कारण, महात्माओं के जन्म से सब बातें अच्छी ही होती है। छप्पन कुमारिकाओं के आसन कंपे और वे प्रभु की सेवा में आयी । इंद्रादि देवों के आसन विकंपित हुए। चौसठ इंद्रों ने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक किया। उसी रात को वैजयंती ने भी जैसे गंगा स्वर्णकमल को प्रकट करती है वैसे ही एक पुत्र को जन्म दिया। जितशत्रु राजा को यथा समय समाचार दिये गये। राजा ने बड़ा हर्ष प्रकट किया। उसने प्रसन्नता के कारण राजा- -विद्रोहियों और शत्रुओं तक को छोड़ दिया। शहर में ये समाचार पहुंचे। आनंद - कोलाहल से नगर परिपूर्ण हो गया। बड़े-बड़े सामंत और साहूकार लोग आ-आकर अपनी प्रसन्नता प्रकट करते हुए राजा को भेंट देने लगे। किसी ने रत्नाभूषण, किसीने बहु मूल्य रेशमी और सनके वस्त्र, किसी ने शस्त्रास्त्र, किसीने हाथी घोड़े और किसीने उत्तमोत्तम कारीगरी की चीजें भेट कीं। राजा ने उनकी आवश्यकता न होते हुए भी अपनी प्रजा को प्रसन्न रखने के लिए सब प्रकार की भेटें स्वीकार की। समस्त नगर में बंदनबार बंधे। दस दिन तक नगर में राजा ने उत्सव कराया। माल का महसूल न लिया और किसी को दंड भी न दिया। कुछ दिन बाद राजा ने नामकरण संस्कार के लिए महोत्सव किया। मंगल गीत गाये गये। बहुत सोच विचार के बाद राजा ने अपने पुत्र का नाम 'अजित' रखा। कारण, जब से यह शिशु कूख में आया तब से राजा अपनी पत्नी के साथ चौसर खेलकर कभी नहीं जीते। भ्राता के पुत्र का नाम 'सगर' रखा गया। 1 अजितनाथ स्वामी अपने हाथ का अंगूठा चूसते थे। उन्होंने कभी माय (माता) का दूध नहीं पिया। उनके अंगूठे में इंद्र को रखा हुआ अमृत : श्री अजितनाथ चरित्र : 48: Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। सभी तीर्थंकरों के अंगूठे में इंद्र अमृत रखता है। दूज के चंद्रमा की तरह दोनों राजकुमार बढ़ने लगे। योग्य आयु होने पर 'सगर' पढ़ने के लिए भेजे गये। तीर्थंकर जन्म ही से तीन ज्ञानवाले होते हैं। इसीलिए महात्मा अजितकुमार उपाध्याय के पास अध्ययन के लिए नहीं भेजे गये। उनकी बाल्यावस्था समाप्त हुई। जब उन्होंने जवानी में प्रवेश किया। उनका शरीर साढ़े चार सौ धनुष का, संस्थान समचतुरस्र और संहनन 'वज्र ऋषभ नाराच' था। वक्षस्थल में श्री वत्स का चिह्न था। वर्ण स्वर्ण के समान था। उनकी केशराशि यमुना की तरंगों के समान कुटिल और श्याम थी। उनका ललाट अष्टमी के चंद्रमा के समान दमकता था। उनके गाल स्वर्ण के दर्पण की तरह चमकते थे। उनके नेत्र नीले कमल के समान स्निग्ध और मधुर थे। उनकी नासिका दृष्टि रूपी सरोवर के मध्य भाग में स्थित पाल के समान थी। उनके होठ बिंबफल के जोड़े से जान पड़ते थे। सुंदर आवर्त्तवाले कर्ण सीप से मनोहर लगते थे। तीन रेखाओं से पवित्र बना हुआ उनका कंठ शंख के समान शोभता था। हाथी के कुंभस्थल की तरह उनके स्कंध ऊंचे थे। लंबी और पुष्ट भुजाएँ भुजंग का भ्रम कराती थी। उरस्थल स्वर्णशैल की शिला के समान शोभता था। नामि मन की तरह गहन थी। वज्र के मध्य भाग की तरह उनका कटि प्रदेश कृश था। उनकी जांघ बड़े हाथी की सूंड-सी सरल और कोमल थी। दोनों कुमार अपने यौवन के तेज.और शरीर के संगठन से बहुत ही मनोहर दीखते थे। सगर अपने रूप और पराक्रमादि गुणों से मनुष्यों में प्रतिष्ठा पाता, जैसे इंद्र देवों में पाता है। और अजित स्वामी अपने रूप और गुण से, मेरु पर्वत जैसे सारे पर्वतों में अधिक मानद है वैसे ही, देवलोकवासी, ग्रैवेयकवासी और अनुत्तर विमानवासी देवों से एवं आहारक शरीर से भी अधिक माननीय थे। रागरहित अजित प्रभु को राजा ने और इंद्र ने ब्याह करने के लिए आग्रह किया। प्रभु ने अपने भोगावली कर्म को जान अनुमति दी। इनका ब्याह हुआ। सगर का भी ब्याह हो गया। ये आनंद से सुखोपभोग करने लगे। जितशत्रु राजा को और उनके भाई सुमित्र को वैराग्य हो आया : श्री तीर्थंकर चरित्र : 49 : Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने अपने पुत्रों से, जिनकी आयु के अठारह लाख पूर्व समाप्त हो गये थे, कहा – 'पुत्रो! हम अब मोक्ष साधन करना चाहते हैं। धर्म, अर्थ और काम पुरुषार्थ हम भली प्रकार साध चुके। इसलिए तुम यह राज्य-भार ग्रहण करो। [अजित राजा हुए और सगर युवराज होकर रहे।] हमें दीक्षा स्वीकार करने की अनुमति दो।' .. अजितनाथ बोले – 'हे पिताजी! आपकी इच्छा शुभ है। अगर भोगावली कर्म का विघ्न बीच में न आता तो मैं भी आपके साथ ही संयम ग्रहण कर लेता। पिता के मोक्ष-पुरुषार्थ साधन में अगर पुत्र बाधक बने तो वह पुत्र, पुत्र नहीं है। मगर मेरी इतनी प्रार्थना है कि, आप मेरे चाचाजी को यह भार सोंपिए। मेरे सिर यह भार न रखिए।' सुमित्र बोले - 'मैं संयम ग्रहण करने के शुभ काम को नहीं छोड़ सकता। राज्य-भार मेरे लिये असह्य है।' अजितकुमार – 'यदि आप राज्य ग्रहण नहीं करना चाहते हैं तो घर ही में भावयति होकर रहिए। इससे हमें सुख होगा।' - राजा बोला – 'हे बंधु! तुम आग्रह करनेवाले अपने पुत्र की बात मानो। जो भाव से यति-साधु होता है वह भी यति ही कहलाता है। और तुम्हारा यह बड़ा पुत्र तीर्थंकर है, इसके तीर्थ में तुम्हारी इच्छा पूर्ण होगी। दूसरा पुत्र चक्रवर्ती है। इन्हें धर्मानुकूल शासन करते देखकर तुम्हें अत्यंत प्रसन्नता होगी।' ___ यद्यपि सुमित्र की दीक्षा लेने की बहुत इच्छा थी, तथापि उन्होंने अपने ज्येष्ठ बंधु की आज्ञा मानकर भावयति रूप से घर ही में रहना स्वीकार कर लिया। सत्य है - ' सत्पुरुष अपने गुरुजन की आज्ञा को कभी नहीं टालते।' जितशत्रु राजा ने प्रसन्न होकर बड़े समारोह के साथ अजितकुमार का राज्याभिषेक किया। सबको बड़ी प्रसन्नता हुई। भला विश्वरक्षक स्वामी प्राप्त कर किसको प्रसन्नता न होगी? फिर अजितकुमार ने सगर को युवराज पद दिया। जितशत्रु राजा ने दीक्षा ग्रहण की। बाह्य और अंतरंग शत्रुओं को : श्री अजितनाथ चरित्र : 50: Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीतनेवाले उन राजर्षि ने अखंड व्रत पाला। क्रमशः केवल ज्ञान हुआ और अंत में शैलीशी ध्यान में स्थित उन महात्मा ने अष्ट कर्मों का नाश कर परम पद प्राप्त किया। अजितनाथ स्वामी समस्त ऋद्धि सिद्धि सहित राज करने लगे। जैसे उत्तम सारथी से घोड़े सीधे चलते हैं वैसे ही अजित स्वामी के समान दक्ष और शक्तिशाली नृप को पाकर प्रजा भी नीति मार्ग पर चलने लगी। उनके शासन में पशुओं के सिवा कोई बंधन में नहीं था। ताड़ना वाजिंत्रों ही की होती थी। पिंजरे में पक्षी ही बंद किये जाते थे। अभिप्राय यह है कि, प्रजा में सब तरह का सुख था। वह नीति के अनुसार आचरण करती थी। उसमें अजित स्वामी के प्रभाव से अनीति का लेश भी नहीं रह गया था। उनके पास सकल ऐश्वर्य था तो भी उन्हें उसका अभिमान नहीं था। अतुल शरीर बल रखते हुए भी उनमें मद न था। अनुपम रूप रखते हुए भी उन्हें सौंदर्य का अभिमान नहीं था। विपुल लाभ होते हुए भी उन्मत्तता उनके पास नहीं आती थी। अनेक प्रलोभन और मद-मात्सर्य को बढ़ाने वाली सामग्रियों के होते हुए भी वे सबको उपेक्षा की दृष्टि से देखते थे। तृणतुल्य समझते थे। इस प्रकार राज्य करते हुए अजित स्वामी ने तिरपन लाख पूर्व का समय व्यतीत किया। एक दिन प्रभु अकेले बैठे हुए थे। अनेक प्रकार के विचार उनके अंतःकरण में उठ रहे थे। अंत में वैराग्य भावना की लहर उठी। उस भावना ने उनके अन्यान्य समस्त विचारों को बहा दिया। हृदय के ही नहीं, समस्त शरीर के शिरां प्रशिरा में रग-रग और रेशे रेशे में वैराग्य-भावना ने अधिकार कर लिया। संसार से उनका चित्त उदास हो गया। जिस समय अजित स्वामी का चित्त निर्वेद हो गया था। उस समय सारस्वतादि लोकांतिक देवताओं ने आकर विनती की 'हे भगवन्! आप स्वयंबुद्ध हैं। इसलिए हम आपको किसी तरह का उपदेश देने की धृष्टता तो नहीं करते परंतु प्रार्थना करते हैं कि, आप धर्म तीर्थ चलाइए।' देवता चरणवंदना कर चले गये। अजित स्वामी ने मनोनुकूल अनुरोध : श्री तीर्थंकर चरित्र : 51 : Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देख, भोगावली कर्मों का क्षय समझ, तत्काल ही सगर कुमार को बुलाया और कहा – 'बंधु! मेरे भोगकर्म समाप्त हो चुके हैं। अब मैं संसार से तैरने का कार्य करूंगा-दीक्षा लूंगा। तुम इस राज्य को ग्रहण करो। .. सगरकुमार के हृदय पर मानों वज्र गिरा। दुःख से उनका चेहरा श्याम हो गया। नेत्रों से अश्रुजल बरसने लगे। भला स्वच्छंदतापूर्वक सुखभोग को छोड़कर कौन मनुष्य उत्तरदायित्व का बोझा अपने सिर लेना चाहेगा? उन्होंने गद्गद् कंठ होकर नम्रता पूर्वक कहा – 'देव! मैंने कौन सा ऐसा अपराध किया है कि, जिसके कारण आप मेरा इस तरह त्याग करते हैं? यदि कोई अपराध हो भी गया हो तो आप उसके लिए मुझे क्षमा करें। पूज्य पुरुष अपने छोटों को उनके अपराधों के लिए सजा देते हैं, उनका त्याग नहीं करते। वृक्ष का सिर आकाश तक पहुंचता हो, परंतु छाया नं देता हो, तो वह निकम्मा है। घनघटा छायी हो परंतु बरसती न हो तो वह निकम्मी है। पर्वत महान हो मगर उसमें जलस्रोत न हो तो वह निकम्मा है। पुष्प सुंदर हो परंतु सुगंध-विहीन हो तो निकम्मा है। इसी तरह तुम्हारे बिना यह राज्य मेरे लिये भी निकम्मा है। आप मुक्ति के लिए संसार का त्याग करते हैं, मैं आपकी चरणसेवा के लिए संसार छोडूंगा। मैं माता, पुत्र, पत्नी सबको छोड़ सकता हूं; परंतु आपको नहीं छोड़ सकता। यहां मैं युवराज होकर आपकी आज्ञा पालता था, वहां शिष्य होकर आपकी सेवा करूंगा। यद्यपि मैं अज्ञ और शक्ति-हीन हूं तो भी आपके सहारे, उस बालक की तरह जो गाय की पूंछ पकड़कर नदी पार हो जाता है, मैं भी संसार सागर से पार हो जाऊंगा। मैं आपके साथ दीक्षा लूंगा, आपके साथ वन वन फिरूंगा, आपके साथ अनेक प्रकार के दुःसह कष्ट सहूंगा, मगर आपको छोड़कर राज्यसुख भोगने के लिए मैं यहां न रहूंगा। अतः पूज्यवर! मुझे साथ लीजिए।' जिसके प्रत्येक शब्द से प्रभु-विछोह की आंतरिक दुःसह वेदना प्रकट हो रही थी, जिसका हृदय इस भावना से टूक-टूक हो रहा था कि, भगवान मुझे छोड़कर चले जायेंगे; उस मोहमुग्ध सगर कुमार को प्रभु ने अपनी स्वाभाविक अमृतसम वाणी में कहा – 'बंधु! मोहाधीन होकर मेरे : श्री अजितनाथ चरित्र : 52 : Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साथ आने की भावना अनुचित है। मोह आखिर दुःखदायी है। हां दीक्षा लेने की तुम्हारी भावना श्रेष्ठ है। संसार सागर से पार उतरने का यही एक साधन है। तो भी अभी तुम्हारा समय नहीं आया है। अभी तुम्हारे भोगावली कर्म अवशेष है। उन्हें भोगे बिना तुम दीक्षा नहीं ले सकते। अतः हे युवराज! क्रमागत अपने इस राज्यभार को ग्रहण करो, प्रजा का पालन करो, न्याय से शासन करो और मुझे संयम लेने की अनुमति दो।' सगरकुमार स्तब्ध होकर प्रभु के मुख की ओर देखने लगा। क्या करना और क्या नहीं? उसके हृदय की अजब हालत थी। एक ओर स्वामीविछोह की वेदना थी और दूसरी तरफ स्वामी की आज्ञा भंग होने का खयाल था। वह दोनों से एक भी करना नहीं चाहता था। न विछोह-वेदना सहने की इच्छा थी और न आज्ञा मोड़ने ही की। मगर दोनों परस्पर विरोधी बातें एक साथ कैसे होती? दिन रात का मेल कैसे संभव था? आखिर कुमार ने विछोह-वेदना को, आज्ञा मोड़ने से ज्यादा अच्छा समझा। 'गुरुजनों की आज्ञा मानना ही संसार में श्रेष्ठ है। इसलिए प्रभु से विलग होने में सगरकुमार का हृदय खंड-खंड होता था तो भी उसने प्रभु की आज्ञा शिरोधार्य की ओर भग्न स्वर में कहा – 'प्रभो! आपकी आज्ञा शिरसावंद्य है।' प्रभु ने सगरकुमार को राज्याधिकारी बनाया और आप वर्षीदान देने में प्रवृत्त हुए। इंद्र की आज्ञा से तिर्यजूंभक नामवाले देवता, देश में से ऐसा धन ला लाकर चौक में, चौराहों पर, तिराहों पर और साधारण मार्ग में जमा करने लगे जो स्वामी बिना का या जो पृथ्वी में गड़ा हुआ था, जो पर्वत की गुफाओं में था, जो श्मशान में था और जो गिरे हुए मकानों के नीचे दबा हुआ था। धन जमा हो जाने के बाद सब तरफ ढिंडोरा पिटवा दिया गया कि, लोग आवें और जिन्हें जितना धन चाहिए वे उतना ले जावें। प्रभु सूर्योदय से भोजन के समय तक दान देते थे। लोग आते थे और उतना ही धन ग्रहण करते थे जितनी ही उनको आवश्यकता होती थी। वह समय ही ऐसा था कि, लोग मुफ्त का धन, बिना जरूरत लेना पसंद नहीं करते थे। प्रभु रोज : श्री तीर्थंकर चरित्र : 53 : Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में देते थे। इससे ज्यादा खर्च हो इतना याचक ही न आते थे और इससे कम भी कभी खर्च नहीं होता था। कुछ मिलाकर एक वर्ष में प्रभु ने तीन सौ अट्ठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में दी थी। जब दान देने का एक वर्ष समाप्त हो गया तब सौधर्मेन्द्र का आसन कांपा। उसने अवधिज्ञान द्वारा इसका कारण जाना। वह अपने सामानिक देवादि को साथ में लेकर प्रभु के पास आया। अन्यान्य इंद्रादि देव भी विनिता नगरी में आ गये। देवताओं और मनुष्यों ने मिलकर दीक्षा महोत्सव किया। प्रभु सुप्रभा नाम की पालखी में सवार कराये गये। बड़ी धमधाम के साथ पालखी रवाना हुई। लक्षावधी सुरनर पालखी के साथ चले। देवांगनाएँ और विनिता नगरी की कुल-कामिनियां, मंगल गीत गाती हुई पीछे-पीछे चलने लगी। जुलूस अंत में 'सहसाम्रवन नामक उद्यान में पहुंचा। भगवान वहां पहुंचकर शिबिका से उतर गये। फिर शरीर पर से उन्होंने सारे वस्त्राभूषण उतार दिये और इंद्र का दिया हुआ अदूषित देवदूष्य वस्त्र धारण किया। उस दिन माघ महिना था, चंद्रमा की चढ़ती हुई कला का शुक्ल पक्ष था; नवमी तिथि थी; चंद्र रोहिणी नक्षत्र में आया था। उस समय सप्तच्छद वृक्ष के नीचे छट्ठ तप करके सायंकाल के समय प्रभु ने पंच मुष्टि लोच किया। इंद्र ने अपने उत्तरीय वस्त्र में केशों को लिया और उन्हें क्षीर समुद्र में पहुंचा दिया। प्रभु सिद्धों को नमस्कार कर तथा सामायिक का उच्चारण कर, सिद्धशिला तक पहुंचाने योग्य दीक्षावाहन पर आरूढ़ हुए। उसी समय भगवान को मनःपर्यायज्ञान हुआ। अन्यान्य एक हजार राजाओं ने भी उसी समय चारित्र ग्रहण किया। __ अच्युतेन्द्रादि देवनायकों और सगरादि नरेन्द्रों ने विविध प्रकार से भक्तिपुरःसर प्रभु की स्तुति की। फिर इंद्र अपने देवों सहित नंदीश्वर द्वीप को : श्री अजितनाथ चरित्र : 54 : Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गये और सगर विनिता नगरी में गया। दूसरे दिन प्रभु ने ब्रह्मदत्त राजा के घर क्षीर से छ? तप.का पारणा किया। तत्काल ही देवताओं ने ब्रह्मदत्त के आंगन में साढ़े बारह करोड़ स्वर्ण मुद्राओं की और पवन-विताडिलता पल्लवों की शोभा को हरनेवाले बहु मूल्य सुंदर वस्त्रों की वृष्टि की; दुंदुभिनाद से आकाश मंडल को गुंजा दिया: सुगंधित जल की वृष्टि की और पंचवर्णी पुष्प बरसाये। फिर उन्होंने बड़े हर्ष के साथ कहा – 'यह प्रभु को दान देने का फल है। ऐसे सुपात्र दान से केवल ऐहिक संपदा ही नहीं मिलती है बल्के इसके प्रभाव से कोई इसी भव में मुक्त भी हो जाता है, कोई दूसरे भव में मुक्त होता है, कोई तीसरे भव में सिद्ध बनता है और कोई कल्पातीत' कल्पों में उत्पन्न होता है। जो प्रभु को भिक्षा लेते देखते हैं वे भी देवताओं के समान नीरोग शरीरवाले हो जाते हैं।' जब भगवान ब्रह्मदत्त के घर से पारणा करके चले गये, तब उसी समय ब्रह्मदत्त ने जहां भगवान ने पारणा किया था वहां एक वेदी बनवायी, . उस पर छत्री चुनवायी और हमेशा वहां यह भक्तिभाव से पूजा करने लगा। . भगवान ईर्या समिति का पालन करते हए विहार करने लगे। कभी भयानक वन में, कभी सघन झाड़ियों में, कभी पर्वत के सर्वोच्च शिखर पर और कभी सरोवर के तीर पर, कभी नाना विधि के फूल फूलों के वृक्षों से पूरित उद्यान में और कभी वृक्ष विहीन मरुस्थल में, सभी स्थानों में निश्चल भाव से, शीत, घाम और वर्षा की बाधाओं की कुछ परवाह न करते हुए प्रभु ने ध्यान और कार्योत्सर्ग में अपना समय बिताना प्रारंभ किया। ___ चतुर्थ, अष्टम; दशम, मासिक, चातुर्मासिक, अष्टमासिक आदि उग्र तप सभी प्रकार के अभिग्रहों सहित, करते हुए भगवान ने बारह वर्ष व्यतीत किये। बारह वर्ष के बाद भगवान पुनः सहसाम्रवन नामक उद्यान में आकर सप्तच्छद वृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान में निमग्न हुए। 'अप्रमत्तसंयत' नामके सातवें गुणस्थान से प्रमु क्रमशः क्षीणमोह' नाम के गुणस्थान के अंत 1. ग्रैवेयक और अनुत्तर विमान को कल्पातीत कहते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 55 : Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में पहुंचे। वहां पहुंचते ही उनके सभी घाति कर्म नष्ट हो गये। पौष शुक्ल एकादशी के दिन चंद्र जब रोहिणी नक्षत्र में आया तब प्रभु को 'केवलज्ञान' उत्पन्न हो गया। इस ज्ञान के होते ही तीन लोक में स्थित तीन काल के सभी भावों को प्रभु प्रत्यक्ष देखने लगे। सौधर्मेन्द्र का आसन कांपा। उसने प्रभु को ज्ञान हुआ जान सिंहासन से उतरकर स्तवना की। फिर वह अपने देवों सहित सहसाम्रवन में आया। अन्यान्य इंद्रादि देव भी आये। सबने मिलकर समवसरण की रचना की। भगवान चैत्यवृक्ष की प्रदक्षिणा दे, 'तीर्थायनमः' इस वाक्य से तीर्थ को नमस्कार कर मध्य के सिंहासन पर पूर्व दिशा में मुख करके बैठे। व्यंतर देवों ने तीनों ओर प्रभु के प्रतिबिंब रखे। वे भी असली स्वरूप के समान दिखने लगे। बारह पर्षदाएँ अपने-अपने स्थान पर बैठ गयी। सगर को भी ये समाचार मिले। वह बड़ी धूमधाम के साथ प्रभु की वंदना करने के लिए आया और भक्तिपूर्वक नमस्कार कर अपने योग्य स्थान पर बैठ गया। इंद्र और सगर ने प्रभु की स्तुति की। . ___भगवान ने देशना दी। श्रीमद् हेमचंद्राचार्य ने इस देशना में धर्मध्यान का वर्णन किया है और उसके चौथे पाये संस्थान-विचय का-जिसमें जंबूद्वीप की, रचना मेरुपर्वत आदि का उल्लेख है - वर्णन विस्तारपूर्वक किया है। ___ देशना समाप्त होने पर सगर चक्रवर्ती के पिता वसुमित्र ने जो अब तक भावयति होकर रहे थे - प्रभु से दीक्षा ले ली। ... इसके बाद गणधर नामकर्मवाले और श्रेष्ठ बुद्धिवाले सिंहसेन आदि पंचानवे मुनियों को समस्त आगम रूप व्याकरण के प्रत्याहारों की सी उत्पत्ति, विगम और ध्रोव्य रूप त्रिपदी सुनायी। रेखाओं के अनुसार जैसे चित्रकार चित्र खींचता है वैसे ही त्रिपदी के अनुसार गणधरों ने चौहद पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना की। श्री अजितनाथ भगवान के तीर्थ का अधिष्ठाता 'महायक्ष नाम का यक्ष हुआ और अधिष्ठात्री देवी हुई 'अजितबला | यक्ष. का वर्ण श्याम है, : श्री अजितनाथ चरित्र : 56 : Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वाहन हाथी का है, हाथ आठ है। देवी का रंग स्वर्णसा है। उसके हाथ चार हैं। वह लोहासनाधिरूढ है। भ्रमण करते हुए एक बार भगवान कौशांबी नगरी के पास आये। वहां समवसरण की रचना हुई। भगवान ने देशना देनी शुरू की। उसी समय एक ब्राह्मण पतिपत्नी आये। वे भगवान को नमस्कार कर, परिक्रमा दे, बैठ गये। ___जब देशना समाप्त हुई तब ब्राह्मण ने पूछा – 'भगवन्! यह इस मांति कैसे है? भगवान ने उत्तर दिया – 'यह सम्यक्त्व की महिमा है। यही सारे अनिष्टों को नष्ट करने का और सारे अर्थ की सिद्धियों का एक प्रबल कारण है। ऐहिक ही नहीं पारमार्थिक महाफल मुक्ति और तीर्थंकर पद भी इसीसे मिलता है।' . ब्राह्मण सुनकर हर्षित हुआ और प्रणाम करके बोला – 'यह ऐसा ही है। सर्वज्ञ की वाणी कभी अन्यथा नहीं होती।' - श्रोताओं के लिए यह प्रश्नोत्तर एक रहस्य था, इसलिए मुख्य गणधर ने, यद्यपि इसका अभिप्राय समझ लिया था तथापि पर्षदा को समझाने के हेतु से, प्रभु से प्रश्न किया – 'भगवन्! ब्राह्मण ने क्या प्रश्न किया और आपने क्या उत्तर दिया? कृपा करके स्पष्टतया समझाइये।' . प्रभु ने कहा – 'इस नगर से थोड़ी ही दूर एक शालिग्राम नाम का अग्रहार' है। वहां दामोदार नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसके एक पुत्र था उसका नाम शुद्धभट था। सुलक्षणा नामक कन्या के साथ उसका ब्याह हुआ था। दामोदर का देहांत हो गया। शुद्धभट के पास जो धन संपत्ति थी वह दैवदुर्विपाक से नष्ट हो गयी। वह दाने दाने का मोहताज हो गया। बेचारे के पास खाने को अन्न का दाना और शरीर ढकने को फटा पुराना कपड़ा तक न रहा। आखिर एक दिन किसी को कुछ न कहकर वह घर से चुपचाप निकल गया। अपनी प्रिय पत्नी तक को न बताया कि, वह कहां जाता है। 1. दान में मिली हुई जमीन पर जो गांव बसाया जाता है उसे अग्रहार कहते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 57 : Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलक्षणा बेचारी बड़ी दुःखी हुई। मगर क्या करती? उसका कोई वश नहीं था। वह रो-रो कर अपने दिन निकालने लगी। .. . चौमासा निकट आया तब विपुला नामक साध्वीजी उसके घर चौमासा निर्गमन करने के लिए आयी। सुलक्षणा ने उन्हें रहने का स्थान दिया। साध्वी की संगति से सुलक्षणा का उद्वेगमय मन शांत हुआ और उसने सम्यक्त्व ग्रहण किया। साध्वी ने सुलक्षणा को धर्मशिक्षा भी यथोचित दी। चातुर्मास बीतने पर साध्वीजी अन्यत्र विहार कर गयी। सुलक्षणा धर्मध्यान में अपना समय बिताने लगी। कुछ काल के बाद शुद्धभट द्रव्य कमाकर अपने घर आया। उसने पूछा- 'प्रिये! तुने मेरे वियोग को कैसे सहन किया?' उसने उत्तर दिया – 'मैं आपके वियोग में रात-दिन रोती थी। रोने के सिवा मुझे कुछ नहीं सूझता था। अन्नजल छूट गया था। थोड़े जल की मछली की तरह तड़पती थी। दावानल में फंसी हुई हरिणी की तरह मैं व्याकुल थी। शरीर सूख गया था। जीवन की घड़ियां गिनती थी। ऐसे समय में विपुला नामक एक साध्वीजी चातुर्मास बिताने के लिए यहा आयी। उनका आना मेरे हृदयरोग को मिटाने में अमृतसम फलदायी हुआ। उन्होंने मुझे धर्मोपदेश देकर शांत कर दिया। समय पर उन्होंने मुझे सम्यक्त्व धारण कराया। यह सम्यक्त्व संसार-सागर से तैरने में नौका के समान है।' ब्राह्मण ने पूछा – 'वह सम्यक्त्व क्या है?' सुलक्षणा ने उत्तर दिया – 'सच्चे देव को देव मानना, सच्चे गुरु को गुरु मानना और सच्चे धर्म को धर्म मानना ही सम्यक्त्व है।' शुद्धभट ने पूछा – 'अमुक सच्चा है, यह बात हम कैसे जान सकते हैं।' सुलक्षणा ने उत्तर दिया – 'जो सर्वज्ञ हों, रागादि दोषों को जीतनेवाले हो और यथास्थित अर्थ को कहनेवाले हों; वे ही सच्चे देव होते हैं। जो महाव्रतों के धारक हों, धैर्यवाले हों, परिसहजयी हों, भिक्षावृत्तिं से प्रासुक आहार ग्रहण करनेवाले हों, निरंतर समभावों में रहनेवाले हों और धर्मोपदेशक : श्री अजितनाथ चरित्र : 58 : Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हों वे ही सच्चे गुरु होते हैं। जो दुर्गति में पड़ने से जीवों को बचाता है वह धर्म है। यह संयमादि दश प्रकार का है।' स्त्री ने फिर कहा – 'शम, संवेग, निर्वेद, अनुकंपा और आस्तिकता ये पांच लक्षण सम्यक्त्व को पहचानने के हैं।' स्त्री की बातें शुद्धभट के हृदय में जम गयी। उसने कहा – 'प्रिये! तुम भाग्यवती हो कि, तुम्हें चिंतामणी रत्न के समान सम्यक्त्व प्राप्त हुआ है।' शुद्ध भावना भाते और कहते हुए शुद्धभट को भी सम्यक्त्व की प्राप्ति हो गयी। दोनों श्रावक-धर्म का पालन करने लगे। अग्रहार के अन्यान्य ब्राह्मण इनका उपहास करने लगे और तिरस्कार पूर्वक कहने लगे कि – 'ये कुलांगार कुलक्रमागत धर्म को छोड़कर श्रावक हो गये हैं। मगर इन्होंने किसी की परवाह न की। ये अपने धर्म पर दृढ़ रहे। एक बार सरदी के दिनों में ब्राह्मण चौपाल में बैठे हुए अग्नि ताप रहे थे। शुद्धमट भी अपने पुत्र को गोद में लेकर फिरता हुआ उधर चला गया। उसको देखकर सारे ब्राह्मण चिल्ला उठे, 'दूर हो! दूर हो! हमारे स्थान को अपवित्र न करो।' . शुद्धभट को क्रोध हो आया और उसने यह कहते हुए अपने लड़के को आग में फेंक दिया कि यदि जैनधर्म सच्चा है और सम्यक्त्व वास्तविक महिमामय. है तो मेरा पुत्र अग्नि में न जलेगा। . . . सब चिहुंक उठे और खेद तथा आक्रोश के साथ कहने लगे - 'अफसोस! इस दुष्ट ब्राह्मण ने अपने बालक को जला दिया।' - वहां कोई सम्यक्त्वान् देवी रहती थी। उसने बालक को बचा लिया। उस देवी ने पहले मनुष्य भव में संयम की विराधना की थी, इससे मरकर वह व्यंतरी हुई थी। उसने एक केवली से पूछा था - 'मुझे बोधिलाभ कब होगा?' केवली ने उत्तर दिया था – 'तूं सुलभबोधि होगी, तुझे सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए भली प्रकार से सम्यक्त्व की आराधना करनी पड़ेगी। तभी से देवी सम्यक्त्व प्राप्ति के प्रयत्न में रहती थी। उस दिन सम्यक्त्व का प्रभाव दिखाने के लिए ही उसने बच्चे की रक्षा की थी। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 59: Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण यह चमत्कार देखकर विस्मित हुए। उस दिन से उन्होंने शुद्धभट का तिरस्कार करना छोड़ दिया। शुद्धभट ने घर जाकर सुलक्षणा से यह बात कही। सुलक्षणा ने कहा-'आपने ऐसा क्यों किया? यह तो अच्छा हुआ कि दैवयोग से कोई व्यंतर देव वहां था जिसने बालक को बचा लिया। यदि न होता तो हमारी कितनी हानि होती ? हमारा बालक जाता और साथ ही मूर्ख लोग जैनधर्म की भी अवहेलना करते । सम्यक्त्व तो सत्य-मार्ग दिखानेवाला एक सिद्धांत है। यह कोई चमत्कार दिखाने की चीज नहीं है। अतः हे आर्यपुत्र! आगे से आप ऐसा कार्य न करें।' फिर अपने पति को धर्म में दृढ़ बनाने के लिए सुलक्षणा. उसको लेकर यहां आयी। ब्राह्मण ने मुझसे प्रश्न किया और मैंने उत्तर दिया कि, यह प्रभाव सम्यक्त्व का ही है। शुद्धभट ने सुलक्षणा सहित दीक्षा ली। अनुक्रम से दोनों केवल ज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गये। अजितनाथ स्वामी को केवलज्ञान हुआ तब से विहार करते थे और उपदेश देते थे। उनके सब मिलाकर पंचानवे गणधर थे, एक लाख मुनि थे, तीन लाख तीस हजार साध्वियां थीं, तीन हजार सात सौ वीश चौदह पूर्वधारी थे, बारह हजार पांचसो (पचास) मनःपर्यवज्ञानी थे, नौ हजार चार सौ अवधिज्ञानी थे, बारह हजार चार सौ वादी थे, बीस हजार चार सौ वैक्रियक लब्धिवाले थे, दो लाख अठानवे हजार श्रावक थे और पांच लाख पैंतालीस हजार श्राविकाएँ थीं। दीक्षा लेने के बाद चौराशी लाख वर्ष कम एक लाख पूर्व समय हुआ तब, भगवान अपना निर्वाण निकट समझकर सम्मेत शिखर पर गये। जब उनकी बहत्तर लाख पूर्व वर्ष की आयु समाप्त हुई तब उन्होंने एक हजार साधुओं के साथ, पादोपगमन अनशन किया। उस समय एक साथ सभी इंद्र के आसन कांपे। वे अवधिज्ञान द्वारा प्रभु का निर्वाणं समय निकट जान : श्री अजितनाथ चरित्र : 60 : Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्मेत शिखर पर आये और देवताओं सहित प्रदक्षिणा देकर प्रभु की सेवा करने लगे। .. जब पादोपगमन अनशन का एक मास पूर्ण हुआ तब प्रभु का निर्वाण हो गया। उस दिन चैत्र शुक्ल पंचमी का दिन था; चंद्रमा मृगशिर नक्षत्र में आया था। इंद्रादि देवों ने मिलकर प्रभु का निर्वाण-कल्याणक किया। उनका शरीर ४५० धनुष ऊंचा था। प्रभु ने अठारह लाख पूर्व कौमारावस्था में, तरेपन लाख पूर्व चौरासी लाख वर्ष राज्य करने में, बारह वरस छद्मस्थावस्था में और चौरासी लाख बारह वर्ष कम एक लाख पूर्व केवल ज्ञानावस्था में बिताये थे। इस तरह बहत्तर लाख पूर्व वर्ष की आयु समाप्त कर भगवान अजितनाथ, ऋषभदेव प्रभु के निर्वाण के पचास लाख करोड़ सागरोपम वर्ष के बाद मोक्ष में गये। .. तीन ___ एक जगह तीन चीजें पड़ी थी। मोम, सुई और बाल, . नीचे लिंखा था. . .मोमबत्ती के नीचे लिखा था- 'मेरी तरह पीघलकर दूसरों को प्रकाश देते जाईए' तो आत्मा उन्नत्ति के शिखर सर कर सकेगा। सुई के नीचे लिखा था- 'सुई की तरह अपने दोषों को खुल्ले करते रहो पर दूसरों के दोष रूपी छिद्रों को बंध करते करवाते रहो।' जिससे कर्म निर्जरा का लाभ मिलता रहेगा। - बालों के नीचे लिखा था- 'हमारे जैसे अपने आपको लचीले और मुलायम नम्र रखो, जिससे किसी से कलह हो ही नहीं और आत्मा अशुभ कर्म से बचा रहेगा। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 61 : Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३. श्री संभवनाथ चरित्र विधभव्यजनाराम-कुल्यातुल्याजयन्ति ताः । देशनासमये वाचः, श्रीसम्भव-जगत्पतेः ॥३१॥ - भावार्थ - धर्मोपदेश करते समय जिनकी वाणी विश्व के भव्यजन रूपी बगीचे को सींचने के लिए नाली के समान है। वे श्री संभवनाथ भगवंत के वचन जय को प्राप्त हो रहे हैं। . त्रैलोक्यप्रभवे पुण्यसम्भवाय भवच्छिदे । श्रीसम्भवजिनेन्द्राय मनो भवभिदे नमः ॥ भावार्थ - तीन लोक के स्वामी, पवित्र जन्म वाले, संसार को छेदनेवाले और कामदेव को भेदनेवाले श्री संभवनाथ जिनेन्द्र को मैं नमस्कार करता हूं। प्रथम भव : धातकी खंड के ऐरावत द्वीप में क्षेमपरा नामक नगर था। वहां के राजा का नाम विपुलवाहन था। वह साक्षात् इंद्र के समान शक्ति-वैभव-शाली था। शक्ति होते हुए भी उसे किसी तरह का मद न था। गाय जैसे वछड़े की या माली जैसे अपने बगीचे की रक्षा करता है वैसे ही वह प्रजा की रक्षा करता था। वह पूर्ण धर्मात्मा था। देव-श्री अरहंत, गुरु-श्री निग्रंथ और धर्मदयामय की वह भली प्रकार से भक्ति तथा उपासना करता था। उसकी प्रजा भी प्रायः उसका अनुसरण करनेवाली थी। ___ भावी प्रबल होता है। होनहार के आगे किसी का जोर नहीं चलता। एक बार भयंकर दुष्काल पड़ा। देश में अन्न-कष्ट बहुत बढ़ गया। लोग भूख के मारे तड़प तड़पकर मरने लगे। राजा यह दशा न देख सका। उसने अपने काम करनेवालों को : श्री संभवनाथ चरित्र : 62 : Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आज्ञा दे दी कि, कोठार में जितना अनाज है सभी देश के भूखे लोगों में बांटा जाय, मुनियों को प्रासुक आहार पानी मिले इसकी व्यवस्था हो और जो श्रावक सर्वथा निर्धन हैं, उन्हें राज्य के रसोड़े में भोजन कराया जाय। इतना ही नहीं मुनियों को, एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक आहार अपने हाथों से देने और अन्यान्य श्रावकों को, अपने सामने भोजन कराकर, संतोष-लाभ कराने लगा। इस भांति जब तक दुष्काल रहा तब तक वह सारे देश की और खास कर समस्त संघ की भली प्रकार से सेवा करता और उसे संतोष देता रहा। इससे उसने तीर्थंकर नामकर्म बांधा। एक बार वह छतपर बैठा हुआ था। संध्या का समय था। आकाश में बदली छायी हुई थी। देखते ही देखते जोर की हवा चली और बदली छिन्न भिन्न हो गयी। उसने सोचा, इस बदली की तरह संसार की सारी वस्तुएँ छिन्न भिन्न हो जायगी, मौत हर घड़ी सिर पर सवार रहती है, वह न जाने किस समय धर दबायगी। वह नहीं आती है तब तक आत्मकल्याण कर लेना ही श्रेष्ठ है। दूसरे दिन विपुलवाहन ने बहुत बड़ा दरबार किया, उसमें अपने पुत्र को राज्य सिंहासन पर बिठाया और फिर स्वयंप्रभसूरि के पास जाकर दीक्षा ले ली। . ___.. राजा मुनि ने राज्य की भांति ही अनेक प्रकार के उपसर्ग सहते हुए भी संयम का पालन किया और अंत में वे अनशन कर, आयु पूर्ण कर, आनत नामके नवें देवलोक में उत्पन्न हुए। यह दूसरा भव हुआ। तृतीय भव :. इसी जंबूद्वीप के पूर्व भरतार्द्ध में श्रावस्ती नाम का शहर था। उसमें जितारी नाम का राजा राज्य करता था। उसमें नाम के अनुसार गुण भी थे। उसके सेनादेवी नाम की पटरानी थी। वह इतनी गुणवती थी कि, लोग उनको जितारी का सेनापति कहा करते थे। इसी रानी को फाल्गुन मास की अष्टमी के दिन, मृगशिर नक्षत्र में चंद्रमा का योग : श्री तीर्थंकर चरित्र : 63 : Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आने पर चौदह स्वप्न आये। उसी समय विपुलवाहन का जीव अपनी देवआयु पूर्ण कर रानी सेनादेवी के गर्भ में आया। उस समय क्षण भर के लिए नारकियों को भी सुख हुआ। स्वप्न देखते ही देवी जागृत हुई और उठकर राजा के पास गयी। राजा को स्वप्न सुनाये। राजा ने कहा – 'हे देवी! इन स्वप्नों के प्रभाव से तुम्हारे एक ऐसा पुत्र होगा जिसकी तीन लोक पूजा करेंगे।' इंद्रों का आसन कांपा। उन्होंने देवों सहित नंदीवर द्वीप जाकर च्यवनकल्याणक किया। स्वप्न का अर्थ सुनकर महिषी को इतना हर्ष हुआ, जितना हर्ष मेघ की गर्जना सुनकर मयूरी को होता है। अवशेष रात उन्होंने जागकर. ही बितायी। जब नौ महीने और साढ़ेसात दिन व्यतीत हुए तब सेनादेवी ने जरायु और रुधिर आदि दोषों से वर्जित पुत्र को जन्म दिया। उनका चिह्न अञ्च का था। उनका वर्ण स्वर्ण के समान था। उस दिन मार्गशीर्ष शुल्का चतुर्दशी का दिन था, चंद्रमा मृगशिर नक्षत्र में आया था। जन्म होते ही तीन लोक में अंधकार को नाश करनेवाला प्रकाश हुआ। नारकी जीवों को भी क्षण भर के लिए सुख हुआ। सारे ग्रह उच्च स्थान पर आये। सारी दिशायें प्रसन्न हो गयी। सुखकर मंद पवन बहने लगा, लोग. क्रीडा करने लगे। सुगंधित जल की वृष्टि हुई, आकाश में दुंदुभि बजी, पवन ने रज दूर की और पृथ्वी ने शांति पायी। छप्पन कुमारियां ने आकर सूतिका कर्म किया। इंद्रों के आसन कांपे। उन्होंने आकर प्रभु का जन्मकल्याणक किया। प्रातः जितारी राजा ने बड़ा भारी उत्सव किया। सारा नगर राजभवन की तरह मंगल-गान और आनंदोल्लास से परिपूर्ण हो गया। प्रभु जब गर्भ में थे तब शंबा (फलि, मूंग, मोंठ, चंबले का धान्य) बहुत हुआ था इसलिए उनका नाम संभवनाथ रखा था। प्रभु का बाल्यकाल समाप्त हुआ। युवा होने पर ब्याह हुआ। पंद्रह लाख पूर्व बीतने के बाद जितारी राजा ने दीक्षा ली और प्रभु का राज्याभिषेक : श्री संभवनाथ चरित्र: 64 : Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किया। प्रभु ने चवालीस लाख पूर्व और चार पूर्वांग' तक राज्य का उपभोग किया। तीन ज्ञान के धारक प्रभु एक बार एकांत में बैठे हुए थे। उसी समय उन्हें विचार आया – 'यह संसार विष-मिश्रित मिठाई के समान है। खाने में स्वाद लगते हुए भी प्राणहारी है। ऊसर भूमि में अनाज कभी पैदा नहीं होता, इसी प्रकार चौरासी लाख जीव-योनि की दशा है। मनुष्य भव बड़ी कठिनता से मिलता है। प्रबल पुण्य का उदय ही इस योनि का कारण होता है। मनुष्यभव पाकर भी जो इसको व्यर्थ खो देता है, आत्मसाधन नहीं करता है उसके समान संसार में अभागा कोई नहीं है। यह तो अमृत पाकर उसे पैर धोने में खर्च कर देना है। मनुष्य होकर भोग विलास में ही समय निकाल देना मानों रत्न पाकर कौओं को उड़ाने के लिए फेंकना है।' भगवान जब इस प्रकार वैराग्य भावना में मग्न थे उस समय लोकांतिक देवताओं ने आकर विनती की – 'हे प्रभो! तीर्थ प्रवर्तावो।' फिर देवता नमस्कार कर चले गये। ... वर्षी दान देने के.अनंतर भगवान ने सहसाम्र वन में आकर मार्गशीर्ष शुक्ला पूर्णिमा के दिन चंद्रमा जब मृगशिर नक्षत्र में आया था तब संध्या के समय पंच मुष्टि लोच किया और इंद्र का दिया हुआ देवदूष्य वस्त्र धारण कर 'सर्व सावद्य योगों का त्याग कर दिया। . इंद्रादि देव दीक्षाकल्याणक मनाकर स्तुति कर नंदीश्वर द्वीप में अट्ठाई महोत्सव कर अपने-अपने स्थान को गये। दूसरे दिन भगवान पारणे के लिए नगर में गये। सुरेन्द्र राजा के घर पारणा किया। वहां पांच दिव्य प्रकट हुए। ... __चौदह वर्ष तपश्चरण करने के बाद प्रभु को केवल ज्ञान हुआ। उस दिन कार्तिक महीने की कृष्णा ५ थी और चंद्रमा मृगशिर नक्षत्र में आया था। केवल ज्ञान होने के बाद देवताओं ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने उसमें बैठकर देशना दी। देशना सुनकर अनेक लोगों को वैराग्य हुआ और उन्होंने दीक्षा ग्रहण की। 1. एक पूर्वांग चौरासी लाख बरस का होता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 65 : Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भगवान ने चारु आदि गणधरों को उत्पाद व्यय और स्थित इस त्रिपदी का उपदेश दिया। इस त्रिपदी का अनुसरण करके १०२ गणधरों ने चौदह पूर्व सहित द्वादशांगी की रचना की। उसके बाद प्रभु ने उन पर वासक्षेप डाला। संभवनाथ प्रभु के शासन का अधिष्ठाता देवता त्रिमुख और देवी दुरितारी थे। देवता के तीन मुंह, तीन नेत्र और छः हाथ थे। उसका वर्ण श्याम था। उसका वाहन मयूर था। देवी चारभुजा वाली थी। उसका वर्ण गोरा था और सवारी उसके मेष की थी। प्रभु के परविार में १०२ गणधर, दो लाख साधु, तीन लाख छत्तीस हजार साध्वियां, दो हजार एक सौ पचास चौदह पूर्व धारी, नौ हजार छः सौ अवधि ज्ञानी, बारह हजार एक सौ पचास मनःपर्यंवज्ञानी, पंद्रह हजार केवल ज्ञानी, उन्नीस हजार आठ सौ वैक्रिय लब्धिवाले, बारह हजार वाद लब्धिवाले (वादी), दो लाख तरानवे हजार श्रावक और छः लाख छत्तीस हजार श्राविकाएं थे। केवल ज्ञान होने के बाद चार पूर्वांग और चौहद वर्ष कम एक लाख पूर्व तक प्रभु ने विहार किया था। - फिर अपना मोक्ष काल समीप समझकर प्रभु परिवार सहित समेतशिखर पर्वत पर गये। वहां एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने पादोपगमन अनशन किया। इंद्रादि देव आकर प्रभु की सेवाभक्ति करने लगे। जब सर्वयोग के निरोधक शैलेशी नाम के ध्यान को प्रभु ने समाप्त किया तब चैत्र शुक्ल पंचमी के दिन प्रभु का निर्वाण हुआ। उस समय चंद्रमा मृगशिर नक्षत्र में आया था। एक हजार मुनि भी प्रभु के साथ ही उस समय मोक्ष में गये। इंद्रादि देवों ने केवलज्ञानकल्याणक किया। कुमारावस्था में पंद्रह लाख पूर्व, राज्य में चार पूर्वांग सहित चंवालीस लाख पूर्व और दीक्षा में चार पूर्वांग कम एक लाख पूर्व, इस तरह सब मिला कर साठ लाख पूर्व की आयु प्रभु ने पूर्ण की। उनका शरीर ४०० धनुष्य ऊंचा था। अजितनाथ स्वामी के निर्वाण के तीस लाख कोटि सागरोपॅम समाप्त हुए तब संभवनाथ प्रभु मोक्ष में गये। : श्री संभवनाथ चरित्र : 66 : Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. श्री अभिनंदन स्वामी चरित्र ____ अनेकान्तमताम्भोधि-समुल्लासनचन्द्रमाः । दद्यादमन्दमानन्दं, भगवानभिनन्दनः ॥ भावार्थ - अनेकांत (स्याद्वाद) मत रूपी समुद्र को आनंदित करने में चंद्रमा के समान हे अभिनंदन भगवान! (सबको) अत्यानंद दीजिए। प्रथम भव : जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में मंगलावती नाम की विजय थी। उसमें रत्नसंचय नाम की नगरी थी। उसमें महाबल नाम का राजा राज्य करता था। उसको वैराग्य हो जाने से उसने विमलसूरि नाम के आचार्य के पास से दीक्षा ली। बहुत बरसों तक चारित्र पाला। वीस स्थानक में से कई स्थानकों का आराधन किया तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया और अंत में वे कालधर्म. पाये। . दूसरा भव :_महाजल का जीव आयु पूर्णकर विजय नाम के विमान में महर्द्धिक देवता हुआ। तेतीस सागरोपम की आयु भोगी। तीसरा भव : ___महाबल का जीव विजय नामक विमान से च्यवकर भरत क्षेत्र की अयोध्या नगरी के राजा संवर की सिद्धार्था राणी की कोख में वैशाख सुदि चौथ के दिन आया। देवताओं ने च्यवनकल्याण किया। फिर नौ महीने और साढ़े सात दिन पूरे हुए तब सिद्धार्थ राणी ने महा सुदि २ के दिन पुत्र रत्न को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। उनका लांछन वानर का था और वर्ण सोने के समान था। प्रभु जब गर्भ में : श्री तीर्थंकर चरित्र : 67 : Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ थे तब सारे नगर में अभिनंदन (हर्ष) ही अभिनंदन हुआ था इसलिए पुत्र का नाम अभिनंदन रखा। . युवा होने पर राजा ने अनेक राजकन्याओं के साथ उनका ब्याह किया। साढ़े बारह लाख पूर्व तक उन्होंने युवराज की तरह संसार का सुख मोगा। फिर संवर राजा ने दीक्षा ली और अभिनंदन स्वामी को राज्यासन पर बिठाया। आठ पूर्वांग सहित साढ़े छत्तीस लाख पूर्व तक उन्होंने राज्य धर्म का पालन किया। फिर जब उनको दीक्षा लेने की इच्छा हुई तब लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की – 'स्वामी! तीर्थ प्रवर्ताइये।' तब सांवत्सरिक दान देकर महा सुदि १२ के दिन अभिचि नक्षत्र में सहसाम्र वन में छ? तप सहित प्रभु ने दीक्षा ली। इंद्रादिदेवों ने दीक्षाकल्याणक किया। दूसरे दिन प्रभु ने इंद्रदत्त राजा के घर पारणा किया। अनेक स्थानों पर विहार करते हुए प्रभु फिर से सहसाम्रवन में आये। वहां छ? तप करके रायण (खिरणी) के झाड़ के नीचे काउसग्ग किया। शुक्ल ध्यान करते हुए उनके घातिया कर्मों का नाश हुआ और पोष सुदि १४ के दिन अमिचि नक्षत्र में उनको केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने समवसरण की रचना की। प्रभु ने सिंहासन पर बैठकर देशना दी और उत्पाद, व्यय एवं ध्रुवमय त्रिपदी की व्याख्या की। उसीके अनुसार गणधरों ने द्वादशांगी की रचना की। ___ अभिनंदन प्रभु के तीर्थ में यक्षेश्वर नाम का यक्ष और कालिका नाम की शासन देवी हुई। . क्रमशः अभिनंदन नाथ के संघ में, एकसो सोलह गणधर, तीन लाख साधु, छः लाख तीस हजार साध्वियां, नौ हजार आठ सौ अवधिज्ञानी, एक हजार पांच सौ चौदह पूर्वधारी, ग्यारह हजार छ: सौ पचास मनः पर्यवज्ञानी, चौदह हजार केवलज्ञानी, ग्यारह हजार वाद लब्धिवाले, दो लाख अठासी हजार श्रावक और पांच लाख सत्ताईस हजार श्राविकाएँ, इतना परिवार हुआ। प्रभु केवल ज्ञान अवस्था में आठ पूर्वांग और अठारह वर्ष कम लाख :: श्री अभिनंदन स्वामी चरित्र : 68 : Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पूर्व तक रहे। फिर निर्वाण- समय नजदीक जान समेत शिखर पर्वत पर आये। वहां एक मास का अनशन व्रत लेकर वैशाख सुदि ८ के दिन पुष्प नक्षत्र में मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्ष कल्याणक किया उनके साथ एक हजार मुनि भी मोक्ष में गये। अभिनंदन स्वामी ने, कौमारावस्था में साढ़े बारह लाख पूर्व, राज्य में आठ पूर्वांग सहित साढ़े छत्तीस लाख पूर्व और दीक्षा में आठ पूर्वांग कम एक लाख पूर्व इस प्रकार कुल पचास लाख पूर्व की उम्र भोगी और वे मोक्ष में गये। उनका शरीर ३५० धनुष्य ऊंचा था। . संभवनाथ स्वामी के निर्वाण के बद दस लाख करोड़ सागरोपम बीते तब अभिनंदन नार्थ का निर्वाण हुआ। अभिनन्दन जिन तीरथ. थापे, भव्यजनों के दुःख दर्द कापे ॥ अन्तिम समय में आप पधारे, आनन्द कूट पर शिवपद पावें॥ .. . बलात्कार. से धर्म ____ एक सेठ को ससुराल जाना था। एक बैलगाड़ीवाले को बुलाया। भाड़ा नक्की किया पर साथ में उसने कहा मुझे वहाँ गुड की राब पीलानी पड़ेगी। सेठ ने कबुल किया। सेठ सपरिवार गाड़ी में बैठकर चले। ससुराल जाने पर भोजन के समय में ससुरालवालों ने जमाई राज बहुत दिनों से आये थे। इसलिए दूधपाक पूरी का भोजन बनाया था। गाड़ीवान को भोजन के समय भोजन के लिए बुलाने पर उसको दूधपाक पीरसने पर वह सेठ को गुडराब की शरत याद करवाने लगा। सेठ ने दो बार कहा भाई गुड़राब से भी यह स्वादिष्ट एवं उत्तम है। वह मना करने लगा तब सेठ ने उसके मुंह में जबरन दूधपाक रेड़ा, वह उसके स्वाद को चखकर गुड़राब भूल गया। वैसे ही बाल जीवों को बलात्कार से भी धर्म करवाया जाय तो वह भी गुणकारी होता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 69 : Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. श्री सुमतिनाथ स्वामी चरित्र • घुसत्किरीटशाणागो-तेजिताधिनखावलिः । भगवान् सुमतिस्वामी, तनोत्वभिमतानि वः ॥ भावार्थ - देवताओं के मुकुट रूपी शाण के अग्र भाग के कोनों से जिनकी नख-पंक्ति तेजवाली हुई है ऐसे भगवान सुमतिनाथ तुम्हें वांछित फल देवें। पहला भव : ___ जंबू द्वीप के पूर्व विदेह में पुष्कलावती नाम की विजय थी। उसमें शंखपुर नाम का शहर था। वहां विजयसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसके सुदर्शना नाम की रानी थी। उसके कोई संतान नहीं हुई। - एक दिन किसी उत्सव में राणी उद्यान में गयी। वहां शहर की दूसरी स्त्रियां भी आयी हुई थी। उनमें एक सेठानी भी थी। आठ सुंदर युवतियां और अन्यान्य नौकरानियां उसके साथ थीं। उन्हें देखकर राणी को कुतूहल हुआ। उसने खोज करवायी कि, वे कौन थी, तो मालूम हुआ कि, आठ युवतियां उसके दो बेटों की बहुए थीं। यह जानकर राणी को आनंद हुआ। साथ ही इस बात का दुःख भी हुआ कि उसके कोई पुत्र नहीं है। उसने राजा को जाकर अपने मन का दुःख कहा। राजा ने राणी को अनेक तरह से समझाया बुझाया और तीन उपवास करके देवी की आराधना की। देवी प्रकट हुई। राजा ने पुत्र मांगा। देवी यह वरदान देकर चली गयी कि एक जीव देवलोक से च्यवकर तेरे घर पुत्र रूप में जन्म लेगा। समय पर राणी गर्भवती हुई। उस रात को राणी ने स्वप्न में सिंह : श्री सुमतिनाथ स्वामी चरित्र : 70 : Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखा। गर्भ के प्रभाव से राणी को दया पलवाने का और अठाई उत्सव कराने का दोहद हुआ। राजा ने वह दोहद पूर्ण करवाया। समय पर पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम पुरुषसिंह रखा गया। जब वह जवान हुआ तब राजा ने उसे आठ राजकन्याएँ ब्याह दीं। एक दिन कुमार उद्यान में फिरने गया। वहां उसने विनयनंदन नाम के युवक आचार्य को देखा। उनका उपदेश सुन उसे वैराग्य हुआ। कुमार ने मातापिता से आज्ञा लेकर दीक्षा ले ली और वीस स्थानकों में से कई स्थानों की आराधना कर तीर्थंकर गोत्र बांधा। दूसरा भव :-. आयु पूर्ण होने पर पुरुष सिंह का जीव वैजयंत विमान में महर्द्धिक देवता हुआ। उसने तेतीस सागरोपम की आयु भोगी। तीसरा भव : जंबूद्वीप में विनीता (अयोध्या) नाम की नगरी में मेघ नाम का राजा था। उसकी राणी मंगलादेवी को चौदह स्वप्न सहित गर्भ रहा। पुरुष सिंह का जीव वैजयंत विमान से च्यवकर श्रावण सुदि २ के दिन मघा नक्षत्र में रानी के गर्भ में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवन कल्याणक किया। नौ महिने और साढ़े सात दिन बीतने पर वैशाख सुदि ८ के दिन चंद्र नक्षत्र में मंगला देवी ने क्रोच पक्षी के चिह्नवाले पुत्ररत्न को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। पुत्र का नाम सुमतिनाथ रखा गया। कारण - एक बार रानी ने, ये गर्भ में थे तब, एक ऐसा न्याय किया था जो किसीसे नहीं हो सका था। . युवा होने पर प्रभु ने माता-पिता के आग्रह के कारण अनेक स्त्रियों से ब्याह किया, राज्य किया और फिर वैराग्य उत्पन्न होने पर वर्षीदान दे वैशाख सुदि € के दिन मघा नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ले ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक उत्सव किया। दूसरे दिन विजयपुर के राजा पद्मराज के घर पारणा किया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 71 : Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीस बरस विहार करके प्रभु वापिस सहसाम्र वन में - जहां दीक्षा ली थी – वहां आये। वहां प्रियंगु (मालकांगनीका झाड) के नीचे छ? तप करके काउसग्ग में रहे। घाति कर्मों का नाश होने से चैत्र सुदि ११ के दिन मघा नक्षत्र में उन्हें केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक उत्सव किया। उनके शासन में तुंबुर नाम का यक्ष और महाकाली नाम की शासन देवी हुए। उनके संघ में १०० गणधर ३ लाख २० हजार साधु, ५ लाख ३० हजार साध्वियां, २ हजार ४ सौ चौदह पूर्व धारी, ११ हजार अवधिज्ञानी, १० हजार साढ़े चार सौ मनः पर्यवज्ञानी, १३ हजार केवली, १८ हजार चार सौ वैक्रिय लब्धिवाले, १० हजार चार सौ वादलब्धिवाले, २ लाख ८१ हजार श्रावक और ५ लाख १६ हजार श्राविकाएँ इतना परिवार था। .... मोक्षकाल निकट जान प्रभु सम्मेत शिखर पर गये। वहां एक हजार . मुनियों के साथ मासखमण कर रहे और चैत्र सुदि ६ के दिन पुनर्वसु नक्षत्र में मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याण किया। . - दस लाख पूर्व कौमारावस्था में, उन्तीस लाख बारह पूर्वांग राज्यावस्था में और बारह पूर्वांग कम एक लाख पूर्व चारित्रावस्था में इस तरह ४० लाख पूर्व की आयु पूर्ण कर सुमतिनाथ प्रभु मोक्ष गये। उनका शरीर तीन सौ धनुष ऊंचा था। श्री सुमतिनाथ भगवंत ने दीक्षा के दिन एकाशना करके दीक्षा ली थी। अभिनंदन प्रभु के निर्वाण के बाद ६ लाख करोड़ सागरोपम बीते तब सुमति नाथ प्रभु का निर्वाण हुआ। सुमतिनाथ है मुमति दाता, जो शरण ग्रहे उनके त्राता । एकाशन करके दीक्षा धारें, अनशन करके मोक्ष पधारें ॥ : श्री सुमतिनाथ चरित्र : 72 : Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६. श्री पद्मप्रभु चरित्र पद्मप्रभप्रभोदेह-भासः पुष्णन्तु वः श्रियम् । अन्तरङ्गारिमथने, कोपाटोपादिवारुणाः ॥ भावार्थ - काम, क्रोधादि अंतरंग शत्रुओं का नाश करने में कोप की प्रबलता से मानों पद्मप्रभु का शरीर लाल हो गया है वह लाली तुम्हारी लक्ष्मी का (मोक्ष लक्ष्मी का) -पोषण करे। प्रथम भव : धातकी खंड के पूर्व विदेह में वत्स नाम की विजय है। उसीमें सुसीमा नाम की नगरी है। उसका राजा अपराजित था। उसको, कोई कारण पाकर, संसार से वैराग्य हो गया। उसने पिहिताश्रव मुनि के पास दीक्षा ली। चिरकाल तक तपश्चर्या करके बीस स्थानक की आराधना की । उसीके प्रभाव से तीर्थंकर गोत्र का उपार्जन किया। दूसरा भव : अंत में अपराजित ने शुभ ध्यानपूर्वक प्राण छोड़े, नवग्रैवेयक में देव हुआ। वहां २१ सागरोपम तक सुख भोग कर आयु पूर्ण किया। तीसरा भव : जंबूद्वीप में भरतक्षेत्र में कौशांबी नाम की नगरी थी। उसका प्रजापति राजा था। उसकी रानी का नाम सुसीमा था। उसीके गर्भ में अपराजित राजा का जीव माघ वदि ६ के दिन चित्रा नक्षत्र में आया। इंद्रादिक देवों ने च्यवनकल्याणक किया। नौ महिने साढ़े सात दिन व्यतीत होने पर कार्तिक वदि १२ के दिन चित्रा नक्षत्र में प्रभु ने जन्म धारण किया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। सुसीमा देवी : श्री तीर्थंकर चरित्र : 73 : Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को गर्भ काल में पद्मशय्या (कमल की सेज) पर सोने की इच्छा हुई थी, इसीसे प्रभु का नाम पद्मप्रभु रखा गया। अनुक्रम से बढ़ते हुए भगवान यौवनास्था को प्राप्त हुए। पिता ने उनको विवाह योग्य जानकर विवाह हेतु आग्रह किया। भोगावली कर्म शेष जानकर अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया। साढ़े सात लाख पूर्व और सोलह पूर्वांग तक कुमारावस्था में रहे। अर्थात् युवराज पद में रहे। पीछे पिता ने प्रभु का राज्यतिलक किया। साढ़े इक्कीस लाख पूर्व तक राज्य किया। इसके बाद लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की – 'हे प्रभो! अब दीक्षा धारण करके जगत्त के जीवों का कल्याण कीजिए।' उन्होंने देवों की बात मान, संवत्सरी दान दे, कार्तिकं वदि १३ के दिन चित्रा नक्षत्र में सहसाम्रवन में जाकर, एक हजार राजाओं के साथ छट्ठ तप सहित (बेला करके) दीक्षा ली। इंद्रादिदेवों ने दीक्षाकल्याणक का उत्सव किया। दीक्षा के दूसरे दिन सोमसेनराजा के यहां पारणा किया।. छ: मास विहार कर प्रभु पुनः सहसाम्र वन में पधारें। वटवृक्ष के नीचे उन्होंने कार्योत्सर्ग धारण किया। और शुक्ल ध्यान पूर्वक घातिया कर्मों का नाश कर चैत्र सुदि १५ के दिन चित्रा नक्षत्र में केवल लक्ष्मी पायी। केवल ज्ञान होने पर देवों ने समोसरण की रचना की। भगवान ने भव्य जीवों को उपदेश दिया। १०७ गणधर, ३ लाख ३० हजार साधु, ४ लाख २० हजार साध्वियां, २ हजार तीन सौ चौदह पूर्वधारी, १० हजार अवधिज्ञानी, १० हजार तीन सौ मनःपर्ययज्ञानी, १२ हजार केवली, १६ हजार एक सौ आठ वैक्रिय लब्धिधारी, ६ हजार ६ सौ वादी, २ लाख ७६ हजार श्रावक और ५ लाख ५ हजार श्राविकाएँ इतना भगवान का परिवार था। कुसुम नामक यक्ष और अच्युता नामक शासन देवी थी। भगवान ने दीक्षा लेने के बाद छः मास सोलह पूर्वांगन्यून एक लाख पूर्व व्यतीत होने पर मोक्षकाल समीप जान सम्मेद शिखर में अनशन व्रत ग्रहण किया। एक मास के अंत में मार्गशीर्ष वदि ११ के दिन चित्रा नक्षत्र में : श्री पद्मप्रभु चरित्र : 74 : Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन सौ आठ मुनियों के साथ भगवान मोक्ष पधारे। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक किया। .. प्रभु की कुल आयु ३० लाख पूर्व की थी, जिसमें से उन्होंने साढ़े सात लाख सोलह पूर्वांग तक कुमारावस्था भोगी, साढ़े इक्कीस लाख पूर्व तक राज्य किया, सोलह पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व तक चारित्र पाला, आयु पूर्ण कर वे मोक्ष गये। उनका शरीर २५० धनुष ऊंचा था। सुमतिनाथ के निर्वाण के बाद ६० हजार कोटि सागरोपम बीते, तब पद्मप्रभु मोक्ष में गये। · नकशे में एक सेठ अपने ऐश्वर्य से अति गर्विष्ट थे। उन्होंने नगर में नहीं था ऐसा बड़ा एवं ऊँचा विशाल मकान बनवाया। और फिर सभी को मकान बताता था। जो आते वे प्रशंसा करते। एक व्यक्ति ने वहाँ तक कह दिया ऐसा महल प्रासाद तो दुनिया में भी नहीं है। तब से तो वह जो आये उसे कहने लगा कि ऐसा मकान तो विश्व में नहीं होगा। ऐसे में एक बुद्धिमान और हितशिक्षा देने की कला में प्रवीण उसका एक संबंधी आया उसको भी मकान बताया तब उसने कहा आपने विश्व का यह नकशा यहां बनवाया है इसमें तुम्हारा नगर कितना बड़ा है और उसमें तुम्हारा मकान कितना बड़ा है यह जरा इस में देखकर बताओ। अब वह क्या बोले? पद्मप्रभ जिन वरणे राता, जगत जीव के आप हे त्राता । मोहन कूट पर मुनिवर अंगे, शिवपढ पावे चंगे रंगे ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 75 : Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७. श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र श्रीसुपार्श्वजिनेन्द्राय, महेन्द्रमहिताङ्घ्रये । नमश्चतुर्वर्णसङ्घ-गगनाभोगभास्वते ॥ भावार्थ - साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका इस चतुर्विध संघ रूपी आकाश में प्रकाश को फैलाने में सूर्य के समान और इंद्रों ने जिनके चरणों की पूजा की है ऐसे श्री सुपार्श्व जिनेंद्र को मेरा नमस्कार हो । प्रथम भवः • धातकी खंड के पूर्व विदेह में क्षेमपुरी नाम की नगरी थी। उसमें नंदिषेण राजा राज्य करता था। उसको संसार से वैराग्य हुआ और उसने . अरिदमन नामक आचार्य के पास दीक्षा ली, कंठिन महाव्रतों को पाला तथा बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। द्वितीय भव : अंत समय में अनशन पूर्वक प्राण त्यागकर नंदिषेण का जीव छट्टे ग्रैवेयक में देव हुआ। तृतीय भव : - .२८ सागरोपम की आयु पूर्ण कर छट्टे ग्रैवेयक से च्यव कर नंदीषेण का जीव बनारस नगरी के राजा प्रतिष्ठ की रानी पृथ्वी के गर्भ में, भाद्रपद वदि ८ के दिन अनुराधा नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक किया। साढ़े नौ मास बीतने पर पृथ्वी देवी ने जेठ सुदि १२ के दिन विशाखा नक्षत्र में स्वस्तिक लक्षण युक्त, पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इन्द्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। शिशुकाल को व्यतीत कर भगवान युवा हुए। माता-पिता के आग्रह से अनेक राजकन्याओं से उन्होंने शादी की। उनके साथ सुख भोगते हुए जब पांच लाख पूर्व बीत गये तब राज्यपद को ग्रहण किया। : श्री सुपार्श्वनाथ चरित्र : 76 : Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राज्य करते हुए बीस लाख पूर्वांग अधिक १४ लाख पूर्व चले गये। तब लोकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की विनती की। प्रभु ने संवत्सरी दान दिया और सहसाम्रवन में जाकर जेठ सुदि १३ के दिन अनुराधा नक्षत्र में दीक्षा ग्रहण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक किया। दूसरे दिन राजा महेन्द्र के घर पर पारणा किया। नौ मास तक विहार करके फिर उसी वन में आकर प्रभु ने कायोत्सर्ग धारण किया और ज्ञानावरणादि कर्मों को नष्ट कर फाल्गुन वदि ८ के दिन विशाखा नक्षत्र में केवलज्ञान पाया। इंद्रादि देवों ने समोशरण की रचना कर केवलज्ञानकल्याणक मनाया। भगवान का परिवार इस प्रकार था, ६५ गणधर, ३ लाख साधु, ४ लाख ३० हजार साध्वियां, २ हजार तीस चौदह पूर्व धारी, ६ हजार अवधिज्ञानी, ६१५० मनःपर्ययज्ञानी, १५ हजार ३ सौ वैक्रिय लब्धिधारी, ११ हजार केवली, ८ हजार ४ सौ वादी, २ लाख ५७ हजार श्रावक ४ लाख ६३ हजार श्राविकाएँ और मातंग नामक यक्ष, व शांता नामक शासन देवी । केवलज्ञान होने के बाद नौ मास बीस पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व व्यतीत होने पर निर्वाण काल समीप जान प्रभु सम्मेत शिखर पर पधारें। पांच सौ मुनियों के साथ उन्होंने एक मास का अनशन व्रत धारण किया। और फाल्गुन वदि ७• के दिन मूल नक्षत्र में वे मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक किया। 'सुपार्श्वनाथजी की कुल आयु २० लाख पूर्व की थी, उसमें ५ लाख पूर्वतक के कुमार रहे, १४ लाख पूर्व और २० पूर्वांग तक उन्होंने राज्य किया। बीस पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्वतक वे साधु रहे, पश्चात् मोक्ष गये। उनका शरीर २०० धनुष ऊंचा था। पद्मप्रभु के निर्वाण के बाद ६०० कोटि सागरोपम बीते, तब सुपार्श्वनाथजी मोक्ष में गये। सुपारसनामे डंका बाजे, प्रभास कुठे आप बिराजे । भक्तों की भीड़ आपज़ भांजे, भविजन कीर्ति गगने गाजे ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 77 : Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८. श्री चंद्रप्रभ चरित्र चन्द्रप्रभप्रभोश्चन्द्रमरीचिनिचयोज्ज्वला । मूर्तिर्मूर्तसितध्यान-निर्मितेव श्रियेस्तुवः ॥ भावार्थ - चंद्र किरणों के समूह जैसी घेत. और मानो मूर्तिमान अर्थात् साक्षात् शुक्ल ध्यान से बनायी हो ऐसी श्री चंद्रप्रभ स्वामी की शुक्लमूर्ति तुम्हारे लिये आत्म लक्ष्मी की वृद्धि करने वाली हो। ... सदैव संसेवनतत्परे जने, भवन्ति सर्वेऽपि सुराः सुदृष्टयः । समग्रलोके समचित्तवृत्तिना, त्वयैवसञ्जातमतो नमोऽस्तु ते ॥ भावार्थ - सभी देवता उन मनुष्यों पर कृपा करते हैं जो हमेशा उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं; परंतु सभी लोगों पर (जो सेवा करते हैं उन पर भी और जो सेवा नहीं करते हैं उन पर भी) समान मनवाले (एकसी कृपा करनेवाले) तो आप ही हुए है। इसलिए हे चंद्रप्रभ भगवान! आपको मेरा नमस्कार हो। प्रथम भव : धातकी खंड द्वीप में मंगलावती नाम की विजय है। उसकी प्रधान नगरी रत्नसंचयी है। उनका राजा पद्म था। कोई कारण पाकर उसको संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया। उसने युगंधर मुनि के पास मुनिव्रत धारण किया। चिरकाल तक शुद्ध चारित्र को पाला और बीस स्थान की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन किया। दूसरा भव : आयु पूर्ण होने पर पद्मनाभ वैजयंत नामक विमान में देव हुआ। वहां के सुख भोगकर आयु पूर्ण किया। तीसरा भव :पद्मनाभ का जीव चंद्रपुरी का राजा महासेन की रानी लक्ष्मणा के : श्री चंद्रप्रभ चरित्र : 78 : Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गर्भ में, स्वर्ग से च्यवकर चैत्र वदि ५ के दिन अनुराधा नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया पौष वदि १२ के दिन अनुराधा नक्षत्र में लक्ष्मणा देवी ने पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। माता को गर्भकाल में चंद्रपान की इच्छा हुई इससे पुत्र का नाम चंद्रप्रभ रखा गया। शिशुकाल को लांघकर प्रभु जब यौवनावस्था को प्राप्त हुए। तब माता-पिता के आग्रह से अनेक राजकन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण हुआ। उन्होंने ढाई लाख पूर्व युवराज पद में बिताये। पीछे २४ पूर्वांगयुक्त साढ़े छः लाख पूर्व तक राज्यसुख भोगा। तदनंतर लोकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की प्रार्थना की। उनकी बात मानकर भगवान ने वर्षीदान दिया और फिर पौष वदी १३ के दिन अनुराधा नक्षत्र में सहसाम्रवन जाकर, एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। मुनिपद के दूसरे दिन सोमदत्त राजा के यहां क्षीरान्न का पारणा किया। फिर तीन मास तक विहार कर भगवान सहसाम उद्यान में पधारें और पुन्नाग वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग धारण किया। फाल्गुन वदि ७ के दिन अनुराधा नक्षत्र में भगवान को केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने केवलज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरण की रचना की। सिंहासन पर विराज कर प्रभु ने भव्य जीवों को उपदेश दिया। पृथ्वी पर विहार करते समय प्रभु का परिवार इस प्रकार था - ६३ गणधर, ढाई लाख साधु, ३ लाख ८० हजार साध्वियां, २ हजार चौदह पूर्वधारी, ८ हजार. अवधिज्ञानी, ८ हजार मनःपर्यवज्ञानधारी, १० हजार केवली, १४ हजार वैक्रिय लब्धिवाले, ७ हजार ६ सौ वादी, ढाई लाख श्रावक, ४ लाख ७६ हजार श्राविकाएँ तथैव विजय नामक यक्ष और भृकुटि नाम की शासन देवी। २४ पूर्वांग तीन मास न्यून एक लाख पूर्व तक विहार कर भगवान निर्वाण काल समीप जान सम्मेद शिखर पर्वत पर पधारें। वहां पर उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ अनशन व्रत धारण किया। और एक मास के अंत में : श्री तीर्थंकर चरित्र : 79 : Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ योगों का निरोध कर भाद्रपद वदि ७ के दिन श्रवण नक्षत्र में उक्त मुनियों के साथ वे मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक किया। चंद्रप्रभु का कुल आयु प्रमाण १० लाख पूर्व का था। उसमें से उन्होंने ढाई लाख पूर्व युवराज पद में बिताये, २४ पूर्वांग सहित साढ़े छः लाख पूर्व पर्यंत राज्य किया और २४ पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व तक वे साधु रहे। उनका शरीर १५० धनुष ऊंचा था। सुपार्श्व स्वामी के मोक्ष गये पीछे नौ सौ कोटि सागरोपम बीतने पर चंद्रप्रभुजी मोक्ष में गये। क्रोध का विपाक . एक नगर में एक व्यापारी उघराणी के लिए गया था। कई दिनों से ग्राहक रुपये नहीं दे रहा था। वादे पर वादे कर रहा था। आज घर से निकला तब सोचकर निकला था कि आज तो रुपये लेकर ही आऊंगा। यह नहीं सोचा कि उसके घर में होंगे तो मिलेंगे। उसके घर जाकर सेठ ने अधिक आग्रह किया रुपये देने के लिए। ग्राहक नम्र आवाज में कह रहा था। पर सेठ आज उग्र बन गये थे। किसी भी हालत में आज देने पडेंगे। लेकर जाऊंगा। रुपये न हो तो बच्चे बैरी को बेचकर भी रुपये ला। सेठ के इन शब्दों से ग्राहक अतीव क्रोधीत बना। कुछ सोचा, घर में गया। अपने शरीर पर घासलेट अधिक मात्रा में डालकर आग लगाकर बाहर आकर सेठ कुछ सोचे उसके पूर्व तो उसने उनको अपने बाथ में ले लिया। सेठ चिल्लाने लगे। जलते-जलते भी वह बोला अब मेरे बच्चे बैरी बेचकर रुपये ले जाना। ग्राहक स्वयं भी जला सेठ को भी जलाया। क्रोध का विपाक ऐसा भी होता है। D श्वेतवरण में चन्द्रप्रभ सोहे, हे की कांति जनमन मोठे । ललित कूट पर मुनिवर आवे, साधना करके कउम वपावे ॥ : श्री चंद्रप्रभ चरित्र : 80 : Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ९. श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ) चरित्र करामलकवद्विश्चं, कलयन् केवलश्रिया । अचिन्त्यमाहात्म्यनिधिः, सुविधिबोधयेस्तु वः ॥ भावार्थ - जो अपनी केवल ज्ञान रूपी लक्ष्मी से जगत को निर्मल जल की तरह जानते हैं और जो अचिन्त्य (जिसकी कल्पना भी न हो सके ऐसे) महात्म्य रूपी दौलतवाले हैं वे सुविधिनाथ तुम्हारे लिये बोध के कारण हो। प्रथम भव :- . . पुष्करवर द्वीप में पुष्कलावती नामक विजय है। उसकी नगरी पुंडरीकिणी है। उस नगरी का राजा महापद्म था। वह संसार से विरक्त हो गया और जगन्नंद गुरु के पास उसने दीक्षा ले ली। वह एकावली आदि तप को करता था, इससे उसने तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। दूसरा भव : · अंत में वह शुभ ध्यान पूर्वक आयु पूर्ण कर वैजयंत विमान में महर्द्धिक देव हुआ। तीसरा भव : वहां के अनुपम सुखों को भोगकर महापद्म का जीव वैजयंत विमान से च्यवकर काकंदी नगरी के राजा सुग्रीव की रानी रामा के गर्भ में, फाल्गुन वदि ६ के दिन मूल नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवन कल्याणक का उत्सव मनाया। क्रमशः गर्भ का समय पूर्ण होने पर महारानी रामा ने मार्गशीर्ष वदि ५ के दिन मूल नक्षत्र में मगर के चिह्न सहित, पुत्ररत्न को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मोत्सव मनाया। गर्भ समय में माता सब विधियों में कुशल हुई थीं। इसलिए उनका नाम : श्री तीर्थंकर चरित्र : 81 : Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सविधिनाथ एवं गर्भ समय में माता को पुष्प का दोहला उत्पन्न हुआ था। इससे उनका दूसरा नाम पुष्पदंत रखा गया। . युवा होने पर माता-पिता के आग्रह से भगवान ने अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह किया। वे ५० हजार पूर्व तक युवराज रहे। इसके बाद २८ पूर्वांग सहित ५० हजार पूर्व तक उन्होंने राज्य किया। फिर एक समय लोकांतिक देवों ने आकर विनती की – 'हे प्रभु! अब जगत के जीवों के हितार्थ दीक्षा धारण कीजिए।' तब प्रभु ने वर्षीदान देकर मार्गशीर्ष वदि ६ के दिन मूल नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ सहसाम्रवन में जाकर दीक्षा धारण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक उत्सव किया। वेतपुर के राजा पुष्प के घर दूसरे दिन प्रभु ने पारणा किया। ___वहां से विहार कर चार मास बाद भगवान उसी उद्यान में आये। और मालुर वृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग कर कार्तिक सुदि ३ मूल नक्षत्र में उन्होंने चार घातिया कर्मों को नष्ट कर केवल ज्ञान पाया। प्रभु का परिवार इस प्रकार था, ८८ गणधर, २ लाख साधु, ३ लाख साध्वियां, ८ हजार ४ सौ अवधिज्ञानी, डेढ़ हजार चौदह पूर्वधारी, साढे सात हजार मनःपर्ययज्ञानी, ७ हजार ५ सौ केवली, १३ हजार वैक्रिय लब्धिधारी४, ६ हजार वादी, २ लाख २६ हजार श्रावक और ४ लाख ७१ हजार श्राविकाएँ तथैव अजित नामक यक्ष व सुतारा नाम की शासन देवी। मोक्षकाल पास जानकर पुष्पदंत स्वामी सम्मेदशिखर पर पधारें। और वहां उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन धारण किया। अंत में योग निरोध कर भाद्रवा सुदि ६ के दिन मूल नक्षत्र में पुष्पदंतजी सिद्ध हुए। इंद्रादि देवों ने निर्वाण कल्याणक मनाया। ___पुष्पदंतजी की कुल आयु २ लाख पूर्व की थी, उसमें से उन्होंने आधा लाख पूर्व युवराज पद में, २८ पूर्वांग सहित आधा लाख पूर्व राज्यकाल में, २८ पूर्वांग न्यून एक लाख पूर्व साधुपन में बिताया। फिर वे मोक्ष गये। उनका शरीर १०० धनुष ऊंचा था। चंद्रप्रभु के निर्वाण जाने के बाद ६० कोटि सागरोपम बीतने पर : श्री पुष्पदंत (सुविधिनाथ) चरित्र : 82 : Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुविधिनाथजी मोक्ष में गये। श्री सुविधिनाथ मोक्ष में गये उसके बाद हुंडा अवसर्पिणी काल के दोष से त्यागी साधु न रहे। तब लोग श्रावकों से ही धर्म पूछने लगे। श्रावक लोग अपनी इच्छानुसार धर्मोपदेश देने लगे। भद्रिक लोग उन्हें, उपकारी समझकर, द्रव्यादि भेट में देने लगे। लोभ बुरी बला है। उन श्रावकों ने लोभ के वश होकर उपदेश दिया – 'तुम लोग भूमिदान, स्वर्णदान, रूप्यदान, गृहदान, अवदान, राजदान, लोहदान, तिलदान, कपासदान आदि दान दिया करो। इन दोनों से तुमको इस लोक में और परलोक में महान फलों की प्राप्ति होगी।' इस उपदेश के अनुसार लोग. दान भी देंने लगे। लोभ से मार्गच्युत बने हुए उन श्रावकों ने दान भी खुद ही लेना आरंभ कर दिया। वे ही लोगों के गृहस्थ गुरु बन गये। इन श्रावकों में उन लोगों की संतति मुख्य थी जो भरत चक्रवर्ती के समय में 'माहन', 'माहन' बोलते हुए ब्राह्मणों के नाम से मशहूर हो गये थे। और इसलिए वे श्रावक मुख्यतया ब्राह्मण कहलाये। बैंगन एक राजा को एक दिन बैंगन अच्छे लगे। उसने बैंगन को अच्छा बताया। तब सभी लोगों ने बैंगन की प्रशंसा की। बार-बार प्रशंसा सुनकर राजा बैंगन अधिक खाने लगा। तब गरमी हो गयी राजा ने बैंगन की निंदा की। तब सभी लोगों ने निंदा की। राजा ने कहा-उस दिन तुम बैंगन की कितनी प्रशंसा करते थे। और आज निंदा करते हो कारण क्या? लोगों ने कहा-हम आपके नौकर है? बैंगन के नहीं। सुविधिनाथ सम्मेत शिखर पर, मोक्ष पधारें सुप्रभ कूट पर। कोडा कोडी शिवपढ़ पावे, पूजन आवे पाप स्वपावे ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 83 : Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. श्री शीतलनाथ् चरित्र सत्त्वानां परमानन्द-कन्दोर्दोदनवान्बुदः । . स्याद्वादामृतनिस्यन्दी, शीतलः पातु वो जिनः ॥ मावार्थ - प्राणियों के उत्कृष्ट आनंद के अंकुर प्रकट होने में नवीन मेघ के समान और स्याद्वाद मत रूपी अमृत को वरसाने वाले श्री शीतलनाथ तुम्हारी रक्षा करें। प्रथम भव : पुष्कर द्वीप में वज्र नामक विजय है। उसकी राजधानी सुसीमा नामक नगरी है। उसका राजा पद्मोत्तर था। उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया। संसार से वैराग्य होने पर उसने त्रिसाद्य (स्रस्ताव) नामक आचार्य के पास दीक्षा ली, तीव्र तप सहित शुद्ध व्रतों को पाला और बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। द्वितीय भव : वह दशवें देवलोक में देव हुए। . . तीसरा भव : वहां से च्यवकर पद्मोतर का जीव भरत क्षेत्र के भद्रिला नगर के राजा दृढ़रथ की रानी नंदा के उदर में, वैशाख वदि ६ के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भ का समय पूर्ण होने पर नंदा रानी ने माघ वदि १२ के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में श्री वत्स लक्षणयुक्त, पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। राजा ने हर्षित होकर बहुत दान दिया। पहले राजा को गर्मी बहुत लगती थी, परंतु यह पुत्र गर्भ में आया, उसके बाद राजा ने एक दिन रानी का अंग छुआ, इसीसे राजा की बहुत दिनों की गर्मी शांत हो गयी। इस कारण से उन्होंने पुत्र का नाम शीतलनाथ रखा। .. . : श्री शीतलनाथ चरित्र : 84 : Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शिशु काल में प्रभु की अनेक धायें सेवा करती थी। दूज के चांद समान बढ़ते प्रभु युवा हुए। मात-पिता ने अत्याग्रह कर अनेक राजकन्याओं के साथ उनका ब्याह कर दिया। उन्होंने २५ हजार पूर्व तक युवराज पद पर रहे और ५० हजार पूर्व तक राज्य किया। पीछे लोकांतिक देवों ने प्रभु से दीक्षा लेने की प्रार्थना की। ___ संवत्सरी दान देने के बाद प्रभु ने छ? तप कर माघ वदि १२ के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में सहसाम्र वन में जा एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक किया। दूसरे दिन राजा पुनर्वसु के घर पारणा किया। वहां से विहार कर तीन मास के बाद प्रभु उसी उद्यान में आये। पीपल वृक्ष के नीचे उन्होंने कार्योत्सर्ग धारण किया। शुक्ल ध्यान के दूसरे भेद पर चढ़ घातिया कर्मों को क्षय कर पौष वदि १४ के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में शीतलनाथजी केवली हुए। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरण की रचना की। प्रभु ने सिंहासन पर बैठकर भव्य जीवों को दिव्य उपदेश दिया। . शीतलनाथजी के शासन में इतना परिवार था - ब्रह्म नामक यक्ष, अशोका शासन देवी, ८१ गणधर, १ लाख साधु, एक लाख ६, (२० हजार बीस) साध्वियां, १४०० चौदह पूर्वधारी, ७ हजार २ सौ अवधिज्ञानी, साढ़े सात हजार मनःपर्यय ज्ञानी, ७ हजार केवली, १२००० वैक्रिय लब्धिधारी, ५ हजार ८ सौ वादी, २ लाख ८६ हजार श्रावक और ४ लाख ५८ हजार श्राविकाएँ। __ अपना निर्वाण काल समीप जानकर प्रभु सम्मेदशिखर पर आये। वहां उन्होंने एक हजार मुनियों के सान अनशन व्रत धारण किया। एक मास के बाद वैशाख वदि २ पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में उन्हीं मुनियों के साथ प्रभु मोक्ष में गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक मनाया। _२५ हजार पूर्व कुमार वय में, ५० हजार पूर्व राज्य काल में, २५ हजार पूर्व दीक्षा काल में, इस प्रकार प्रभु की आयु के १ लाख पूर्व व्यतीत हुए। उनका शरीर ६० धनुष ऊंचा था। सुविधिनाथजी के मोक्ष जाने के बाद नौ कोटि सागरोपम बीते, तब . शीतलनाथजी मोक्ष में गये। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 85 : Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११. श्री श्रेयांसनाथ चरित्र भवरोगार्त्तजन्तूनामगदङ्गकारदर्शनः । निःश्रेयसश्रीरमणः श्रेयांसः श्रेयसेऽस्तु वः ॥ भावार्थ - जिनका दर्शन ( सम्यक्त्व) संसार रूपी रोग से पीड़ित जीवों के लिए वैद्य के समान है और जो मोक्षरूपी लक्ष्मी के स्वामी है। वे श्रीश्रेयांसनाथ भगवान तुम्हारे कल्याण के हेतु होवें । * प्रथम भव : पुष्करवरद्वीप में कच्छ विजय है। उसमें क्षेमा नाम की एक नगरी है। वहां का राजा नलिनगुल्म था। उसने बहुत दिनों तक राज्य किया। एक समय संसार से उसको वैराग्य हुआ । उसने वज्रदंत मुनि के पास दीक्षा ली और वीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर गोत्र बांधा। दूसरा भव : प्राण तजकर नलिनगुल्म शुक्र नामक दशवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। तीसरा भव : वहां से च्यवकर सिंहपुरी नगर के राजा विष्णु की रानी के उदर में चौदह स्वप्न सूचित जेठ वदि ६ के दिन श्रवण नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भकाल पूरा होने पर विष्णु माता की कुक्षि से फाल्गुन वदि १२ के दिन श्रवण नक्षत्र में गेंडे के चिह्न सहित पुत्ररत्न का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारी एवं इन्द्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया । पुत्र का नाम श्रेयांस कुमार रखा गया। क्योंकि उनके जन्म से राजा के घर सब श्रेय (कल्याण) हुआ था। : श्री श्रेयांसनाथ चरित्र : 86 : Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनुक्रम से प्रभु युवा हुए। तब मात-पिता ने अत्याग्रहकर अनेक राजकन्याओं के साथ उनका पाणिग्रहण करा दिया। वे २१ लाख वर्ष तक युवराज रहे और ४२ लाख वर्ष तक उन्होंने राज्य किया। जब लोकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की विनती की, तब प्रभु ने वर्षीदान दिया और सहसाम्र वन में जाकर फाल्गुन वदि १३ के दिन श्रवण नक्षत्र में छट्ट तप कर दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक किया। दूसरे दिन उन्होंने राजा नंद के यहां पर पारणा किया। वहां से अन्यत्र विहार कर एक मास बाद वापिस वे उसी वन में आये। अशोक वृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग धार शुक्लध्यान के साथ कर्मों का नाश कर माघ वदि अमावस्या के दिन चंद्र नक्षत्र में प्रभु केवली हुए। इंद्रादि देवों ने केवलज्ञान-कल्याणक किया। श्रेयांसनाथजी के परिवार में इश्वर1 नाम का यक्ष और मानवी 2 नाम की शासन देवी हुई। इसी तरह ७६ गणधर, ८४ हजार साधु, १ लाख ३ हजार साध्वियां, १३०० चौदह पूर्वधारी, ६ हजार अवधिज्ञानी, ६ हजार मनःपर्यवज्ञानी, साढ़े छः हजार केवली, ११ हजार वैक्रिय लब्धिधारी, ५ हजार वादलब्धिधारी, २ लाख ७६ हजार श्रावक और ४ लाख ४८ हजार श्राविकाएँ थी। प्रभु अपना मोक्षकाल समीप जान सम्मेदशिखर पर गये। एक हजार मुनियों के साथ उन्होंने अनशन व्रत लिया और एक मास के अंत में श्रावण वदि ३ के दिन घनिष्ठा नक्षत्र में प्रभु मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याण का उत्सव किया। श्रेयांसनाथ की आयु ८४ लाख वर्ष की थी, उसमें से वे २१ लाख वर्ष कुमार वय में रहे, ४२ लाख वर्ष राज्य में रहे और २१ लाख वर्ष उन्होंने चारित्र पाला। इनका शरीर ८० धनुष ऊंचा था। शीतलनाथजी के निर्वाण के बाद ६६ लाख ३६ हजार वर्ष १०० सोगरोपम न्यून एक कोटि सागरोपम बाद श्रेयांसनाथजी मोक्ष गये। इनके तीर्थ में त्रिपृष्ट वासुदेव, अचल नामक बलदेव और अवग्रीव प्रति वासुदेव हुए। 1. इसका दूसरा नाम 'मनुज' भी है। 2. इसका दूसरा नाम 'श्रीवत्सा' भी है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 87 : . Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. श्री वासुपूज्य चरित्र विधोपकारकीभूत-तीर्थकृतकर्मनिर्मितिः ।। सुरासुरनरैः पूज्यो, वासुपूज्यपुनातु वः ॥ भावार्थ - जिन्होंने जगत का उपकार करने वाला तीर्थंकर नाम कर्म निर्माण किया है - उपार्जन किया है और जो देवता, असुर .और मनुष्य सभी के पूज्य है, वे वासुपूज्य स्वामी तुम्हें पवित्र करें। प्रथम भव : पुष्करवर द्वीप में मंगलावती नामक विजय है। उसकी राजधानी रत्नसंचया नाम की नगरी थी। उसमें पद्मोत्तर नाम का राजा राज्य करता. था। उसको संसार से वैराग्य हुआ और उसने वज्र नामक गुरु के पास दीक्षा ले ली। आठ प्रवचन माता (५ समिति ३ गुप्ति) को पालकर और वीस स्थानक की आराधना कर उसने तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। द्वितीय भव : आयु पूर्ण कर पद्मोत्तर का जीव दशवें देवलोक में उत्पन्न हुआ। तीसरा भव : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में चंपा नगरी थी। उस नगरी के राजा वसुपूज्य के जया नाम की रानी थी। पद्मोत्तर का जीव स्वर्ग से च्यवकर जेठ सुदि ६ के दिन शतभिशाका नक्षत्र में जयादेवी के गर्भ में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक किया। नौ माह साढ़े सात दिन बीतने पर फाल्गुन वदि १४ के दिन शतभिषाका नक्षत्र में जयादेवी की कुक्षि से महिषलक्षण-युक्त पुत्र का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। और उस बालक का नाम वासुपूज्य रखा गया। यौवन काल आने पर माता-पिता के आग्रह करने पर उन्होंने अनेक कन्याओं के साथ विवाह किया परंतु राज्य ग्रहण नहीं किया। : श्री वासुपूज्य चरित्र : 88 : Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन लोकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की प्रार्थना की वासुपूज्य स्वामी ने वरसीदान देकर फाल्गुन वदि ३० के दिन वरुण नक्षत्र में छ? तप सहित दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक किया। दूसरे दिन महापुर नगर में राजा सुनंद के यहां उन्होंने पारणा किया। प्रभु एक मास छद्मस्थपने में विहार कर गृह-उद्यान में आये। और पाटल वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग पूर्वक रहे। वहां पर माघ सुदि २ के दिन शतभिषाका नक्षत्र में प्रभु को केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक किया। प्रभु ने भव्य जीवों को उपदेश दिया और नाना देशो में विहार किया। उनके शासन में ६६ गणधर, ७२ हजार साधु, १ लाख ३ हजार साध्वियां, ४ सौ चौदह पूर्वधारी, ५४ सौ अवधिज्ञानी, ६५०० मनःपर्यवज्ञानी, - ६ हजार केवली, १० हजार वैक्रिय लब्धिधारी, ४ हजार ७ सौ वादी, २ लाख १५ हजार श्रावक, ४ लाख ३६ हजार श्राविकाएँ तथैव चंद्रा नाम की शासन देवी और कुमार नामक यक्ष थे। . मोक्ष काल निकट ज़ान भगवान चंपा नगरी में पधारे। वहां छ: सौ मुनियों के साथ अनशन व्रत ग्रहण कर एक मास के अंत में आषाढ़ सुदि १४ के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में प्रभु मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने निर्वाणकल्याणक किया। .प्रभु १८ लाख वर्ष कुमार वय में और ५४ लाख वर्ष दीक्षापर्याय में इस तरह ७२ लाख वर्ष की आयु समाप्त कर मोक्ष में गये। उनका शरीर ७० धनुष ऊंचा था। ____श्रेयांसनाथ के मोक्ष जाने के ५४ सागरोपम बीतने पर वासुपूज्यजी मोक्ष में पधारे। इनके समय में द्विपृष्ठ वासुदेव, विजय बलभद्र और तारक प्रतिवासुदेव हुए थे। चंपापुरी के आप सितारे, वासुपूज्य जिन मोक्ष पधारें । पंच कल्याणक इण पूरी आहे, भक्तजनों के मन को मोहे ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 89 : Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. श्री विमलनाथ चरित्र विमलस्वामिनो वाचः, कतकक्षोदसोदराः । जयन्ति त्रिजगच्चेतो-जलनैर्मल्यहेतवः ॥ भावार्थ - कतक फल के चूर्ण जैसी, तीन लोक के प्राणियों के हृदयरूपी जल को निर्मल बनानेवाली श्री विमलनाथ स्वामी की वाणी जयवंती हो। प्रथम भव : धातकी खंड के प्राग विदेह में भरत क्षेत्र है। उसमें महापुरी नगरी है। उसका राजा पद्मसेन था। उसको वैराग्य उत्पन्न हुआ। सर्वगुप्त मुनि के पास उसने दीक्षा ली। सम्यक् प्रकार से चारित्र का पालन किया। और अर्हद्भक्ति आदि बीस स्थानक की आराधना से तीर्थंकर गोत्र बांधा। चिर काल तक मुनिव्रत पालन किया। दूसरा भव : आयु पूर्ण होने पर पद्मोत्तर का जीव सहस्रार स्वर्ग में बड़ा ऋद्धिवान देव हुआ। वहां पर नाना प्रकार के सुख भोगे। तीसरा देव : स्वर्ग से पद्मोत्तर का जीव च्यवकर कंपिला नगर के राजा कृतवर्मा की रानी श्यामा के गर्भ में वैशाख सुदि १२ के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में गर्भ में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भ का समय पूरा होने पर माघ सुदि ३ के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में वराह (सूअर) के चिह्न युक्त पुत्र को श्यामा देवी ने जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। गर्भ समय में माता के परिणाम निर्मल रहे थे। इससे पुत्र का नाम विमलनाथ रखा गया। युवा होने पर माता-पिता ने आग्रह : श्री विमलनाथ चरित्र : 90 : Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर विमल कुमार का विवाह अनेक कन्याओं के साथ कर दिया। भगवान १५ लाख वर्ष तक युवराज पद में रहे। ३० लाख वर्ष तक राज्य किया। फिर लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की 'हे प्रभु! दीक्षा धारण कीजिए। ' भगवान ने संवत्सरी दान दे, एक हजार राजाओं के साथ छट्ट तप सहित सहसाम्र वन में माह सुदि ४ के दिन उत्तरा भाद्रपद नक्षत्र में दीक्षा धारण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। तीसरे दिन राजा जय के घर पारणा किया। दो वर्ष तक अनेक देशों में विहार कर प्रभु फिर उसी उद्यान में आये और जंबू वृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग पूर्वक रहे। क्षपक श्रेणी में आरूढ़ होकर उन्होंने घातिया कर्मों का क्षय किया और पौष वदि ६ के दिन उत्तराभाद्रपद नक्षत्र में केवल ज्ञान पाया। इंद्रादि देवों ने केवल ज्ञानकल्याणक मनाया। प्रभु के शासन में ५७ गणधर ६८ हजार साधु, १ लाख सौ साध्वियां, १ हजार एक सौ चौहद पूर्वधारी, ४ हजार ८ सौ अवधिज्ञानी, ५ हजार ५ सौ मनःपर्यायज्ञानी, ५ हजार ५ सौ केवलज्ञानी और ६ हजार वैक्रियलब्धिधारी, २ लाख ८ हजार श्रावक, ४ लाख २४ हजार श्राविकाएँ, षण्मुख नामक यक्ष और विदिता शासन देवी थे। ८ अपना मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेदाचल पर आये और छः हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशनव्रत धारण कर आषाढ वदि ७ के दिन मोक्ष में गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक किया। - • १५ लाख वर्ष कुमार वय में, ३० लाख वर्ष तक राज्य कार्य में और १५ लाख वर्ष संयम में इस तरह ६० लाख वर्ष की आयु भोग प्रभु मोक्ष में गये। उनका शरीर ६० धनुष ऊंचा था। वासुपूज्यजी के ३० सागरोपम बाद विमलनाथजी मोक्ष में गये। इनके तीर्थ में स्वयंभू वासुदेव, भद्र नामक बलदेव और मेरक प्रति वासुदेव हुए। विमल जिन आतंम विमल करते, मोह सैनिक भक्त से डरते । महिमा सुनकर दौड़े आते, पाप खपाकर शिवपद पाते ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 91 : Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. श्री अनन्तनाथ चरित्र स्वयम्भूरमणस्पर्द्धि-करुणारसवारिणा । अनन्तजिदनन्तां वः प्रयच्छतु सुखश्रियम् ॥ भावार्थ – अपने करुणा - रस रूपी जल के द्वारा स्वयंभू रमण समुद्र से स्पर्द्धा करने वाले श्री अनंतनाथ भगवान अनंत मोक्षसुख रूपी लक्ष्मी तुम्हें देवें। प्रथम भव : धातकी खंड द्वीप के ऐरावत क्षेत्र में अरिष्ठा नामक नगरी थी। उसमें पद्मरथ राजा राज्य करता था। किसी कारण उसको संसार से वैराग्य हुआ। रक्ष नामक आचार्य के समीप उसने दीक्षा ली। वीस स्थानक की आराधना से उसने तीर्थंकर गोत्र का बंध किया। दूसरा भव : अंतसमय में आयु पूर्ण कर पद्मरथ का जीव प्राणत देवलोक पुष्पोत्तर विमान में देव हुआ। तीसरा भव : जंबूद्वीप की अयोध्या नगरी में सिंहसेन राजा था। उसकी सुयशा नाम की रानी थी। उस रानी के गर्भ में पद्मरथ का जीव देवलोक से च्यवकर चौदह स्वप्न सूचित श्रावण वदि ७ के दिन रेवती नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भावस्था पूर्ण होने पर रानी ने वैशाख वदि १३ के दिन पुष्प नक्षत्र में बाज पक्षी के लक्षणयुक्त पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक किया। गर्भकाल में पिता ने अनंत शत्रु जीते थे, इससे इनका नाम अनंतनाथ रखा गया। शिशुकाल को त्यागकर प्रभु युवा हुए। उस समय आग्रह कर मात-पिता ने अनेक कन्याओं के साथ उनकी शादी की। साढ़े सात लाख वर्ष तक युवराज रहे। फिर पिता के आग्रह से राजा बने । और १५ लाख वर्ष तक राज्य किया। : श्री अनन्तानाथ चरित्र : 92 : Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक दिन लोकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की प्रेरणा की। समय जान, वरसीदान दे,.सहसाम्रवन में जाकर, वैशाख वदि १४ के दिन रेवती नक्षत्र में प्रभु ने छ? तप युक्त दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। दूसरे दिन राजा विजय के घर परमान्न से (खीर से) पारणा किया। प्रभु विहार करते हुए तीन वर्ष के बाद वापिस उसी वन में पधारें। अशोक वृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान में रहे। घाति कर्मों का नाश होने से वैशाख वदि १४ के दिन रेवती नक्षत्र में भगवान को केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक किया। ___ प्रभु के शासन में - पाताल नामक यक्ष, अंकुशा नाम की शासन देवी, ५० गणधर, ६६ हजार साधु, ६२ हजार साध्वियां, एक हजार चौदह पूर्वधारी, ४ हजार ३ सौ अवधिज्ञानी, ५ हजार मनःपर्ययज्ञानी, ५ हजार केंवली, ८ हजार वैक्रिय लब्धि वाले, ३ हजार दो सौ वादी, २ लाख ६ हजार श्रावक और ४ लाख १४ हजार श्राविकाएँ थी। मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखर पर गये और सात हजार साधुओं के साथ अनशन व्रत धारण कर चैत्र सुदि ५ के दिन पुष्य नक्षत्र में मोक्ष को पधारें। इंद्रादि देवों ने निर्वाण कल्याणक मनाया। . साढे सात लाख वर्ष कुमार वय में, १५ लाख वर्ष राज्य कार्य में और साढ़े सात लाख वर्ष दीक्षा पालने में इस तरह ३० लाख वर्ष की आयु पूर्ण कर प्रभुमोक्ष में गये। उनका शरीर ५० धनुष ऊंचा था। विमलनाथजी का निर्वाण हुआ, उसके पीछे नौ सागरोपम बीतने पर अनंतनाथजी मोक्ष में गये। इनके तीर्थ में चौथा वासुदेव पुरुषोत्तम, चौथा बलदेव सुप्रभ और चौथा प्रतिवासुदेव मधु हुए। अनंत जिनवर विचरते आये, मुनि सप्तसहस संगे आये। शैलेशीकरण चित्त लगाये, स्वयंभू कूट पर शिवपद पाये ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 93 : Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५. श्री धर्मनाथ चरित्र कल्पद्रुमसधर्माण-मिष्टप्राप्तौ शरीरिणाम् । चतुधर्मदेष्टारं, धर्मनाथमुपास्महे ॥ भावार्थ - जो प्राणियों को इच्छित फल की प्राप्ति में कल्पवृक्ष के समान है और जो दान, शील, तप और भाव रूपी चार प्रकार के धर्म का उपदेश करनेवाले हैं उन श्री धर्मनाथप्रभु की हम उपासना करते हैं। . प्रथम भव : धातकी खंड के पूर्व विदेह में, भरत नाम के देश में भद्रिलं नगर था। वहां का राजा द्रढ़रथ था। उसको संसार से वैराग्य उत्पन्न हुआ। उसी समय उसने विमलवाहन गुरु के पास दीक्षा ली। चिरकाल तक चारित्र पाला और बीस स्थान की आराधना से तीर्थंकर गोत्र बांधा।' दूसरा भव : समाधिमरण से द्रढ़रथ का जीव वैजयंत नामक विमान में देव हुआ। तीसरा भव : रत्नपुर नगर के राजा भानु की रानी सुव्रता के गर्भ में द्रढ़रथ राजा का जीव वैजयंत विमान से च्यवकर चौदह स्वप्न सूचक वैशाख सुदि ७ के दिन पुष्प नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भ काल को पूर्ण कर सुव्रता रानी को उदर से, माघ सुदि ३ के दिन पुष्प नक्षत्र में, वज्र लक्षणयुक्त पुत्र का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। जब प्रभु गर्भ में थे उस समय माता को धर्म करने का दोहला हुआ था। इससे उनका नाम धर्मनाथ रखा गया। __ उन्होंने यौवन काल में माता-पिता के आग्रह से पाणिग्रहण किया, : श्री धर्मनाथ चरित्र : 94 : Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५ हजार वर्ष तक राज्य किया फिर लोकांतिक देवों के विनती करने पर वरसीदान दे प्रकांचन उद्यान में जाकर, एक हजार राजाओं के साथ माघ सुदि १३ के दिन पुष्प नक्षत्र में दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक मनाया। दूसरे दिन धर्मसिंह राजा के यहां प्रभु ने परमान्न से (खीर से) पारणा किया। ___ भगवान विहार करते हुए दो वर्ष बाद उसी उद्यान में पधारे। उन्होंने दधिपर्ण वृक्ष के नीचे ध्यान धरा। घातिया कर्मों का क्षय होने से पौष सुदि १५ के दिन पुष्प नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया। केवल ज्ञान उत्पन्न होने पर दो वर्ष कम ढाई लाख वर्ष तक उन्होंने नाना देशों में विहार किया और प्राणियों को उपदेश दिया। धर्मनाथजी के संघ में ४३ गणधर, ६४ हजार साधु, ६२ हजार ४ सौ आर्याएँ, ६ सौ चौदह पूर्वधारी, ३ हजार ६ सौ अवधिज्ञानी, ४ हजार ५ सौ मनःपर्यवज्ञानी, ४ हजार ५ सौ केवली, ७ हजार वैक्रिय लब्धिधारी, २ हजार ८ सौ वादी, २ लाख ४ हजार श्रावक और ४ लाख १३ हजार श्राविकाएँ थी। तथा किन्नर यक्ष शासन देव और कंदर्पा नामा शासन देवी थी। ..भगवान, मोक्षकाल समीप जानं सम्मेद शिखर पर आये और १०८ मुनियों के साथ अनशन व्रत ग्रहण कर ज्येष्ठ सुदि ५ के दिन पुष्प नक्षत्र में मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्ष कल्याणक किया। प्रभु ढाई लाख वर्ष कुमारपन में, ५ लाख वर्ष राज्यकार्य में और ढाई लाख वर्ष साधुपन में रहे। इस तरह उन्होंने १० लाख वर्ष की आयु पूर्ण की। उनका शरीर पैंतालीस धनुष ऊंचा था। . . अनंतनाथजी के निर्वाण जाने के बाद चार सागरोपम बीतने पर धर्मनाथजी मोक्ष में गये। __ इनके तीर्थ में पांचवां वासुदेव पुरुषसिंह, सुदर्शन बलदेव और निशुंभ प्रतिवासुदेव हुए। . धर्मनाथ धर्म ध्वज फरकावें, तीन लोक के जन सुख पावें । इगशत अड सह अनशन ठावे, जिन इस कूढे मोक्ष सिधावें ॥ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 95 : Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. श्री शांतिनाथ् चरित्र सुधासोदरवाग्ज्योत्स्ना-निर्मलीकृतदिङ्मुखः । मृगलक्ष्मातमःशान्त्यै, शान्तिनाथजिनोऽस्तु वः ॥ . भावार्थ - जिनकी अमृत के समान वाणी सुनकर लोगों के मुख उसी तरह प्रसन्न हुए हैं, जैसे चांदनी से दिशाएँ प्रसन्न होती हैं - प्रकाशित होती हैं और जिनके हिरन का चिह्न है। वे शांतिनाथ भगवान तुम्हारे पापों को उसी तरह नष्ट करें जैसे चंद्रमा अंधकार का नाश करता है। . पहला भव : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में रत्नपुर नाम का शहर था। उसमें श्रीषेण नाम का राजा राज्य करता था। उसके अभिनंदिता और शिखिनंदिता नाम की दो रानियां थीं। अभिनंदिता के इंदुषेण और बिंदुषेण नाम के दो पुत्र हुए। वे जब बड़े हुए तब विद्वान, युद्ध व न्यायविशारद हुए। भरतक्षेत्र के मगध देश में अचलग्राम नाम का एक गांव था। उसमें धरणीजट नाम का एक विद्वान ब्राह्मण रहता था। वह चारों वेदों का जानकार था। उसकी यशोभद्रा नाम की स्त्री थी। उसके गर्भ से क्रमशः नंदिभूति और शिवभूति नाम के दो पुत्र जन्मे। धरणीजट के घर में एक दासी थी। वह सुंदर एवं रूपवान थी। धरणीजट का मन बिगड़ने से उस दासी के गर्भ से एक लड़का जन्मा। उस लड़के का नाम कपिल रखा गया। धरणीजट नंदिभूति और शिवभूति को विद्या पढ़ाता था। कपिल की तरफ कभी ध्यान भी नहीं देता था। परंतु कपिल बुद्धिमान था - मेधावी था, इसलिए वह उसका बाप जो कुछ यशोभद्रा के लड़कों को पढ़ाता था उसे ध्यान पूर्वक सुनकर पाठ कर लेता था। इस तरह कपिल पढ़कर धेरणीजट के समान दिग्गज विद्वान हुआ। : श्री शांतिनाथ चरित्र : 96 : Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विद्वान कपिल, निज शहर में, विद्वान होते हुए भी, अपना अपमान होता देख, वहां से विदेशों में चला गया। दासीपुत्र समझकर धरणीजट ने उसे जनेऊ न पहनायी, इसलिए उसने अपने आप यज्ञोपवीत धारण किया। चारों तरफ कपिल की विद्वत्ता की धाक बैठ गयी। जहां जाता वहीं के विद्वान लोग उसका आदर करते। कपिल फिरता-फिरता रत्नपुर नगर में पहुंचा। वहां सत्यकी नाम का एक ब्राह्मण रहता था उसके यहां अनेक विद्वान शिष्य पढ़ते थे। कपिल सत्यकी की पाठशाला में गया। शिष्यों ने उससे अनेक प्रश्न पूछे। कपिल ने सब का यथोचित उत्तर दिया। सत्यकी ने भी शास्त्रों के अनेक गूढाशय पूछे। कपिल ने सब का आशय भली प्रकार समझाया। इससे सत्यकी बड़ा खुश हुआ। उसने कपिल को, आग्रह करके अपने यहां रखा और अपनी शाला का मुख्य अध्यापक बना दिया। 'गुणों की कदर कहां नहीं होती?' सत्यकी का अपने पर प्रेम देख कपिल उसकी बड़ी सेवा करने लगा। उसके काम का सभी बोझा उसने उठा लिया। - एक बार सत्यकी की पत्नी जंबूका ने कहा – 'देखिए, अपनी सत्यभामा अब जवान हो मयी है। इसलिए उसकी शादी का कहीं इंतजाम कीजिए। जिसके घर जवान कंन्या हो, कर्ज हो, वैर हो और रोग हो उसे शांति से नींद कैसे आ सकती है? मगर आप तो बेफिक्र है।' सत्यकी ने जवाब दिया – 'मैंने इसके लिए योग्य वर ढूंढ लिया है। कपिल मेंरी निगाह में सब तरह से लायक है। अगर तुम्हारी सलाह हो तो सत्यभामा के साथ इसकी शादी कर दी जाय।' जंबुका को यह बात ठीक लगी। यह उसके लिए और भी संतोष की बात हुई कि कपिल के साथ शादी होने से कन्या घर पर ही रहेगी। शुभ मुहूर्त में दोनों की शादी हो गयी। सुख से उनके दिन बीतने लगे। विद्वत्ता और मिष्ट व्यवहार के कारण लोग उसको बहुत भेटे देने लगे। जिससे उसके पास धन भी काफी हो गया। कुछ समय के बाद उसके सास ससुर का देहांत हो गया। . एक बार कपिल कहीं नाटक देखने गया था। रात अंधेरी थी। जोर : श्री तीर्थंकर चरित्र : 97 : Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ से पानी बरस रहा था। इसलिए लौटते समय कपिल ने अपने कपड़े उतार कर बगल में दबाये और वह नंगा ही घर पर चला आया। अपने दालन में आकर उसने दरवाजा खुलवाया। सत्यभामा ने दरवाजा खोला और कहा - 'ठहरिए मैं सूखे कपड़े ले आती हूं।' कपिल ने कहा – 'मेरे कपड़े सूखे ही है। विद्या के बल से मैंने उन्हें नहीं भीगने दिया।' __मगर घर में आने पर सत्यभामा ने देखा कि कपिल का सिर गीला है और पैर भी गीले हैं। बुद्धिमती कपिला समझ गयी कि पतिदेव नंगे आये । हैं और मुझे झूठ कहा है। पति की झुठाई से सत्यभामा के हृदय में अश्रद्धा उत्पन्न हुई। अचलग्राम में धरणीजट दैवयोग से निर्धन हो गया। उसने सुना था कि कपिल रत्नपुर में धनी हो गया है इसलिए वह धन की आशा से कपिल के पास आया। कपिल ने अपनी पत्नी से कहा – 'मेरे पिता के लिए मुझसे अलग ऊंचा आसन लगाना और उनकी अच्छी तरह से सेवामक्ति करना।' कपिल को भय था कि, कहीं मेरे पिता मुझसे परहेज कर मेरी असलियत जाहिर न कर दें। . सत्यभामा को इस आदेश से संदेह हुआ और कपिल जब भोजन करके चला गया तब उसने धरणीजट को पूछा – 'पूज्यवर! आप सत्य बताइए कि आपका पुत्र शुद्ध कुलवाली कन्या के गर्भ से जन्मा है या नहीं? इनके आचरणों से मुझे शंका होती है। अगर आप झूठ कहेंगे तो आपको ब्रह्महत्या का पाप लगेगा। ___ धरणीजट धर्म भीरु था। वह ब्रह्महत्या के पाप के सोगंद की अवहेलना न कर सका। उसने सच्ची बात बता दी। साथ ही यह भी कह दिया कि मेरे जाने तक तूं कपिल से इस विषय की चर्चा मत करना। जब धरणीजट कपिल से सहायतार्थ काफी धन लेकर अचलग्राम गया तब सत्यभामा राजा श्रीषेण के पास गयी और उसको कहा – 'मेरा पति दासीपुत्र है। अनजान में मैं अब तक इसकी पत्नी होकर रही। अब ब्रह्मचर्यव्रत लेकर अकेली रहना चाहती हूं। कृपाकर मुझे उससे छुट्टी : श्री शांतिनाथ चरित्र : 98 : Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिलवाईए।' राजा ने कपिल को बुलाकर कहा – 'तेरी पत्नी अब संसार-सुख भोगना नहीं चाहती। इसलिए इसको अलहदा रहकर धर्मध्यान करने दे।' कपिल ने कहा – 'राजन्! पति के जीते पत्नी का अलहदा रहना अधर्म है। स्त्री का तो पति की सेवा करना ही धर्मध्यान है। मैं अपनी पत्नी को अलहदा नहीं रख सकता।' सत्यभामा बोली – 'ये मुझे अलहदा न रहने देंगे तो मैं आत्महत्या करुंगी। इनके साथ तो हरगिज न रहूंगी। राजा बोला – 'हे कपिल! यह प्राण देने को तैयार है। इससे तूं इसको थोड़े दिन मेरी रानियों के साथ रहने दे। वे पुत्री की तरह इसकी रक्षा करेंगी। जब इसका मन ठिकाने आ जाय तब तूं इसे अपने घर ले जाना।' इच्छा न होते हुए भी कपिल ने सम्मति दी। सत्यभामा अनेक तरह के तप करती हुई अपना जीवन बिताने लगी। कौशाबी के राजा बल के श्रीकांता नाम की एक कन्या थी। जवान होने पर उसका स्वयंवर हुआ) श्रीषण के पुत्र इंदुषेण को कन्या ने पसंद किया। दोनों का ब्याह हुआ। श्रीकांता जब ससुराल में आयी तब उसके साथ अनंतमतिका नाम की एक वेश्या भी आयी थी। उस वेश्या के रूप पर इंदुषेण और बिंदुषेण दोनों मुग्ध हो गये। फिर उसको पाने के लिए दोनों ने यह फैसला किया कि, हम द्वंद युद्ध करें। जो जीतेगा वह वेश्या को रखेगा। दोनों लड़ने लगे। माता-पिता ने उन्हें बहुत समझाया। मगर वे न माने। तब श्रीषेण ने जहर मिला हुआ फूल सूंघकर आत्महत्या कर ली। दोनों रानियों ने भी राजा का अनुसरण किया। सत्यभामा ने भी यह सोचकर जहरवाला फूल सूंघ लिया कि अगर जीति रहूंगी तो अब कपिल मुझे अपने घर जरूर ले जायगा। दोनों भाई युद्ध कर रहे थे उसी समय कोई विद्याधर विमान में बैठकर आया। दोनों को लड़ते देखकर वह नीचे आया और बोला - 'विषयांध मूों! यह तुम्हारी बहन है। उसे जाने बिना कैसे उसे अपनी : श्री तीर्थंकर चरित्र : 99 : Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुखसामग्री बनाने के लिए लड़ रहे हो?' दोनों लड़ना बंद कर खड़े होकर बोले – 'बताओ यह हमारी बहन किस तरह है?' . विद्याधर बोला – 'मेरा नाम मणिकुंडली है। मेरे पिता का नाम सुकुंडली है। पुष्पकलावती प्रांत में वैताढ्य पर्वत पर आदित्यभ नाम का नगर मेरे पिता की राजधानी है। मैं विमान में बैठकर अमितयश नाम के जिन भगवान को वंदना करने गया था। वहां मैंने भगवान से पूछा – 'मैं किस कर्म से विद्याधर हुआ हूं?' भगवान ने जवाब दिया – 'वीतशोका नाम की नगरी में रत्नध्वज नाम का चक्रवर्ती राजा राज करता था। उसकी कनकश्री और हेममालिनी नाम की दो रानियां थीं। कनकश्री की कनकलता और पद्मलता नाम की दो लड़कियां हुई। हेममालिनी की एक कन्या हुई। उसका नाम पद्मा था। पद्मा एक आर्या के पास धर्मध्यान और तप जप करने लगी। अंत में उसने दीक्षा ले ली। एक बार उसने चतुर्थ तप किया था। और दिशा फिरने गयी थी। रस्ते में उसने दो योद्धाओं को एक वेश्या के लिए लड़ते देखा। उसने सोचा, वह वेश्या भाग्यवती है, कि उसके लिए दो वीर लड़ रहे हैं। मेरे तप का मुझे भी यही फल मिले कि, मेरे लिये दो वीर लड़ें। अंत में नियाणे के साथ मरकर वह देवलोक में जन्म के बाद अब अनंतमतिका नाम की वेश्या हुई। कनकलता और पद्मलता मर, भवमृमण कर, अब इंदुषेण और बिन्दुषेण नाम के राजपुत्र हुए हैं। तुम कनकश्री का जीव हो। अभी इंदुषेण और बिन्दुषेण अनंतमतिका के लिए लड़ रहे हैं। तुम जाकर उन्हें समझाओ।' इसलिए मैं तुम्हारे पास आया हूं।' यह हाल सुनकर उनको बड़ा अफसोस हुआ। दुनिया की इस विचित्रता से उन्हें वैराग्य हुआ और उन्होंने धर्मरुचि नामक आचार्य के पास दीक्षा ले ली। दूसरा भव : श्रीषेण, अभिनंदिता, शिखिनंदिता और सत्यभामा के जीव मरकर जंबूद्वीप के उत्तर क्षेत्र में जुगलिया उत्पन्न हुए। श्रीषेण और अभिनंदिता पुरुष स्त्री हुए और शिखिनंदिता व सत्यभामा स्त्री पुरुष हुए। उनकी आयु : श्री शांतिनाथ चरित्र : 100 : Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीन पल्योपम की और उनका शरीर तीन कोस ऊंचा था। तीसरा भव :- . श्रीषेणादि चार युगलियों की मृत्यु हुई और वे प्रथम कल्प में देव हुए। चौथा भव : (श्रीषेण का जीव अमिततेज हुआ। ) भरत क्षेत्र में वैताढ्य गिरि पर रथनूपुर चक्रवाल नाम का शहर था। उसमें ज्वलनजटी नाम का विद्याधर राजा राज्य करता था। उसके अर्ककीर्ति नाम का पुत्र और स्वयंप्रभा नाम की पुत्री थी । अर्ककीर्ति का ब्याह विद्याधरों के राजा मेघवन की पुत्री ज्योतिर्माला के साथ हुआ। श्रीषेण राजा का जीव सौधर्म कल्प से च्यवकर ज्योतिर्माला के गर्भ में आया। ज्योतिर्माला ने उस रात को, अपने तेज से आकाश को प्रकाशित करते हुए एक सूर्य को अपने मुख में प्रवेश करते देखा। समय पर पुत्र का जन्म हुआ। उसका नाम अमिततेज रखा गया। अमिततेज के दादा ज्वलनजटी ने अर्ककीर्ति को राज्य देकर जगन्नंदन और अभिनंदन नामक चारण ऋषि के पास दीक्षा ले ली। सत्यभामा का जीव भी च्यवकर ज्योतिर्माला के गर्भ से पुत्री रूप में हुआ। उसका नाम सुतारा रखा गया। उत्पन्न अर्ककीर्ति की बहन स्वयंप्रभा का ब्याह त्रिपृष्ठ वासुदेव के साथ हुआ था। अभिनंदिता का जीव सौधर्मकल्प से च्यवकर स्वयंप्रभा के गर्भ से पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम श्रीविजय रखा गया । शिखिनंदिता का जीव भी प्रथम कल्प से च्यवकर स्वयंप्रभा के गर्भ से पुत्री रूप में उत्पन्न हुआ। उसका नाम ज्योतिः प्रभा रखा गया। स्वयंप्रभा के एक विजयभद्र नाम का तीसरा पुत्र भी जन्मा। सत्यभामा के पति कपिल का जीव अनेक योनियों में फिरता हुआ चमरचंचा नाम की नगरी में अशनिघोष नाम का विद्याधरों का प्रसिद्ध राजा हुआ। अर्ककीर्ति ने अपनी पुत्री सुतारा का ब्याह त्रिपृष्ठ के पुत्र श्री विजय : श्री तीर्थंकर चरित्र : 101 : Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ A के साथ किया और त्रिपृष्ठ ने अपनी कन्या ज्योतिःप्रभा का ब्याह अर्ककीर्ति के पुत्र अमिततेज के साथ कर दिया। . कुछ काल के बाद अर्ककीर्ति ने अपने पुत्र अमिततेज को राज्य देकर दीक्षा ले ली। त्रिपृष्ठ का देहांत हो गया और उसके भाई अचल बलभद्र ने त्रिपृष्ठ के पुत्र श्रीविजय को राज्य देकर दीक्षा ले ली। . एक बार अमिततेज अपनी बहन सुतारा और बहनोई श्रीविजय से मिलने के लिए पोतनपुर में गया। वहां जाकर उसने देखा कि सारे शहर में आनंदोत्सव मनाया जा रहा है। अमिततेज ने पूछा – 'अभी न तुम्हारे पुत्र जन्मा है, न वसंतोत्सव का समय है न कोई दूसरा खुशी का ही मौका है फिर सारे शहर में यह उत्सव कैसा हो रहा है?' श्रीविजय ने उत्तर दिया – 'दस रोज पहले यहां एक निमित्तज्ञानी आया था। उसने कहा था कि, आज से सातवें दिन पोतनपुर के राजा पर बिजली गिरेगी। यह सुनकर मंत्रियों की सलाह से मैंने सात दिन के लिए राज्य छोड़ दिया और राज्यसिंहासन पर एक यक्ष.की मूर्ति को बिठा दिया। मैं आंबिल का तप करने लगा। सातवें दिन बिजली गिरी और यक्ष की मूर्ति के टुकड़े हो गये। मेरी प्राणरक्षा हुई इसलिए सारे शहर में आनंद मनाया जा रहा है।' यह सुन अमिततेज और ज्योतिःप्रभा को बहुत खुशी हुई। थोड़े दिन रहकर दोनों पति-पत्नी अपने देश को चले गये। एक बार श्रीविजय और सुतारा आनंद करने ज्योतिर्वन नाम के वन में गये। उस समय कपिल का जीव अशनिघोष प्रतारणी नाम की विद्या का साधन कर उधर से जा रहा था। उसने सुतारा को देखा। उस पर वह पूर्वभव के प्रेम के कारण मुग्ध हो गया और उसने उसको हर ले जाना स्थिर किया। उसने विद्या के बल से एक हरिण बनाया। वह बड़ा ही सुंदर था। उसका शरीर सोने सा दमकता था। उसकी आंखे नील कमल सी चमक रही थी। उसकी छलांगें हृदय को हर लेती थी। सुतारा ने उसे देखा और : श्री शांतिनाथ चरित्र : 102 : Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहा -'स्वामी मुझे यह हरिण पकड़ दीजिए।' श्रीविजय हरिण के पीछे दौड़ा। वह बहुत दूर निकल गया। इधर अशनिघोष ने सुतारा को उठा लिया और उसकी जगह बनावटी सुतारा डाल दी। यह चिल्लाई – 'हाय! मुझे सांप ने काट खाया।' यह चिल्लाहट सुनकर श्रीविजय पीछा आया। उसने बेहोश सुतारा के अनेक इलाज किये। मगर कोई इलाज कारगर न हुआ। होता ही कैसे? जब वहां सुतारा थी ही नहीं फिर इलाज किसका होता? थोड़ी देर के बाद उसने देखा कि, सुतारा के प्राण निकल गये हैं। यह देखकर वह भी बेहोश हो गया। नौकरों ने उपचार किया तो वह होश में आया। सचेत होकर वह अनेक तरह से विलाप करने लगा। अंत में एक बहुत बड़ी चिता तैयार करा उसने भी अपनी पत्नी के साथ जल मरना स्थिर किया। धू धू करके चिता जलने लगी। . उसी समय दो विद्याधर वहां आये। उन्होंने पानी मंत्रकर चिता पर डाला। चिता शांत हो गयी और उसमें प्रतारणी विद्या अट्टहास करती हुई भाग गयी। श्रीविजय ने आश्चर्य से ऊपर की तरफ देखा। उसने अपने सामने दो युवकों को खड़े पाया। श्रीविजय ने पूछा- 'तुम कौन हो? वह चिता कैसे बुझ गयी है? मरी हुई सुतारा कैसे जीवित हुई है और वह हंसती हुई कैसे भाग गयी है?' उनमें से एक ने हाथ जोड़कर नम्रतापूर्वक जवाब दिया – 'मेरा नाम संभिन्नश्रोत है। यह मेरा पुत्र है। इसका नाम दीपशिख है। हम अमिततेज स्वामी से आज्ञा लेकर तीर्थयात्रा के लिए निकले थे। रास्ते में हमने किसी स्त्री के रुदन की आवाज सुनी। हम रुदन की ओर गये। हमने देखा कि हमारे स्वामी अमिततेज की बहन सुतारा को दुष्ट अशनिघोष जबर्दस्ती लिये जा रहा है और वह रास्ते में विलाप करती जा रही है। हमने जाकर उसका रास्ता रोका और उससे लड़ने को तैयार हुए। स्वामिनी ने कहा - - 'पुत्रो! तुम तुरंत ज्योतिर्वन में जाओ और उनके प्राण बचाओ। मुझे मरी समझकर कहीं वे प्राण न दे दें। उनको इस दुष्टता के समाचार देना। वे आकर इस दुष्ट पापी के हाथ से मेरा उद्धार करेंगे।' हम तुरंत इधर दौड़े : श्री तीर्थंकर चरित्र : 103 : Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये। और मंत्रबल से हमने अग्नि को बुझा दिया। बनावटी सुतारा जो मंत्रबल से बनी हुई थी - भाग गयी।' ... यह हाल सुनकर श्रीविजय का दुःख क्रोध में बदल गया। उसकी भृकुटि तन गयी। उसके होठ फफड़ने लगे। वह बोला – 'दुष्ट की यह मजाल! चलो मैं इसी समय उसे दंड दूंगा और सुतारा को छुडा लाऊंगा। संभिन्नश्रोत बोला – 'स्वामिन! आप हमारे स्वामी अमिततेज के पास चलिये। उनकी मदद से हम स्वामिनी सुतारा को शीघ्र ही छुड़ाकर ला सकेंगे। अशनिघोष केवल बलवान ही नहीं है, विद्यावान भी है। वह जब बल से हमको न जीत सकेगा तो विद्या से हमें परास्त कर देगा। हमारे पास उसके जितनी विद्या नहीं है।' __ श्री विजय को संभिन्नश्रोत की बात पसंद आयी। वह विद्याधरों के साथ वैताढ्य पर्वत पर गया। अमिततेज ने बड़े आदर से उसका स्वागत किया और इस तरह आने का कारण पूछा। संभिन्नश्रोत ने अमिततेज को सारी बातें कही। सुनकर अमिततेज की आंखें लाल हो गयी। उसके पुत्र क्रुद्ध होकर बोले –'दुष्ट की इतनी हिम्मत कि वह अमिततेज की बहन का हरण कर जाय। पिताजी! हमें आज्ञा दीजिए। हम जाकर दुष्ट को दंड दें और अपनी फूफी को छुड़ा लावें।' अमिततेज ने श्रीविजय को शस्त्रावरणी (ऐसी विद्या जिससे कोई शस्त्र असर न करे) बंधनी (बांधनेवाली) और मोक्षणी (बंधन से छुड़ानेवाली) ऐसी तीन विद्याएँ दी और फिर अपने पुत्र रश्मिवेग, रविवेग आदि को फौज देकर कहा–'पुत्रो! अपने फूफा के साथ युद्ध में जाओ और दुष्ट को दंड करके अपनी फूफी को छुड़ा लाओ। युद्ध में पीठ मत दिखाना। जीतकर लौटना या युद्ध में लड़कर प्राण देना।' श्रीविजय सहस्रावधी सेना लेकर चमरचंचा नगरी पर चढ़ गया। उसने नगर को घेर लिया और अशनिघोष के पास दूत भेजा। दूत ने जाकर अशनिघोष को कहा – 'हे दुष्ट! चोर की तरह तूं हमारी स्वामिनी सुतारा को हर लाया है। क्या यही तेरी वीरता और विद्या है? अगर शक्ति हो तो युद्ध : श्री शांतिनाथ चरित्र : 104 : Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की तैयारी कर अन्यथा माता सुतारा को स्वामी श्रीविजय के सुपर्द कर उनसे क्षमा मांग।' अशनिघोष ने तिरस्कार के साथ दूत को कहा – 'तेरे स्वामी को जाकर कहना, अगर जिंदगी चाहते हो तो चुपचाप यहां से लौट जाओ। अगर सुतारा को लेकर जाने की ही हट हो तो मेरी तलवार से यमधाम को जाओ और वहां सुतारा की इंतजारी करो।' दूत ने आकर अशनिघोष का जवाब सुनाया। श्रीविजय ने रणभेरी बजवा दी। अशनिघोष के पुत्र युद्ध के लिए आये। अमिततेज के पुत्रों ने उन सबका संहार कर दिया। यह सुनकर अशनिघोष आया और उसने अमिततेज के पुत्रों का नाश करना शुरू किया। तब श्रीविजय सामने आ गया। उसने अशनिघोष के दो टुकड़े कर दिये। दो टुकड़े के दो अशनिघोष हो गये। श्रीविजय ने दोनों के चार टुकड़े कर डाले तो चार अशनिघोष हो गये। इस तरह जैसे-जैसे अशनिघोष के टुकड़े होते जाते थे वैसे ही वैसे अशनिघोष बढ़ते जाते थे और वे श्रीविजय की फौज का संहार करते जाते थे। इस तरह युद्ध को एक महीना बीत गया। श्रीविजय अशनिघोष की इस माया से व्याकुल हो उठा। . अमिततेज जानता था कि अशनिघोष बड़ा ही विद्यावाला है। इसलिए वह. परविद्याछेदिनी महाज्वाला नाम की विद्या साधने के लिए हिमवंत पर्वत पर गया। अपने पराक्रमी पुत्र सहस्ररश्मि को भी साथ लेता गया। वहां एक महीने का उपवास कर वह विद्या साधने लगा। उसका पुत्र जाग्रत रहकर उसकी रक्षा करने लगा। विद्या साधकर अमिततेज ठीक उस समय चमरचंचा नगर में आ पहुंचा। जिस समय श्रीविजय अशनिघोष की माया से व्याकुल हो रहा था। अमिततेज ने आते ही महाज्वाला विद्या का प्रयोग किया। उससे अशनिघोष की सारी सेना भाग गयी। जो रही वह अमिततेज के चरणों में आ पड़ी। अशनीघोष प्राण लेकर भागा। महाज्वाला विद्या उसके पीछे पड़ी। अशनिघोष भरतार्द्ध में सीमंत गिरि पर केवलज्ञान प्राप्त बलदेव मुनि की शरण में आया। अशनिघोष को केवली की सभा में बैठा देख महाज्वाला : श्री तीर्थंकर चरित्र : 105 : Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वापिस लौट आयी। कारण – 'केवली की सभा में कोई किसी को हानि नहीं पहुंचा सकता है। महाज्वाला के मुख से बलदेव मुनि को केवलज्ञान होने की बात सुनकर अमिततेज, श्रीविजयादि सभी विमान में बैठकर केवली की सभा में गये सुतारा को भी वे अपने साथ लेते गये थे। अशनिघोष भाग गया था तब उन्होंने सुतारा को पीछे से बुला लिया। .. जब केवली देशना दे चुके तब अशनिघोष ने पूछा – 'मेरे मन में कोई पाप नहीं था तो भी सुतारा को हर लाने की इच्छा मेरी क्यों हुई?' केवली ने सत्यभामा और कपिल का पूर्व वृत्तांत सुनाया और कहा- 'पूर्वभव का स्नेह ही इसका मुख्य कारण था।' फिर अमिततेज ने पूछा – 'हे भगवान! मैं भव्य हूं आ अभव्य?' केवली ने उत्तर दिया - 'इससे नवें भव में तुम्हारा जीव पांचवां चक्रवर्ती और सोलहवां तीर्थंकर होगा और श्रीविजय राजा तुम्हारा पहला पुत्र और पहला गणधर होगा।' ... अशनिघोष ने संसार से विरक्त होकर सुतारा, श्रीविजय, अमिततेजादि से क्षमा याचना कर वहीं बलभद्र मुनि के पास दीक्षा ले ली। अमिततेजादि अपनी-अपनी राजधानियों में गये। फिर अनेक वरसों तक धर्मध्यान, प्रभु भक्ति, तीर्थयात्रा और व्रत संयम करते रहे। अंत में दोनों ने दीक्षा ले ली। पांचवा भव : ___ आयु समाप्त कर अमित तेज और श्रीविजय प्राणत नाम के दसवें कल्प में उत्पन्न हुए। वहां वे सुस्थितावर्त्त और नंदितावर्त्त नाम के विमान के स्वामी मणिचूल और दिव्यचूल नाम के देवता हुए। बीसं सागरोपम की आयु उन्होंने सुख से बितायी। छट्ठा भव : इसमें अनंत वीर्य वासुदेव और दमितारि प्रति वासुदेव की कथाएँ भी शामिल हैं।] इस जंबूद्वीप प्राग्विदेह के आभूषण रूप रमणीय विजय में सीता नदी के दक्षिण तट पर धनधान्य पूर्ण एवं समृद्धि शालिनी शुभा नामक एक : श्री शांतिनाथ चरित्र : 106 : Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नगरी थी। इस नगरी में स्तिमितसागर नामक राजा राज्य करता था। उसकी वसुंधरा और अनुद्धरा नाम की दो रानियां थी। रात को वसुंधरा देवी ने बलदेव के जन्म की सूचना देनेवाले चार स्वप्न देखे। पूर्व जन्म के अमिततेज राजा का जीव नंदितावर्त्त विमान से च्यवकर उनकी कोख में आया। गर्भ समय पूर्ण होने के बाद महादेवी के गर्भ से, श्रीवत्स के चिह्नवाला, श्वेतवर्णी एवं पूर्ण आयुवाला, एक सुंदर पुत्र उत्पन्न हुआ। जिसका नाम अपराजित रखा गया। - इधर अनुद्धरा देवी की कोख से, पूर्व जन्म के विजय राजा का जीव आया। उसी रात को महादेवी ने वासुदेव के जन्म की सूचना करनेवाले सात महास्वप्न देखे। गर्भ का समय पूरा होने के बाद शुभ दिन, महादेवी अनुद्धरा के गर्भ से, श्यामवर्णी एक सुंदर बालक का जन्म हुआ। राजा ने जन्मोत्सव करके उसका नाम अनंतवीर्य रखा। एक समय शुभा नगरी के उद्यान में स्वयंप्रभ नामक एक महामुनि आये। राजा स्तिमितसागर उस दिन फिरता हुआ उसी उद्यान में जा निकला। वहां महा मुनि के दर्शन कर राजा को आनंद हुआ। मुनि ध्यान में बैठे थे। इसलिए राजा उनको तीन प्रदक्षिणा दे, हाथ जोड़ सामने बैठ गया। जब मुनि ने ध्यान छोड़ा तब राजा ने भक्तिपूर्वक उन्हें वंदना की। मुनि ने धर्मलाभ देकर धर्मोपदेश दिया। इससे राजा को वैराग्य हो गया। उसने अपनी राजधानी में जाकर अपने पुत्र अनंतवीर्य को राज्य दिया, फिर स्वयं प्रभु मुनि के पास जाकर दीक्षा ग्रहण की और चिरकाल तक चारित्र पाला। एक बार मन से चारित्र की विराधना हो गयी, इससे वह मरकर भुवनपति निकाय में चमरेन्द्र हुआ। अनंतवीर्य ने जब से शासन की बागडोर अपने हाथ में ली, तब से वह एक सच्चे नृपति की तरह राज्य करने लगा। उसका भ्राता अपराजित भी राज्य कार्य में अनंतवीर्य का हाथ बंटाने लगा। एक समय कोई विद्याधर उनकी राजधानी में आ निकला। उसके साथ उन दोनों भाइयों की मैत्री हो : श्री तीर्थंकर चरित्र : 107 : Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गयी। इस कारण से वह उनको महाविद्या देकर चला गया। अनंतवीर्य के यहां बर्बरी और किराती नाम की दो दासियां थीं। वे संगीत, नृत्य एवं नाट्यकला में बड़ी निपुण थीं। वे समय समय पर अनंतवीर्य और अपराजित को अपनी विविध कलाओं द्वारा बड़ा आनंद दिया करती थी। एक समय अनंतवीर्य वासुदेव और अपराजित बलदेव राजसभा में उन रमणियों की नाट्यकला का आनंद लूट रहे थे। चारों और हर्ष ही हर्ष था। उसी अवसर पर, दूसरों को लड़ा देने में ख्यात, नारद का सजसमा में आगमन हुआ। मगर दोनों भाई नाटक देखने में इतने निमग्न थे कि वे नारद मुनि का यथोचित सत्कार न कर सके। बस फिर क्या था? नारद मुनि उखड़ पड़े और अपने मन में यह सोचते हुए चले गये कि मैं इस अपमान का इन्हें अभी फल चखाता हूं। ___ वायुवेग से वैताढ्य गिरि पर गये और दमितारि नामक विद्याधरों के राजा की सभा में पहुंचे। राजा ने अचानकं मुनि का आगमन देखकर सिंहासन छोड़ दिया। उनका स्वागत करने के लिए वह सामने आया और उसने उन्हें, नम्रतापूर्वक अभिवादन कर, उचित आसन पर बिठाया। मुनि ने आशीर्वाद देकर कुशल प्रश्न पूछा। यथोचित उत्तर देकर दमितारि ने कहा - 'मुनिवर्य! आप स्वच्छंद होकर सब जगह विचरते हैं और सब कुछ देखते और सुनते हैं। इसलिए कृपाकर कोई ऐसी आश्चर्य युक्त बात बतलाईये जो मेरे लिये नयी हो।' नारद तो यही मौका ढूंढ रहे थे, बोले - 'राजन्! सुनो, एक समय मैं घूमता घामता शुभा नगरी में जा निकला। वहां अनंतवीर्य की सभा में बर्बरी और किराती नामक दो दासियां देखीं। वे संगीत, नाट्य एवं वाद्य कला में बड़ी चतुर है। उनकी विद्या देखकर मैं तो दंग रह गया। स्वर्ग की अप्सराएँ तक उनके सामने तुच्छ हैं। हे राजा! वे दासियां तेरे दरबार के योग्य है।' इस तरह का विषबीज बोकर नारद मुनि आकाश मार्ग से अपने : श्री शांतिनाथ चरित्र : 108 : Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्थान पर गये। उनके जाने के बाद दमितारि ने अपने एक दूत को बुलाया और धीरे से उसको कुछ हुक्म दिया। दूत ने उसी समय शुभा नगरी को प्रस्थान किया और अनंतवीर्य की राजसभा में जाकर कहा – 'राजन्! आपकी सभा में बर्बरी और किराती नाम की जो दासियां हैं। उन्हें हमारे स्वामी दमितारि को मेंट करो, क्योंकि वे गायनवादनकला में अद्भुत है। और जो कोई अनोखी वस्तु अधीनस्थ राजा के यहां हो वह स्वामी के घर पहुंचनी चाहिए।' . दूत के वचन सुनकर अनंतवीर्य ने कहा – 'हे दूत! तूं जा। हम विचार कर शीघ्र ही जवाब भेजेंगे।' दूत लौट गया और उसने राजा को कहा- 'लक्षण से तो ऐसा मालूम होता है कि वे तुरंत ही दासियों को स्वामी के चरणों में भेज देंगे।' .. दोनों भाइयों के हृदय में दमितारि की इस अनुचित मांग से क्रोध की ज्वाला जल उठी; मगर दमितारि विद्याबल से बली होने के कारण वे उसको परास्त नहीं कर सकते थे। इसलिए थोड़ी देर चुपचाप सोते रहे। फिर अनंतवीर्य बोला - 'राजा दमितारि अपने विद्याबल से हमें इस प्रकार की घुड़कियां देता है। अगर हमारे पास भी विद्या होती तो उसे कभी ऐसा साहस न होता। अतः हमको भी चाहिए कि हम भी हमारे मित्र विद्याधर की दी हुई विद्या की साधना कर बलवान बनें।' . वे ऐसा विचार कर ही रहे थे कि प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ प्रकट हुई। उन्होंने निवेदन किया- 'हे महानुभाव! जिन विद्याओं के विषय में आप अभी बातें कर रहे थे, हम वे ही विद्याएँ हैं। आपने हमें पूर्व जन्म में ही हमें साध ली थी। इसलिए अभी हम आपके याद करते ही आपकी सेवा में हाजिर हो गयी हैं। यह सुन दोनों भाइयों को बड़ा आनंद हुआ। विद्याएँ उनके आधीन हुई। एक दिन दमितारि का दूत आकर राजसभा में बड़े अपमान जनक वचन बोला – 'रे अज्ञान राजा! तूने घमंड में आकर स्वामी की आज्ञा का उल्लंघन किया है और अभी तक अपनी दासियों को नहीं भेजा है। जानता है इसका क्या फल होगा? : श्री तीर्थंकर चरित्र : 109 : Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर अनंतवीर्य को यद्यपि क्रोध हो आया था, परंतु उसने जहर की चूंट पी ली और गंभीर स्वर में कहा – 'तुम ठीक कहते हो। इसका क्या फल होगा? राजा ने रत्नाभूषण, हाथी, घोड़े आदि बड़ी-बड़ी मूल्यवान वस्तुएँ नहीं मांगी है। मांगी है केवल दासियां। राजा की यह तुच्छ इच्छा भी क्या मैं पूरी न करूंगा? ठहर, मैं अभी ही तेरे साथ दासियों को भेज देता हूं।' विद्या के बल से अनंतवीर्य और अपराजित बर्बरी और किराती का रूप धारण कर दूत के साथ दमितारि की राजसभा में उपस्थित हुए। दूत ने अपने स्वामी को प्रणाम करने के बाद उन दोनों नर्तकियों को हाजिर किया। महाराज ने सौम्य दृष्टि से उनकी तरफ देखा और उनको अपनी कला दिखलाने के लिए कहा। महाराज की आज्ञा से उन नटियों ने अपनी नाट्यकला का अपूर्व . परिचय देना प्रारंभ किया। रंगमंच पर नाना प्रकार के अभिनय दिखाकर उन्होंने दर्शकों के हृदय पर विजय प्राप्त कर ली। उनकी कला में ऐसी निपुणता देखकर दमितारि उत्साह के साथ बोला – 'सचमुच ही संसार में तुम दोनों रत्न के समान हो। हे नटियो! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम आनंद से मेरी पुत्री कनकश्री की सखियां बनकर रहो और उसको नृत्य, गान आदि की शिक्षा दो।' पूर्ण यौवना सुंदरी कनकधी को कपटवेषी दोनों भाई अच्छी तरह नाट्यकला सिखाने लगे। बीच बीच में अपराजित अनंतवीर्य के रूप, गुण एवं शौर्य की प्रशंसा कर दिया करता था। एक दिन कनकश्री ने अपराजित से पूछा-'तुम जिसकी प्रशंसा करती हो वह कैसा है? मुझे पूरा हाल सुनाओ।' उसने कहा – 'अनंतवीर्य शुभा नगरी का राजा है। उसका रूप कामदेव के जैसा है। शत्रु का वह काल है, याचकों के लिए वह साक्षात लक्ष्मी है और पीड़ितों के लिए वह निर्भय स्थान है। उसके मैं क्या बखान करूं?' इस तरह अनंतवीर्य की तारीफ सुनकर कनकश्री उसको देखने के लिए लालायित हो उठी। उसके चहरे पर उदासी छा गयी। यह देखकर : श्री शांतिनाथ चरित्र : 110 : Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजित बोला अनंतवीर्य के दर्शन होंगे।' कनकश्री बोली 'मेरे ऐसे भाग कहां हैं कि मुझे अनंतवीर्य के दर्शन हों। अगर तूं मुझे उनके दर्शन करा देगी तो मैं जन्मभर तेरा अहसान मानूंगी।' 'भद्रे! शोक मत करो। अगर चाहोगी तो शीघ्र ही 'अच्छा ठहरो! मैं अभी अनंतवीर्य को लाती हूं।' कहकर अपराजित बाहर गया और थोड़ी ही देर में अनंतवीर्य को लेकर वापिस आया। कनकश्री उस अद्भुत रूप को देखकर मुग्ध हो गयी। उसने अपना जीवन अनंतवीर्य को सौंप दिया। अनंतवीर्य बोला 'कनकंश्री अगर शुभा नगरी की महारानी बनना चाहती हो तो मेरे साथ चलो।' कनकश्री ने उत्तर दिया- 'मेरे बलवान पिता आपको जगत से विदा कर देंगे।' - • अपराजित हंसा और बोला – 'तुम्हारा पिता ही दुनिया में वीर नही है। अनंतवीर्य की विशाल वीर भुजाओं की तलवार तुम्हारा पिता न सह • सकेगा। तुम बेफिक्र रहो और इच्छा हो तो शीघ्र ही शुभा नगरी को चली चलो।' 'मैं तैयार हूं।' कहकर कनकश्री ने अपनी सम्मति दी। 'तब चलो। ' · कहकर अनंतवीर्य राजसभा की और बढ़ा। कनक श्री भी उसके पीछे चली। अपराजित भी असली रूप धर उनके पीछे हो लिया। ये तीनों राजसभा में पहुंचे। राजा और दरबारी सभी उन्हें आश्चर्य के साथ देखने लगे। अनंतवीर्य घनगंभीर वाणी में बोला - हे दमितारि और उसके सुभटो! सुनो! हम अनंतवीर्थ और अपराजित राजकन्या कनकश्री को ले जा रहे हैं। तुमने हमारी दासियां चाही थीं। वे तुम्हें न मिली; मगर आज हम तुम्हारी राजकन्या ले जा रहे है। जिनमें साहस हो वे आवे और हमारा मार्ग रोके । हमने तुम्हें सूचना दे दी है। पीछे से यह न कहना कि हम राजकन्या को चुराकर ले गये।' अनंतवीर्य कनकश्री को उठाकर वहां से चल निकला। अपराजित ने उसका अनुसरण किया। दमितारि के क्रोध की सीमा न रही। उसने तत्काल ही अपने सुभटों : श्री तीर्थंकर चरित्र : 111 : Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को आज्ञा दी – 'वीरो! जाओ और उन दुष्टों को शीघ्र ही पकड़कर मेरे सामने लाओ।' . आज्ञा की देर थी। 'मारो' 'पकड़ो' की आवाज से कानों के पर्दे फटने लगे। कोलाहलपूर्ण एक विशाल सेना ने टिड्डीदल की तरह अनंतवीर्य का पीछा किया। अनंतवीर्य ने अपने विद्याबल से सेना बना ली। वह दमितारि की सेना से दुगनी थी। अब घोर संग्राम होने लगा। रणांगण में वीर योद्धा अपनी रणविद्या का परिचय देने लगे। मार काट के सिवाय वहां और कुछ नहीं था। दमितारि की सेना कटते कटते हतोत्साह हो गयी। उसी समय वासुदेव अनंतवीर्य ने अपने पांचजन्य शंख की नाद से शत्रुसेना को बिलकुल ही हतवीर्य कर दिया। . दमितारि अपनी फौज की यह हालत देखकर रथ पर चढ़कर रणांगण में आया। उसने अनंतवीर्य को ललकारा। अनंतवीर्य मी.उससे कब हटनेवाले थे? दोनों वीर अपने-अपने दिव्य शस्त्रों द्वारा युद्ध करने लगे। बहुत देर तक इसी तरह लड़ने के बाद दमितारि ने अपने चक्र का सहारा लिया और उसको चलाने से पहले अनंतवीर्य से कहा – 'रे दुर्मति! अगर जीवन चाहता है तो अब भी कनकधी को मुझे सौंप और मेरी आधीनता स्वीकार कर, वरना यह चक्र तेरा प्राण लिये बिना न रहेगा।' __ ये वचन सुनकर अनंतवीर्य ने हंसकर उत्तर दिया – 'मूर्ख! तूं किस घमंड में मूला है? मैं तेरे चक्र को काटूंगा, तुझे मारूंगा और तेरी कन्या को लेकर विजय दुंदुभि बजाता हुआ अपनी राजधानी में जाउंगा।' इतना सुनते ही दमितारि ने वासुदेव पर अपना चक्र चला दिया। चक्र अनंतवीर्य के हाथ में आया। अब अनंतवीर्य ने उस चक्र का प्रयोग किया। चक्र ने अपनी करतूत बतलायी। उसने दमितारि का शिरच्छेद कर दिया। उसी समय आकाश में आकर देवताओं ने विद्याधरों को अनंतवीर्य का प्रभुत्व स्वीकार करने की संमति दी और कहा – 'हे विद्याधरों! यह अनंतवीर्य विष्णु (वासुदेव) है और अपराजित उनका भाई बलभद्र है। इनसे : श्री शांतिनाथ चरित्र : 112 : Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुम कभी जीत न सकोगे।' देवताओं की यह वाणी सुनकर सबने उनकी आधीनता स्वीकार.कर ली। __ फिर अनंतवीर्य कनकश्री और अपराजित के साथ शुभापुरी को रवाना हुए। वे मार्ग में मेरु पर्वत पर से गुजरे। विद्याधरों ने प्रार्थना की - 'पर्वत पर के जैन मंदिरों के दर्शन करते जाईए।' तदनुसार अनंतवीर्य ने सबके साथ मेरु पर्वत पर जैन चैत्यों के दर्शन किये। वहां पर उन्हें कीर्तिधर नामक मुनि के भी दर्शन हुए। उसी समय उन मुनि के घाति कर्म नाश हुए थे और उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ था। देवता उनको वंदना करने के निमित्त वहां आये हुए थे। अनंतवीर्य आदि बहुत खुश हुए। वे मुनि को प्रदक्षिणा देकर पर्षदा में बैठे और देशना सुनने लगे। देशना खतम होने के बाद कनकश्री ने मुनि से प्रश्न किया-'भगवन्! मेरे पिता का वध और मेरे बांधवों से विरह होने का क्या कारण है?' __मुनि बोले - 'धातकी खंड नामक द्वीप में शंखपुर नामक एक समृद्धि शाली गांव था। उसमें श्रीदत्ता नाम की एक गरीब स्त्री रहती थी। वह दूसरों के यहां दासवृत्ति कर अपना निर्वाह किया करती थी। ... एक समय श्रीदत्ता भ्रमण करती हुई देवगिरि पर चढ़ी। वहां पर उसे सत्ययशा नामक महामुनि के दर्शन हुए। श्रीदत्ता ने वंदना की और मुनि ने 'धर्मलाम' दिया। श्रीदत्ता बोली – 'भगवन्! मैं अपने पूर्व जन्म के दुष्कर्मों से इस जन्म में बड़ी दुःखी हूं। इसलिए कोई ऐसा मार्ग मुझे बताइए जिससे मैं इस हालत से छूट जाऊं।' दयालु मुनि ने उस दुःखी अबला को धर्म चक्रवाल नाम का एक तप बतलाकर कहा – 'हे स्त्री! देवगुरु की आराधना में लीन होकर तूं दो और तीन रात्रि के क्रम से साढ़े तीस उपवास करना। इस तप के प्रभाव से तुझे फिर कभी ऐसा कष्ट सहन नहीं करना पड़ेगा।' __ श्रीदत्ता ने तप आरंभ किया। उसके प्रभाव से पारणे में ही स्वादिष्ट भोजन खाने को मिला। अब दिन-दिन उसके घर में समृद्धि होने लगी। उसके खान, पान, रहन, सहन सभी बदल गये। एक दिन उसको जीर्ण शीर्ण घर में से स्वर्णादि द्रव्य की प्राप्ति हई। इससे उसने चैत्यपूजा और साध साध्वियों की भक्ति करने के लिए एक विशाल उद्यापन (उजमणा) किया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 113 : Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपस्या के अंत में वह किन्हीं साधु को प्रतिलाभित करने के लिए द्वार पर खड़ी रही। उसे सुव्रतमुनि दिखे। उसने बड़े भक्तिभाव के साथ प्रासुक अन्न से मुनि को प्रतिलाभित किया। फिर उसने धर्मोपदेश सुनने की इच्छा प्रकट की। मुनिजी ने कहा – 'साधु जब मिक्षार्थ जाते हैं तब कहीं धर्मोपदेश देने नहीं बैठते, इसलिए तूं व्याख्यान सुनने उपाश्रय में आना। 'साधु चले गये। श्रीदत्ता व्याख्यान सुनने उपाश्रय में गयी और वहां उसने सम्यक्त्व सहित श्रावकधर्म स्वीकार किया। धर्म पालते हुए एक बार श्रीदत्ता को संदेह हुआ कि मैं धर्म पालती हूं उसका फल मुझे मिलेगा या नहीं? भावी प्रबल होता है। एक दिन जब वह सत्ययशा मुनि को वंदना करके घर लौट रही थी। उस समय उसने विमान पर बैठे हुए दो विद्याधरों को आकाश मार्ग से जाते देखा। उनके रूप को देखकर श्रीदत्ता उन पर मोहित हो गयी। बाद में उसके हृदय में धर्म के प्रति जो संदेह उत्पन्न हुआ था उसको निवारण किये बिना ही वह मर गयी। प्राचीन काल में वैताढ्य गिरि पर शिवमंदिर नामक बड़ा समृद्धि शाली नगर था। उसमें विद्याधरों का शिरोमणि कनक पूज्य नामक राजा राज्य करता था। उसकी वायुवेगा नामकी धर्मपत्नी थी। उस दंपती का मैं कीर्तिधर नामक पुत्र हुआ। मेरी अनिलवेगा नाम की एक धर्मपत्नी थी। उसकी कोख से दमितारि नामक पुत्र हुआ। एक समय विहार करते हुए भगवान शांतिनाथ मेरे नगर की ओर होकर निकले और नगर के बाहर उपवन में विराजमान हुए मैंने भगवान का आगमन सुन, दौड़कर दर्शन किये। दर्शन मात्र से मुझे संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया और मैं दीक्षा लेकर इस पर्वत पर आया और तप करने लगा। अब घातिया कर्मों के नाश होने पर मुझे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। उधर दमितारि की मदिरा नाम की रानी की कोख से श्रीदत्ता का जीव उत्पन्न हुआ और तुम उसकी पुत्री कनकश्री के रूप में विद्यमान हो। जिन धर्म के विषय में तुम्हें संदेह हुआ इसी कारण से तुम्हें यह दुःख भोगना पड़ा है।' : श्री शांतिनाथ चरित्र : 114 : Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शा . मुनि से अपने पूर्व भव की कथा सुनते ही कनकश्री को वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह विनय पूर्वक अपने पति से निवेदन करने लगी - 'प्राणेश! उस जन्म में मैंने ऐसे दुष्कृत्य किये जिससे ये फल भोग रही हूं। न जाने आगे क्या होने वाला है। इसलिए मुझे शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान कीजिए।' अपनी प्रिया की यह प्रार्थना सुनकर अनंतवीर्य को बड़ा विस्मय हुआ। तो भी उसने कहा – 'प्रिये! अपने नगर में चलकर स्वयंप्रम भगवान से दीक्षा लेना।' कनकश्री ने पति की बात मान ली। सबके साथ अनंतवीर्य अपनी राजधानी में पहुंचा। वहां जाकर क्या देखता है कि, दमितारि की पहले भेजी हुई सेना से घिरा हुआ उसका पुत्र अनंतसेन बड़ी वीरता से लड़ रहा है। इस तरह अपने भतीजे को शत्रु के चंगुल में देखकर अपराजित को बड़ा क्रोध आया। उसने क्षणभर में सारी सेना को मार भगाया। फिर वासुदेव ने सबके साथ नगर में प्रवेश किया। बड़े समारोह के साथ अनंतवीर्य का अर्द्ध-चक्रिपने का अभिषेक हुआ। एक समय विहार करते हुए स्वयंप्रभु भगवान स्वेच्छा से शुभा नगरी के बाहर उद्यान में आकर ठहरे। सब लोग दर्शनों को गये। कनकश्री ने इस समय अपने पति की आज्ञा से दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी दिन से वह तप करने लगी और उसने क्रम से एकावली, मुक्तावली, कनकावली, भद्र, महाभद्र और सर्वतोभद्र इत्यादि तप किये। अंत में वह केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गयी। . वासुदेव अनंतवीर्य अपने भाई अपराजित के साथ राज्यलक्ष्मी भोगने लगे। अपराजित की वीरता नाम की एक स्त्री थी। उससे सुमति नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। वह बाल्यावस्था से बड़ी धर्मनिष्ठा थी। वह आवक के बारह व्रत अखंड पालन करती थी। एक दिन वह उपवास के उपरांत पारणा करने बैठने ही वाली थी कि उसे द्वार की तरफ से एक मुनि आते हुए दिखे। उसने झट उठते ही, अपने ही थाल के अन्न से मुनि को प्रतिलामित किया। उसी वक्त वहां वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट हुए। 'त्यागी । महात्माओं को दिया हुआ दान अनंतगुणा फलदायी होता है।' मुनि वहां से : श्री तीर्थंकर चरित्र : 115 : Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चले गये। उसके बाद रत्नवृष्टि की खबर सुनकर बलभद्र और वासुदेव सुमति के पास आये। इस घटना से सबको विस्मय हुआ। बालिका के अलौकिक कार्य से प्रसन्न होकर दोनों भाइयों ने सोचा कि इस बालिका के लिए कौन सा योग्य वर होना चाहिए। आखिर उन्होंने महानंद नामक मंत्री से सलाह करके स्वयंवर करने का निश्चय किया। - अब स्वयंवर की तैयारीयां होने लगी। एक विशाल मंडप की रचना हुई। सब राजाओं और विद्याधरों के यहां निमंत्रण भेजे गये। . . निश्चित दिन को बड़े-बड़े राजा महाराजा एकत्रित हुए। सुमति भी सोलह शृंगार करके अपनी सखी सहेलियों के साथ हाथ में वरमाला लिये हुए मंडप में उपस्थित हुई। उसने एक बार सबकी तरफ देखा। स्वयंवर मंडप में उपस्थित सुमति के पाणिप्रार्थी इस रूप की अलौकिकं मूर्ति को देखकर आश्चर्य में डूब गये। उसी समय मंडप के मध्य में स्वर्णसिंहासन पर विराजमान एक देवी प्रकट हुई। देवी ने अपनी दाहिनी भुजा उठा कर सुमति को कहा – 'मुग्धे धनश्री! विचार कर! अपने पूर्व भव का स्मरण कर! यदि याद नहीं पड़ता हो तो सुन! पुष्करवर द्वीपार्द्ध में, भरतक्षेत्र के मध्यखंड में विशाल समृद्धिवाला श्रीनंद नामक एक नगर था। उसमें महेन्द्र नामक राजा राज्य करता था। उसकी अनंतमति नाम की एक रानी थी। उनकी दो पुत्रियां हुई। उनमें से कनकश्री नाम की कन्या तो मैं हूं और धनश्री तूं। जब हम दोनों युवतियां हुई तब एक समय दोनों प्रसंग वश गिरि पर्वत पर चढ़ी। वहां एक रम्य स्थान में हमे नंदनगिरि नामक मुनि के दर्शन हुए। बड़े भक्तिभाव से हमने उनकी देशना सुनी। फिर हमने गुरुजी से निवेदन किया कि हमारे योग्य कोई आज्ञा दीजिए। तब गुरुजी ने हमें योग्य समझ श्रावक के बारह व्रत समझाये हमने उन्हें, अंगीकार कर, निर्दोष पालना शुरू किया। एक समय हम दोनों फिरती हुई अशोक वन में जा निकली। उसी समय त्रिपृष्ट नगर का स्वामी वीरांग नामक एक जवान विद्याधर हमको हर ले गया। परंतु उसकी स्त्री वज्रश्यालिका ने दयाकर हमें छोड़ने के लिए : श्री शांतिनाथ चरित्र : 116 : Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसको मजबूर किया। उसने क्रुद्ध होकर हमें एक भयंकर वन में ले जाकर फेंक दिया। हमारी हड्डियां पसलियां चूर-चूर हो गयी। अंत समय जानकर हम दोनों ने अनशन व्रत लेकर नवकार मंत्र का जाप आरंभ कर दिया। वहां से मरकर मैं सौधर्म देवलोक में नवमिका नामक देवी हुई। तूं भी वहां से मरकर कुबेर लोकपाल की मुख्य देवी हुई। वहां से च्यवकर तूं बलभद्र की पुत्री सुमति हुई है। देवलोक में रहते समय हमारे बीच में यह शर्त हुई थी कि जो पहले पृथ्वी पर आवे दूसरी अर्हत धर्म की भक्ति की याद दिलावे। इसलिए मैं आज यहां आयी हूं। अब तूं संसार में न फंस और जीवन को सार्थक बनाने के लिए दीक्षा ग्रहण कर।' . __इतना कहकर देवी मंडप को आलोकित करती हुई आकाश मार्ग की ओर चली गयी। उधर वह गयी और इधर सुमति पूर्व जन्म के वृत्तांत की याद आते ही मूर्छित होकर जमीन पर गिर पड़ी। कुछ सेवा शुश्रूषा के बाद जब उसे चेत आया तो वह सभाजनों से हाथ जोड़कर विनय पूर्वक बोलीमेरे पिता और भाई के तुल्य उपस्थित सज्जनो! आपको मेरे लिये यहां निमंत्रण दिया गया है। मगर मैं इस संसार से छूटना चाहती हूं। इसलिए आप विवाहोत्सव की जगह मेरा दीक्षोत्सव मनाकर मुझे उपकृत कीजिए और मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दीजिए।' . राजा लोग यह विनय भरी वाणी सुनकर बोले – 'हे अनधे! ऐसा ही हो।' सुमति सात सौ कन्याओं के साथ सुव्रत मुनि से दीक्षा ग्रहणकर, उग्र तपकर, केवलज्ञान पा अंत में मोक्ष गयी। कालांतर में वासुदेव अनंतवीर्य चौरासी लाख पूर्व की आयु मोगकर निकाचित कर्म से प्रथम नरक में गया। वहां बयालीस हजर वर्ष पर्यन्त नरक के नाना प्रकार के कष्ट सहन किये। फिर वासुदेवभव के पिता ने जो चमरेन्द्र हुए थे - वहां आकर उसकी वेदना शांत की। . बंधु के शोक से व्याकुल होकर बलभद्र अपराजित ने भी तीन खंड पृथ्वी का राज्य अपने पुत्र को सौंप, जयधर गणधर के पास दीक्षा ग्रहण की। उनके साथ सोलह हजार राजाओं ने भी दीक्षा ली। इस तरह बलभद्र : श्री तीर्थंकर चरित्र : 117 : Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चिरकाल तक तप करते रहे; अंत में अनशन कर मृत्यु को प्राप्त हुए और अच्युत देवलोक में इंद्र हुए। . इधर अनंतवीर्य का जीव भी नरक भूमि में दुष्कर्मों के फलभोग स्वर्ण के समान शुद्ध हो गया। फिर वह नरक से निकलकर, वैताढ्य पर्वत पर गगनवल्लभ नगर के स्वामी मेघवाहन की मेघमालिनी पत्नी के गर्भ से उत्पन्न हुआ। उसका नाम मेघनाद रखा गया। जब वह यौवन को प्राप्त हुआ तब मेघवाहन ने उसको राज्य देकर दीक्षा ले ली। - राज्य करते हुए एक बार मेघनाद प्रज्ञप्ति विद्या द्वारा मंदर गिरि पर गया। वहां नंदन वन में स्थित द्वायतन में शाश्वत प्रतिमा की पूजा करने लगा। उस समय वहां कल्पवासी देवताओं का आगमन हुआ। अच्युतेन्द्र ने अपने पूर्व भव के भाई को देखकर, भ्रातृस्नेह से कहा – 'भाई! इस संसार का त्याग करो।' उस समय वहां अमर गुरु नामक एक मुनि आये हुए थे। मेघनाद ने उनसे चरित्र अंगीकार किया। एक समय मेघनाद मुनि नंद गिरि गये। रात में ध्यानस्थ बैठे हुए थे, उस समय प्रति वासुदेव का पुत्र-जो उस समय दैत्य योनि में था - वहां आ पहुंचा। अपने पूर्वजन्म के वैरी को देखकर दैत्य को क्रोध हो आया। वह मुनि को उपसर्ग करने लगा। परंतु मेघनाद मुनि तो पर्वत के समान स्थिर रहे। मुनि को शांत देखकर वह बड़ा लज्जित हुआ और वहां से चला गया। अंत में मेघनादमुनि भी कालांतर में, अनशन करके आयु पूर्णकर अच्युत देवलोक में इंद्र के सामानिक देव हुए। आठवां भव (वज्रायुद्ध-चक्रवर्ती) : जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में सीता नदी के दक्षिण तीर पर मंगलावती नाम की विजय है। उसमें रत्न संचया नाम की नगरी थी। वहां क्षेमंकर नाम का राजा राज्य करता था। उसकी रत्नमाला नाम की रानी थी। अपराजित का जीव अच्युत लोक से च्यवकर उसकी कोख से चौदह स्वप्न सूचित पुत्ररूप में जन्मा। उसका नाम वज्रायुध रखा गया। बड़े होने पर लक्ष्मीवती : श्री शांतिनाथ चरित्र : 118 : Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम की राजकन्या से उसका ब्याह हुआ। अनंतवीर्य का जीव अच्युतदेव लोक से च्यवकर लक्ष्मीदेवी की कोख से जन्मा। सहस्रायुद्ध उसका नाम रखा गया। जवान होने पर उसका ब्याह कनकश्री से हुआ। उससे शतबल नाम का एक पुत्र पैदा हुआ। एक बार राजा क्षेमंकर अपने पुत्र, पौत्र, प्रपौत्र, मंत्री और सामंतों के साथ सभा में बैठा हुआ था। उस समय ईशान कल्प के देवता भी चर्चा कर रहे थे। चर्चा में एक देवता ने कहा कि, पृथ्वी पर वज्रायुद्ध के समान कोई सम्यक्त्वी और ज्ञानवानं नहीं है। यह बात 'चित्रचूल' नामक देवता को न रुची। वह बोला-'मैं जाकर उसकी परीक्षा करूंगा।' वह, मिथ्यात्वी देवता, राजा क्षेमंकर की राजसभा में आया और बोला-'इस जगत में पुण्य, पाप, जीव और परलोक कुछ नहीं है। प्राणी आस्तिकवादी बुद्धि से व्यर्थ ही कष्ट पाते हैं।' यह सुनकर वज्रायुद्ध बोले – 'हे महानुभाव! आप प्रत्यक्ष प्रमाण से विपरीत ऐसे वचन क्यों बोलते हैं? आपको आपके पूर्व जन्म के सुकृतों का फल स्वरूप जो वैभव मिला है उसका विचार, अपने अवधिज्ञान का उपयोगकर कीजिए तो आपको मालूम होगा कि, आपका कहना युक्तियुक्त नहीं है। गये भव में आप मनुष्य थे और इस भव में देवता हुए हैं। अगर परलोक और जीव न होते तो आप मनुष्य से देव कैसे बन जाते?' देव बोला – 'तुम्हारा कहना सत्य है। आज तक मैंने कभी इस बात का विचार ही न किया और कुशंका में पड़ा रहा। आज मैं तुम्हारी कृपा से सत्य जानं सका हूं। मैं तुमसे खुश हूं। जो चाहो सो मांगो।' वज्रायुद्ध बोला – 'मैं आपसे सिर्फ इतना चाहता हूं कि आप हमेशा सम्यक्त्व का पालन करें।' देव बोला – 'यह तो तुमने मेरे ही स्वार्थ की बात कही है। तुम अपने लिये कुछ मांगो।' वज्रायुद्ध बोला – 'मेरे लिये बस इतना ही बहुत है।' वज्रायुद्ध को निःस्वार्थ समझकर देव और भी अधिक खुश हुआ। वह वज्रायुद्ध को दिव्य अलंकार भेट में देकर ईशानदेवलोक में । गया और बोला-'वज्रायुद्ध सचमुच ही सम्यक्त्वी है।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 119 : Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार वसंत ऋतु में क्रीड़ा करने वन में गया। वहां वह जब अपनी सात सौ रानियों के साथ क्रीड़ा कर रहा था तब, विद्युद्दष्ट नाम का देवता - जो वज्रायुद्ध का पूर्वजन्म का वैरी दमितारि था और जो अनेक भवों में भटककर देव हुआ था - उधर से निकला। वज्रायुद्ध को देखकर उसे अपने पूर्व भव का वैर याद आया। वह एक बहुत बड़ा पर्वत उठा लाया और उसे उसने वज्रायुद्ध पर डाल दिया। वज्रायुद्ध को भी उसने नागपास से बांध लिया। - वज्रऋषभनाराच संहनन के धारी वज्रायुद्ध ने उस पर्वत के टुकड़े कर डाले, नागपाश को छिन्नभिन्न कर दिया और सुखपूर्वक अपनी रानियों सहित बाहर आया। विद्युद्दष्ट अपनी शक्ति को तुच्छ समझ वहां से चला गया। उसी समय ईशानेन्द्र नंदीश्वरद्वीप जाते हुए उधर से आ निकला और वज्रायुद्ध के जीव भावी तीर्थंकर की पूजाकर चला गया। वज्रायुद्ध अपने. परिवार सहित नगर में आया। राजा क्षेमंकर को लौकांतिक देवों ने आकर दीक्षा लेने की सूचना की। उन्होंने वज्रायुद्ध को राज्य देकर दीक्षा ली और तप से घातिया कर्मों का नाश कर वे तीर्थंकर हुए। वज्रायुद्ध के अस्त्रागार में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। फिर दूसरे तेरह रत्न भी क्रमशः उत्पन्न हुए। उसने छ: खंड पृथ्वी को जीता और फिर अपने पुत्र को युवराज पद पर स्थापित कर सुख से राज्य करने लगा। एक बार वे राजसभा में बैठे थे तब एक विद्याधर 'बचाओ, बचाओ' पुकारता हुआ उनके चरणों में आ गिरा। वज्रायुद्ध ने उसको अभय दिया। उसी समय वहां तलवार लिये हुए एक देवी और खांडा हाथ में लिये हुए एक देव उसके पीछे आये। देव बोला – 'हे नृप! इस दुष्ट को हमें सोंपिये ताकि हम इसे इसके पापों का दंड दें। इसने विद्या साधती हुई मेरी इस पुत्री को आकाश में उठा ले जाकर घोर अपराध किया है।' वज्रायुद्ध ने उन्हें उनके पूर्वजन्म की बातें बतायी। इससे उन्होंने वैरभाव को छोड़ दिया और मुनि के पास दीक्षा ले ली। : श्री शांतिनाथ चरित्र : 120 : Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर वज्रायुद्ध चक्री ने भी कुछ काल के बाद अपने पुत्र सहस्रायुद्ध को राज्य देकर क्षेमंकर भगवान के पास दीक्षा ली। सहस्रायुद्ध ने भी कुछ काल बाद पिहिताश्रव मुनि के पास दीक्षा ली। अंत में दोनों राजमुनियों ने एक साथ ईषतप्राग्भार नाम के पर्वत पर जाकर पादोपगमन अनशन किया। नवां भव (अहमिंद्र देव) आयु पूर्ण कर दोनों मुनि परम समृद्धिवाले तीसरे ग्रैवेयक में अहमिंद्र हुए और पचीस सागरोपम की आयु वहां पूरी की। दसवां भव (मेघरथ) : जंबूद्वीप के पूर्व विदेह के पुष्कलावती विजय में सीतानदी के किनारे पुंडरीकिणी नाम की नगरी है। उसमें घनरथ नाम का राजा राज्य करता था। उसकी प्रियमती और मनोरम नाम की दो पत्नियां थी। वज्रायुद्ध का जीव ग्रैवेयक विमान से च्यवकर महादेवी प्रियमती की कोख से जन्मा और सहस्रायुद्ध का जीव च्यवकर मनोरमा देवी के गर्भ से जन्मा। दोनों के नाम क्रमशः मेघरथ और द्रढ़रथ रखे गये। . . ... जब दोनों जवान हुए तब उनके ब्याह सुमंदिरपुर के राजा निहतशत्रु की तीन कन्याओं के साथ हुए। मेघरथ के साथ जिनका ब्याह हुआ उनके नाम प्रियमिंत्रा और मनोरमा थे और द्रढ़रथ के साथ जिसका ब्याह हुआ उसका नाम सुमति था। ___ जब मेघरथ और द्रढ़रथ ब्याह करने गये थे तब की बात है। पुंडरीकिणी से सुमंदिर पुर जाते हुए रस्ते में सुरेन्द्रदत्त राजा का राज्य आया। उसने मेघरथ को कहलाया कि, तुम मेरी सीमा में होकर मत जाना। कुमार मेघरथ ने इस बात को अपना अपमान समझाा और सुरेन्द्रदत्त पर आक्रमण कर दिया। घोर युद्ध हुआ और सुरेन्द्रदत्त ने हारकर आधीनता स्वीकार कर ली। वे उसको अपने साथ लेते गये। और वापिस लौटते समय . सुरेन्द्रदत्त को उसकी राजगद्दी सौंपते आये। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 121 : Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार राजा घनरथ अपने अंतःपुर में आनंदविनोद कर रहा था। उस समय सुसीमा नाम की एक वेश्या आयी। उसके पास एक मुर्गा भी था। वह बोली – 'महाराज! मेरा यह मुर्गा अजित है। आज तक किसी के मुर्गे से नहीं हारा। अगर किसी का मुर्गा मेरे मुर्गे को हरा दे तो मैं उसको एक हजार स्वर्ण मुद्राएँ दूं।' ___राणी मनोरमा बोली – 'स्वामीन! मैं इससे बाज़ी की बात तो नहीं करती परंतु इसका घमंड तोड़ना चाहती हूं। इसलिए अगर आज्ञा हो तो मैं अपना मुर्गा इसके मुर्गे से लड़ाऊ।' - ___ राजा ने आज्ञा दी। मनोरमा ने अपना मुर्गा मंगवाया। दोनों मुर्गे लड़ने लगे। बहुत देर तक किसी का मुर्गा नहीं हारा। यद्यपि दोनों चौंचों की और ठोकरों की चोटों से लहू लुहान हो गये थे तथापि एक दूसरे पर बराबर प्रहार कर रहे थे। कोई पीछे हटना नहीं चाहता था। राजा ने कहा – 'इनमें से कोई किसी से नहीं हारेगा। इसलिए इन्हें छुड़ा दो।' तब मेघरथ ने पूछा – 'इनकी हारजीत कैसे मालूम होगी?' त्रिज्ञानज्ञ राजा ने जवाब दिया - 'इनकी हारजीत का निर्णय नहीं हो सकेगा। इसका कारण तुम इनके पूर्वभव का हाल सुनकर भली प्रकार से कर सकोगे। सुनो रत्नपुर नगर में धनवसु और दत्त नाम के दो मित्र रहते थे। वे गरीब थे, इसलिए धन कमाने की आशा से बैलों पर माल लादकर दोनों चले। रस्ते में बैलों को अनेक तरह की तकलीफें देते और लोगों को ठगते वे एक शहर में पहुंचे। वहां कुछ पैसा कमाया। महान लोभी वे दोनों किसी कारण से लड़ पड़े और एक दूसरे के महान शत्रु हो गये। आखिर आर्तध्यान में वैरभाव से मरकर वे हाथी हुए। फिर मैंसे हुए, मेंढे हुए और अब ये मुर्गे हुए हैं।' अपने पूर्व जन्म का हाल सुनकर मुर्गों को जातिस्मरण ज्ञान हुआ। उन्होंने वैर त्यागकर अनशन व्रत लिया और मरकर अच्छी गति पायी। राजा घनरथ ने पुत्र मेघरथ को राज्य देकर वरसीदान देकर दीक्षा : श्री शांतिनाथ चरित्र : 122 : Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ले ली और तप कर केवलज्ञान पाकर तीर्थंकर पर्याय का उपभोग कर मोक्षलक्ष्मी पायी। .. ___ मेघरथ के दो पुत्र हुए। प्रियमित्रा से नंदिषेण और मनोरमा से मेघसेन। द्रढ़रथ की पत्नी सुमति ने भी रथसेन नामक पुत्र को जन्म दिया। एक दिन मेघरथ पौषध लेकर बैठा था उसी समय एक कबूतर आकर उसकी गोद में बैठ गया और 'बचाओ! बचाओ!' का करुण नाद करने लगा। राजा ने सस्नेह उसकी पीठ पर हाथ फेरा और कहा – 'कोई भय नहीं है। तूं निर्भय रह।' उसी समय एक बाज आया और बोला - 'राजन्! इस कबूतर को छोड़ दो। यह मेरा भक्ष्य है। मैं इसको खाऊंगा।' राजा ने उत्तर दिया – 'हे बाज! यह कबूतर मेरी शरण में आया है। मैं इसको नहीं छोड़ सकता। शरणागत की रक्षा करना क्षत्रियों का धर्म है। और तूं इस बेचारे को मारकर कौन सा बुद्धिमानी का काम करेगा? अगर तेरे शरीर पर से एक पंख उखाड़ लिया जाय तो क्या यह बात तुझे अच्छी लगेगी?' बाज बोला – 'पंख क्या पंख की एक कली भी अगर कोई उखाड़ ले तो मैं सहन नहीं कर सकता।' राजां बोला – 'हे बाज! अगर तुझे इतनी सी तकलीफ भी सहन नहीं होती है तो यह बेचारा प्राणांत पीड़ा कैसे सह सकेगा? तुझे तो सिर्फ अपनी भूख ही मिटानी है। अतः तूं इसको खाने के बजाय किसी दूसरी चीज से अपना पेंट भर और इस बेचारे के प्राण बचा।' बाज बोला – 'हे राजा! जैसे यह कबूतर मेरे डर से व्याकुल हो रहा है वैसे ही मैं भी भूख से व्याकुल हो रहा हूं। यह आपकी शरण में आया है। कहिए मैं किसकी शरण में जाऊं? अगर आप यह कबूतर मुझे नहीं सौपेंगे तो मैं भूख से मर जाऊंगा। एक को मारना और दूसरे को बचाना यह आपने कौनसा धर्म अंगीकार किया है? एक पर दया करना और दूसरे पर निर्दय होना यह कौन से धर्मशास्त्र का सिद्धांत है? हे राजा! महेरबानी :: श्री तीर्थंकर चरित्र : 123 : Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करके इस पक्षी को छोड़िए और मुझे बचाईए। मैं ताजा मांस के सिवा किसी तरह से भी जिंदा नहीं रह सकता हूं।' - मेघरथ ने कहा – 'हे बाज! अगर ऐसा ही है तो इस कबूतर के बराबर मैं अपने शरीर का मांस तुझे देता हूं। तूं खा और इस कबूतर को छोड़कर अपनी जगह जा।' बाज ने यह बात कबूल की। राजा ने छुरी और तराजू मंगवाये। एक पलड़े में कबूतर को रखा और दूसरे में अपने शरीर का मांस काटकर रखा। राजा ने अपने शरीर का बहुत सा मांस काटकर रख दिया तो. भी वह कबूतर के बराबर न हुआ। तब राजा खुद उसके बराबर तुलने को तैयार हुआ। चारों तरफ हाहाकार मच गया। कुटुंबी लोग जोर-जोर से रोने लगे। मंत्री लोग आंखों में आंसू भरकर समझाने लगे – 'महाराज! लाखों के पालनेवाले आप, एक तुच्छ कबूतर को बचाने के लिए प्राण त्याग ने को तैयार हुए हैं, यह क्या उचित है? यह करोड़ों मनुष्यों की बस्ती आपके आधार पर है; आपका कुटुंब परिवार आपके आधार पर है उनकी रक्षा न कर क्या आप एक कबूतर को बचाने के लिए जान गंवायेंगे? महारानियाँ - आपकी पत्नीयां, आपके शरीर छोड़ते ही प्राण दे देंगी, उनकी मौत अपने सिरपर लेकर भी, एक पक्षी को बचाने के लिए मनुष्यनाश का पाप सिर पर लेकर भी, क्या आप इस कबूतर को बचायेंगे? और राजधर्म के अनुसार दुष्ट बाज को दंड न देकर, उसकी भूख बुझाने के लिए अपना शरीर देंगे? प्रभो! आप इस न्याय-असंगत काम से हाथ उठाईए और अपने शरीर की रक्षा कीजिए। हमें तो यह पक्षी भी छलपूर्ण मालूम होता है। संभव है यह कोई देव या राक्षस हो।' राजा मेघरथ ने गंभीर वाणी में उत्तर दिया – 'मंत्रीजी, आप जो कुछ कहते हैं सो ठीक कहते हैं। मेरे राज्य की, मेरे कुटुंब की और मेरे शरीर की भलाई की एवं राजधर्म की या राजन्याय की दृष्टि से आपका कहना बिलकुल ठीक जान पड़ता है। मगर इस कथन में धर्मन्याय का अभाव है। राजा प्रजा का रक्षक है। प्रजा की रक्षा करना और दुर्बल को : श्री शांतिनाथ चरित्र : 124 : Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जो सताता हो उसे दंड देना यह राजधर्म है - राजन्याय है। उसके अनुसार मुझे बाज को दंड देना और कबूतर को बचाना चाहिए। मगर मैं इस समय राज्यगद्दी पर नहीं बैठा हूं, इस समय मैं राजदंड धारण करनेवाला मेघरथ नहीं हूं। इस वक्त तो मैं पौषधशाला में बैठा हूं; इस समय मैं सर्वत्यागी श्रावक हूं। जब तक मैं पौषधशाला में बैठा हूं और जब तक मैंने सामायिक ले रखी हे तब तक मैं किसी को दंड देने का विचार नहीं कर सकता। दंड देने का क्या किसी का जरा सा दिल दुखे ऐसा विचार भी मैं नहीं कर सकता। ऐसा विचार करना, सामायिक से गिरना है; धर्म से पतित होना है। ऐसी हालत में मंत्रीजी! तुम्हीं कहो, दोनों पक्षियों की रक्षा करने के लिए मेरे पास अपना बलिदान देने के सिवा दूसरा कौन सा उपाय है? मुझे मनुष्य समझकर, कर्तव्यपरायण मनुष्य समझकर, धर्म पालनेवाला मनुष्य समझकर, शरणागत प्रतिपालक मनुष्य समझकर, यह कबूतर मेरी शरण में आया है; मैं कैसे इसको त्याग सकता हूं? और इसी तरह बाज को भूख से तड़पने के लिए भी कैसे छोड़ सकता हूं। इसलिए मेरा शरीर देकर इन दोनों पक्षियों की रक्षा करना ही मेरा धर्म है। शरीर तो नाशवान है। आज नहीं तो कल यह जरूर नष्ट होगा। इस नाशवान शरीर को बचाने के लिए मैं अपने यशः शरीर को, अपने धर्मशरीर का नाश न होने दूंगा।' अंतरिक्ष से आवाज आयी – 'धन्य राजा! धन्य!' सभी आश्चर्य से इधर उधर देखने लगे। उसी समय वहां एक दिव्य रूपधारी देवता खड़ा हुआ। उसने कहा – 'नृपाल! तुम धन्य हो। तुम्हें पाकर आज पृथ्वी धन्य हो गयी। बड़े से लेकर तुच्छ प्राणी तक की रक्षा करना ही तो सच्चा धर्म है। अपनी आहुति देकर जो दूसरे की रक्षा करता है वही सच्चा धर्मात्मा है। 'हे राजा! मैं ईशान देवलोक का एक देवता हूं। एक बार ईशानेन्द्र ने तुम्हारी, दृढ़ धर्मी होने की तारीफ की। मुझे उस पर विश्वास न हुआ और मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए आया। अपना संशय मिटाने के लिए तुम्हें तकलीफ दी इसके लिये मुझे क्षमा करो।' . देव अपनी माया समेट कर अपने देवलोक में गया। दोनों पक्षियों ने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 125 : Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा के मुख से अपना पूर्वभव सुना कि, पहले वे एक सेठ के पुत्र थे। दोनों एक रत्न के लिए लड़े और लड़ते लड़ते आर्तध्यान से मरकर ये पक्षी हुए हैं। यह सुनकर दोनों ने अनशन धारण किया और मरकर देवयोनि पायी। एक बार मेघरथ ने अष्टम तप करके कार्योत्सर्ग धारण किया। रात के समय ईशानेन्द्र ने अपने अंतःपुर में बैठे हुए 'नमो भगवते तुभ्यं' कहके नमस्कार किया। इंद्राणियों के पूछने पर कि आपने अभी किसको नमस्कार किया है? इंद्र ने जवाब दिया – 'पुंडरीकिणी नगरी के राजा मेघरथ ने अष्टम तप कर अभी कार्योत्सर्ग धारण किया है। वह इतना दृढ़ मनवाला है कि, दुनिया का कोई भी प्राणी उसे अपने ध्यान से विचलित नहीं कर सकता।' _ इंद्राणियों को यह प्रशंसा असह्य हुई। वे बोली – 'हम जाकर देखती हैं कि, वह कैसा दृढ़ मनवाला है।' इंद्राणियों ने आकर और देवमाया । फैलाकर मेघरथ को ध्यान से चलित करने की, रातभर अनेक कोशिशें की, अनुकूल और प्रतिकूल उपसर्ग किये; परंतु राजा अपने ध्यान से न डिगा। सूर्य उदित होनेवाला है यह देख इंद्राणियों ने अपनी माया समेट ली और ध्यानस्थ राजा को नमस्कार कर उससे क्षमा मांगी, फिर वे चली गयी। ध्यान समाप्त कर राजा ने दीक्षा लेने का दृढ़ संकल्प कर लिया। एक बार घनरथ प्रभु विहार करते हुए उधर आये। मेघरथ ने अपने पुत्र मेघसेन को राज्य देकर दीक्षा ले ली। उनके भाई दृढ़रथ ने, उनके सात सौ पुत्रों ने और अन्य चार हजार राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ली। मेघरथ मुनि ने बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म का बंध किया। अंत में, मेघरथ और दृढ़रथ मुनि ने अखंड चारित्र पाल, अंबर तिलक पर्वत पर जाकर अनशन धारण किया। ग्यारहवां भव :____ आयुपूर्ण कर मेघरथ और दृढ़रथ मुनि सर्वार्थसिद्ध देवलोक में देवता हुए और वहां पर तैंतीस सागरोपम की आयु सुखं से बितायी। : श्री शांतिनाथ चरित्र : 126 : Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बारहवां भव, :- (भगवान शांतिनाथ) : इस जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में कुरुदेश के अंदर हस्तिनापुर नाम का एक बड़ा वैभवशाली नगर था। उसमें इक्ष्वाकु वंशी विश्वसेन नामक राजा राज्य करता था। वह राजा धर्मात्मा, प्रजापालक, पराक्रमी और वीर था। उसकी धर्मपत्नी का नाम अचिरा देवी था। महादेवी अचिरा बड़ी पतिपरायणा और रूपगुण संपन्ना थी। नृपशिरोमणि विश्वसेन अपनी धर्मपत्नी के साथ साम्राज्य लक्ष्मी भोगते थे। . एक दिन अनुत्तर विमान में मुख्य सर्वार्थसिद्ध नाम के विमान से च्यवकर भाद्रपद वदि ७ के दिन भरणी नक्षत्र में चंद्रमा का योग होने पर पूर्वजन्म के राजा मेघरथ का जीव महादेवी के कोख में आया। उस समय रात को अचिरा ने चक्रवर्ती और तीर्थंकर के जन्म की सूचना देने वाले चौदह महा स्वप्न दो बार देखे। प्रातःकाल ही महादेवी ने पति से स्वप्नों का सारा वृत्तांत वर्णन किया। राजा ने कहा – 'हे महादेवी! तुम्हारे अलौकिक गुणों वाला एक पुत्र होगा।' , - राजा ने स्वप्न के फल-को जाननेवाले निमित्तियों को बुलाकर स्वप्न का फल पूछा। उन्होंने उत्तर दिया – 'स्वामिन्! इन स्वप्नों से आपके यहां एक ऐसा पुत्र पैदा होगा जो चक्रवर्ती भी होगा और तीर्थंकर भी।' इंद्रादि देवों के आसन कांपे और उन्होंने प्रभु का च्यवनकल्याणक महोत्सव किया। ___नौ मास पूरे होने पर ज्येष्ठ मास की वदि तेरस के दिन भरणी नक्षत्र में अचिरादेवी के गर्भ से, स्वर्ण जैसी कांतिवाले एक सुंदर कुमार का जन्म हुआ। उसके जन्म से नारकी जीवों को भी क्षण भर के लिए सुख हुआ। छप्पनदिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने आकर प्रभु का जन्म कल्याणक किया। अचिरादेवी की निद्रा भंग हुई। सब तरफ आनंद की बधाईयाँ बंटने लगी। घर-घर में मंगलाचार होने लगे। उनका नाम शांतिकुमार रखा गया। धीरे-धीरे दूज के चंद्रमा के समान कुमार बढ़ने लगे। शैशवकाल की मनोहर 1. ये पांचवें चक्रवर्ती भी थे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 127 : Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कृतियों द्वारा कुमार अपने मातापिता को आनंद देने लगे। जब शांतिकुमार युवावस्था को प्राप्त हुए तब विश्वसेन ने अत्याग्रह कर शांतिकुमार का अनेक राजकन्याओं के साथ विवाह कर दिया। फिर विश्वसेन ने शांतिकुमार को राज्य देकर अपना जीवन सार्थक बनाने के लिए व्रत ग्रहण किया। शांतिकुमार राजा ने अब राज्य की बागडोर अपने हाथ में ली। और न्यायपूर्वक राज्य करने लगे। उनकी यशोमति नामक एक पट्टरानी थी। उसकी कोख में दृढ़रथ का जीव स्वार्थसिद्ध विमान से च्यवकर आया। उसी रात को महादेवी ने अपने स्वप्न में मुंह में चक्ररत्न को प्रवेश होते देखा। यथा समय महादेवी के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसका नाम चक्रायुध रखा गया। धीरे-धीरे राजकुमार युवावस्था को प्राप्त हो सब विद्याओं में पारंगत हो गया। शांतिकुमार ने अपने पुत्र राजकुमार का अनेक राजकुमारियों के साथ विवाह कर दिया। ____ कालांतर में शांतिकुमार के शस्त्रागार में चक्ररत्न का प्रादुर्भाव हुआ। उन्होंने चक्ररत्न के प्रभाव से छः खंड पृथ्वी को जीत लिया। इसके उपरांत शांतिकुमार राजा ने वरसींदान दिया। फिर उन्होंने सहसाम्र वन में ज्येष्ठ कृष्णा, चतुर्दशी के दिन भरणी नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा ग्रहण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक का उत्सव किया। दूसरे दिन भगवान ने सुमित्र राजा के यहां पारणा किया। राजमंदिर में वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट हुए। एक वर्ष तक अन्यत्र विहारकर भगवान फिर हस्तिनापुर के सहसाम्रवन में आये। यहां पोष सुदि नवमी के दिन भरणी नक्षत्र में उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इंद्रादि देवताओं ने मिलकर समवसरण की रचना की और ज्ञानकल्याणक मनाया। भगवान के शासन में शूकर के वाहनवाला गरुड़ शासन देवता और कमल के आसन पर स्थित, हाथ में कमंडल, पुस्तकादि धारण करनेवाली 'निर्वाणी' नाम की शासन देवी प्रकट हुई। एक समय विहार करते-करते भगवान ने फिर हस्तिनापुर में पदार्पण किया। इस समाचार को सुनकर उनका पोता कुरुचंद भगवान के : श्री शांतिनाथ चरित्र : 128 : Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दर्शनार्थ आया। उसने हाथ जोड़कर पूछा – 'मैं पूर्व जन्म के किन कर्मों से इस जन्म में राजा हुआ हूं और मुझे प्रति दिन पांच अद्भुत वस्त्र और फलादि चीजें भेट स्वरूप क्यों मिलती हैं? मैं इन वस्तुओं का भोग क्यों नहीं कर सकता हूं? क्यों इन्हें इष्ट जनों के लिए रख छोड़ता हूं?' भगवान ने उत्तर दिया – 'तुम्हें साम्राज्य लक्ष्मी मिली है इसका कारण यह है कि तुमने पूर्व जन्म में एक मुनि को दान दिया था। फिर भगवान ने विस्तारपूर्वक उसके पूर्वजन्म का वृत्तांत इस तरह कहना आरंभ किया - भरतक्षेत्र के कौशल देश में श्रीपुर नामक एक नगर था। उसमें सुधन, धनपति, धनदं और धनेश्वर ये चार एकसी उम्रवाले वणिक पुत्र रहते थे। एक समय ये चारों मित्र परदेश में द्रव्योपार्जन करने के लिए अपने घर से रवाना हुए। उनके साथ में भोजन का सामान लेनेवाला द्रोण नामक एक सेवक था। मार्ग में जाते-जाते उन्हें एक वन में एक मुनि का समागम हुआ। उन्होंने अपने भोजन में से थोड़ा मुनि महाराज को देने के लिए द्रोण से. कहा। द्रोण ने बड़ी श्रद्धा से मुनिजी को प्रतिलाभित कर आहार दिया। वहां से सब रत्नद्वीप में पहुंचे और बहुत सा द्रव्योपार्जन कर अपने देश को लौटे। . द्रोण धर्मकरणी करके मरा। हस्तिनापुर में राजा के यहां जन्मा। वही द्रोण तुम कुरुचंद्र हो। चारों में से सुधन और धनद भी मरकर वणिक पुत्र हुए हैं। उनमें से सुधन कंपिलपुर में पैदा हुआ है और धनद कृत्तिकापुर में। पहले का नाम है वसंतदेव और दूसरे का नाम है कामपाल| धनपति और धनेश्वर मायाचारी थे इसलिए वे मरकर स्त्री रूप में वणिक के घर जन्मे हैं। उनका नाम मदिरा और केसरा है। पूर्व भव में प्रीति थी इससे इन चारों का समागम हुआ है। वसंतदेव के साथ केसर का ब्याह हुआ है और कामपाल के साथ मदिरा का। दोनों दंपती अभी विद्यमान हैं और यहीं मौजूद है। इतनी कथा कहकर भगवान ने फिर आगे कहना आरंभ किया - 'हे राजा! पूर्व जन्म के स्नेह के कारण तुम्हें जो पांच अद्भुत वस्तुओं की भेट मिलती थी उनका उपयोग तुम नहीं कर सकते थे। अब अपने मित्रों के साथ तुम उन वस्तुओं का उपभोग कर सकोगे। इतने दिनों तक इष्ट : श्री नीर्थंकर चरित्र : 129 : Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्रों को न जानने से तुम पदार्थों के उपभोग से वंचित रहे थे।' ____ वसंत, केसरा, कामपाल और मदिरा ने भी ये बातें सुनि। वे कुरुचंद्र से मिले। कुरुचंद्र उनको अपने घर ले गया और बड़ा आदर सत्कार किया। केवलज्ञान से लगाकर निर्वाण के समय तक भगवान शांतिनाथ के परिवार में ३६ गणधर, बासठ हजार आत्म नैष्ठिक मुनि, इकसठ हजार छ: सौ साध्वियां, आठ सौ चौदह पूर्वधारी महात्मा, तीन हजार अवधिज्ञानी, चार हजार मनःपर्यवज्ञानी, चार हजार तीन सौ केवलज्ञानी, छः हजार वैक्रिय लब्धिवाले, दो हजार चार सौ वादलब्धिवाले, दो लाख नव्वे हजार श्रावक और तीन लाख तरानवे हजार श्राविकाएँ थीं। भगवान ने अपना निर्वाण काल समीप जान समेतशिखर पर पदार्पण किया। यहां नौ सौ मुनियों के साथ अनशन किया एक मास के अंत में ज्येष्ठ मास की कृष्णा त्रयोदशी के दिन भरणी नक्षत्र में भगवानं शांतिनाथ उन मुनियों के साथ मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने निर्वाण-कल्याणक किया। भगवान ने पचीस हजार वर्ष कौमारावस्था में, पचीस हजार वर्ष युवराजावस्था में, पचीस हजार वर्ष राजपाट पर और पचीस हजार वर्ष दीक्षावस्था में, इस तरह एक लाख वर्ष की आयु भोगी। उनका शरीर चालीस धनुष ऊंचा था। धर्मनाथजी के निर्वाण बाद पौन पल्योपम कम तीन सागरोपम बीते तब शांतिनाथ भगवान मोक्ष में गये। . शांतिनाथ है शांति के दाता, जो-जो आकर गुण को गाता । अतिशीघ्र वो शिवपढ़ पाता, गुणगान में बन जो राता ॥ : श्री शांतिनाथ चरित्र : 130 : Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७. श्री कुन्थुनाथ चरित्र श्रीकुन्थुनाथो भगवान्, सनाथोऽतिशयर्द्धिभिः । सुरासुरतूनाथाना, - मेकनाथोस्तु वः श्रिये ॥ भावार्थ - जिसको चौतीस अतिशयों की ऋद्धि प्राप्त है और जो इंद्रों और राजाओं के नाथ हैं वे श्रीकुन्थुनाथ भगवान तुम्हारा कल्याण करें। प्रथम भव : - जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में आवर्त नामक देश है। उसमें खड्गी नाम की नगरी थी। उसका सिंहावह नाम का राजा था। संसार से वैराग्य होने के कारण उसने संवराचार्य के पास दीक्षा ले ली। बीस स्थानक की आराधना . कर उसने तीर्थंकर गोत्र बांधा। दूसरा भव :__अंत में आयुपूर्ण कर वह सर्वार्थसिद्ध विमान में अहमिन्द्र देव हुआ। तीसरा भव : भरत क्षेत्र के हस्तिनापुर नगर का राजा वसु था। उसकी श्री नामकी रानी थी। वहां से च्यवकर सिंहावह का जीव श्री रानी के गर्भ में दो बार चौदह स्वप्न से सूचित श्रावण वदि ६ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। . समय पूरा होने पर वैशाख वदि १४ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में बकरे के चिह्नयुक्त, स्वर्णवर्णवाले, पुत्र को रानी ने जन्म दिया। बालक का नाम कुंथुनाथ रखा गया। कारण - गर्भ समय में रानी ने कुंथु नामक रत्नसंचय को देखा था। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। यौवनावस्था प्राप्त होने पर माता-पिता के अत्याग्रह से अनेक राज कन्याओं से कुंथुनाथ ने ब्याह किया। २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक : श्री तीर्थंकर चरित्र : 131 : Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवराज रहे। २३७५० वर्ष बाद उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उसीके बल छ: सौ वर्ष में उन्होंने भरतखंड के छः खंड जीते। २३ हजार साढ़े सात सौ वर्ष तक चक्रवर्ती रहे। पीछे लोकांतिक देवों ने प्रार्थना कि - 'हे प्रभु! दीक्षा धारण कीजिए।' तब प्रभु ने वरसीदान दे वैशाख वदि ५ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में एक हजार राजाओं के साथ सहसाम वन में दीक्षा धारण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। दूसरे दिन भगवान ने चक्रपुर नगर के राजा व्याघ्रसिंह के घर पारणा किया। .. वहां से विहार कर सोलह वर्ष बाद प्रभु उसी वन में पधारें। तिलक वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग धारणकर, घातिया कर्मों का क्षय कर चैत्र सुदि ३ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में प्रभु ने केवलज्ञान प्राप्त किया। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया और समोशरण की रचना की। ... उनके परिवार में ३५ गणधर, ६० हजार साधु, ६० हजार ६ सौ साध्वियां, ६७० चौदह पूर्वधारी, ढाई हजार अवधिज्ञानी, ३ हजार ३ सौ ४० मनः पर्यवज्ञानी, ३ हजार २ सौ केंवली, ५ हजार एक सौ वैक्रिय लब्धिवाले, २ हजार वादी, १ लाख ७६ हजार श्रावक और ३ लाख ८१ हजार श्राविकाएँ थी। तथा गंधर्व नाम का यक्ष और बला नामा की शासन देवी थी। क्रम से विहार करते हुए मोक्षकाल समीप जान भगवान सम्मेदशिखर पर पधारें। वहां उन्होंने एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन धारणकर वैशाख वदि १ के दिन कृत्तिका नक्षत्र में कर्मनाश कर मोक्ष पाया। इंद्रादि देवों ने निर्वाण कल्याणक मनाया। कुंथुनाथजी २३७५० वर्ष कुमारावस्था में, उतना ही युवराज, चक्रवर्तीत्व एवं दीक्षा पर्याय में सभी मिलाकर उनकी संपूर्ण आयु ६५ हजार वर्ष की थी। उनका शरीर ३५ धनुष ऊंचा था। __शांतिनाथजी के निर्वाण जाने के बाद आधा पल्योपम बीतने पर कुंथुनाथजी ने निर्वाण प्राप्त किया। : श्री कुन्थुनाथ चरित्र : 132 : Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८. श्री अरनाथ चरित्र अरनाथस्तु भगवाँ, -श्चतुरारनभोरविः । चतुर्थपुरुषार्थश्री,-विलासं वितनोतु वः ॥ भावार्थ - चौथा आरा रूपी आकाश में सूरज के समान (तपनेवाले) भगवान अरनाथ चतुर्थ पुरुषार्थ यानी मोक्षलक्ष्मी तुम्हें देवें। प्रथम भव : ____ जंबूद्वीप के पूर्व विदेह में सुसीमा नाम की नगरी थी। उसका राजा धनपति था। उसको संसार से वैराग्य हुआ। उसने संवर नामक मुनि के पास दीक्षा ले ली। बीस स्थानक का तप कर तीर्थंकर गोत्र बांधा। . दूसरा भव : - आयु पूर्ण कर वह नवें ग्रैवेयक में देव हुआ। तीसरा भव : - वहां से च्यवकर धनपति का जीव हस्तिनापुर नगर के राजा सुदर्शन की रानी महादेवी की कुक्षि में दो बार चौदह स्वप्न से सूचित फाल्गुन सुदि २ के दिन जब चंद्र रेवती नक्षत्र में था तब इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भकाल के पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन रेवती नक्षत्र में नंदावर्त लक्षणवाले, स्वर्ण वर्णी पुत्र को महादेवी ने जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी और इंद्रों ने जन्म कल्याणक महोत्सव मनाया। गर्भकाल में माता ने चक्र-आरा देखा था इससे पुत्र का नाम अरनाथ रखा गया। युवावस्था प्राप्त होने पर माता-पिता के आग्रह से प्रभु ने चौसठ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 133 : Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हजार राजकन्याओं के साथ ब्याह किया। २१ हजार वर्ष तक युवराज रहे। फिर उनकी आयुधशाला में चक्ररत्न उत्पन्न हुआ। उस चक्र के साथ चार सौ वर्ष घूमकर भरतखंड के छः खंडों को जीता। प्रभु २१ हजार वर्ष तक चक्रवर्ती रहे। फिर लौकांतिक देवों ने विनती की – 'हे प्रभु! भव्य जीवों के हितार्थ तीर्थ प्रवर्ताइए।' तब संवत्सरी दान दे, मृगसर सुदि ११ के दिन रेवती नक्षत्र में छ? तप युक्त, सहसाम्रवन में जाकर प्रभु ने दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक उत्सव किया। दूसरे दिन राजनगर के राजा अपराजिंत के यहां पर पारणा किया। फिर वहां से विहार कर तीन वर्ष बाद उसी उद्यान में आये। आम्रवृक्ष के नीचे कार्योत्सर्ग ध्यान किया। कार्तिक सुदि १२. के दिन चंद्र रेवती नक्षत्र में था तब प्रभु को केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया। प्रभु के संघ में ३३ गणधर पचास हजार साधु, साठ हजार साध्वियां ६१० चौदह पूर्वधारी, २६०० अवंधिज्ञानी, २५५१ मनःपर्यय ज्ञानी, २८०० केवली, ७ हजार ३ सो वैक्रिय लब्धिवाले, १ हजार छ: सौ वादी, १ लाख ८४ हजार श्रावक और ३ लाख ७२ हजार श्राविकाएँ तथा षण्मुख नामक यक्ष और धारणी नाम की शासन देवी थी। . मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखर पर आये। और एक मास का अनशन धारण कर मार्गशीर्ष सुदि १० के दिन चंद्र जब रेवती नक्षत्र में था, १ हजार मुनियों के साथ मोक्ष में गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक मनाया। इनकी संपूर्ण आयु ८४ हजार वर्ष की थी। शरीर की ऊंचाई ३० धनुष की थी। कुंथुनाथजी के बाद हजार करोड़ वर्ष कम पल्योपम का चौथा अंश बीतने पर अरःनाथजी मोक्ष में गये। अठारवें जिन अरनाथ की, माला फेरो नित नित जिन की । नाटक कूट पर सिद्ध अनेक है, नमन करत चरणे अनेक हैं। : श्री अरनाथ चरित्र : 134 : Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १९. श्री मल्लिनाथ् चरित्र सुरासुर-नराधीशमयूर-नव-वारिदम् । कर्मद्रुन्मूलने हस्ति-मल्लं मल्लिमभिष्टुमः ॥ भावार्थ - सुरों असुरों और मनुष्यों के अधिपति रूपी मयूरों के लिए नवीन मेघ समान कर्म रूपी वृक्ष को मूल से उखाड़ने के लिए, ऐरावत हाथी समान श्री मल्लिनाथ परमात्मा की हम स्तुति करते हैं। प्रथम भव : - जंबूद्वीप के अपर विदेह में सलिलावती विजय है। उसमें वीतशोका नामक नगरी थी। उसका राजा बल था, उसकी भार्या धारणी थी। उसके महाबल नाम का पुत्र हुआ। कमलश्री आदि पांच सौ राजकन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ। बल ने दीक्षा ली। और महाबल राजा हुआ। उसकी कमलश्री से बलभद्र नाम का पुत्र हुआ। महाबल के अचल, धरण, पूरण, वसु, वैश्रमण और अमिचंद्र ये छ: राजा बालमित्र थे। एक बार महाबल ने अपने मित्रों के सामने दीक्षा लेने की इच्छा प्रकट की। यह बात सबको रुचि और सातों मित्रों ने एक साथ दीक्षा धारण की और ऐसी प्रतिज्ञा की, कि हम सब एकसी तपस्या करेंगे। इसके अनुसार सब तप करने लगे। उनमें से महाबल को अधिक फल पाने की इच्छा थी, इससे पारणे के दिन वह, आज मेरे शिर में दर्द है, आज मेरे पेट में दर्द है आदि कहकर बहाने बनाता था और पारणा नहीं करके अधिक तपस्या कर लेता था। इस प्रकार मायाचार करके तप करने से उसने स्त्रीवेद तथा बीसस्थानक की आराधना करने से तीर्थंकर गोत्र बांधा। दूसरा भव :. आयु पूर्ण कर महाबल का जीव वैजयंत अनुत्तर में देव हुआ। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 135 : Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीसरा भव : जंबूद्वीप के दक्षिण भरत में मिथिला नगरी थी। उनका राजा कुंभ था। उसकी स्त्री का नाम प्रभावती था स्वर्ग से महाबल का जीव च्यवकर फाल्गुन सुदि ४ के दिन अश्विनी नक्षत्र में प्रभावती के गर्भ में चौदह स्वप्न सहित आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। समय के पूर्ण होने पर मार्गशीर्ष सुदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्र में प्रभावती देवी के गर्भ से कुंभलक्षण युक्त, नील वर्णी पुत्री का जन्म हुआ। जब पुत्री गर्भ में थी, तब माता को माल्य (पुष्प) की शय्या पर सोने की इच्छा हुई थी, इससे उनका मल्लि कुमारी नाम रखा गया। इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। वे क्रम से बढ़ती हुई युवा हुई।.. मल्लिकुमारी के पूर्वभव के मित्रों में से अचल का जीव साकेत नगरी में प्रतिशुद्ध नामक राजा हुआ। धरण का जीव चंपानगरी में चंद्रछाया नामक राजपुत्र हुआ। पूरण का जीव श्रीवत्सी नगरी में रुक्मी नामक राजा हुआ। वसु का जीव बनारसी नगरी में शंख नामक राजा हुआ। वैश्रवण का जीव . हस्तिनापुर में अदीनशत्रु नामक राजा हुआ और अमिचंद्र का जीव कंपिलापुर नगर में जितशत्रु नाम का राजा हुआ। इन छहों राजाओं ने पूर्व भव के स्नेह से मल्लिकुमारी के साथ विवाह करने की इच्छा से अपने-अपने दूत भेजे। मल्लिकुमारी ने अवधिज्ञान से यह जानकर कि मेरे पूर्व भव के छहों मित्रों को अशोकवाटिका में ज्ञान होनेवाला है, अशोक वाटिका के अंदर एक खंड का महल तैयार कराया। उसमें एक मनोहर रत्नमयी सिंहासन बनवाया और उसमें एक मनोज्ञ स्वर्ण-प्रतिमा रखवायीं। वह पोली थी। उसके मस्तक में छेद रखवाया और उस पर स्वर्णकमल का ढक्कन लगवाया। फिर वह हमेशा ढक्कन उठाकर अपने आहार में से एक-एक ग्रास उसमें डालने लगी। जिस मकान में प्रतिमा रखवायी थी, वह छोटा था। उसके छ: दरवाजे बनवाये। प्रत्येक दरवाजे पर ताला डलवा दिया। उन दरवाजों के : श्री मल्लिनाथ चरित्र : 136 : Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आगे एक-एक कोठड़ी और बनवायी। प्रतिमा के पीछे की तरफ भी एक द्वार बनवाया, वह प्रतिमा से बिलकुल सटा हुआ था। दूत कुंभराजा के पास मल्लिकुमारी को मांगने पहुंचे। कुंभ ने अपमान कर उन्हें निकाल दिया। उन छहों राजाओं ने सोचा, कुंभराजा ने हमारा अपमान किया है। इसलिए उसको इसका दंड देना ही चाहिए। उन्होंने परस्पर सलाहकर बदला लेने के लिए मिथिला नगरी पर चढ़ायी कर दी। .. कुंभ राजा ने युद्ध की तैयारी की। मल्लिकुमारी ने कहा - 'पिताजी! आप व्यर्थ ही नरहत्या न करिए, न कराइए। राजाओं को मेरे पास मिलने को भेज दीजिए। मैं सबको ठीक कर दूंगी। . अभिमानी राजा ने संशक नेत्रों से अपनी कन्या की तरफ देखा। पुत्री की आंखों में वह पवित्र तेज था कि जिसे देखकर उसका संदेह मिट गया। राजा कुंभ ने छहों राजाओं को मल्लिकुमारी से मिलने का संदेशा भेजा। राजा लोग मिलने आये। दासियों ने छहों राजाओं को छहों छोटी • कोठड़ियों के अंदर प्रतिमावाले कमरे के दरवाजे के बाहर खड़ा कर दिया। किवाड़ सीखंचेवाले थे। इसलिए उन्हें प्रतिमा स्पष्ट दिख रही थी। राज लोग उस रूप को देखकर दंग रह गये। वे समझे यही मल्लिकुमारी है। राजा कुछ बोलें इसके पहले ही मल्लिकुमारी ने उस प्रतिमा के सिर से ढक्कन हटा दिया। ढक्कन हटते ही बदबू सब तरफ फैल गयी। राजा अपनी नाक कपड़े से बंदकर लौटने लगे। तब मल्लिकुमारी बोली – 'हे राजाओ! इस मूर्ति में प्रतिदिन केवल एक-एक ग्रास डाला गया है। उसकी दुर्गंध को भी आप लोग यदि सहन नहीं कर सकते हैं तो मेरे शरीर की दुर्गंध को, जिसमें प्रति दिन न जाने कितने ग्रास डाले गये हैं और जो महादुर्गंध वाला हो गया है, आप कैसे सहन कर सकेंगे? ज्ञानी पुरुष इस शरीर में मोह नहीं करते। और आप लोगों ने तो तीसरे भव में मेरे साथ दीक्षा ली थी। आप उसे : श्री तीर्थंकर चरित्र : 137 : Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्यों स्मरण नहीं करते हैं और क्यों नहीं संसार की माया से छूटते हैं? उन लोगों ने जब मल्लिकुमारी के ये वचन सुने तो उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो आया। उससे अपने पूर्व मव जाने और प्रभु को पहचाना। वे हाथ जोड़कर कहने लगे – 'हे भगवन्! आपने हम लोगों की आंखें खोल दीं। हमें आज्ञा दीजिए हम क्या करे?' प्रभु बोले – 'मुझे केवल ज्ञान हो तब आना और दीक्षा ले लेना। फिर वे विदाय हुए। उसी समय लोकांतिक देवों ने आकर विनती की – 'हे प्रभु! अब तीर्थ प्रवर्ताइए।' तब प्रभु ने वरसीदान दे, छ? तप कर मार्गशीर्ष सुदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्र में सहसाम्र वन में जाकर एक हजार पुरुषों और तीन सौ स्त्रियों के साथ दीक्षा ग्रहण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। उसी दिन प्रभु को मनःपर्यव और केवलज्ञान प्राप्त हुए। दूसरे दिन विश्वसेन राजा के घर पर पारणा किया। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया। उनके मित्रों ने उनके पास.चारित्र लिया। प्रभु के तीर्थ में कुबेर नाम का यक्ष और वैराट (धरणप्रिया) नाम की शासन देवी थी। उनके परिवार में - २८ गणधर, ४० हजार साधु, ५५ हजार साध्वियाँ, ६६८ चौदह पूर्वधारी, २ हजार २ सौ अवधिज्ञानी, १७५० मनः पर्यवज्ञानी, २ हजार २ सौ केवली, २ हजार ६ सौ वैक्रिय लब्धिवाले, १ हजार ४ सौ वादी, १ लाख ८३ हजार श्रावक और ३ लाख ७० हजार श्राविकाएँ थी। मल्लिनाथ अपना निर्वाणकाल समीप जान सम्मेद शिखर पर आये। पांच सौ साधुओं और पांच सौ साध्विओं के साथ उन्होंने अनशन ग्रहण किया। एक मास के बाद फाल्गुन सुदि १२ के दिन भरणी नक्षत्र में वे मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्ष कल्याणक मनाया। इनकी कुल आयु ५५ हजार वर्ष की थी, उसमें से १०० वर्ष कुमारावस्था में और शेष दीक्षा पर्याय में बितायी। इनका शरीर २५ धनुष ऊंचा था। अरनाथ के निर्वाण जाने के बाद कोटि हजार वर्ष पीछे मल्लिनाथजी मोक्ष में गये। : श्री मल्लिनाथ चरित्र : 138 : Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०. श्री मुनिसुव्रत चरित्र जगन्महामोहनिद्रा - प्रत्यूष - समयोपमम् । मुनिसुव्रतनाथस्य, देशना-वचनं स्तुमः ॥ भावार्थ - संसार के प्राणियों की महामोह रूपी निद्रा उड़ाने के लिए प्रातःकाल जैसे श्री मुनिसुव्रत स्वामी के देशना वचन की हम स्तुति करते हैं। प्रथम भव : - . जंबूद्वीप के अपर विदेह में भरत देश है। उसमें चंपा नाम की नगरी थी। उसमें सुरश्रेष्ठ नामक राजा राज्य करता था। उसने नंदन मुनि का उपदेश सुनकर उनसे दीक्षा ले ली। अर्हत-भक्ति आदि बीस स्थानक की आराधना करने से तीर्थंकर गोत्र बांधा। दूसरा भव :- आयु पूर्ण कर वह प्राणत देवलोक में गया। तीसरा. भव : भरत क्षेत्र के मगध देश में राजगृही नाम की नगरी है। उसमें हरिवंश का राजा सुमित्र राज्य करता था। उसकी पद्मावती नाम की रानी थी। स्वर्ग से सुरश्रेष्ठ का जीव च्यवकर श्रावण सुदि १५ के दिन श्रवण नक्षत्र में पद्मावती देवी के गर्भ में चौद स्वप्न सुचित आया। इंद्रादि देवों ने च्यवन कल्याणक मनाया। गर्भ-काल के समाप्त होने पर जयेष्ठ वदि ६ के दिन श्रवण नक्षत्र में सुमित्र राजा के यहां पुत्ररत्न का जन्म हुआ। छप्पन दिक्कुमारी और इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक का उत्सव धूमधाम से मनाया। इनके कछुए : श्री तीर्थंकर चरित्र : 139 : Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का चिह्न था। गर्भकाल में माता मुनियों की तरह सुव्रता (अच्छे व्रत पालनेवाली) हुई थी। इससे पुत्र का नाम मुनिसुव्रत रखा गया। पुत्र के युवा होने पर माता-पिता ने अत्याग्रह कर प्रभावती आदि अनेक राजकन्याओं के साथ ब्याह कराया। प्रभावती से सुव्रत नामक पुत्र हुआ। राजा सुमित्र ने दीक्षा ली। मुनिसुव्रत राजा हुए और १५ हजार वर्ष तक राज्य किया। फिर लौकांतिक देवों ने प्रार्थना की जिससे उन्होंने वर्षीदान दे, सुव्रत पुत्र को राज्य सौंप, फाल्गुन सुदि १२ के दिन श्रवण नक्षत्र नीलगुहा नामक उद्यान में एक हजार राजाओं के साथ दीक्षा धारण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। दूसरे दिन मुनिसुव्रत स्वामी ने ब्रह्मदत्त राजा के यहां पारणा किया। चंपा चिर काल तक अन्यत्र विहार कर वे वापिस उसी उद्यान में आये। वृक्ष 'के नीचे उन्होंने कार्योत्सर्ग धारण किया और घातिया कर्मों का नाश कर फाल्गुन वदि १२ के दिन श्रवण नक्षत्र में केवलज्ञान प्राप्त किया। इंद्रादि देवों ने ज्ञानकल्याणक मनाया। एक समय ६० योजन का विहार कर प्रभु भृगुकच्छ (भडूच) नगर में आये। वहां समोशरण की रचना हुई, प्रभु उपदेश देने लगे। उस नगर का राजा ि शत्रु घोड़े पर चढ़कर दर्शनार्थ आया। राजा अंदर गया। घोड़ा बाहर खड़ा रहा। घोड़े ने भी कान ऊंचे कर प्रभु का उपदेश सुना। उपदेश समाप्त होने पर गणधर ने पूछा- 'इस समोशरण में किसी ने धर्म पाया?' प्रभु ने उत्तर दिया- 'जितशत्रु राजा के घोड़े के सिवा और किसीने भी धर्म धारण नहीं किया।' जितशत्रु राजा ने पूछा - 'यह घोड़ा कौन है सो कृपा करके कहिए।' प्रभु ने उत्तर दिया 'पद्मनी खंड नगर में जिनधर्म नाम का एक सेठ था। उसका सागरदत्त नाम का मित्र था। वह हमेशा जैनधर्म सुनने आया करता था। एक दिन उसने व्याख्यान में सुना कि जो अर्हत्बिम्ब बनवाता है, वह जन्मांतर में संसार का मंथन करनेवाले धर्म को पाता है। वह जानकर सागरदत्त ने : श्री मुनिसुव्रत चरित्र : 140 : - Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक जिन - प्रतिमा बनवायी और धूम धाम से साधुओं के पास से उसकी प्रतिष्ठा करवायी। .. सागरदत्त पूर्व में मिथ्यात्वी होने से पहले उसने नगर के बाहर एक शिव का मंदिर बनवाया था। एक बार उत्तरायण पर्व के दिन सागरदत्त वहां गया। उस मंदिर के पूजारी पूजा के लिए पहले के रखे हुए घी के घड़े जल्दी-जल्दी खींचकर उठा रहे थे। बहुत दिन तक एक जगह रखे रहने से घड़ों के नीचे जीव पैदा हो गये थे इसलिए उन्हें खींचकर उठाने से कीड़े मर जाते थे। और कई उनके पैरों के नीचे कुचले जाते थे। यह देखकर सागरदत्त उन कीड़ों को अपने कपड़े से एक तरफ हटाने लगा। उसे ऐसा करते देख एक पूजारी बोला – 'अरे तुझे इन सफेदपोश यतियों ने यह नयी शिक्षा दी है क्या?' और तब उसने पैरों से और भी कोई कीड़ों के कुचल दिया। सागरदत्त दुःखी होकर पूंजारियों के आचार्य के पास गया। आचार्य ने उस पाप की उपेक्षा की। तब सागरदत्त ने विचारा , यह भी निर्दयी है। ऐसे . गुरु की शिक्षा से दुर्गति में जाना पड़ेगा। ऐसा गुरु पत्थर की नाव है। आप संसार-समुद्र में डूबेगा और दूसरों को भी डुबायगा। यद्यपि उसकी शिव पर अश्रद्धा हो गयी थी तो भी वह लोकलाज से शिव-पूजा करता रहा। इस तरह श्रद्धा ढीली होने से उसे सम्यक्त्व न हुआ और वह मरकर घोड़ा हुआ है। मैं उसको बोध कराने के लिए ही यहां पर आया हूं। पूर्व भव में इसने दयामय धर्म पाला था इससे यह क्षणमात्र में धर्म पाया है।' यह सुनकर राजा ने उस घोड़े को सवारी के बंधन से मुक्त कर दिया। उसी. समय मे भडूच शहर में अधावबोध नाम का तीर्थ हुआ। - मुनिसुव्रत स्वामी के तीर्थ में वरुण नाम का यक्ष और वरदत्ता नाम की शासन देधी हुई। १८ गणधर, ३० हजार साधु, ५० हजार साध्वियाँ, ५०० चौदह पूर्वधारी, १८०० अवधिज्ञानी, १५०० मनः पर्यवज्ञानी, १८०० केवली, २००० वैक्रिय लब्धिवाले, १२०० वादलब्धिवाले, १ लाख ७२ हजार श्रावक और ३ लाख ५० हजार श्राविकाएँ थी। निर्वाण काल समीप जानकर प्रभु सम्मेद शिखर पर पधारे। और एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन धारण कर जयेष्ठ वदि ६ के :: श्री तीर्थंकर चरित्र : 141 : Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिन अश्विनी नक्षत्र में मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने मोक्षकल्याणक मनाया। प्रभु ने साढ़े सात हजार वर्ष कौमारावस्था में साढ़े सात हजार वर्ष राज्य कार्य में और १५ हजार वर्ष व्रत पालन में, इस तरह ३० हजार वर्ष की आयु पूर्ण की। उनके शरीर की ऊंचाई २० धनुष थी। मल्लिनाथजी के निर्वाण जाने के बाद चौवन लाख वर्ष बीतने पर मुनिसुव्रत स्वामी मोक्ष में गये। मुनिसुव्रत स्वामी के समय में महापद्म नाम का चक्रवर्ती हुआ। और इनके शासन काल में राम बलदेव, लक्ष्मण वासुदेव और रावण प्रतिवासुदेव हुए। कृपण बना उदार परदेश में समुद्र के किनारे पर एक बार एक धनी, पर कृपण व्यक्ति घुम रहा था। उसका शरीर अस्वस्थ था। औषधिं में रुपये खर्च करने पड़ते थे। उस की वह इच्छा नहीं थी। तभी किसी ने कहा 'एक हवा सौ दवा' उससे वह समुद्र किनारे पैदल घूमने आता था। उस समय एक अमेरिकन करोडपति व्यक्ति वहां से जा रहा था। उसने उसे वहां घूमते देख कुछ सोचकर उसके पास आया और एक कार्ड देकर, कहा कल इस स्थान पर आना तुझे नोकरी पर रख दूंगा। आपघात मत करना। अभी ये दश पौंड ले ले। वह कुछ बोले उसके पूर्व तो वह मोटर में बैठकर चला गया। उस समय उस कृपण की मनोदशा में पलटा आ गया। वह उदार बन गया। कर्म ने पलटा खाया और वह करोडपति कर्जदार बन गया ऐसे समाचार पढ़े। उस उदार बनें व्यक्ति ने वहां जाकर ७० लाख डॉलर का चेक दिया। उसको कर्ज मुक्त कर व्यापार में लगा दिया। वीशमा जिनवर भावे पूजो, तिन लोक में देव न दूजो । निरजर कूट को आप शोभावे, अनशन कर शिवनगरे जावे ॥ : श्री मुनिसुव्रत चरित्र : 142 : Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ . २१. श्री नमिनाथ चरित्र लुटतो नमतां मूर्ध्नि निर्मलीकारकारणम् । वारिप्लवा इव नमः पान्तु पाद-नखांशवः ॥ भावार्थ - नमस्कार करने वालों के मस्तक पर फड़कती हुई और जल के प्रवाह की तरह निर्मल करने में कारणभूत, ऐसी श्रीनमिनाथ प्रभु के चरणों के नख की किरणें तुम्हारा रक्षण करें। प्रथम भव : जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में कौशांबी नाम की नगरी थी। उसमें सिद्धार्थ राजा राज्य करता था। किसी कारण से उसको संसार से वैराग्य हुआ और उसने सुदर्शन मुनि के पास दीक्षा ली एवं बीस स्थानक की आराधना से तीर्थंकर गौत्र बांधा। दूसरा भव :- अंत में शुभध्यान पूर्वक आयु पूर्ण कर वह अपराजित देवलोक में गया। . तीसरा. भव : ___ वहां से च्यवकर सिद्धार्थ का जीव मिथिला नगरी के राजा विजय की रानी वप्रा के गर्भ में, आश्विन सुदि १५ के दिन अश्विनी नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। ___गर्भ का समय पूरा होने पर वप्रा देवी ने, श्रावण वदि ८ के दिन अश्विनी नक्षत्र में नीलकमल लक्षणयुक्त, स्वर्णवर्णी पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी और इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। जिस समय प्रभु गर्भ में थे, उस समय मिथिला को शत्रुओं ने घेर लिया था, उन्हें देखने के लिए वप्रा देवी महल की छत पर गयी। उन्हें देखकर गर्भ के प्रभाव से शत्रु : श्री तीर्थंकर चरित्र : 143 : Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा विजय नृप के चरणों में आ नमे। इससे माता-पिता ने पुत्र का नाम नमिनाथ रखा। प्रभु अनुक्रम से युवा हुए। अनेक राजकन्याओं के साथ माता-पिता के आग्रह से ब्याह किया। ढाई हजार वर्ष के बाद राजा हुए और पांच हजार वर्ष तक राज्य किया। फिर लोकांतिक देवों की विनती से प्रभु ने वरसीदान दिया, सुप्रभ पुत्र को राज्य सौंपा और सहसाम्र वन में जाकर अषाढ कृष्ण ६ के दिन अश्चिनी नक्षत्र में दीक्षा धारण की। इंद्रादि देवों ने दीक्षाकल्याणक मनाया। दूसरे दिन प्रभु ने वीरपुर के राजा दत्त के घर पारणा किया। प्रभु वहां से विहार कर पुनः नौ मास के बाद उसी उद्यान में आये और बोरसली वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग धारण कर मार्गशीर्ष वदि ११ के दिन अश्विनी नक्षत्र में केवलज्ञान पाये। ____नमि प्रभु के तीर्थ में भृकुटि नामक यक्ष और गांधारी नामक शासन देवी थी। उनका संघ इस प्रकार था - १७ गणधर, २० हजार साधु, ४१ हजार साध्वियाँ, ४५० चौदह पूर्वधारी, १ हजार छ: सौ अवधिज्ञानी, १२ सौ ५० मनः पर्यवज्ञानी, १६०० केवली, ५ हजार वैक्रिय लब्धिवाले, १ हजार वाद लब्धिवाले, १ लाख ७० हजार श्रावक और ३ लाख ४८ हजार प्राविकाएँ थी। विहार करते हुए अपना मोक्षकाल समीप जान प्रभु सम्मेद शिखर पर आये। वहां एक हजार मुनियों के साथ एक मास का अनशन धारण कर वैशाख वदि १० के दिन अश्विनी नक्षत्र में मोक्ष गये। इंद्रादि ने निर्वाण कल्याणक मनाया। इनकी आयु कुल १० हजार वर्ष की. थी और शरीरऊंचाई १५ धनुष थी। मुनिसुव्रत स्वामी के निर्वाण जाने के छः लाख वर्ष बाद नमिनाथजी मोक्ष में गये। इसके शासन काल में हरिषेण और जय नामक चक्रवर्ती हुए हैं। जमि जिणंद के चरण कमल में, वंदन करते भावधर दिल में । कूट मित्रधर नाम है इसका, गुण गावू सिद्ध भये जिनका ॥ : श्री नमिनाथ चरित्र : 144 : Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. श्री नेमिनाथ चरित्र यदुवंश-समुद्रेन्दुः, कर्मक्षय-हुताशनः । अरिष्टनेमिभगवान्, भूयादोरिष्टनाशनः ॥ भावार्थ - यदुवंश रूपी समुद्र में चंद्र तथा कर्मरूपी वन को जलाने में अग्नि समान श्री अरिष्टनेमि भगवान तुम्हारे अमंगल का नाश करने वाले हो। . . प्रथम भव :. जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में अचलपुर नामक नगर था। उसका राजा विक्रमधन था। उसको धारिणी नाम की रानी थी। रानी ने एक रात्रि में स्वप्न देखा कि एक पुरुष ने फलों वाले आम्र वृक्ष को हाथ में लेकर कहा कि, यह वृक्ष तुम्हारे आंगन में रोपा जाता है। जैसे-जैसे समय बीतेगा वैसे-वैसे वह अधिक फलवाला होगा और भिन्न-भिन्न स्थानों पर नौ जगह रोपा जायगा। सवेरे शय्या छोड़कर रानी उठी और नित्य कृत्यों से निवृत्त हो उसने स्वप्न का फल राजा से पूछा। राजा ने शीघ्र ही स्वप्ननिमित्तिक को बुलाकर स्वप्न का फल कहने की आज्ञा दी। उसने कहा - 'हे राजन! तुम्हारे अधिक गुणवान पुत्र होगा। और नौ बार वृक्ष रोपा जायगा इसका फल केवली गम्य है।' यह सुनकर राजा और रानी हर्षित हुए। समय पूर्ण होने पर रानी ने पुत्र रत्न को जन्म दिया। पुत्र का नाम 'धन' रखा गया। शिशु काल को त्याग कर उसने यौवनावस्था में पदापर्ण किया। कुसुमपुर नगर में सिंह नामक राजा की विमला रानी के धनवती नामकी कन्या थी। एक दिन वसंत ऋतु में युवती धनवती सखियों के साथ, उद्यान की शोभा देखने को गयी। उस उद्यान में घूमते हुए राजकुमारी ने, अशोक वृक्ष : श्री तीर्थंकर चरित्र : 145 : Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के नीचे हाथ में चित्र लेकर खड़े हुए एक चित्रकार को देखा। धनवंती की कमलिनी नामक दासी ने उसके हाथ से चित्र ले लिया। वह एक अद्भुत रूपवान राजकुमार का चित्र था। सखी ने वह चित्र राजकुमारी को दिया। उसको देखकर आश्चर्य के साथ राजकुमारी ने पूछा – 'यह चित्र किसका है? सुर-असुर मनुष्यों में ऐसा रूपवान कौन है?' .. यह सुन, चित्रकार हंसा और बोला – 'अचलपुर के राजा विक्रमधन के युवा पुत्र (धनकुमार) का यह चित्र है।' राजकुमारी उस रूप पर मोहित हो गयी। और उसने प्रतिज्ञा की कि मैं धन कुमार को छोड़ अन्य किसीके साथ शादी नहीं करूंगी। कन्या के पिता को यह बात मालूम हुई। उसने अपना दूत ब्याह का संदेश लेकर अचलपुर के राजा विक्रमधन के यहां भेजा। वहां जाकर उसने राजा का संदेशा कह सुनाया। राजा ने भी उसे स्वीकारा। धनकुमार और धनवती का ब्याह हो गया। दोनों पति-पत्नी आनंद से समय व्यतीत करने लगे। एक बार वसुंधर नामक मुनि से विक्रम धन ने राणि के स्वप्न का फल पूछा। मुनि ने उत्तर दिया – 'नौ भव कर तुम्हारा पुत्र मोक्ष में जायगा।' . वसंत ऋतु में धनकुमार धनवती के साथ एक सरोवर पर गया। वहां उन्होंने एक स्थान पर एक मुनिराज को अचेत पड़े देखा। अनेक शीतोपचारकर उन्होंने उनकी मूर्छा दूर की। मुनि के सचेत होने पर राजकुमार ने प्रणाम कर उनके अचेत होने का कारण पूछा। मुनि ने सुमधुर स्वर में कहा – 'हे राजन्! मैं अपने गुरु के साथ विहार कर रहा था, इस जंगल में रस्ता भूल गया। भटकते हुए, भूख, प्यास और थकान से मुझे मूर्छा आ गयी।' फिर मुनिराज ने श्रावक धर्म का उपदेश दिया। जिससे धनकुमार ने सम्यक्त्व सहित श्रावकधर्म स्वीकार कर लिया। राजकुमार महलों में गया और मुनि अन्यत्र विहार कर गये। राजकुमार ने चिरकाल तक संसार का सुख भोग, जयंत पुत्र को राज्य सौंप, वसुंधर नामक मुनि के पास दोनों ने दीक्षा ली और चिरकाल तक मुनिव्रत पाला। : श्री नेमिनाथ चरित्र : 146: Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरा भव :- . अनशन सहित आयुपूर्ण धनकुमार व धनवती का जीव सौधर्म देवलोक में देव हुए। तीसरा भव : धनकुमार का जीव वहां से च्यवकर वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में सुरतेज नामक नगर के खेचर राजा श्रीसूर की रानी विद्युन्मति के गर्भ से जन्मा। उसका नाम चित्रगति रखा गया। धनवती का जीव उसी पर्वत की दक्षिण श्रेणी में शिवमंदिर नगर के राजा अनंगसिंह की रानी शशिप्रभा के गर्भ से पुत्री रूप में जन्मी। उसका नाम रत्नवती रखा गया। -- चक्रपुर नगर के राजा सुग्रीव की दो रानियाँ थी। यशस्वी और भद्रा। यशस्वी का पुत्र सुमित्र था और भद्रा का पद्मकुमार। सुमित्रकुमार धर्मात्मा और सदाचारी था। पद्मकुमार मिथ्यात्वी, अहंकारी और व्यसनी था। एक दिन दुष्टा भद्रा रानी ने, यह विचार कर कि यदि सुमित्र जीता रहेगा तो मेरे पुत्र पद्म को राज्य नहीं मिलेगा, सुमित्र को जहर दे दिया। विष के पीते ही सुमिंत्र पृथ्वी पर मूर्छित होकर गिर पड़ा। जहर सारे शरीर में व्याप्त हो गया। जंब यह खबर सुग्रीव राजा को मिली तो वे मंत्री सहित वहां आये। अनेक तरह के उपचार किये पर विष का असर कम न हुआ। राजा बड़े दुःखी हुए। सारे नगर में भद्रा की अपकीर्ति फैल गयी। वह कहीं चुपचाप भाग गयी। ... चित्रगति विद्याधर विमान में बैठ आकाश में फिरने निकला था। घूमते-घूमते वह उसी नगर में आ निकला। कोलाहल सुनकर उसने विमान नीचे उतारा। पूछने पर लोगों ने उसे विष की बात सुनायी। उसने जल मंत्रकर सुमित्र पर छिड़का। राजकुमार सचेत हो गया और आश्चर्य से इधर उधर देखने लगा। राजा ने कहा – 'हे पुत्र! तेरी अपर माता ने (सोतेली मां . ने) तुझको विष दिया था। इन महापुरुष ने तुझको जीवित दान दिया है।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 147 : Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर सुमित्र और उसके पिता ने अनेक प्रकार के कातर वचनों में कृतज्ञता प्रकट की और कुछ दिन अपने यहां रहने की उसने विनती की। चित्रगति ठहरने में अपने को असमर्थ बता सुमित्र को अपना मित्र बना कर चला गया। एक दिन उद्यान में सुयशा नामक केवली पधारें। राजा परिवार सहित उनको वंदना करने गये। वंदना करके राजा यथास्थान बैठ गये। फिर हाथ जोड़ उनसे पूछा – 'हे भगवन्! मेरी दूसरी स्त्री भद्रा कहां पर गयी?' केवली बोले – 'वह यहां से भागकर वन में गयी पर चोरों ने उसके आभूषण लूट लिये और उसे एक भील को सौंप दिया। भीलने उसे एक वणिक को बेच दिया। वह रास्ते में जा रही थी कि जंगल में आंग से जल गयी और मरकर प्रथम नरक में गयी है। यह उसके बुरे कर्मों का फल है।' राजा सुग्रीव को वैराग्य हो गया। उसने उसी समय सुमित्र को राज्य सौंपकर दीक्षा ले ली और केवली के साथ विहार किया। सुमित्र अपने स्थान को गया। सुमित्र की बहन कलिंग देश के राजा के साथ ब्याही गयी थी। उसको अनंगसिंह राजा का पुत्र, रत्नावती का माई कमल, हरकर ले गया। इस समाचार से सुमित्र बहुत क्रुद्ध हुआ और वह युद्ध की तैयारी करने लगा। यह खबर एक विद्याधर के मुख से चित्रगति ने सनी। तब चित्रगति ने उसीके साथ यह संदेशा सुमित्र के पास भेजा – 'हे मित्र! आप कष्ट न करें। मैं थोड़े ही दिनों में आपकी बहन को छुड़ा लाऊंगा।' फिर चित्रगति अपनी सेना लेकर शिवपुर गया। चित्रगति और कमल में घोर युद्ध होने लगा। युद्ध में कमल हार गया, तब उसका पिता अनंगसिंह आया और उसने चित्रगति को ललकारा – 'छोकरे! भाग जा! नहीं तो मेरा यह खड्ग अभी तेरा सिर धड़ से जुदा कर देगा।' चित्रगति ने हंसकर विद्याबल से चारों तरफ अंधेरा कर दिया; अनंगसिंह के पास खड्ग छिन लिया और वह कुछ न कर सका। चित्रगति फिर सुमित्र की बहन को लेकर वहां से चला गया। थोड़ी देरे के बाद जब अंधेरा मिटा तब उसने चारों तरफ देखा तो मालूम हुआ कि चित्रगति तो चला गया है, वह पछताने लगा। फिर उसे मुनि के : श्री नेमिनाथ चरित्र : 148 : Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वचन याद आये कि, जो पुरुष तेरे हाथ से खड्ग छीनेगा वही तेरा जामाता होगा। मगर अब उसे वह कहां ढूंढता? वह अपने घर गया। चित्रगति ने सुमित्र को इसकी बहन लाकर सौंप दी। सुमित्र ने उपकार माना। सुमित्र पहले ही संसार से उदास हो रहा था। इस घटना ने उसके मन से संसार की मोहमाया सर्वथा निकाल दी और उसने सुयशा मुनि के पास दीक्षा ले ली। चित्रगति अपने देश को चला गया। सुमित्र मुनि अनेक बरसों तक विहार करते हुए मगध देश में आये और एक गांव के बाहर एकांत में कायोत्सर्ग करके रहे। सुमित्र का सौतेला भाई पद्म-जो सुमित्र के गद्दी बैठने पर देश छोड़कर चला गया था - भटकता हुआ वहां आ निकला। उसने सुमित्र मुनि को अकेले देखा। उसे विचार आया - यही पुरुष है जिसके कारण से मेरी माता भागी और बुरी हालत में दुःख झेलकर मरी, यही पुरुष है जिसके कारण मैं वन-वन और गांव-गांव, मारा-मारा फिर रहा हूं। आज मैं इसका बदला लूंगा। उसने धनुष पर बाण चढ़ाया और खींचकर मुनि की छाती में मारा। मुनि का ध्यान भंग हो गया। उन्होंने अपनी छाती में बाण और सामने अपना भाई देखा। मुनि को खयाल आया - आह! मैंने इसको राज्य न देकर इसका बड़ा अपकार किया था। उन्होंने कहना चाहा – 'भाई! मुझे क्षमा करो! मगर बोला न गया। बाण के घाव ने असर किया। वह जमीन पर गिर पड़े। दुष्ट पद्म खुश हुआ। मुनि ने भाई से और जगत के सभी जीवों से क्षमा मांगी और संथारा कर लिया। अहँत अहंत कहते हुए वे मरकर ब्रह्मलोक में इंद्र के सामानिक देव हुए। ... पद्म वहां से भागा। अंधेरी रात में कहीं सर्प पर पैर पड़ गया। सर्प ने उसे काटा और वह मरकर सातवीं नरक में गया। सुमित्र की मृत्यु के समाचार सुनकर चित्रगति को बड़ा खेद हुआ। वह यात्रा के लिए अपने पिता के साथ सिद्धायतन पर गया। उस समय और भी अनेक विद्याधर वहां आये हुए थे। अनंगसिंह भी अपनी पुत्री रत्नावती के साथ वहां आया था। चित्रगति जब प्रभु की पूजा स्तुति कर चुका तब देवता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 149 : Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बने हुए सुमित्र ने उस पर फूलों की वृष्टि की। अनंगसिंह ने चित्रगति का वहां पूरा परिचय पाया। • अपने देश जाकर अनंगसिंह ने चित्रगति के पिता श्रीसूर चक्रवर्ती को विवाह का संदेशा कहलाया। श्रीसूर ने संदेशा स्वीकारा और चित्रगति के साथ रत्नावली का विवाह कर दिया। वह सुख से दिन बिताने लगे। __श्रीसूर राजा ने चित्रगति को राज्य देकर दीक्षा ले ली। चित्रगति न्याय से राज्य करने लगा। एक बार उसके आधीन एक राजा मर गया। उसके दो पुत्र थे। वे दोनों राज्य के लिए लड़ने लगे। चित्रगति ने उनको समझाकर शांत किया। कुछ दिन के बाद उसने सुना कि दोनों भाई एक दिन लड़कर मर गये हैं। इस समाचार से उसे संसार से वैराग्य हो गया और उसने पुरंदर नामक पुत्र को राज्य देकर, पत्नी रत्नवती और अनुज मनोगति तथा चपलगति के साथ दमधर मुनि के पास दीक्षा ले ली।' चौथा भव : चिर काल तक तप कर चित्रगति महेन्द्र देवलोक में परमर्द्धिक देवता हुआ। उसके दोनों भाई और उसकी पत्नी भी उसी देवलोक में देवता हुए। पांचवां भव : पूर्व विदेह के पद्म नामक विजय में सिंहपुर नाम का अपराजित शहर था। उसमें हरिनंदी राजा एवं उसकी प्रियदर्शना रानी थी। चित्रगति का जीव देवलोक से च्यवकर प्रियदर्शना के गर्भ से जन्मा। उसका नाम अपराजित रखा गया। ___ जब वह बड़ा हुआ तब, विमलबोध नामक मंत्री-पुत्र के साथ उसकी मित्रता हो गयी। एक दिन दोनों मित्र घोड़ों पर सवार होकर फिरने को निकले। घोड़े बेकाबू हो गये और भागे हुए एक जंगल में जाकर ठहरे। वे घोड़ों से उतरे और जंगल की शोभा देखने लगे। उसी समय एक पुरुष 'बचाओ! बचाओ!' पुकारता हुआ आकर अपराजित के चरणों में गिर पड़ा। अपराजित ने उसे अभय दिया। विमल बोध बोला – 'कुमार! अनजाने : श्री नेमिनाथ चरित्र : 150 : Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किसी को अभय देना ठीक नहीं है। कौन जाने यह पुरुष कुछ गुनाह करके आया हो।' .. अपराजित बोला – 'क्षत्रिय शरण में आये हुए को अभय देते हैं। शरणागत के गुणदोष देखना क्षत्रियों का काम नहीं है। उनका काम है केवल शरण में आये हुए की रक्षा करना। ___ इतने ही में 'मारो! मारो!' पुकारते हुए कुछ सिपाही आये और बोले-'मुसाफिर! इसे छोड़ दो। यह लुटेरा है।' अपराजित बोला – 'यह मेरी शरण में आया है। मैं इसे नहीं छोड़ सकता।' तब हम इसे जबर्दस्ती पकड़कर ले जायेंगे।' कहकर एक सिपाही आगे बढ़ा। अपराजित ने, तलवार खींच ली और कहा – 'खबरदार! आगे बढ़ा तो प्राण जायेंगे।' सब सिपाही आगे आये और अपराजित पर आक्रमण करने लगे। अपराजित अपने को बचाता रहा। जब सिपाहियों ने देखा कि इसको हराना कठिन है तो वे भाग गये। कौशलेश के पास जाकर उन्होंने फरियाद की। कौशलपति ने लुटेरे के रक्षक को पकड़ लाने या मार डालने के लिए फौज भेजी। अपराजित ने सैकड़ों सिपाहियों को यमधाम पहुंचाया। उसके बल को देखकर सेना भाग गयी। तब राजा खुद फौज के साथ आया। घुड़ सवारों और हाथीसवारों ने अपराजित को चारों तरफ से घेर लिया। अपराजित भी घोड़े पर सवार होकर अपना रणकौशल बताने लगा। अपराजित ने खांडा और भाला चलाते हुए अनेकों को धराशायी किया। कौशलपति एक हाथी पर बैठा हुआ था। अपराजित ने हाथी पर भाला चलाया। महावत मारा गया। हाथी घूम गया। दूसरा हाथी सामने आया। अपराजित छलांग मारकर उस हाथी पर जा चढ़ा और उसके सवार व महावत दोनों को मार डाला। राजा 'शाबाश! शाबाश!' पुकार उठा। वीर हमेशा वीरों की प्रशंसा करते हैं। चाहे वह शत्रु ही क्यों न हो। . कौशलपति को उसके मंत्री ने कहा – 'महाराज! यह वीर तो अपने मित्र हरिनंदी का पुत्र है। अनजान में हम युद्ध कर रहे हैं। युद्ध रोकिए।' राजा ने युद्ध रोक दिया और कुमार को अपने पास बुलाया। स्नेह के साथ उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा – 'तुम्हारी वीरता देखकर मैं : श्री तीर्थंकर चरित्र : 151 : Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बड़ा खुश हूं। यह जानकर तो मुझे अधिक खुशी हुई है कि तुम मेरे मित्र हरिनंदी के पुत्र हो।' उसे और विमलबोध को लेकर वह शहर में गया। राजा ने डाकू को माफ कर दिया। और अपराजित के साथ अपनी कन्या कनकमाला का ब्याह कर दिया। अपने मित्र हरिनंदी को भी इसकी सूचना कर दी और यह भी कहला दिया कि अपराजित थोड़े दिन कौशल में ही रहेगा। एक दिन रात में अपराजित अपने मित्र विमलबोध को लेकर किसी को कहे बगैर चुप चाप चल पड़ा। रास्ते में चलते हुए उसने सुना – 'हाय! पृथ्वी क्या आज पुरुषविहीन हो गयी है? अरे! कोई मुझे इस दुष्ट से बचाओ!' अपराजित चौंक पड़ा। उसने घोड़े को आवाज की तरफ.घुमा दिया। जहां से आवाज आयी थी वहां दोनों मित्र पहुंचे। उन्होंने देखा कि अग्निकुंड के पास एक पुरुष एक स्त्री की चोटी एक हाथ से पकड़े और दूसरे हाथ से तलवार उठाये उसे मारने की तैयारी में है।' ... अपराजितने ललकारा – 'नामर्द! औरतों पर तलवार उठाता है? अगर कुछ दम हो तो पुरुषों के साथ दो दो हाथ कर!' वह पुरुष स्त्री को छोड़कर अपराजित पर झपटा। अपराजित ने उसका वार खाली कर दिया। दोनों थोड़ी देर तक असि युद्ध करते रहे। उसकी तलवार टूट गयी, तो अपराजित ने भी अपनी तलवार डाल दी और दोनों बाहुयुद्ध करने लगे। अपराजित से अपने को हारता देख उस विद्याधर ने माया से अपराजित को नागपाश में बांध लिया। पूर्व पुण्य से बली बने हुए अपराजित ने पाशको तोड़ डाले और खड्ग उठाकर उस पर आघात किया। वह जख्मी होकर गिरा और बेहोश हो गया। विमलबोध और अपराजित ने उपचार करके उसको होश कराया। जब उसे होश आया तब अपराजित बोला – 'और भी लड़ने की इच्छा हो तो, मैं तैयार हूं।' वह बोला – 'मैं पूरी तरह से हार गया हूं। आप मेरी थैली में मणी और जडीबुट्टी दवा है, वह मणि के जल में घिसकर मेरे घाव पर लगा दीजिए ताकि मेरे घाव भर जाये।' अपराजित ने औषध लगाया और वह अच्छा हो गया। अपराजित के पूछने पर विद्याधर बोला – 'मेरा नाम सूर्यकांत है : श्री नेमिनाथ चरित्र : 152 : Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ और इस युवति का नाम अमृतमाला है। इसने ज्ञानी से सुना कि, इसका ब्याह हरिनंदी राजा के पुत्र अपराजित के साथ होगा तब से यह उसीके नाम की माला जपती है। मैंने इसे देखा और मेरे साथ ब्याह करने के लिए इसको उड़ा लाया। मैंने बहुत विनती की; मगर यह न मानी। बोली – 'इस शरीर का मालिक या तो अपराजित ही होगा या फिर अग्नि ही से यह शरीर पवित्र बनेगा।' मेरी बात न मानी इसलिए मैंने इसको अग्नि के समर्पण करना स्थिर किया। इसी समय तुम आये और इसकी रक्षा हो गयी।' ___विमलबोध बोला – 'ये ही हरिनंदी के पुत्र अपराजित है। भाग्य में जो लिखा होता है वह कभी नहीं मिटता।' उसी समय रत्नमाला के मातापिता भी ढूंढूंढते हुए वहां आ गये। उन्होंने यह सारा हाल सुना और वहीं कन्या को अपराजित के साथ ब्याह दिया। सूर्यकांत ने अपराजित को वह मणि जडीबूटी और मंत्री पुत्र को वेश बदलने की गुटिका दे दी। अपराजित यह कहकर वहां से विदा हुआ कि जब मैं बुलाऊं तब इसे मेरी राजधानी में भेज देना। वहां से चलकर दोनों मित्र एक जंगल में पहुंचे। धूप तेज थी। प्यास से अपराजित का हलक सूखने लगा। विमलबोध उसको एक झाड़ के नीचे बिठाकर पानी लेने गया। वापिस आकर देखता क्या है कि वहां अपराजित का पता नहीं है। वह चारों तरफ ढूंढने लगा, परंतु अपराजित का कहीं पता न चला। बेचारा विमलबोध आक्रंदन करता हुआ इधर-उधर भटकने लगा। कई दिन ऐसे ही निकल गये। एक दिन एक गांव में वह उदास बैठा था, उसी समय उसके सामने दो पुरुष आये और उसका नाम पूछा। उसने नाम बताया, तब व बोले – 'हम भुवनभानु नामक विद्याधर के नौकर हैं। हमारे राजा के कमलिनी और कुमुदिनी नाम की दो पुत्रियां हैं। उनके लिए अपराजित ही योग्य वर है। ऐसी बात निमित्तिये ने कही थी। इसलिए अपराजित को लाने के लिए हमें हमारे मालिक ने भेजा। हमने तुम्हें वन में देखा और हम अपराजित को उठा ले गये; मगर अपराजित तुम्हारे बगैर मौन धारकर बैठा है। अब तुम चलो और हमारे स्वामी की इच्छा पूरी करो।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 153 : Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलबोध आनंद पूर्वक उनके साथ गया। दोनों मित्र मिलकर बहुत खुश हुए। फिर भुवनभानु की कन्याओं के साथ अंपराजित की शादी हो गयी। कुछ दिन के बाद अपराजित वहां से रवाना हो गया। दोनों मित्र आगे चले। और श्रीमंदिरपुर पहुंचे। वहां उन्होंने शहर में कोलाहल और उदासी देखी। पूछने से मालूम हुआ कि यहां के दयालु राजा को कोई छुरी मार गया है। उसका घाव प्राणहारी हो गया है। अनेक इलाज किये मगर अब तक कोई लाभ नहीं हुआ। अब जान पड़ता है राजा न बचेगा। ____ अपराजित को दया आयी। वह मित्र सहित राजमहल में पहुंचा। उसने सूर्यकांत की दी हुई औषधि घिसकर लगायी और राजा अच्छा हो गया। राजा ने उसका हाल जानकर अपनी कन्या रंभा उसके साथ ब्याह दी। ____ कुछ दिन के बाद अपराजित वहां से मित्र सहित रवाना हुआ और कुंडिनपुर पहुंचा। वहां स्वर्ण कमल पर बैठे देशना देते हुए एक मुनि को उसने देखा। उन्हें वंदना कर वह बैठा और धर्मोपदेश सुनने लगा। देशना समाप्त होने पर अपराजित ने पूछा – 'भगवन मैं भव्य हूं या अभव्य?' केवली ने जवाब दिया-'हे भद्र! तूं भव्य है। इसी जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में बाईसवां तीर्थंकर होगा और तेरा मित्र मुख्य गणधर होगा।' यह सुनकर दोनों को आनंद हुआ। ____ जनानंद नाम के नगर में जितशत्रु नाम का राजा था। उसके धारिणी नाम की रानी थी। रत्नवती स्वर्ग से च्यवकर धारिणी के गर्भ से जन्मी। उसका नाम प्रीतिमती रखा गया। वह संब कलाओं में निपुण हुई। उसके आगे अच्छे-अच्छे कलाकार भी हार मानते थे। इसलिए उसके पिता जितशत्रु ने प्रीतिमती की इच्छा जानकर सब जगह यह प्रसिद्ध कर दिया कि जो पुरुष प्रीतिमती को जीतेगा उसीके साथ उसका ब्याह होगा। और अमुक समय में इसका स्वयंवर होगा। उसी में कलाओं की परीक्षा होगी। स्वयंवर मंडप सजाया गया। अनेक राजा और राजकुमार वहां जमा हुए। प्रीतिमती ने उनसे प्रश्न किये; परंतु कोई जवाब न दे सका। : श्री नेमिनाथ चरित्र : 154 : Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपराजित भी वेश बदले हुए वहां आ पहुंचा था। जब उसने देखा कि सब राजा लोग निरुत्तर हो गये हैं, तब उससे न रहा गया। वह आगे आया और उसने प्रीतिमती के प्रश्नों का उत्तर दिया। प्रीतिमती हार गयी और उसने अपराजित के गले में वरमाला डाल दी। जितशत्रु चिंता में पड़ा,- अफसोस ! मेरी भूल से और अपनी हठ से आज यह सोने की प्रतिमा, इस अनजान राहगीर की पत्नी होगी। उसके भाग्य ! दूसरे राजा लड़ने को तैयार हुए। अपराजित ने उन सबको पराजित कर दिया। सोमप्रभ ने अपने भानजे को पहचाना और उसे गले लगाया। फिर उसने जितशत्रु वगैरा से अपराजित का परिचय करा दिया। उसका परिचय पाकर सबको बडा आनंद हुआ। धूमधाम के साथ अपराजित और प्रीतिमती का ब्याह हो गया। जितशत्रु के मंत्री की कन्या के साथ विमलबोध की भी शादी हो गयी। दोनों सुख से दिन बिताने लगे। कई दिन के बाद हरिनंदी का एक आदमी वहां आया। उसे देखकर अपराजित को बड़ी खुशी हुई। वह उससे गले मिलकर माता पिता का हाल पूछने लगा। आदमी ने कहा 'आपके वियोग में वे मरणासन्न हो रहे हैं। कभी कभी आपके समाचार सुनकर उनको नये जीवन का अनुभव होता है। अभी आपकी शादी के समाचार सुनकर वे बड़े खुश हुए हैं; आपको देखने के लिए आतुर हैं और इसलिए उन्होंने बुलाने के लिए मुझे यहां भेजा है। प्रभु अब चलिये मातापिता को अधिक दुःख न दीजिए । अपराजित को मातापिता का हाल सुनकर दुःख हुआ। वह अपनी पत्नियों को लेकर राजधानी में गया। मातापिता पुत्र को और पुत्रवधुओं को देखकर आनंदित हुए। मनोगति और चपलगति के जीव माहेन्द्र देवलोक से च्यवकर अपराजित के अनुज बंधु हुए। राजा हरिनंदी ने अपराजित को राज्य देकर दीक्षा ली और तप करके वे मोक्ष गये। एक बार अपराजित राजा फिरते हुए एक बगीचे के अंदर आ पहुंचा। वह बगीचा समुद्रपाल नामक सेठ का था । सुख सामग्रियों की उसमें : श्री तीर्थंकर चरित्र : 155 : Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोई कमी न थी। सेठ का लड़का अनंगदेव वहां क्रीडा में निमग्न था। राजा के आने की बात जानकर उसने उनका स्वागत किया। राजा को यह जानकर परम संतोष हुआ कि मेरे राज में ऐसी सुखी और समृद्ध पुरुष हैं। दूसरे दिन राजा जब फिरने निकला तब उसने देखा कि लोग एक मूर्दे को ले जा रहे हैं। वह अनंगपाल का मुर्दा था। राजा को बड़ा खेद हुआ। जीवन की अस्थिरता ने उसको संसार से विरक्त कर दिया। कल शाम को जो परम स्वस्थ और सुख में निमग्न था आज शाम को उसका मुर्दा जा रहा है। यह भी कोई जीवन है? राजा ने प्रीतिमती से जन्मे हुए पद्मनाभ पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ली। उसके साथ ही उसके भाइयों ने और पत्नी प्रीतिमती ने भी दीक्षा ले ली। छट्ठा भव : वे सभी तप कर कालधर्म को प्राप्त हुए और आरण नाम के ग्यारहवें देवलोक में इंद्र के सामानिक देव हुए। , सातवां भव : भरत क्षेत्र के हस्तिानापुर में श्रीषेण नाम का राजा था। उसकी श्रीमती नाम की रानी थी। इसके गर्भ से अपराजित का जीव च्यवकर उत्पन्न हुआ। उसका नाम शंख रखा गया। बड़ा होने पर वह बड़ा विद्वान और वीर हुआ। विमलबोध का जीव भी च्यवकर श्रीषेण राजा के मंत्री गुणनिधि के घर उत्पन्न हुआ। उसका नाम मतिप्रभ रखा गया। शंख और मतिप्रभ की आपस में बहुत मित्रता हो गयी। एक बार राजा श्रीषेण के राज में समरकेतु नामका डाकू लोगों को लूंटने और सताने लगा। प्रजा पुकार करने आयी। राजा उसको दंड देने के लिए जाने की तैयारी करने लगा। कुमार शंख ने पिता को आग्रहपूर्वक रोका और आप उसको दंड देने गया। डाकू को परास्त किया। वह कुमार की शरण में आया। कुमार ने : श्री नेमिनाथ चरित्र : 156 : Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका सारा धन उन प्रजाजनों को दिला दिया जिनको उसने लूटा था। फिर डाकू को माफ.कर उसे अपनी राजधानी में ले चला। रास्ते में शंख का पड़ाव था। वहां रात्रि में उसने किसी स्त्री का करुण रुदन सुना। वह खड्ग लेकर उधर चला। रोती हुई स्त्री के पास पहुंचकर उससे रोने का कारण पूछा। स्त्री ने उत्तर दिया – 'अनंगदेश में जितारी नाम के राजा की कन्या यशोमती है। उसे श्रीषेण के पुत्र शंख पर प्रेम हो गया। जितारी ने कन्या की इच्छा के अनुसार उसकी सगाई कर दी। विद्याधरपति मणिशेखर ने जितारी से यशोमती को मांगा। राजा ने इन्कार किया। तब विद्याधर अपने विद्याबल से उसको हरकर ले चला। मैं भी कन्या के लिपट रही। इसलिए वह दुष्ट मुझ को इस जंगल में डालकर चला गया। यही कारण है कि मैं रो रही हूं।' शंखकुमार उस धाय को अपने पड़ाव में जाने की आज्ञाकर यशोमती को ढूंढने निकला। एक पर्वत पर उसने यशोमती के साथ विद्याधर को देखा और ललकारा। विद्याधर के. साथ शंख का युद्ध हुआ। अंत में विद्याधर हार गया और यशोमती शंख को सौंप दी। शंख के समान पराक्रमी वीर को कई विद्याधरों ने भी अपनी कन्याएँ अर्पण कीं। शंख सबको लेकर हस्तिनापुर गया। मातापिता को अपने पुत्र के पराक्रम से बहुत आनंद हुआ। संख के पूर्व जन्म के बंधु सूर और सोम भी आरण देवलोक से च्यवकर श्रीषेण के घर यशोधर और गुणधर नाम के पुत्र हुए। । राजा श्रीषेण ने पुत्र को राज्य देकर दीक्षा ली। जब उन्हें केवल ज्ञान हुआ तब राजा शंख अपने अनुजों और पत्नी सहित देशना सुनने गया। देशना के अंत में शंख ने पूछा – 'भगवन यशोमती पर इतना अधिक स्नेह मुझे क्यों हुआ?' केवली ने कहा – 'जब तूं धनकुमार था तब यह तेरी धनवती पत्नी थी। सौधर्म देवलोक में यह तेरा मित्र हुआ। चित्रगति के भव में यह तेरी . रत्नवती नामकी प्रिया थी। माहेंद्र देवलोक में यह तेरा मित्र था। अपराजित के भव में यह तेरी प्रीतिमती नाम की प्रियतमा थी। आरण देवलोक में तेरा : श्री तीर्थंकर चरित्र : 157 : Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मित्र था। इस भव में यह तेरी यशोमती नामकी पत्नी हुई है। इस तरह सात भवों से तुम्हारा संबंध चला आ रहा है। यही कारण है कि तुम्हारा आपस में बहुत प्रेम है। भविष्य में तुम दोनों अपराजित नाम के अनुत्तर विमान में जाओगे और वहां से च्यवकर इसी भरतखंड में नेमिनाथ नाम के बाईसवें तीर्थंकर होगें और यह राजीमती नाम की स्त्री होगी। तुमसे ही ब्याह करना स्थिर कर यह कुमारी ही तुमसे दीक्षा लेगी और मोक्ष में जायगी।' ___शंख को वैराग्य हुआ और उसने दीक्षा ले ली। उसके अनुजों ने, मित्रों ने और पत्नी ने भी दीक्षा ली। बीस स्थानक तप आराधनकर उसने तीर्थंकर गोत्र बांधा। आठवां भव : अंत में पादोपगमन अनशन कर शंख मुनि सबके साथ अपराजित नाम के चौथे अनुत्तर विमान में उत्पन्न हुए। . नवां भव (अरिष्ट नेमि) :- . भरत खंड के सौरिपुर नगर में समुद्रविजय नाम के राजा थे। उनकी पत्नी का नाम शिवादेवी था। शिवादेवी को चौदह महा स्वप्न आये और शंख का जीव अपराजित विमान से च्यवकर कार्तिक वदि १२ के दिन चित्रा नक्षत्र में शिवादेवी की कोख में चौदह स्वप्न से सुचित आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। क्रम से नौ महीने और आठ दिन पूरे होने पर श्रावण सुदि ५ के दिन चित्रा नक्षत्र में शिवादेवी ने पुत्ररत्न को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्म कल्याणक मनाया। उनका लंछन शंख का और वर्ण श्याम था। स्वप्न में माता ने अरिष्ट रत्नमयी चक्रधारा देखी थी। इसलिए उनका नाम अरिष्टनेमि रखा। समुद्रविजय के एक भाई वसुदेव थे। उनके श्रीकृष्ण और बलदेव नाम के दो पुत्र हजारों पुत्रों में मुख्य थे। श्रीकृष्ण की वीरता तो जगप्रसिद्ध है। वे वासुदेव थे। श्रीकृष्ण और अरिष्टनेमि चचेरे भाई थे। श्रीकृष्ण बड़े थे और अरिष्टनेमि छोटे। श्रीकृष्ण की एक बहुत बड़ी व्यायामशाला थी। उसमें खास खास व्यक्तियां ही जा सकती थी। उसमें रखे हुए आयुधों का उपयोग : श्री नेमिनाथ चरित्र : 158 : Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करना हरेक के लिए सरल नहीं था। उसमें एक शंख रखा हुआ था। वह इतना भारी था कि अच्छे अच्छे योद्धा भी उसे उठा नहीं सकते थे, बजाने की बात ही क्या थी? एक दिन अरिष्टनेमि फिरते हुए कृष्ण की आयुधशाला में पहुंच गये। उन्होंने इतना बड़ा शंख देखा और कुतूहल के साथ सवाल किया 'यह क्या है ? और यहां क्यों रखा गया है?' - नौकर ने जवाब दिया- 'यह शंख है। पांचजन्य इसका नाम है। यह इतना भारी है कि श्रीकृष्ण के सिवा कोई इसे उठा नहीं सकता है । ' अरिष्टनेमि हंसे और शंख उठाकर बजाने लगे। शंखध्वनि सुनकर शहर कांप उठा। श्रीकृष्ण विचारने लगे, ऐसी शंखध्वनि करनेवाला आज कौन आया है? इंद्र है या चक्रवर्ती ने जन्म लिया है? उसी समय उनको खबर मिली कि, यह काम अरिष्टनेमि का है। उन्हें विश्वास न हुआ। वे खुद गये। देखा कि अरिष्टनेमि इस तरह शंख बजा रहे हैं मानो कोई बच्चा खिलौने से खेल रहा हो। कृष्ण को शंका हुई, कि क्या आज सबसे बलशाली होने का मेरा दावा यह लड़का खारिज कर देगा? उन्होंने इसका फैसला कर लेना ठीक समझकर अरिष्टनेमि से कहा - 'भाई! आओ! आज हम कुश्ती करें। देखें कौन बली है।' अरिष्टनेमि ने विवेक किया – 'बंधु! आप बड़े हैं, इसलिए हमेशा ही बली हैं।' श्रीकृष्ण ने कहा – 'इसमें क्या हर्ज है? थोड़ी देर खेल ही हो जायगा।' अरिष्टनेमि बोले - धूल में लौटने की मेरी इच्छा नहीं है। मगर बलपरीक्षा का मैं दूसरा उपाय बताता हूं। आप हाथ लंबा कीजिए। मैं उसे झुका दूं। और मैं लंबा करूं आप उसे झुकायें। जो हाथ न झुका सकेगा वही कम ताकतवाला समझा जायगा।' - श्रीकृष्ण को यह बात पसंद आयी। उन्होंने हाथ लंबा किया। अरिष्टनेमि ने उनका हाथ इस तरह झुका दिया जैसे कोई बैंत की पतली लकड़ी को झुका देता है।' फिर अरिष्टनेमि ने अपना हाथ लंबा किया; परंतु श्रीकृष्ण उसे न झुका सके। वे सारे बल से उसको झुकाने लगे पर वे इस तरह झूल गये जैसे कोई लोहे के डंडे पर झूलता हो । श्रीकृष्ण का सबसे : श्री तीर्थंकर चरित्र : 159 : Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अधिक बलशाली होने का खयाल जाता रहा। उन्होंने सोचा – 'दुनिया में एकसे एक अधिक बलवान हमेशा जन्मता ही रहता है। फिर बोले – भाई! तुम्हें बधाई है! तुम पर कुटुंब योग्य अभिमान कर सकता है।' .... अरिष्टनेमि युवा हुए; परंतु यौवन का मद उनमें न था। जवानी आयी मगर जवानी की ऐयाश तबीयत उनके पास न थी। वे उदास, दुनिया के कामों में निरुत्साह, सुखसामग्रियों से बेसरोकार और एकांत सेवी थे। उनको अनेक बार राज कारोबार में लगाने की कोशिश की गयी, मगर सब बेकार हुई। शादी करने के लिए उन्हें कितना मनाया गया मगर वे राजी न हुए। श्रीकृष्ण की अनेक रानियां थीं। एक दिन वे सभी जमा हो गयी और अरिष्टनेमि को छेड़ने लगी। एक बोली – 'अगर तुम पुरुष न होते तो ज्यादा अच्छा होता।' दूसरी ने कहा – 'अजी इनके मन लायक मिले तब तो ये शादी करें न?' तीसरी बोली – 'बेचारे यह सोचते होंगे कि, बहू लाकर उसे खिलायेंगे क्या? जो आदमी हाथ पर हाथ धरे बैठा रहे वह दुनिया में किस काम का है?' चौथी ने उनकी पीठ पर मुक्का मारा और कहा - 'अजब गूंगे आदमी हो जी! कुछ तो बोलो। अगर तुम कुछ उद्योग न कर सकोगे तो भी कोई चिंता की बात नहीं है। कृष्ण के सैकड़ों रानियां हैं। वे खाती पहनती हैं तुम्हारी स्त्री को भी मिल जायगा। इसके लिए इतनी चिंता क्यों?' पांचवी ने थनक कर कहा – 'मां बाप बेटे को ब्याह ने के लिए रात दिन रोते हैं; मगर ये हैं कि इनके दिल पर कोई असर ही नहीं होता। जान पड़ता है विधाता ने इनमें कुछ कमी रख दी है।' छट्ठी ने चुटकी काटी और कहा - 'ये तो मिट्टी के पुतले हैं।' अरिष्टनेमि हंस पड़े। इस हंसी में उल्लास था, उपेक्षा नहीं। सब चिल्ला उठी – 'मंजूर! मंजूर!' एक बोली – 'अब साफ कह दो कि शादी करूंगा।' दूसरी ने कहा – 'नहीं तो पीछे से मुकर जाओगे।' तीसरी ने ताना मारा –'हांजी वे पैंदे के आदमी हैं। इनका क्या भरोसा?' चौथी बोली - 'माता पिता की तो यह बात सुनकर वांछे खिल जायेंगी। पांचवी ने कहा - 'श्रीकृष्ण इस खुशी में हजारों लुटा देंगे।' छट्ठी ने कहा - 'अब जल्दी से : श्री नेमिनाथ चरित्र : 160 • Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हां कह दो वरना पढ़ें मंत्र ?' अरिष्टनेमि को यह सब देखकर विशेष हास्य आ गया और उस हास्य को उन्होंने स्वीकृति मान ली। नेमिकुमार ने कोई विरोध नहीं किया। सब दौड़ गयी। कोई समुद्रविजय के पास गयी, कोई माताजी के पास गयी और कोई श्रीकृष्ण के पास गयी। महलों में और शहर में धूम मच गयी। राजा समुद्रविजय ने तत्काल श्रीकृष्ण को कहीं सगायी और ब्याह साथ ही साथ नक्की कर आने के लिए भेजा। श्रीकृष्ण मथुरा के राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ सगाई कर आये और कह आये कि हम थोड़े ही दिनों में ब्याह का नक्की कर लिखेंगे। तुम ब्याह की तैयारी कर रखना। कृष्ण के सौरीपुर आते ही समुद्रविजय ने जोशी बुलाये और उन्हें कहा- 'इसी महीने में अधिक से अधिक अगले महीने में ब्याह का मुहूर्त निकालो।' जोशी ने उत्तर दिया- 'महाराज ! अभी तो चौमासा है। चौमासे में ब्याह शादी वगैरा कार्य नहीं होते। समुद्रविजय अधीर होकर बोले - 'सब' हो सकते हैं। वे क्या कहते हैं कि, हमें न करो। बड़ी कठिनता से अरिष्टनेमि शादी करने को राजी हुआ है। अगर वह फिर मुकर जायगा तो कोई उसे न मनां सकेगा।' जोशी ने 'जैसी महाराज की इच्छा' कहकर सावन सुदि ६ का मुहूर्त निकाला। घर-घर बांदनवार बंधे और राजमहलों में ब्याह के गीत गाये जाने लगे। ब्याहवाले दिन बड़ी धूम के साथ बरात रवाना हुई । अरिष्टनेमि का वह अलौकिक रूप देखकर सब मुग्ध हो गये। स्त्रियां ठगीसी खड़ी उस रूपमाधुरी का पान करने लगी। — बरात मथुरा की सीमा में पहुंची। राजीमती को खबर लगी। वह श्रृंगार अधूरा छोड़ बरात देखने के लिए छत पर दौड़ गयी। गोधूलि का समय था। अस्त होते हुए सूर्य की किरणें नेमिनाथजी के मुकुट पर गिरकर उनके मुखमंडल को सूर्यकासा तेजोमय बना रहा था। राजीमती उस रूप को देखने में तल्लीन हो गयी। वह पास में खड़ी सखि - सहेलियों को भूल गयी, पृथ्वी, आकाश को भूल गयी, अपने आपको भूल गयी। उसके सामने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 161 : Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रह गयी केवल अरिष्टनेमि की त्रिभुवन-मन-मोहिनी मूर्ति। बरात महल के पास आती जा रही थी और राजीमती का हृदय आनंद से उछल रहा था। उसी समय उसकी दाहिनी आंख और भुजा फड़की। राजीमती चौंक पड़ी मानो किसीने पीठ में मुक्का मारा हो। सखियां पास खड़ी थी। एक ने पूछा'बहन! क्या हुआ?' राजीमती ने गद्गद कंठ होकर कहा – 'सखि! दाहिनी आंख और भुजा का फड़कना किसी अशुभ की सूचना दे रहा है। मेरा शरीर भय के मारे पानी-पानी हुआ जा रहा है।' सखियों ने सांत्वना दी - 'अभी थोड़ी ही देर में शादी हो जायगी। बहन घबराओ नहीं। आंख तो वादी से फड़कने लगी है। चलो अब नीचे चलें। बारात बिल्कुल पास आ गयी है।' राजीमती बोली – 'ठहरो, बारात को और पास आ जाने दो; तब नीचे चलेंगी।' राजीमती फिर बरात की ओर देखने लगी। . नेमिनाथ का रथ ज्योंही महल के पास पहुंचा त्योंही उनके कानों में पशुओं का आनंद पड़ा। वे चौंककर इधर-उधर देखने लगे और बोले - 'सारथी! पशुओं की यह कैसी आवाज आ रही है?' सारथी ने जवाब दिया'यह पशुओं का आर्तनाद है। ये कह रहे हैं, हे द्रयालु! हमें छुड़ाओ! हमने किसीका कोई अपराध नहीं किया। क्यों बेफायदा हमारे प्राण लिये जाते हैं?' नेमिनाथजी ने पूछा – 'इनके प्राण क्यों लिये जायेंगे?' सारथि ने जवाब दिया-'आपके बरातियों के लिए इनका भोज़न होगा।' 'क्या कहा? मेरे ही कारण इनके प्राण लिये जायेंगे? ऐसा नहीं हो सकता।' कहकर उन्होंने अपना रथ पशुशाला की तरफ घुमाने का हुक्म दिया।' सारथी ने रथ पशुशाला में पहुंचा दिया। नेमिनाथजी रथ से उतर पड़े और उन्होंने पशुशाला का पीछे का फाटक खोल दिया। पशु अपने प्राण लेकर भागे। क्षणभर में पशुशाला खाली हो गयी। सभी स्तब्ध होकर यह घटना देखते रहे। नेमिनाथजी पुनः रथ पर सवार हुए और हुक्म दिया – 'सौरीपुर चलो। शादी नहीं करूंगा।' सारथी यह हुक्म सुनकर दिग्मूढ़ सा हो रहा। फिर आवाज आयी – 'रथ चलाओ! क्या देखते हो?' सारथी ने लाचार होकर रथ हांका। समुद्र विजयजी, माता शिवादेवी, बंधु श्रीकृष्ण और दूसरे : श्री नेमिनाथ चरित्र : 162 : Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सभी हितैषियों ने आकर रथ को घेर लिया। मातापिता रोने लगे। हितैषी समझाने लगे; मगर अरिष्टनेमि स्थिर थे। श्रीकृष्ण बाले 'भाई! तुम्हारी कैसी दया है? पशुओं की आर्त्तवाणी सुनकर तुमने उन्हें सुखी करने के लिए उनको मुक्त कर दिया; मगर तुम्हारे माता पिता और स्वजनसंबंधी रो रहे हैं तो भी उनका दुःख मिटाने की बात तुम्हें नहीं सूझती। यह दया है या दया का उपहास? पशुओं पर दया करना और मातापिता को रुलाना, यह दया का सिद्धांत तुमने कहां से सीखा ? चलो शादी करो और सबको सुख पहुंचाओ।' - नेमिनाथ बोले – 'पशु चिल्लाते थे, किसी को बंधन में डाले बिना अपने प्राणों की रक्षा करने के लिए और मातापिता रो रहे हैं, मुझे संसार के बंधनों में बांधने के लिए। हजारों जन्म बीत गये। कई बार शादी की, माता पिता को सुख पहुंचाया, स्वजन संबंधियों को खुश किया; परंतु सबका परिणाम क्या हुआ? मेरे लिये संसार भ्रमण। जैसे-जैसे मैं भोग की लालसा में फंसता गया, वैसे ही वैसे मेरे बंधन दृढ़ होते गये। और माता पिता ? वे अपने कर्मों का फल आप ही भोगेंगे। पुत्रों को ब्याह ने पर भी मातापिता दुःखी होते हैं, बली और जवान पुत्रों के रहते हुए भी मातापिता रोगी बनते हैं, एवं मौत का शिकार हो जाते हैं। प्राणियों को संसार के पदार्थों में न कभी सुख मिला है और न भविष्य में कभी मिलेगा ही । अगर पुत्र को देखकर ही सुख होता हो तो मेरें दूसरे भाई हैं। उन्हें देखकर और उनको ब्याह कर वे सुखी हों। बंधु! मुझे क्षमा करो। मैं दुनिया के चक्कर से बिलकुल बेजार हो गया हूं। अब मैं हरगिज इस चक्कर में न रहूंगा। मैं इस चक्कर में घुमानेवाले कर्मों का नाश करने के लिए संयमशस्त्र ग्रहण करूंगा और उनसे निश्चिंत होकर शिवरमणी के साथ शादी करूंगा।' मातापिता ने समझ लिया – 'अब नेमिनाथ न रहेंगे। इनको रोक रखना व्यर्थ है। सबने रथ को रस्ता दे दिया। नेमिनाथ सौरिपुर पहुंचे। उसी समय लोकांतिक देवों ने आकर प्रार्थना की 'प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइए । ' नेमिनाथ तो पहले ही तैयार थे। उन्होंने वार्षिक दान देना आरंभ कर दिया। इस तरफ जब राजीमती को यह खबर मिली कि नेमिनाथजी : श्री तीर्थंकर चरित्र : 163 : - Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शादी करने से मुखमोड़, संसार से उदास हो, दीक्षा लेने के इरादे से सौरीपुर लौट गये हैं तो उसके हृदय पर बड़ा आघात लगा। वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब शीतोपचार करके वह होश में लायी गयी तो करुण आक्रंदन करने लगी। सखियां उसे समझाने लगीं – 'बहन! व्यर्थ क्यों रोती हो? स्नेह-हीन और निर्दय पुरुष के लिए रोना तो बहुत बड़ी भूल है। तुम्हारा उसका संबंध ही क्या है? न उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा है, न सप्तपदी पढ़ी है और न तुम्हारे घर आकर उसने तोरण ही बांधा है। वह तुम्हारा कौन है जिसके लिए ऐसा विलाप करती हो? शांत हो। तुम्हारे लिए सैंकड़ों राजकुमार मिल जायेंगे।' राजीमती बोली – 'सखियों! यह क्या कह रही हो कि वे मेरे कौन है? वे मेरे देवता हैं, वे मेरे जीवन धन हैं, वे मेरे इस लोक और परलोक के साधक हैं। उन्होंने मुझको ग्रहण नहीं किया है, परंतु मैंने उनके चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है। देवता भेट स्वीकार करें या न करें। भक्त का काम तो सिर्फ भेट अर्पण करना है। अर्पण की हुई वस्तु क्या वापिस ली जा सकती है? नहीं बहन! नहीं! उन्होंने जिस संसार को छोड़ना स्थिर किया है मैं भी उस संसार में नहीं रहूंगी। उन्होंने आज मेरा कर ग्रहण करने से मुख मोड़ा है; परंतु मेरे मस्तकर पर वासक्षेप डालने के लिए उनका हाथ जरूर बढ़ेगा। अब न रोऊंगी। उनका ध्यान कर अपने जीवन को धन्य बनाऊंगी।' राजीमती ने हीरों का हार तोड़ दिया, मस्तक का मुकुट उतार कर फैंक दिया, जेवर निकाल निकाल कर डाल दिये, सुंदर वस्त्रों के स्थान में एक सफेद साड़ी पहन ली और फिर वह नेमिनाथ के ध्यान में लीन हो गयी। वार्षिक दान देना समाप्त हुआ। नेमिनाथजी ने सहसाम्र वन में जाकर सावन सुदि ६ के दिन चित्रा नक्षत्र में दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने आकर दीक्षाकल्याणक किया। उनके साथ ही एक हजार राजाओं ने भी दीक्षा ली। दूसरे दिन प्रभु ने वरदत्त ब्राह्मण के घर क्षीर से पारणा किया। नेमिनाथजी के छोटे भाई रथनेमि ने एक बार राजीमती को देखा। वह उस पर आसक्त हो गया और उसको वश में करने के लिए उसके पास : श्री नेमिनाथ चरित्र : 164 : Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेक तरह की भेटें भेजने लगा। राजीमती यद्यपि किन्हीं भेटों का उपभोग नहीं करती थी तथापि उन्हें यह सोचकर रख लेती थी कि ये मेरे प्राणेश्वर के अनुज की भेजी हुई भेटें हैं। कभी-कभी वह समुद्रविजयजी और शिवादेवी के पास जाती। वहां रथनेमी भी उससे मिलता और हंसी मजाक करता। वह निश्चल भाव से उसके परिहास का उत्तर देती और अपने घर लौट जाती। इससे रथनेमि समझता कि, यह भी मुझ पर अनुरक्त है। एक दिन एकांत में रथनेमि ने कहा – 'हे स्त्रियों के गौरवरूप राजीमती! तुम इस वैरागी के वेश में रहकर क्यों अपना यौवन गुमाती हो? मेरा भाई वज्रमूर्ख था। वह तुम्हारी कदर न कर सका। तुम्हारे इस रूप पर, इस हास्य पर और इस यौवन पर हजारों राज, हजारों ताज और वैराग्य के भाव न्योछावर किये जा सकते हैं। मैं तुम्हारे चरणों में अपना जीवन समर्पण करने को तत्पर हूं, मैं शादी करूंगा। तुम मुझ पर प्रसन्न होओ और यह वैरागियों का वेश छोड़ दो।!' राजीमती इसके लिए तैयार न थी। उसके हृदय में एक आघात लगा। वह मूर्छित बैठी रही। जब उसका जी कुछ ठिकाने आया तब वह बोली - 'रथनेमि! मैं फिर किसी वक्त इसका जवाब दूंगी।' . राजीमती बड़ी चिंता में पड़ी। उसे एक उपाय सूझा। उसने मींडल पिसवाया और उसको पुड़िया में बांधकर रथ नेमि के घर का रस्ता लिया। जब वह पहुंची दैवयोग से रथनेमि अकेला ही उसे मिल गया। वह बोली - 'रथनेमि! मुझे बड़ी भूख लगी है। मेरे लिये कुछ खाने को मंगवाओ।' ___रथनेमि ने तुरत कुछ दूध और मिठाई मंगवाये। राजीमती ने उन्हें खाया और साथ ही मींडल की फाकी भी ले ली। फिर बोली – 'एक परात मंगवाओ।' परात आयी। राजीमती ने जो कुछ खाया पिया था सब वमन कर दिया। फिर बोली - 'रथनेमि! तुम इसे पी जाओ।' वह क्रुद्ध होकर बोला'तुमने क्या मुझे कुत्ता समझा है?' राजीमती हंसी और बोली - 'तुम्हारी लालसा तो ऐसी ही मालूम होती है। मुझे नेमिनाथ ने वमन कर दिया है। तुम मेरी लालसा कर रहे हो। यह लालसा वमित पदार्थ खाने ही की तो है। हे रथनेमि! तुमने मेरा जवाब सुन लिया। बोलो अब तुम्हारी क्या इच्छा है?' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 165 : Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रथनेमि ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। राजीमती रथनेमि को अनेक तरह से उपदेश दे अपने घर चली गयी और फिर कभी वह रथनेमि के घर न गयी। वह रात दिन धर्मध्यान में अपना समय बिताने लगी। नेमिनाथ प्रभु चोपन दिन इधर उधर विहार कर पुनः सहसाम्र वन में आये। वहां उन्होंने वेतस (बैंत) वृक्ष के नीचे तेला करके काउसग्ग किया। उन्हें आसोज वदि ३० की रात को चित्रा नक्षत्र में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इंद्रादि देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक मनाने के लिए समवसरण की रचना की। ये समाचार श्रीकृष्ण, समुद्रविजय वगैरा को भी मिले। वे सभी धूम धाम के साथ नेमिनाथ भगवान को वांदने आये। और वंदना कर समवसरण में बैठे। भगवान ने देशना दी। देशना सुनकर अनेकों ने यथायोग्य नियम लिये। श्रीकृष्ण ने पूछा – 'प्रभो! वैसे तो सभी तुम पर स्नेह रखते हैं; परंतु राजीमती तुम्हें सबसे ज्यादा चाहती है। इसका क्या कारण है?' प्रभु ने धन और धनवती के भव से अब तक के नवों भवों की कथा सुनायी। उसे सुनकर सबका संदेह जाता रहा। प्रभु से वरदत्त आदि अनेक पुरुषों ने और स्त्रियों ने भी दीक्षा ली और अनेक पुरुष स्त्रियों ने श्रावक श्राविका के व्रत लिये। इस तरह चतुर्विध संघ स्थापना कर प्रभु वहां से विहार कर गये। भगवान नेमिनाथ विहार करते हुए महिलपुर नगर में पहुंचे। वहां देवकीजी के छः पुत्र-जो सुलसा के घर बड़े हुए थे - रहते थे। उन्होंने धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा ली। एक बार वे सभी द्वारका गये। वहां गोचरी के लिए फिरते हुए दो साधु देवकीजी के घर पहुंचे। उन्हें देखकर देवकीजी बहुत प्रसन्न हुई और प्रासुक आहार पानी दिये। उनके जाने के बाद दूसरे दो साधु आये। वैसा ही रूप रंग देखकर देवकीजी को आश्चर्य हुआ। फिर सोचा, शायद अधिक साधु होने से और आहार पानी की जरूरत होगी। इसलिए फिर से ये आये हैं। देवकीजी ने उन्हें आहारपानी दिया। थोड़ी देर के बाद और दो साधु आये। वही रूप, वर्ह : श्री नेमिनाथ चरित्र : 166 : Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रंग, वही चाल, वही आवाज! देवकीजी से न रहा गया। उसने पूछा – 'मुनिराज! आप क्या रास्ता भूल गये हैं कि बार-बार यहीं आते हैं?' उन्होंने कहा – 'हम तो पहली ही बार यहां आये हैं। देवकीजी को और भी आश्चर्य हुआ। वे बोली – 'तो क्या मुझे भ्रम हुआ है? नहीं भ्रम नहीं हुआ। वे भी बिलकुल तुम्हारे ही जैसे थे।' साधु बोले – 'हम छः भाई हैं। सभी एक से रूप रंगवाले हैं और सभी ने दीक्षा ले ली है। हमारे चार भाई पहले आये होंगे। इसलिए तुम्हें भ्रांति हो गयी है।' देवकीजी ने भगवान से उनका हाल पूछा। उन्होंने उनका हाल सुनाया। सुनकर देवकीजी को दुःख हुआ। वे रोने लगीं – 'हाय! मेरे कैसे खोटे भाग हैं कि मैं अपने एक भी बच्चे का पालना न बांध सकी। उनके बालखेल से अपने मन को सुखी न बना सकी।' भगवान ने समझाया – 'खेद करने से क्या फायदा है? यह तो पूर्व भव की करणी का फल है। पूर्व भव में तुमने अपनी सौत के सात हीरे चुरा लिये थे। वह बेचारी कल्पांत करने लगी। जब वह बहुत रोयी पीटी तब तुमने उसे एक हीरा वापिस दिया। इसी हेतु से तुम्हारे सातों पुत्र तुमसे छूट गये। एक हीरा तुमने वापिस दिया था इसलिए तुम्हारा एक पुत्र तुमको मिला है।' देवकीजी अपने पूर्व भव के बुरे कर्मों का विचार कर मन ही मन दुःखी रहने लगी। - एक बार श्रीकृष्ण ने माता को उदासी का कारण पूछा। देवकीजी ने उदासी का कारण बताया और कहा – 'जब तक मैं बच्चे को न खिलाऊंगी तब तक मेरा दुःख कम न होगा।' श्रीकृष्ण ने माता को संतोष देकर कहां - 'माता कुछ चिंता न करो। मैं तुम्हारी इच्छा पूरी करूंगा।' ___. फिर श्रीकृष्ण ने हरीनैगमेषी देवता की आराधना की। देवता ने प्रत्यक्ष होकर कहा – 'हे भद्र! तुम्हारी इच्छा पूरी होगी। तुम्हारी माता के गर्भ से एक पुत्र जन्मेगा; परंतु जवान होने पर वह दीक्षा ले लेगा।' देवता चला गया। समय पर देवकीजी के गर्भ से एक पुत्र जन्मा। उसका नाम गजसुकुमाल रखा गया। मातापिता के हर्ष का ठिकाना न था। माता को कभी बालक खिलाने का सौभाग्य न मिला था। आज वह सौभाग्य : श्री तीर्थंकर चरित्र : 167 : Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पाकर उनके आनंद की सीमा न रही। लाखों का दान दिया, सारे कैदियों को छोड़ दिया और जहां किसीको दुःखी-दरिद्र पाया उसे निहाल कर · दिया। गजसुकुमाल युवा हुए। माता-पिता ने, उनकी इच्छा न होते हुए भी दो कन्याओं के साथ उनका ब्याह कर दिया। एक राजपुत्री थी। उसका नाम प्रभावती था। दूसरी सोमशर्मा ब्राह्मण की पुत्री थी। उसका नाम सोमा था। कुछ दिन के बाद नेमिनाथ भगवान का समवसरण द्वारका में हुआ। सभी यादवों के साथ गजसुकुमाल भी प्रभु को वंदना करने गये। देशना सुनकर गजसुकुमाल को वैराग्य हो आया और उन्होंने मातापिता की आज्ञा लेकर प्रभु से दीक्षा ले ली। [उनकी दोनों पत्नियों ने भी स्वामी का अनुसरण किया।] जिस दिन दीक्षा ली थी उसी रात को गजसुकुमालं मुनि पास के श्मशान में जाकर ध्यानमग्न हुए।' सोमशर्मा किसी काम से बाहर गया हुआ था। उसने लौटते समय गजसुकुमल मुनि को देखा। उन्हें देखकर उसे बड़ा क्रोध आया, इस पाखंडी को दीक्षा लेने की इच्छा थी तो भी इसने शादी की और मेरी पुत्री को दुःख दिया। इसको इसके पाखंड का दंड देना ही उचित है। वह मसान में जलती हुई चिता में से मिट्टी के एक ठीकरे में आग भर लाया और वह ठीकरा गजसुकुमाल मुनि के सिर पर रख दिया। गजसुकुमाल का सिर जलने लगा; परंतु वे शांति से ध्यान में लगे रहे। इससे उनके कर्म कट गये। उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उसी समय उनका आयुकर्म भी समाप्त हो गया और वे मरकर मोक्ष गये। __ दूसरे दिन श्रीकृष्णादि यादव प्रभु को वंदना करने आये। गजसुकुमाल को वहां न देखकर श्रीकृष्ण ने उनके लिए पूछा। भगवान ने सारा हाल कह सुनाया। सुनकर उन्हें बड़ा क्रोध आया। भगवान ने उन्हें समझाया – 'क्रोध करने से कोई लाभ नहीं है। मगर उनका क्रोध शांत न हुआ। जब वे वापिस द्वारका में जा रहे थे। तब उन्होंने सामने से सोमशर्मा को आते देखा। श्रीकृष्ण का क्रोध द्विगुण हो उठा। वे उसे सजा देने का विचार करते ही थे 1. किसी कथा में विहार कर आने के बाद काउस्सग का वर्णन है। : श्री नेमिनाथ चरित्र : 168 : Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कि, सोमशर्मा का सिर अचानक फट गया और वह जमीन पर गिर पड़ा। उसको सजा देने की इच्छा पूरी न हुई। उन्होंने उसके पैरों में रस्सी बंधवायी, उसे सारे शहर में घसीटवाया और उसको पशुपक्षियों का भोजन बनने के लिए जंगल में फिंकवा दिया। गजसुकुमाल की दशा से दुःखित होकर अनेक यादवों ने, वसुदेव के बिना नौ दशा)ने, प्रभु की माता शिवादेवी ने, प्रभु के सात सहोदर भाइयों ने, श्रीकृष्ण के अनेक पुत्रों ने, राजीमती ने, नंद की कन्या एकनाशा ने और अनेक यादव स्त्रियों ने दीक्षा ली। उसी समय श्रीकृष्ण ने नियम लिया था कि, मैं अब से किसी कन्या का ब्याह न करूंगा, इसलिए उनकी अनेक कन्याओं ने भी दीक्षा ले ली। कनकवती, रोहिणी और देवकी के सिवा वसुदेव की सभी पत्नियों ने दीक्षा ली। कनकवती संसार में रहते हुए भी वैराग्यमय जीवन बिताने लगी। इससे उसके घातिया कर्मों का नाश हुआ और उन्हें केवलज्ञान की प्राप्ति हुई। फिर वे अपने आप दीक्षा लेकर वन में गयी। एक महीने का अनशन कर उन्होंने मोक्ष पाया। . एक बार श्रीकृष्ण ने प्रभु से पूछा.– 'भगवन्! आप चौमासे में विहार क्यों नहीं करते हैं?' भगवान ने उत्तर दिया – 'चौमासे में अनेक जीवजंतु उत्पन्न होते हैं। विहार करने से उनके नाश की संभावना रहती है। इसीलिए साधु लोग चौमासे में विहार नहीं करते हैं। श्रीकृष्ण ने भी नियम लिया कि मैं भी अंबसे चौमासे में कभी बाहर नहीं निकलूंगा। एक बार नेमिनाथ प्रभु के साथ जितने साधु थे उन सबको श्रीकृष्ण द्वादशावर्त वंदना करने लगे। उनके साथ दूसरे राजा और वीरा नाम का जुलाहा-जो श्रीकृष्ण का बहुत भक्त था-भी वंदना करने लगे। और तो सब थककर बैठ गये; परंतु वीरा जुलाहा तो श्रीकृष्ण के साथ वंदना करता ही रहा। जब वंदना समाप्त हो चुकी तो श्रीकृष्ण ने प्रभु से विनती की – 'आज मैं इतना थका हूं कि जितना ३६० युद्ध किये उसमें भी नहीं थका था।' प्रभु ने कहा-'आज तुमने बहुत पुण्य उपार्जन किया है। तुमको क्षायिक सम्यक्त्व हुआ है, तुमने तीर्थंकर नामकर्म बांधा है, सातवीं नारकी के योग्य कर्मों को : श्री तीर्थंकर चरित्र : 169 : Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ खपाकर तीसरी नारकी के योग्य आयुकर्म बांधा है। उसे तुम भव के अंत निकाचित करोगे।' श्रीकृष्ण बोले - 'मैं एक बार और वंदना करूं कि जिससे नरकायु के योग्य जो कर्म हैं वे सर्वथा नष्ट हो जायें ।' भगवान बोले- 'अब तुम जो वंदना करोगे वह द्रव्यवंदना होगी। फल भाववंदना का मिलता है द्रव्यवंदना का नहीं। तुम्हारे साथ वीरा जुलाहे ने भी वंदना की है, मगर उसको कोई फल नहीं मिला। कारण उसने वंदना करने के इरादे से वंदना नहीं की है; केवल तुम्हें खुश करने के इरादे से तुम्हारा अनुकरण किया है। श्रीकृष्ण अपने घर गये। एक बार विहार करते हुए प्रभु गिरनार पर गये। वहां से रथनेमि आहारपानी लेने गये थे; मगर अचानक बारिश आ गयी और रथनेमि एक गुफा में चले गये। राजीमती और अन्य साध्वियां भी नेमिनाथ प्रभु को वंदन कर लौट रही थी; बरसात के कारण, सभी इधर उधर हो गयी। राजीमती उसी गुफा में चली गयी जिसमें रथनेमि थे। उसे मालूम नहीं था कि रथनेमि भी इसी गुफा में है। वह अपने भीगे हुए कपड़े उतारकर सुखाने लगी। रथनेमि उसे देखकर कामातुर हो गये और आगे आये। राजीमतीने पैरों की आवाज सुनकर झटसे गीला कपड़ा ही वापिस ओढ़ लिया। रथनेमि ने प्रार्थना की – 'सुंदरी ! मेरे हृदय में आगसी लग रही है। तुम तो सभी जीवों को सुखी करने का नियम ले चुकी हो। इसलिए मुझे भी सुखी करो।' संयमधारिणी राजीमती बोली- 'रथनेमि ! तुम मुनि हो, तुम तीर्थंकर के भाई हो, तुम उच्च वंश की संतान हो, तुम्हारे मुख में ऐसे वचन नहीं शोभते। ये वचन तो पतित, नीच और असंयमी लोगों के योग्य हैं, ये तो संयम की विराधना करनेवाले हैं; ऐसे वचन उच्चारण करना और ऐसी घृणित लालसा रखना मानो अपने पशु स्वभाव का प्रदर्शन कराना है। मुनि! प्रभु के पास जाओ और प्रायश्चित लो। ' रथनेमि मोहमुग्ध हो गये थे। उन्हें होश आया। वे अपने पतन पर पश्चात्ताप कर राजीमती से क्षमा मांग प्रभु के पास गये। वहां जाकर उन्होंने : श्री नेमिनाथ चरित्र : 170 : Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु के सामने अपने पापों की आलोचना कर प्रायश्चित्त लिया। फिर वे चिर काल तक तपस्या कर, केवलज्ञान पाकर मोक्ष में गये। अन्यदा प्रभु विहार कर द्वारिका आये। तब विनयी कृष्ण ने देशना के अंत में पूछा – 'हे करुणानिधि! कृपा करके बताइए कि, मेरा और द्वारका का नाश कैसे होगा?' भगवान् बोले – 'भावी प्रबल है। वह होकर ही रहता है। सौरीपुर के बाहर पाराशर नामक एक तपस्वी रहता है। एक बार वह यमुना द्वीप गया था। वहां उसने किसी नीच कन्या से संबंध किया। उससे द्वीपायन नाम का एक पुत्र हुआ है। वह पूर्ण संयमी और तपस्वी है। यादवों के स्नेह के कारण वह द्वारका के पास ही वन में रहता है। शांब आदि यादव कुमार एक बार वन में जायेंगे और मदिरा में मत्त होकर उसे मार डालेंगे। वह मरकर अग्निकुमार देव होगा सारी द्वारका को और यादवों को जलाकर भस्म कर देगा। तुम जंगल में अपने भाई जराकुमार के हाथ से मारे जाओगे।' ... बलदेव के सिद्धार्थ नाम का सारथी था। उसने बलदेव से कहा - . 'स्वामिन्! मुझ से द्वारका का नाश न देखा जायगा। इसलिए कृपा कर मुझे दीक्षा लेने की अनुमति दीजिए।' बलदेव बोले - 'सिद्धार्थ! यद्यपि तेरा वियोग मेरे लिये दुःखदायी होगा; परंतु मैं शुभ काम में विघ्न न डालूंगा। हां तप के प्रभाव से तूं मरकर अगर देवता हो तो मेरी मदद करना।' उसने यह बात स्वीकार की और दीक्षा ले ली। - भगवान के इतना परिवार था वरदत्तादि ग्यारह गणधर, १८ हजार महात्मा साधु, चालीस हजार साध्वियाँ, ४ सौ चौदह पूर्वधारी, १५ सौ अवधिज्ञानी, १५ सौ वैक्रिय लब्धिवाले, १५ सौ केवली, एक हजार मनःपर्यवज्ञानी, ८ सौ वादलब्धिवाले, १ लाख ६६ हजार श्रावक और ३ लाख ३६ हजार श्राविकाएँ। इसी तरह गोमेध नाम का यक्ष और अंबिका नाम की शासनदेवी थी। विहार करते हुए अपना निर्वाणकाल समीप जान प्रभु रैवतगिरि (गिरनार) पर गये और वहां ५३६ साधुओं के साथ पादोपगमन अनशन कर : श्री तीर्थंकर चरित्र : 171 : Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आषाढ शुक्ला ८ के दिन चित्रा नक्षत्र में मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने निर्वाण कल्याणक मनाया। राजीमती आदि अनेक साध्वियां भी केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष में गयी। राजीमती की कुल आयु ६०१ वर्ष की थी। वे ४ सौ वर्ष कौमारावस्था में, एक वर्ष संयम लेकर छद्मस्थावस्था में और ५ सौ वर्ष केवली अवस्था में रही थी। भगवान नेमिनाथ तीन सौ वर्ष कौमारावस्था में और ७ सौ वर्ष साधुपर्याय में रहे, १ हजार वर्ष की आयु बिता, नमिनाथजी के मोक्ष जाने के बाद पांच लाख वर्ष बीते तब, मोक्ष गये। उनका शरीर प्रमाण १० धनुष था। ___ भगवान नेमिनाथ के तीर्थ में नवें वासुदेव कृष्ण, नवें बलदेव बलभद्र और नवें प्रति-वासुदेव जरासंघ हुए हैं। साधु और स्वर्ण मोहरें अकबर बादशाह के समय की बात है। अकबर धर्म कार्य में दान पुण्य पर आस्थावाला था। उसे साधु-संतो पर प्रीति थी। एक दिन उसने सोचा आज साधु-संतों में सो सोना मुहरें का दान करवा दं, और बीरबल जो साधु-संतों का भक्त था। उसे बुलाकर कहा-जा ये सो स्वर्ण मोहरें साधु-संतों को दक्षिणा दान में देकर आजा। बीरबल दिन भर घूमकर थेली वापिस ले आया। अकबर ने पूछा – यह क्या? कोई साधु-संत नगर में नहीं है? उसने कहा साधु-संत बहुत है। तो फिर वापिस क्यों ले आया? बीरबल ने कहा-आपने साधु-संतों को देने का कहा था। मैं गया तो साधु-संत तो स्वर्ण का स्पर्श भी नहीं करते और जो केवल साधु के वेश में थे। उनको देने से धर्म थोड़ा ही होता है। अतः मैं वापिस ले आया। तीन कल्याणक रैवतरिगि पर, दीक्षा केवल अंतिम सुनवकर । नेमिनाथ बाल ब्रह्मचारी, वंदना हो नित प्रति हमारी ॥ : श्री नेमिनाथ चरित्र : 172 : Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३. श्री पार्श्वनाथ चरित्र कमटे धरणेन्द्रे च, स्वोचितं कर्म कुर्वति । प्रभुस्तुल्यमनोवृत्तिः पार्थनाथः श्रियेऽस्तु वः ॥ भावार्थ - अपने स्वभाव के अनुसार कार्य करनेवाले कमठ और धरणेन्द्र पर समान भाव' रखने वाले पार्श्वनाथ प्रभु तुम्हारा कल्याण करें। प्रथम भव (मरुभूमि) : - जंबूद्वीप के भरत क्षेत्र में पोतनपुर नाम का नगर था। उसमें अरविंद नाम का राजा राज्य करता था। उसके परम श्रावक विश्वभूति नामक ब्राह्मण पुरोहित था। उसकी अनुद्धरा नाम की पत्नी के गर्भ से कमठ और मरुभूमि नाम के दो पुत्र उत्पन्न हुए। ... वे जब जवान हुए तब मातापिता ने उनका ब्याह करवा दिया। कमठ की स्त्री का नाम वरुणा था और मरुभूमि की स्त्री का नाम वसुंधरा। वसुंधरा दोनों में अधिक रूपवती थी। भाइयों में कमठ लंपट था और मरुभूमि सदाचारी। ___समय पर विश्वभूति और अनुद्धरा दोनों स्वर्गवासी हुए। कमठ संसाररत और क्रियाशील मनुष्य था। वह राजा की नौकरी करने लगा। संसारविमुख मरुभूमि धर्मध्यान में लीन हुआ और ब्रह्मचर्य पालन करता हुआ प्रायः पौषधशाला में रहने लगा। युवती वसुंधरा अपने यौवन को भोगविहीन जाते देख, मन ही मन दुःखी होती; परंतु अपने पति के धर्ममय जीवन में विघ्न डालने का यत्न न करती। इतना ही क्यों? वह भी यथासाध्य अपना समय 1. कमठ ने प्रभु को दु:ख दिया था और धरणेन्द्र ने प्रभु की दुःख से रक्षा की थी; परंतु भगवान ने न कमठ पर रोष किया था और न धरणेन्द्र पर प्रसन्नता दिखायी थी। दोनों पर उनके द्वेष और राग रहित समान भाव थे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 173 : Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मकार्यों में बिताती। लंपट कमठ को अपने भाई की वैराग्यदशा का हाल मालूम हुआ। उसने वसुंधरा पर डोरे डालने आरंभ किये। एक दिन उसने वसुंधरा को एकांत में पकड़ लिया। भोग की इच्छा रखनेवाली वसुंधरा भी थोड़ा विरोध करने के बाद उसके अधीन हो गयी! उसने अपना शील भोगेच्छा के अर्पण कर दिया। अब तो वे प्रायः विषयभोग में लीन रहने लगे। कमठ की स्त्री वरुणा को यह हाल मालूम हुआ। उसने दोनों को बहुत फटकारा; परंतु उन पर इसका कोई असर न हुआ। तब उसने यह बात अपने देवर मरुभूमि से कही। मरुभूमि ने यह बात न मानी और अपनी आंख से यह बात देखनी चाही। मरुभूति ने बाहर गांव जाने का कहकर कार्पटिक के वेष में आकर घर में रात रहकर दोनों की लीला नजरों से देखी। मरुभूमि को बड़ा क्रोध आया और उसने सवेरे ही जाकर राजा से फरियाद की। धर्म और न्याय के प्रेमी राजा को यह अनाचार अंसह्य हुआ और उसने कमठ का काला मुंह करवा कर, उसका सिर मुंडवाकर, उसे गधे पर बिठवा कर, सारे शहर में फिरवा कर; शहर बाहर निकलवा दिया। वह मरुभूमि पर अत्यंत क्रुद्ध हो, वन में जा, बालतप करने लगा। . सरल परिणामी मरुभूमि जब उसका क्रोध कम हुआ तो सोचने लगा-'मैंने यह क्या अनर्थ किया? जीव को अपने पापों का फल आप ही मिल जाता है। मेरे भाई को भी अपने पापों का फल आप ही मिल जाता। मैंने क्यों राजा से फरियाद की? न मैं फरियाद करता न मेरे भाई को दंड मिलता। चलूं, जाकर भाई से क्षमा मांगू। मरुभूमि ने जाकर राजा से अपने मन की बात कही। राजा ने उसको बहुत समझाया कि दुष्ट स्वभाववाले कभी क्षमा का गुण नहीं समझते हैं। अभी वह तुम पर बहुत गुस्से हो रहा है। संभव है वह तुम पर चोट करे; परंतु वह यह कहकर चला गया कि, अगर वह अपने दुष्ट स्वभाव को नहीं छोड़ता है तो मैं अपने सरल स्वभाव को क्यों छोडूं? मरुभूमि ज्योंही कमठ के पास पहुंचा त्योंही कमठ का क्रोध भभक उठा। और वह मरुभूमि का तिरस्कार करने लगा। मरुभूमि ने नम्रतापूर्वक क्षमा मांगी और नमस्कार किया। इसको कमठ ने अपना उपहास समझा। : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 174 : Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वह और भी अधिक खीझ गया। उसने पास में पड़ा हुआ एक बड़ा पत्थर उठा लिया और मरुभूमि के सिर पर दे मारा। इसका सिर फट गया। वह पीडा से व्याकुल हो छटपटाने लगा और आर्त ध्यान में मरा। दूसरा भव (हाथी) : अंत में आर्तध्यान में मरा इससे वह पशु योनि में जन्मा और विंध्यगिरि में यूथपति हाथी हुआ। एक दिन पोतनपुर के राजा अरविंद अपनी छत पर बैठे हुए थे। आकाश में घनघोर घटा छायी हुई थी। बिजली चमक रही थी। इंद्रधनुष तना हुआ था। आकाश बड़ा सुहावना मालूम हो रहा था। उसी समय जोर की हवा चली। मेघ छिन्न भिन्न हो गये। बिजली की चमक जाती रही और इंद्रधनुष का कहीं नाम निशान भी न रहा। राजा ने सोचा, जीवन सुख-धनघटा भी इसी तरह आयु समाप्ति की हवा से नष्ट हो जायगी। इसलिए जीवन समाप्ति के पहले जितना हो सके उतना धर्म कर लेना चाहिए। राजा. अरविंद ने समंतभद्राचार्य के पास दीक्षा ले ली। उन्हें अवधिज्ञान हुआ। एक दिन अरविंद मुनि सागरदत्त सेठ के साथ अष्टापदजी पर वंदना करने चले। रास्ते में उन्होंने एक सरोवर के किनारे पड़ाव डाला। सभी स्त्री पुरुष अपने-अपने काम में लगे। अरविंद मुनि एक तरफ कायोत्सर्ग ध्यान में लीन हो गये। ___ मरुभूमि हाथी सरोवर पर आया। पानी में खूब कल्लोलें कर वापिस चला। सरोवर के किनारे पड़ाव को देखकर वह उसी तरफ झपटा। कइयों को पैरों तले रौंदा और कइयों को सूंड में पकड़कर फेंक दिया। लोग इधर उधर अपने प्राण लेकर भागे। अरविंद मुनि ध्यान में लीन खड़े रहे। हाथी उन पर झपटा; मगर उनके पास जाकर एकदम रुक गया। मुनि के तेज के सामने हाथी की क्रूरता जाती रही। वह मुनि के चेहरे की तरफ चुपचाप देखने लगा। ___मुनि काउसग्ग पार कर बोले – 'हे मरुभूति! अपने पूर्व भव को याद कर। मुझ अरविंद को पहचान। अपने बुरे परिणामों का फल हाथी होकर भोग रहा है। अब हत्याएँ करके क्या पाप को और भी बढ़ाना चाहता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 175 : Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है ?' मरुभूमि को मुनि के उपदेश से जातिस्मरण ज्ञान हो गया। वह मुनि से श्रावक व्रत अंगीकार कर रहने लगा । कमठ की स्त्री वरुणा भी हथिनी हुई थी। उसने भी सारी बातें सुनीं और उसे भी जातिस्मरण ज्ञान हो आया। सेठ के साथ के अनेक मनुष्य तप का प्रभाव देखकर मुनि हो गये। संघ वहां से अष्टापद की तरफ चला गया। अब मरुभूमि हाथी संयम से रहने लगा। वह सूर्य के आताप से तपा हुआ पानी पीता और पृथ्वी पर गिरे हुए सूखे पत्ते खाता । ब्रह्मचर्य से रहता और कभी किसी प्राणी को नहीं सताता । रातदिन वह सोचता- मैंने कैसी भूल की कि, मनुष्य भव पाकर उसे व्यर्थ खो दिया। अगर मैंने पहले समझकर संयम धारण कर लिया होता तो यह पशु पर्याय मुझे नहीं मिलती। संयम के कारण उसका शरीर सूख गया था। उसकी शक्ति क्षीण हो गयी थीं। वह ईर्या समिति के साथ चलता था और एक कीड़ी को भी तकलीफ न हो इस बात का पूरा ध्यान रखता था । एक दिन पानी पीने गया। वहीं दलदल में फंस गया। उससे निकला न गया। उधर कमठ के उस हत्यारे काम से सारे तापस उससे नाराज हुए और उसे अपने यहां से निकाल दिया। वह भटकता हुआ मरकर साँप हुआ। वह सांप फिरता हुआ वहां आ निकला जहां मरुभूमि हाथी फंसा हुआ था। उसने मरुभूमि को देखा और काट खाया। तीसरा भव (सहस्रार देवलोक में देव ) : मरुभूमि ने अपना मृत्युकाल समीप जान सब माया-ममतादि का त्याग कर दिया। मरकर वह सहस्रार देवलोक में संग्रह सागरोपम की आयुवाला देव हुआ। हथिनी वरुणी भी भाव तप कर मरी और दूसरे देवलोक में देवी हुई। फिर वह दूसरे देवलोक के देवों को छोड़ सहस्रार देवलोक में मरुभूमि के जीव देव की देवांगना बनकर रही । कमठ का जीव भी मरकर पांचवें नरक में सत्रह सागरोपम की आयुवाला नारकी हुआ। चौथा भव (किरण वेग ) : प्राग्विदेह के सुकच्छ नामक प्रांत में तिलका नाम की नगरी थी। : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 176 : Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसमें विद्युद्गति नाम का खेचर राजा था। उसकी रानी कनकतिलका के गर्भ से, मरुभूति का जीव देवलोक से च्यवकर, पैदा हुआ। मातापिता ने उसका नाम किरणवेग रखा। युवा होने पर पद्मावती आदि राजकन्याओं से उसका ब्याह किया गया। कुछ काल के बाद विद्युद्गति ने किरणवेग को राज्य देकर दीक्षा ले ली। किरणवेग की पट्टरानी पद्मावती के गर्भ से किरणतेज नाम का पुत्र पैदा हुआ। एक बार सुरगुरु नामक मुनि उस तरफ आये। उनकी देशना सुनकर किरणवेग को वैराग्य हो आया और उसने दीक्षा ले ली। किरणवेग मुनि अंगधारी हुए। गुरु की आज्ञा लेकर एकल विहार करने लगे। अपनी आकाशगमन की शक्ति से वे पुष्कर द्वीप में गये। वहां शाश्वत अर्हतों को नमस्कार कर वैताढ्य गिरि के पास हेमगिरि पर्वत पर तीव्र तप करते हुए समता में मग्न रहकर अपना काल बिताने लगे। __कमठ का जीव पांचवें नरक से निकल कर उसी हिमगिरि की गुफा में एक भयंकर सर्प के रूप में जन्मा था। वह यमराज की तरह प्राणियों का नाश करता हुआ वन में फिरने लगा। एक वक्त वह फिरता हुआ उस गुफा में चला गया जहां किरणवेग मुनि ध्यान में लीन थे। उन्हें देखकर उसे पूर्व जन्म कां वैर याद आया। उसने उनको लिपट कर चार पांच जगह शरीर में काटा। उनके सारे शरीर में भयंकर जहर व्याप्त हो गया। - मुनि सोचने लगे – 'यह सर्प मेरा बड़ा उपकार करनेवाला है। मुझे जल्दी या देर में अपने कर्म काटने ही थे। इस सर्प ने मुझे मेरे कर्म काटने में बड़ी मदद की है। उन्होंने चौरासी लाख जीवयोनि के जीवों को खमाया और चारों आहारों का त्याग कर दिया। कुछ देर के बाद वे ऐसे मूर्छित हुए. कि फिर न उठे। पांचवां भव (देवलोक में देव) : मरुभूति का जीव किरणवेग के भव में शुभ भावों से आयु पूर्ण कर और बारहवें देवलोक में जंबूद्रुमावत नाम के विमान में बाईस सागरोपम की आयुवाला देवता हुआ और सुख भोगने लगा। - कमठ का जीव महासर्प की योनि में जलकर मरा और तमः – प्रभा : श्री तीर्थंकर चरित्र : 177 : Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम के नरक में, बाईस सागरोपम की आयु और ढाई सौ धनुष की कायावाला नारकी जीव हुआ। छट्ठा भव : जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में सुगंध नाम की विजय है। उसमें शुभंकरा नाम की एक नगरी है। उसमें वज्रवीर्य नाम का राजा राज्य करता था। उसकी लक्ष्मीवती नाम की रानी के गर्भ से मरुभूमि का जीव देवलोक से च्यवकर जन्मा। उसका नाम वज्रनाभ रखा गया। युवा होने पर ब्याह हुआ। कुछ काल के बाद वज्रवीर्य राजा ने वज्रनाभं को राज्यं देकर दीक्षा ले ली। वज्रनाभ के कुछ काल के बाद चक्रायुध नाम का पुत्र हुआ। जब वह बड़ा हुआ तब राजा वज्रनाभ ने चक्रायुध को राज्य ट्रेकर क्षेमंकर तीर्थंकर के पास दीक्षा ले ली। अनेक तरह की तपस्याएँ करने से मुनि को आकाशगमन की लब्धि मिली। एक बारं वज्रनाभ मुनि आकाशमार्ग से सुकच्छ विजय में गये। कमठ का जीव भी नरक से निकल कर सुकच्छ विजय के ज्वलन गिरि के भयंकर जंगल में भील के घर जन्मा। उसका नाम कुरंगक रखा गया। जब वह जवान हुआ तब महान शिकारी बना। वज्रनाभ मुनि फिरते हुए ज्वलनगिरि की गुफा में जाकर कायोत्सर्ग करके रहे। नाना भांति के भयावने पशुपक्षी रातभर बोलते और उनके आसपास फिरते रहे; परंतु मुनि स्थिर रहे और ध्यान से चलित न हुए। सवेरे ही जिस समय वे कायोत्सर्ग छोड़कर गुफा में से निकले उसी समय कुरंगक नाम का भील भी धनुषबाण लेकर घर से रवाना हुआ। उसे सामने मुनि दिखे। उन्हें देखकर भील को बड़ा गुस्सा आया। इस भिक्षुक ने सवेरे ही सवेरे मेरा शकुन बिगाड़ दिया है, यह सोचकर उसने उन्हीं को सबसे पहले अपने बाण का निशाना बनाया। बाण लगते ही वे अर्हत पुकारकर पृथ्वी पर गिर पड़े। सब जीवों से उन्होंने क्षमत क्षामणा किये और मन को सब तरह से व्यापारों से हटाकर आत्मध्यान में लीन कर दिया। : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 178 : Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सातवां भव (ललितांग देव) : राजर्षि वज्रनाभ शुभ ध्यान पूर्वक आयु पूर्ण कर मध्यप्रैवेयक देवलोक में ललितांग नामक देव हुए। कमठ का जीव कुरंगक भील भी उम्रभर शिकार में जीवन बिता अशुभ ध्यान से मरा और रोरव नाम के सातवें नरक में नारकी हुआ। आठवां भव (सुवर्णबाहु) : जंबूद्वीप के पूर्वविदेह में पुराणपुर नाम का नगर है। उसमें इंद्र के समान प्रतापी कुलिशबाहु राजा राज्य करता था। उसकी सुदर्शना नाम की रानी के गर्भ में, वज्रनाम का जीव देवलोक से च्यवकर उत्पन्न हुआ। समय पर जन्म होने पर उसका नाम सुवर्णबाहु रखा गया। - जब सुवर्णबाहु जवान हुए तब उनके पिता कुलिशबाहु ने उन्हें राज्यगद्दी पर बिठाकर, दीक्षा ले ली। . एक दिन सुवर्णबाहु घोड़े पर सवार होकर फिरने निकला। घोड़ा बेकाबू हो गया और राजा को एक वन में ले गया। उसके साथी सब छूट गये। एक सरोवर के पास जाकर घोड़ा खड़ा हो गया। सुवर्णबाहु थक गया था। घोड़े से उतर पड़ा। उसने सरोवर से निर्मल जल पिया, घोड़े को पिलाया और तब घोड़े को एक वृक्ष से बांधकर पास के बाग की शोभा देखने लगा। .. उस बाग में एक तपस्वी रहते थे। उन्होंने हिरणों और खर्गोशों के बच्चे पाल रखे थे। वे इधर उधर किलोंले कर रहे थे। राजा को देखकर झोपड़ी की तरफ दौड़ गये। आश्रम के अंदर सुंदर पुष्पों के पौधे थे। उनमें यौंवनोन्मुखी कुछ कन्याएँ जलसिंचन कर रही थी। उन कन्याओं में एक बहुत ही सुंदरी थी। फिरते हुए सुवर्ण बाहु की नजर उस पर अटक गयी। वह एक वृक्ष की ओट में छिपकर उस रूपसुधा का पान करने लगा और सोचने लगा – 'यह अमृत का सरोत यहां कहां से आया? यह तापसकन्या तो नहीं हो सकती। यह कोई स्वर्ग की अप्सरा है या नागकन्या है? : श्री तीर्थंकर चरित्र : 179 : Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसी समय एक भंवरा गूंजता हुआ आया और उस बाला के मुख पर मंडराने और रूपरस का पान करने की कोशिश करने लगा। वह उसको हटाती; परंतु वह बार-बार लौट आता था। इससे घबराकर वह पुकारी - 'अरे कोई मेरी इस भ्रमर-राक्षस से रक्षा करो! रक्षा करो!' उसके साथ ही एक कन्या बोली – 'सखि! सुवर्णबाहु के सिवा तुम्हारी रक्षा करे ऐसा कोई पुरुष दुनिया में नहीं है। इसलिए तुम उन्हीं को पुकारो।' सुवर्णबाहु तो इनसे बातें करने का मौका ढूंढ ही रहा था। वह तुरंत यह कहता हुआ झाड़ की आड़ से निकल आया कि – 'जब तक कुलिश बाहु का पुत्र सुवर्णबाहु मौजूद है, तब तक किसकी मजाल है कि, तुम्हें दुःख दे।' फिर उसने एक दुपट्टे के पल्ले से भंवरे को पकड़ा। भंवरा बेचारा चिल्लाता हुआ वहां से चला गया। . अचानक एक पुरुष को सामने देखकर सभी बालाएं ऐसी घबरा गयी जैसे शेर को सामने देखकर मनुष्य व्याकुल हो जाते हैं। वे भयविह्वल खड़ी हुई पृथ्वी की तरफ देखने लगी। सुवर्णबाहु ने उनको सांतवना देते हुए बड़े मधुर शब्दों में कहा – 'बालाओ! डरो मत! मैं तुम्हारा रक्षक हूं। कहो, तुम यहां निर्विघ्न तप कर सकती हो न? तुम्हें कोई क्लेश तो नहीं है?' राजा के सुमधुर शब्दों से उनका भय कम हुआ। एक बोली – 'जब तक पृथ्वी पर सुवर्ण बाहु राजा राज्य करता है, तब तक किसे अपना जीवन भारी होगा कि वह हमारे तप में विघ्न डालेगा? अतिथि, आइए। बैठिए।' एक बाला ने कदंब पेड़ के नीचे आसन बिछा दिया। सुवर्ण बाहु उस पर बैठ गये। दूसरी ने पूछा – 'महाशय, आप कौन हैं? और इस वन में आने का आपने कैसे कष्ट किया है?' सुवर्णबाहु बड़े संकोच में पड़े। वे कैसे कहते कि, मैं ही सुवर्ण बाहु हूं और अपने को दूसरा कोई बताकर मिथ्या बोलने का दोष भी कैसे करते? उन्हें चूप देखकर तीसरी बोली – 'बहन! ये तो खुद सुवर्णबाहु राजा हैं। क्या तुमने इनको यह कहते नहीं सुना कि'जब तक सुवर्णबाहु मौजूद है तब तक किस की मजाल है सो तुम्हें दुःख दे?' फिर राजा से पूछा – 'महाराज! हमारी असभ्यता क्षमा कीजिए और : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 180 : Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहिये आप ही महाराज सुवर्णबाहु हैं न?' राजा मुस्कुरा दिया। बालाओं को निश्चय हो गया कि ये ही महाराज सुवर्णबाहु है। राजा ने सबसे अधिक सुंदरी बाला की तरफ संकेत करके पूछा'ये बाला कौन है? ये तापसकन्या तो नहीं मालूम होती। इनका शरीर पौदों के जलसिंचन करने के काम का नहीं है। कहो ये कौन है?' एक बाला दीर्घ निःश्वास डालकर बोली – 'ये रत्नपुर के राजा खेरचरेन्द्र की कन्या है। इनका नाम पद्मा है और इनकी माता का नाम रत्नावली है। जब खेचरेंद्र का देहांत हो गया तब उनके पुत्र राज्य के लिए आपस में लड़ने लगे। इससे सारे देश में बलवा मच गया। रत्नावली अपनी कन्या को लेकर अपने कुछ विश्वस्त मनुष्यों के साथ वहां से निकल भागी और यहां, तापसों के कुलपति गालव मुनि के आश्रम में, आ रही। आश्रम में रहनेवाले सभी स्त्रीपुरुषों को काम करना पड़ता है। इसलिए हमारी सखी राजकुमारी पद्मा को भी काम करना पड़ता है। कल इधर कोई दिव्य ज्ञानी आये थे और उन्होंने कहा था – 'रत्नावली! तुम चिंता न करो। तुम्हारी कन्या चक्रवर्ती सुवर्णबाहु की रानी होगी। उसे उसका घोड़ा बेकाबू होकर यहां ले आयगा।' महाराज! ज्ञानी की बात आज सच हुई है?' - राजा ने पूछा – 'श्रीमतीजी! आपका नाम क्या है? और गालव मुनि अभी कहां गये हैं?' उसने उत्तर दिया – 'महाराज! मेरा नाम नंदा है। गालब मुनि उन्हीं ज्ञानी मुनि को पहुंचाने गये हैं, जिनका मैंने अभी जिक्र किया है।' ____ इतने ही में दूर घोड़ों की टापें सुनाई दी और धूल उड़ती नजर आयी। राजा ने समझा – 'संभवतः मेरे आदमी मुझे ढूंढते हुए आ पहुंचे हैं। चलूं उनसे मिलकर उन्हें संतोष दूं। सुवर्णबाहु चले। सुनंदा पद्मा को लेकर झोंपड़ी में गयी। राजा अपने आदमियों को बाहर सरोवर के किनारे बैठने की सूचना कर वापिस बगीचे में आ बैठा। ____ नंदा ने जाकर गालव ऋषि को - जो उसी समय लौटकर आ गये थे-सुवर्णबाहु के आने के समाचार सुनाये। गालव मुनि खुश हुए। वे रत्नावली, : श्री तीर्थंकर चरित्र : 181 : Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मा और नंदा को लेकर राजा के पास आये। राजा ने उठकर उन्हें नमस्कार किया और कहा – 'ऋषिवर! आपने क्यों तकलीफ की? मैं ही खुद आपके पास हाजिर हो जाता।' ___ गालव ऋषि बोले - 'एक तो आप अतिथि है, दूसरे प्रजा के रक्षक हैं और तीसरे मेरी भानजी पद्मा के स्वामी होनेवाले हैं। इस तरह आप हर तरह से पूज्य हैं इसलिए तथैव पद्मा का हाथ आपको पकड़ा देने के लिए आया हूं। इसे ग्रहणकर हमें उपकृत कीजिए।' . सुवर्णबाहु ने पद्मा के साथ गांधर्व विवाह किया। रत्नावली और गालव ऋषि ने दोनों को आशीर्वाद दिया। उसी समय पद्मोत्तर नामक खेचरेंद्र का लड़का जो रत्नावली का सोतेला पुत्र था वहां आ पहुंचा। रत्नावली ने उसे सुवर्णबाहु का हाल सुनाया। पद्मोत्तर सुनकर बड़ा प्रसन्न हुआ। वह सुवर्णबाहु के पास गया और बोला – 'हे देव! मैं आप ही के पास जा रहा था। सद्भाग्य से आपके यहीं दर्शन हो गये। कृपा करके आप वैताढ्य गिरि पर मेरी राजधानी में चलिए और मुझे उपकृत कीजिए।' सुवर्णबाहु अपनी सेना के साथ वैताढ्य गिरि पर गये। पद्मा, रत्नावली आदि भी उनके साथ गयी। कुछ समय वहां रह, दूसरी कई विद्याधरकन्याओं से ब्याहकर सुवर्णबाहु पीछे अपनी राजधानी पुराणपुर में आये। ___ जब उन्हें राज्य करते कई बरस बीत गये, तब चक्र आदि चौदह रत्न प्राप्त हुए। उन्होंने छ: खंड पृथ्वी को जीता और वे चक्रवर्ती बनकर राज्य करने लगे। एक बार जगन्नाथ तीर्थंकर का पुराणपुर के उद्यान में समोसरण हुआ। देवता आकाश से विमानों में बैठ बैठकर आ रहे थे। सुवर्णबाहु ने अपनी छतपर बैठे हुए उन विमानों को देखा। विमान कहां जा रहे हैं, यह जानकर उन्हें बड़ा हर्ष हुआ। वे भी परिवार सहित समवसरण में गये। जब वे देशना सुनकर लौटे तो देवताओं के विमानों का विचार करने लगे। सोचते सोचते उन्हें जातिस्मरण ज्ञान हो गया। उन्हें अपने पूर्व भव का हाल मालूम हुआ और नाशवान जगत का विचार कर वैराग्यवान हो गये। इससे उन्होंने पुत्र को राज्य देकर, जगन्नाथ तीर्थंकर के पास दीक्षा ले ली। : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 182 : Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उग्र तपस्या कर, अर्हत्भक्ति आदि बीस स्थानकों की आराधना कर उन्होंने तीर्थंकर नामकर्म बांधा और वे पृथ्वी मंडल पर जीवों को उपदेश देते हुए भ्रमण करने लगे। एक बार विहार करते हुए सुवर्णबाहु मुनि क्षीरगिरि नामक पर्वत के पास के क्षीरवणा नामक वन में आये। वहां सूर्य के सामने दृष्टि रख, कायोत्सर्ग कर आतापना लेने लगे। कमठ का जीव नरक से निकलकर उसी वन में सिंह रूप से पैदा हुआ था। वह दो रोज से भूखा फिर रहा था। उसने मुनि को देखकर घोर गर्जना की। मुनि ने उसी समय कायोत्सर्ग पूरा किया था। शेर की गर्जना सुन, अपने आयु की समाप्ति समझ, उन्होंने संलेखना की, चतुर्विध आहार का त्याग किया और शरीर का मोह छोड़कर ध्यान में मन लगा दिया। सिंह ने छलांग मारी और मुनि को पकड़ कर चीर दिया। नवां भव (महाप्रभ विमान में देव) :- सुवर्णबाहु मुनि शुभ ध्यानपूर्वक आयु पूर्णकर महाप्रम नाम के विमान में बीस सागरोपम की आयुवाले. देवता हुए। कमठ का जीव सिंह मरकर चौथे नरक में दस सागरोपम की आयुवाला नारकी हुआ और वहां की आयु पूर्णकर, तिर्यंच योनि में भ्रमण करने लगा। दसवां भव (पार्श्वनाथ तीर्थंकर) : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र में वाराणसी (बनारस) नाम का शहर है। उसमें अश्वसेन नाम के राजा राज्य करते थे। उनकी रानी वामादेवी थी। एक रात में वामादेवी को तीर्थंकर के जन्म की सूचना देनेवाले चौदह महास्वप्न आये। मरुभूमि का जीव महापद्म नाम के विमान से च्यवकर, चैत्र कृष्णा चतुर्थी के दिन विशाखा नक्षत्र में वामादेवी के गर्भ में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भकाल पूरा होने पर पोष वदि १० के दिन अनुराधा नक्षत्र में वामादेवी ने सर्प लक्षणवाले पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी और इंद्रादि देवों ने जन्म कल्याणक महोत्सव किया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 183 : Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अश्वसेन राजा को पुत्र जन्म के समाचार मिले। उन्होंने लाखों लुटा दिये, कैदी छोड़ दिये और जिसने जो मांगा उसको वही दिया। एक बार जब बालक गर्भ में था तब वामादेवी सो रही थीं और उनके पास से एक भयंकर सर्प किसी को कष्ट पहुंचाये बिना फुत्कार करता हुआ निकल गया था, इसलिए माता-पिता ने पुत्र का नाम पार्श्व रखा। क्रमशः वे जवान हुए। आनंद से दिन बिताने लगे। एक दिन राजा अश्वसेन राजसभा में बैठे थे, उसी समय उन्हें किसी बाहरी राजदूत के आने की सूचना मिली। राजा ने उसको अंदर बुलाया और उचित सम्मान देकर पूछा – 'तुम कौन हो और यहां किस लिये आये हो?' राजदूत ने उत्तर दिया – 'मैं कुशस्थल नगर से आया हूं। वहां पहले नरवर्मा नाम के राजा राज्य करते थे। उन्होंने संसार को असारं जानकर अपने पुत्र प्रसेनजित को राज गद्दी दी और खुद ने दीक्षा ले ली। राजा प्रसेनजित के एक कन्या है। उसका नाम प्रभावती है। प्रभावती ने एक बार बनारस के राजकुमार पार्श्वनाथ के रूप लावण्य की तारीफ सुनी और उसने अपना जीवन इनके चरणों में अर्पण करने का संकल्प कर लिया। वह रात दिन उन्हीं के ध्यान में लीन हो आनंदोल्लास छोड़ एक त्यागिनी की तरह जीवन बिताने लगी। राजा प्रसेनजित को जब ये समाचार मिले तो उसने प्रभावती को स्वयंवरा की तरह बनारस भेजने का संकल्प कर लिया। कलिंगदेश में यवन नाम का राजा राज्य करता है। वह बड़ा पराक्रमी है। उसने जब ये समाचार सुने तो वह बड़ा गुस्से हुआ और अपनी सभा में बोला- 'भेट ग्रहण करने की शक्ति मेरे सिवा इस भरतखंड में दूसरे किस राजा में है? पार्श्वकुमार कौन है जो प्रभावती को ग्रहण करेगा और कुशस्थलपति की क्या मजाल है कि वह प्रभावती को पार्श्वकुमार के पास भेजेगा? सेनापति जाओ और कुशस्थल को घेर लो। अगर प्रभावती बनारस भेजी जाय तो उसको पकड़कर मेरे पास भेज दो।' उसके सेनापति ने आकर कुशस्थल को घेर लिया। थोड़े दिन के बाद खुद राजा यवन भी आया और उसने कहलाया कि - 'या तो तुम प्रभावती को मेरे हवाले करो या लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। ' : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 184 : Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजा प्रसेनजित ने अपने को यवन के सामने लड़ने में असमर्थ पा उत्तर दिया - 'मैं एक महिने के बाद आपको निश्चित जवाब दूंगा।' और मुझे आपके पास रवाना किया। राजा यवन ने शहर को इस तरह घेर रखा है कि, एक परिंदा भी न अंदर जा सकता है और न बाहर निकल सकता है। मैं बड़ी कठिनता से आपके पास आया हूं। मेरा नाम पुरुषोत्तम है और राजा का मैं मित्र हूं। अब आपको जो ठीक जान पड़े सो कीजिए।' राजदूत की बातें सुनकर अश्वसेन बड़े क्रुद्ध हुए और बोले – 'यवन की यह मजाल कि, मेरी पुत्रवधू को रोक रखे। मैं उस दुष्ट को दंड दूंगा। सेनापति जाओ! मेरी फौज तैयार करो! मैं आज ही रवाना होऊंगा।' पवनवेग से सारे शहर में यह बात फैल गयी। लोग यवन राजा के कृत्य को अपना अपमान समझने लगे और शहर के कई ऐसे लोग भी जो सिपाही न थे सिपाही बनकर लड़ाई में जाने को तैयार हो गये। जब पार्श्वकुमार को ये समाचार मिले तो वे अपने पिता के पास आये और बोले - 'पिताजी! आपको एक मामूली राजा पर चढ़ाई करने की कोई जरूरत नहीं है। ऐसों के लिए आपका पुत्र ही काफी है। आप यही आराम कीजिए और मुझे आज्ञा दीजिए कि, मैं जाकर उसे दंड दूं।' . बहुत आग्रह के कारण पिता ने पार्श्वकुमार को युद्ध में जाने की आज्ञा दी। पार्श्वकुमार हाथी पर सवार होकर रवाना हुए। पहले पड़ाव पर इंद्र का सारथी रथ लेकर आया और उसने हाथ जोड़कर विनती की - 'स्वामिन्! यद्यपि आप सब तरह से समर्थ हैं, किसी की सहायता की आपको जरूरत नहीं है, तथापि अपनी भक्ति बताने का मौका देखकर महाराज इंद्र ने अपना संग्राम करने का रथ आपकी सेवा में भेजा है और मुझे सारथी बनने की आज्ञा दी है। आप यह सेवा स्वीकार कर हमें उपकृत कीजिए।' ___ पार्थकुमार ने इंद्र की यह सेवा स्वीकार की। उसी रथ में बैठकर वे आकाशमार्ग से कुशस्थल को गये। उनकी सेना भी उनके साथ ही पहुंची। देवताओं ने पार्श्वकुमार की छावनी में इनके रहने के लिए एक सात मंजिल . का महल तैयार कर दिया। पार्श्वकुमार ने अपना एक दूत राजा यवन के पास भेजा। उसने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 185 : Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाकर कहा – 'अश्वसेन के युवराज पार्थकुमार की आज्ञा है कि, हे कलिंगाधिपति यवन! तुम तत्काल ही अपने देश को लौट जाओ अगर ऐसा नहीं करोगे तो मेरी सेना तुम्हारा संहार करेगी इसका उत्तरदायित्व हमारे सिर न रहेगा?' राजा यवन क्रुद्ध होकर बोला – 'हे दूत! अपने राजकुमार को जाकर कहना कि, अपनी सुकुमार वय में अपने मौत के मुंह में न डाले। कलिंग की सेना के साथ लड़ाई करना अपनी मौत को बुलाना है। अगर अपनी जान प्यारी हो तो कल शाम के पहले तक यहां से लौट ज़ाय वरना परसों सवेरे ही कलिंग की सेना तुम्हारा नाश कर देगी?' दूत बोला – 'महाराज कलिंग! मुझे आप पर दया आती है। जिन पार्थकुमार की इंद्रादि देव सेवा करते हैं उनके सामने आपका लड़ाई के लिए खड़े होना मानो शेर के सामने बकरी का खड़ा होना है। इसलिए आप अपनी जान बचाकर चले जाइए। वरना जिस मौत का आप बार-बार नाम ले रहे हैं वह मौत आपको ही उठा ले जायगी। .. राजा यवन के दरबारियों ने तलवारें खींच ली और वे उस मुंहजोर दूत पर आक्रमण करने को तैयार हुए। वृद्ध मंत्री ने उसको रोका और कहा- 'हे सुभटो! दूत अवध्य होता है। फिर यह तो एक ऐसे महान् बलशाली का दूत है जिसकी इंद्रादि देवं पूजा करते हैं। सचमुच ही हम उनके सामने तुच्छ हैं।' फिर दूत को कहा – 'तुम जाकर पार्श्वकुमार से हमारा प्रणाम कहना और निवेदन करना कि, हम आपकी सेवा में शीघ्र ही हाजिर होंगे।' दूत चला गया। फिर मंत्री ने राजा यवन को कहा - 'महाराज! अपने और दुश्मन के बलाबल का विचार करके ही युद्ध आरंभ करना चाहिए। मैंने पता लगाया है कि, पार्श्वकुमार और उनकी सेना के सामने हम और हमारी सेना बिलकुल नाचीज है। इसलिए हमारी भलाई इसी में है कि, हम पार्श्वकुमार के पास जाकर उनसे संधी कर लें।' राजा यवन बोला – 'मंत्री! क्या मुझे और मेरी बहादुर सेना को किसी के सामने सिर झुकाना पड़ेगा? मुझे यह बात पसंद नहीं है। इस अपमान से लड़ाई में मरना मैं अधिक पसंद करता हूं।' : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 186 : Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वृद्ध मंत्री ने अति नम्र शब्दों में विनती की – 'महाराज! नीति यह है कि, अगर दुश्मन बलवान हो तो उससे मेल कर लेना चाहिए। फिर पार्थकुमार तो सामान्य शत्रु नहीं है, ये तो देवाधिदेव हैं। सारी दुनिया के पूज्य हैं। इनसे संधी करने में, इनकी सेवा करने में इस भव और पर भव दोनों भवों में कल्याण है। ____ राजा यवन ने मंत्री की बात मानकर कुशस्थल का घेरा उठाने का हुक्म दिया। फिर मंत्रीसहित वह पार्श्वकुमार की सेवा में हाजिर हुआ। दयालु कुमार ने उसे अभय देकर विदा किया। घेरा उठा जाने पर कुशस्थली के निवासियों ने शांति का वास लिया। शहर के हजारों नरनारी अपने रक्षक के दर्शनार्थ उलट पड़े। राजा प्रसेनजित भी अनेक तरह की भेटें लेकर पार्श्वकुमार की सेवा में हाजिर हुआ और विनती की - 'आप मेरी कन्या को ग्रहण कर मुझे उपकृत कीजिए।' पार्थकुमार बोले-'मैं पिताजी की आज्ञा से कुशस्थली की रक्षा करने आया था। ब्याह करने यहां नहीं आया। इसलिए महाराज प्रसेनजित मैं आपका अनुरोध स्वीकारने में असमर्थ हूं।' फिर पार्यकुमार अपनी फौज के साथ बनारस लौट गये। प्रसेनजित भी अपनी कन्या प्रभावती को लेकर बनारस गया। महाराज अश्वसेन ने अत्याग्रह कर पार्थकुमार का ब्याह प्रभावती के साथ कर दिया। पतिपत्नी आनंद से दिन बिताने लगे। - एक दिन पार्श्वकुमार अपने झरोखे में बैठे हुए थे उस समय उन्होंने देखा कि, लोगे फूलों भरी छाबें और मिठाई मरी थालियां अपने सिरों पर रखे चले जा रहे हैं। पूछने पर उन्हें मालूम हुआ कि शहर के बाहर कोई कमठ नाम का तपस्वी आया है और वह पंचाग्नि तप की घोर तपस्या कर रहा है। उसीके लिए ये भेट ले जा रहे हैं। पार्श्वकुमार भी उस तपस्वी को देखने के लिए गये। - यह कमठ तपस्वी कमठ का जीव था। जो सिंह के भव से मरकर अनेक योनियों में जन्मता और दुःख उठाता हुआ एक गांव में किसी गरीब : श्री तीर्थंकर चरित्र : 187 : Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ब्राह्मण के घर जन्मा। उसका जन्म होने के थोड़े ही दिन बाद उसके मातापिता की मृत्यु हो गयी। वह निराधार, बड़ी तकलीफें उठाता इधर उधर ठुकराता बड़ा हुआ। जब वह अच्छी तरह भलाई बुराई समझने लगा तब उसने एक दिन किसीसे पूछा - 'इसका क्या कारण है कि मुझे तो पेटभर अन्न और बदन ढकने को फटे-पुराने कपड़े भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं और कइयों को मैं देखता हूं कि उनके घरों में मेवे मिष्टान्न पड़े सड़ते हैं और कीमती कपड़ों से संदूकें भरी पड़ी है?' उसने जवाब दिया – 'यह उनके पूर्व भव में किये तप का फल है।' उसने सोचा- मैं भी क्यों न तप करके सब तरह की सुख सामग्रियां पाने का अधिकारी बनूं। उसने घरबार छोड़ दिये और वह खाकी बाबा बन वन में रहने कंदमूल खाने और पंचाग्नि तप करने लगा। त्याग और संयम चाहे वे अज्ञानपूर्वक ही किये गये हों, कुछ न कुछ फल दिये बिना नहीं रहते। कमठ को इस अज्ञान तप ने भी फल दिया। लोगों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी और वह पुजाने लगा। उस समय वह फिरता फिरता बनारस आया था और शहर के बाहर धूनी लगाकर पंचाग्नि तप कर रहा था। पार्श्वकुमार भी कमठ के पास पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि, उसके चारों तरफ बड़ी धूनियां हैं। उनमें बड़े-बड़े लक्कडों से अग्निशिखा प्रज्वलित हो रही है। ऊपर से सूरज की तेज धूप झुलसा रही है और कमठ पांचों तरफ की तेज आग को सहन कर रहा है। लोग उसकी उस सहन शक्ति के लिए धन्य धन्य कर रहे हैं और भेट पूजाएँ ला लाकर उसके आगे रख रहे हैं। , पार्श्वकुमार ने अवधिज्ञान से देखा कि इन लकड़ों में से एक लकड़े में सर्प झुलस रहा है। वे बोले – 'हे तपस्वी! तुम्हारा यह कैसा धर्म है कि, जिसमें दया का नाम भी नहीं है। जैसे जलहीन नदी निकम्मी है और चंद्रहीन रात्रि निकम्मी है इसी तरह दयाहीन धर्म भी निकम्मा है। तुम तप करते हो और इसमें जीवों का संहार करते हो। यह तप किस काम का है ? ' : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 188 : Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कमठ बोला – 'राजकुमार तुम घोड़े कुदाना और ऐयाशी करना जानते हो। धर्म के तत्त्व को क्या समझो? और मुझ पर जीवों को मारने का दोष लगाना तो तुम्हारी अक्षम्य धृष्टता है!' पार्श्वकुमार ने अपने आदमी को आज्ञा दी – 'इस धूनी में से वह लक्कड़ निकालकर चीर डालो।' नौकर ने आज्ञा का पालन किया। उसमें से एक तड़पता हुआ सांप निकला। कुमार ने उसको नवकार मंत्र सुनवाया और पच्चक्खाण दिलाया। सर्प मरकर नवकार मंत्र के प्रभाव से भुवनपति की नागकुमार निकाय में, धरणेन्द्र नाम का देव हुआ। इस घटना से कमठ की प्रतिष्ठा को धक्का पहुंचा। इससे वह पार्श्वकुमार पर मन ही मन नाराज हुआ और अधिक घोर तप करने लगा। मगर अज्ञान तप के कारण उसे सम्यग ज्ञान न हुआ और अंत में मरकर भुवनवासी देवों की मेघकुमार मिकाय में मेघमाली नाम का देव हुआ। एक दिन लोकांतिक देवों ने आकर विनती की – 'हे प्रभो! तीर्थ प्रवर्ताइए।' प्रभु ने अपने भोगावली कर्मों को पूरे हुए जान वरसीदान दिया। वरसीदान समाप्त हुआ तब इंद्रादि देवों ने और अश्वसेन आदि राजाओं ने पार्श्वकुमार का दीक्षाभिषेक किया। फिर देव और मनुष्य हजार व्यक्ति जिसे उठाकर ले जा सकें ऐसी विशाल नाम की पालकी (शिबिका) में बैठकर प्रभु आश्रमपद नामक उद्यान में आये। वहां सारे वस्त्राभूषणों को त्याग, पंचमुष्टी लोच कर; प्रभु ने पोष वदि ग्यारस के दिन चंद्र जब अनुराधा नक्षत्र में था दीक्षा ली। तीन सौ राजाओं ने भी उनके साथ दीक्षा ली। दीक्षा लेते ही उन्हें मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न हुआ। सभी तीर्थंकरों को दीक्षा लेते ही मनःपर्यव ज्ञान उत्पन्न होता है। इंद्रादि देवों ने दीक्षा कल्याणक मनाया। दूसरे दिन कोपट गांव में धन्य नामक गृहस्थ के घर पायसान्न (खीर) से पारणा किया। देवताओं ने उसके यहां वसुधारादि पंच दिव्य प्रकट किये। प्रभु ने अनेक गांवों और शहरों में विचरण करते हुए किसी शहर की 1. अन्य कथाओं में उसे इंद्र बना कर भी लिखा है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 189 : Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तरफ आ रहे थे कि जंगल ही में सूर्यास्त हो गया। वहां पास ही में कुछ तापसों के घर भी थे। प्रभु एक कुएं के पास वट वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग कर ध्यान में मग्न हो गये। ___कमठ के जीव ने - जो मेघमाली देव हुआ था-अवधिज्ञान से पार्श्वनाथ को, जंगल में जान, अपने पूर्व भव का वैर याद कर, दुःख देना स्थिर किया। उसने शेर, चीत्ते, हाथी, बिच्छू, सांप वगैरा अनेक भयंकर प्राणी, अपनी देवमाया से पैदा किये। वे सभी गर्जन, तर्जन, चीत्कार, फुत्कार आदि से प्रभु को डराने लगे; परंतु पर्वत के समान स्थिर प्रभु तनिक भी चलित न हुए। इससे सभी अदृश्य हो गये। जब इन प्राणियों से प्रभु न डरे तो मेघमाली ने भयंकर मेघ पैदा किये। आकाश में कालजिह्वा के समान भयानक बिजली चमकने लगी, यह ब्रह्मांड को फोड़ देगी ऐसी भीति उत्पन्न करनेवाली मेघों की गर्जना होने लगी और ऐसा घोर अंधकार हुआ कि आंख की रोशनी कोई . चीज देखने में असमर्थ थी। ऐसा मालूम होता था कि पृथ्वी और आकाश दोनों एक हो गये हैं। - अब मूसलधार पानी बरसने लगा। बड़े-बड़े ओले गिरने लगे। जंगल के पशु पक्षी व्याकुल जलधारा में बह बहकर जाने लगे। पानी प्रभु के घुटने तक आया, छाती तक आया। और होते होते नासिका तक पहुंच गया। वह वक्त करीब था कि प्रभु का शरीर सारा पानी में डूब जाता और श्वासोश्वास बंद हो जाता, उसी समय सर्प के जीव को - जो धरणेंद्र हुआ थायह बात मालूम हुई। वह तुरंत अपनी रानियों सहित दौड़ पड़ा। उसकी गति ऐसी मालूम होती थी मानो वह मन से भी जल्दी दौड़ जायगा। ___उसने प्रभु के पास पहुंचते ही एक सोने का कमल बनाया, प्रभु को उस पर चढ़ाया और अपने फन फैलाकर तीन तरफ से प्रभु को ढक लिया। धरणेन्द्र की रानियां प्रभु के आगे नृत्य, नाट्यादि से भक्ति करने लगी। __जब वर्षा का उपद्रव बहुत देर तक शांत न हुआ तब धरणेन्द्र ने अवधिज्ञान के उपयोग से मेघमाली का यह कृत्य जानकर क्रुद्ध होकर बोला- 'हे मेघमाली! अपनी दुष्टता अब बंद कर। यद्यपि मैं प्रभु का सेवक : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 190 : Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हूं, क्रोध करना मुझे शोभा नहीं देता, तो भी तेरी दुष्टता अब सहन न कर सकूँगा। प्रभु ने तुझको पाप से बचाकर तुझ पर उपकार किया था। तूं उल्टा उपकार के बदले अपकार करता है। सावधान! अब अगर तुरंत तूं अपना उपद्रव बंद न करेगा तो तुझे इसकी सजा दी जायगी।' मेघमाली अब तक पानी बरसाने में लीन था। अब उसने धरणेन्द्र की बात सुनकर नीचे देखा। प्रभु को निर्विघ्न ध्यान करते देख वह सोचने लगा-'धरणेन्द्र जैसे जिनकी सेवा करते हैं उनको सताने का खयाल करना सरासर मूर्खता है। इनकी शक्ति के आगे मेरी शक्ति तुच्छ है। इनके सामने मैं इसी तरह क्षुद्र हूं जिस तरह हवा के सामने तिनका होता है। तो भी इन क्षमाशील प्रभु को धन्य है कि इन्होंने मेरे उपद्रव को सहन किया है। मेरा कल्याण इसी में है कि, मैं जाकर प्रभु से क्षमा मांगू। . मेघमाली आकर प्रभु के चरणों में पड़ा; मगर समभावी प्रभु तो अपने ध्यान में मग्न थे। उनके मन में न तो वह उपद्रव कर रहा था तब रोष था न अब यह चरणों में आकर गिरा इससे तोष है। उनके मन में उसकी दोनों कृतियां उपेक्षित हैं। मेघमाली पश्चात्ताप करता हुआ वहां से चला गया। प्रभु को उपसर्ग रहित हुए समझ धरणेन्द्र भी प्रभु को नमस्कार कर अपने स्थान पर चला गया। सवेरा हुआ और प्रभु वहां से विहार कर गये। प्रभु विचरते हुए ८४ दिन के बाद बनारस के पास आश्रमपद नाम के उद्यान में आये और धातकी वृक्ष के नीचे कायोत्सर्ग करके रहे। वहां उनके घाती कर्मों का नाश हुआ और चैत्र वदि चौथ के दिन, चंद्र जब विशाखा नक्षत्र में था, उन्हें केवलज्ञान उत्पन्न हुआ। दीक्षा लेने के चौरासी दिन बाद प्रभु को केवलज्ञान हुआ। इंद्रादि देवों ने प्रभु का केवलज्ञान कल्याणक किया। राजा अश्वसेन को प्रभु के समवसरण के समाचार मिले। अश्वसेन वामादेवी और परिवार सहित समवसरण में आये। प्रभु की देशना सुनकर अश्वसेन ने अपने छोटे पुत्र हस्तिसेन को राज्य देकर दीक्षा ली। माता वामादेवी ने और पार्थप्रभु की भार्या प्रभावती देवी ने भी दीक्षा ली। . प्रभु के शासन में पार्श्व नामक शासनदेव और पद्मावती नामा शासन :: श्री तीर्थंकर चरित्र : 191 : Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देवी थे। उनके परिवार में आर्यदत्त वगैरा दस गणधर, १६ हजार साधु, ३८ हजार साध्वियां, ३५० चौदह पूर्वधारी, १ हजार ४ सौ अवधिज्ञानी, साढ़े सात सौ मनःपर्यवज्ञानी, १ हजार केवली, ११ सौ वैक्रिय लब्धिवाले, छ सौ वाद लब्धि वाले, १ लाख ६४ हजार श्रावक और ३ लाख २७ हजार श्राविकाएँ थी। अपना निर्वाण समय निकट जान भगवान सम्मेत शिखर पर गये। वहां तेतीस मुनियों के साथ अनशन ग्रहण कर, श्रावण शुक्ला ८ मी के दिन विशाखा नक्षत्र में वे मोक्ष गये। इंद्रादि देवों ने निर्वाण कल्याणक किया। . उनकी कुल आयु १०० वर्ष की थी। उसमें से वे ३० वर्ष गृहस्थ पर्याय में और ७० वर्ष साधु पर्याय में रहे। श्री नेमिनाथ के निर्वाण पाने के बाद ८३ हजार ७ सौ ५० वर्ष बीते तब श्रीपार्श्वनाथ मोक्ष में गये। इनका शरीर प्रमाण ६ हाथ का था। मुक्ति का उपाय एक सेठ साधु भगवंतो के अच्छे भक्त थे। पर उनको पीजरे में पोपट रखने का शौक था। उन्होंने पोपट को बोलना सिखाया था। उस घर में रहते रहते उसे जाति स्मरण ज्ञान भी हो गया था अब वह पीजरे के बंधन से मुक्त होकर जंगल में अणसण करना चाहता.था। एक दिन सेठ को उसने कहा आप साधुजी से मेरी मुक्ति कब होगी पूछना। सेठ ने साधु से पूछा साधु तो सुनते ही जैसे बेभान व्यक्ति सोता है वैसे सो गये। सेठ तो भय पाकर घर आ गये। पोपट के पूछने पर उन्होंने कहा क्या कहूँ मेरा इतना पूछने पर तो वे बेभान हो गये। पोपट समझ गया। दो दिन बाद वह पीजरे में बेभान पड़ा था। सेठ ने उसे मरा समझकर जंगल में छोड़ने का नौकर को कह दिया। नौकर ने जंगल में डाला। नौकर के जाते ही पोपट उड़कर चला गया। अपना आत्म साधन किया। पारस जिनवर नाम को ध्यावे, उसके करम शीघ्र हट जोवे । सुवर्णभद्र पर भविजन आवे, वन्दन कर निर्मल थावे ॥ : श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 192 : Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४. भगवान श्री महावीर चरित्र कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः । ईषद्बाष्पान्योर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥ भावार्थ - जिन आंखों में दया सूचित करनेवाली पुतलियां हैं और जो आंखें दया के कारण से आंसुओं से भीग जाती हैं, उन भगवान महावीर की, आंखों का कल्याण हो।' प्रथम भव : . जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में महावप्र नाम का प्रांत था। उसकी जयंती नाम की नगरी में शत्रुमर्दन नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में पृथ्वी प्रतिष्ठान नाम के गांव में नयसार नाम का स्वामीभक्त पटेल (गामेती) था। यद्यपि उसको साधु संगति का लाभ नहीं मिला था। तथापि वह सदाचारी और गुणग्राही था। एक बार वह राज्य के कारखानों के लिए लक्कड़ भिजवाने का हुक्म पाकर जंगल में गया। भयानक जंगल में जाकर उसने लक्कड़ कटवाये। जब दुपहर का वक्त हुआ तब सभी मजदूर अपने-अपने डिब्बे खोलकर खाने लगे। नयसार ने सोचा, गांव में मैं हमेशा अभ्यागत को खिलाकर खाता हूं। आज मेरा मंद भाग्य है कि कोई अभ्यागत नहीं। देखू अगर कोई इधर-उधर से मुसाफिर 1. इस श्लोक के संबंध में एक ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि 'संगम' नाम के देवताने महावीर स्वामी पर छ: महीने तक उपसर्ग किये थे तो भी भगवान स्थिर रहे थे। उनकी दृढ़ता देखकर वह बोला – 'हे देव! हे आर्य! आप अब स्वेच्छापूर्वक भिक्षा के लिए जाइए। मैं आपको तकलीफ न दूंगा।' भगवान बोले- 'मैं तो स्वेच्छापूर्वक ही भिक्षा के लिए जाता हूं। किसी के कहने से नहीं जाता।' 'संगम' देव अपने देवलोक को चला। उसे जाते देख, प्रभु की आंखों में यह सोचकर आंसु आ गये कि बेचारे देव ने मुझ पर उपसर्ग कर बुरे कर्म बांधे हैं और उसके फल रूप में दुःख इसे भोगना पड़ेगा। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 193 : Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जाता हो तो उसे ही खिलाकर फिर खाऊं। वह इधर-उधर किसी मुसाफिर की तलाश में फिरता रहा; परंतु कोई मुसाफिर बहुत देर गुजर जाने पर मी उधर से न निकला। वह दुर्भाग्य का विचार करता हुआ उस जगह लौटा जहां सब भोजन करने बैठे थे। ज्योंही वह भोजन परोस कर खाना चाहता था त्योंही उसे सामने कुछ मुनि आते हुए दिखायी दिये। नयसार ने उठाया हुआ नवाला वापिस एक तरफ रखकर, उठा और मुनियों के पास जाकर हाथ जोड़कर बोला'मेरा सद्भाग्य है कि, आपके इस भयानक जंगल में, दर्शन हो गये। कृपानाथ! भोजन तैयार है आईये और कुछ लेकर मुझे उपकृत कीजिए। क्षुधापीड़ित मुनियों ने आहार पानी शुद्ध जानकर ग्रहण किया। जब मुनि आहार कर चुके तब नयसार ने पूछा – 'महाराज! इस भयानकं जंगल में आप कैसे आ चढ़े? भयानक पशुओं से भरे हुए इस जंगल में शस्त्रधारी भी आते हिचकिचाते हैं। आपने यह साहस कैसे किया?' मुनि बोले – 'हम बनजारे के साथ मुसाफरी कर रहे थे। रास्ते में एक गांव में हम आहारपानी लेने गये और बनजारे की बालद से छूट गये। चलते हुए रास्ता भूलकर इस जंगल में आ चढे हैं।' चलिये मैं गांव का रास्ता बता दूं।' कह नयसार साधुओं को रास्ता बताने गया। जब वे रास्ते पर पहुंचे गये तब एक वृक्ष के नीचे बैठकर मुनियों ने नयसार को धर्म सुनाया और नयसार धर्म ग्रहण कर सम्यक्त्वी बना। फिर साधु अपने रास्ते गये और नयसार भी लक्कड़ राजधानी में रवाना कर अपने घर गया। बहुत समय तक धर्म पाल अंत में मरकर नयसार का जीव सौधर्मदेवलोक में पल्योपम की आयुवाला देवता हुआ। मरीचि का भव : इसी मरतक्षेत्र में विनीता नाम की नगरी में भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती राज्य करते थे। नयसार का जीव देवलोक से उन्हीं के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। अपने सूर्य के समान तेज से वह चारों तरफ : श्री महावीर चरित्र : 194 : Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मरीचि (किरणें ) फैलाता था, इससे उसका नाम मरीचि रखा गया। क्रमशः मरीचि जवान हुआ। भगवान ऋषभदेव का सबसे पहला समवसरण विनीता के बाहर हुआ। मरीचि भी अपने कुटुंब के साथ समवसरण में गया और देशना सुन, धर्म ग्रहणकर साधु हो गया। तेज जब गरमियों के दिन आये तो समय पर आहारपानी न मिलने से, धूप में विहार करने के दुःख से और पसीने के मारे कपड़ों के गंदे हो मरीचिका मन बहुत व्याकुल हो उठा। वह सोचने लगा 'पर्वत के समान दुर्वह दीक्षाभार मैंने कहां उठा लिया? आखिर तक मुझसे इसका पालन न होगा। मगर गृहस्थ भी अब कैसे हुआ जाय ? इससे तो लोक हंसाई होगी। मगर इस भार को हलका करने का कोई रास्ता निकालना चाहिए। बहुत दिन तक विचार करने के बाद उसने स्थिर किया। मुनि लोग त्रिदंड से विरक्त हैं और मैं तो त्रिदंड के आधीन हूं इसलिए मैं त्रिदंडधारी बनूंगा। केशलोच करने से महान पीड़ा होती है, मैं उस पीड़ा को सहन करने में असमर्थ हूं। इसलिए बाल उस्तरे से मुंडवाया करूंगा और शिर पर शिखा भी रखूंगा। मुनि महाव्रतधारी होते हैं मैं अणुव्रत का पालन करूंगा! मुनि कपर्दकहीन होते हैं मैं अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा रखूंगा। मुनि मोह हीन होने से धूप और पानी से बचने के लिए कोई साधन नहीं रखते, मैं अपनी रक्षा के लिए छत्री का उपयोग करूंगा और जूते पहनूंगा। मुनि शील से सुगंधित होते हैं, मैं सुगंध के लिए चंदन का तिलकं लगाऊंगा। मुनि कषायरहित होने से श्वेतवस्त्र धारण करते हैं, मगर मैं तो कषायवाला हूं इसलिए काषाय (रंगीन) वस्त्र पहनूंगा। सचित्त जल से अनेक जीवों की विराधना होती है इसलिए संकट सहकर भी मुनि सचित्त जल नहीं लेते; मगर मैं तो संकट सहने में असमर्थ हूं। इसलिए हमेशां सचित्त जल का उपयोग करूंगा। इस तरह सुख से रहने के लिए मरीचि ने गृहस्थ और साधु के बीच का मार्ग निकाला और त्रिदंडी संन्यास ग्रहण किया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 195 : Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐसा विचित्र वेष देखकर लोग उससे धर्म पूछते थे; मगर वह लोगों को शुद्ध जैनधर्म का ही उपदेश देता था। जब कोई उसे पूछता कि, तुमने ऐसा विचित्र वेष क्यों बनाया है तो वह जवाब देता- 'मैं इतना कठिन तप नहीं कर सकता इसलिए ऐषा बेष बनाया है। ' एक बार महाराज भरत चक्रवर्ती के प्रश्न पर भगवान ऋषभदेव ने उनके बाद होनेवाले तीर्थंकरों और चक्रवर्तियों आदि के नाम बताये। भरत ने पूछा - 'प्रभु इस समवसरण में भी कोई ऐसा जीव है जो इस चौबीसी में तीर्थंकर होगा?' भगवान ने जवाब दिया- 'तुम्हारा पुत्र मरीचि भरतक्षेत्र में महावीर नाम का चौबीसवां तीर्थंकर होगा, पोतनपुर में त्रिपृष्ठ नाम का पहला वासुदेव होगा और महाविदेह क्षेत्र की मूकापुरी में प्रियमित्र नाम का चक्रवर्ती होगा।' फिर भरत उठकर मरीचि के पास गये और मैं आपको इस वेष के कारण, वासुदेव, चक्रवर्ती बनोगे इसलिए वंदन नहीं करता । परंतु आप इस भरत क्षेत्र में अंतिम तीर्थंकर बनोगे इसलिए वंदना करता हूं। यह बात सुनकर मरीचि खुशी से नाचने लगा और कहने लगा – 'दुनिया में मेरे समान कौन कुलीन होगा कि जिसके पिता पहले चक्रवर्ती हैं, जिसके दादा पहले तीर्थंकर हैं और जो खुद पहला वासुदेव, चौबीसवां तीर्थंकर और ' विदेहक्षेत्र में चक्रवर्ती होगा।' इस तरह कुल का गर्व करने से उसने नीच गोत्र बांधा। भगवान मोक्ष में गये उसके बाद भी वह त्रिदंडी के वेश में रहता था और शुद्ध धर्म का ही उपदेश करता था। एक बार बीमार हुआ; 1 परंतु उसे संयमहीन समझकर साधुओं ने उसकी सेवा शुश्रूषा न की । इससे मरीचि के मन में क्षोभ हुआ और सोचने लगा 'ये साधु लोग बड़े ही स्वार्थी, निर्दय और दाक्षिण्यहीन है कि बीमारी में भी मेरी शुश्रूषा नहीं करते। यह सच है कि, मैंने संयम छोड़ा है, परंतु धर्म तो नहीं छोड़ा ? मैंने विनय का तो त्याग नहीं किया? इनको क्या लोकव्यवहार का भी ज्ञान नहीं है? फिर सोचा - 1. किसी कथा में भगवान की उपस्थिति में यह प्रसंग बना ऐसा वर्णन है । : श्री महावीर चरित्र : 196 : -- Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मैं क्यों साधुओं को बुरा समझं? ये लोग जब अपने शरीर की भी परवाह नहीं करते तो मुझ असंयमी की परवाह न की इसमें कौनसी बुराई हुई? फिर सोचा - 'मगर भविष्य के लिए तो मुझे इसका उपाय करना ही चाहिए। मैं अब रोगमुक्त होने के बाद कुछ शिष्य बनाऊंगा। मरीचि जब अच्छा हो गया तब उसके पास एक कपिल नाम का पुरुष धर्मोपदेश सुनने आया। मरीचि ने उसे यहाँ भी धर्म है ऐसा कहकर अपना शिष्य बनाया और तभी से त्रिदंडी धर्म की हमेशा के लिए नींव पड़ गयी। इस उत्सूत्र कथन द्वारा मिथ्याधर्म की नींव डालने से मरीचि के जीव ने कोटाकोटि सागरोपम प्रमाण का संसार उपार्जन किया। अपने मिथ्या धर्मोपदेश की आलोचना किये बिना मरकर मरीचि का जीव ब्रह्मलोक में देवता हुआ। कपिल ने अपने मत का खूब उपदेश दिया और आसूर्य आदि को अपना शिष्य बनाया कपिल भी मरकर देवता हुआ। वहां अवधिज्ञान से अपने पूर्व जन्म का हल जानकर वह पृथ्वी पर आया और अपने आसूर्य आदि को अपने मत का नाम बताया। तभी से 'सांख्य दर्शन' प्रचलित हुआ। कौशिक ब्राह्मण का भव :- .. . ब्रह्मदेवलोक से च्यवकर मरीचि का जीव कोल्लाक नाम के गांव में अस्सी लाख पूर्व की आयुवाला कौशिक नाम का ब्राह्मण हुआ। उस भव में भी उसने त्रिदंडी संन्यास धारण किया। उसके बाद मरीचि ने अनेक भवों में भ्रमण किया। विश्वभूतिका भव :-. राजगृह में विश्वनंदी नाम का राजा राज्य करता था। उसके प्रियंगु 1. श्री मद्भागवत हिन्दु धर्म का एक माननीय ग्रंथ है। उसमें सांख्यमत की उत्पत्ति इस तरह लिखी है - 'मनुजी की कन्या देवहूती थी। उसके साथ कर्दम ऋषि का ब्याह हुआ। देवहूति के गर्भ से नौ कन्याएँ और एक पुत्र हुआ। पुत्र का नाम कपिल था। कपिलजी चौबीस अवतारों में से पांचवें अवतार हुए हैं। इन्होंने अपनी माता देवहूतीजी को ज्ञान कराने के लिए जो तत्त्वोपदेश दिया, वही तत्त्वोपदेश सांख्य दर्शन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 197 : Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामकी रानी से विशाखानंदी नाम का एक पुत्र था। राजा के विशाखाभूति नाम का छोटा भाई था। वह युवराज था। उसकी धारिणी नामा स्त्री के गर्भ से, मरीचि का जीव, उत्पन्न हुआ। उसका नाम विश्वभूति रखा गया। [यह .. सोलहवाँ भव है] _ विश्वभूति युवा हुआ तब की बात है। एक बार वह अपने जनाने सहित पुष्पकरंडक नाम के राजा के सुंदर बाग में क्रीड़ा करने गया था। पीछे से राजा का पुत्र विशाखानंदी भी उसी वन में क्रीड़ा करने के इरादे से पहुंचा; परंतु विश्वाभूति को वहां जानकर फाटक ही से लौट आना पड़ा। उसने अपनी माता से यह बात कही। रानी नाराज हुई और उसने विश्वभूति को किसी भी तरह से, बाग से निकालने के लिए राजा को लाचार किया। राजा ने फौज तैयार करने का हुक्म दिया और सभा में कहा कि, पुरुषसिंह नाम का सामंत बागी हो गया है। उसका दमन करने के लिए मैं जाता हूं। विश्वभूति को भी यह खबर पहुंचायी गयी। सरल स्वभावी विश्वभूति तुरंत समा. में आया और राजा को रोक आप फौज लेकर गया। __ जब वह पुरुषसिंह की जागीर में पहुंचा तो उसने पुरुषसिंह को आज्ञा धारक पाया। उसे आश्चर्य हुआ। वह वापिस आया और पुष्पकरंडक नाम के बाग में गया, तो मालूम हुआ कि वहां राजपुत्र विशाखानंदी आ गया है। विश्वभूति बड़ा क्रुद्ध हुआ। उसने द्वारपालों को बुलाया और कहा – 'देखो, मुझे धोखा दिया गया है। अगर मैं चाहूं तो तुम्हारा और राजकुमार का क्षण भर में नाश कर मुझे धोखा देकर इस बाग से निकालने की सजा दे सकता हूं। फिर उसने फलों से लदे हुए एक वृक्ष पर मुक्का मारा। वृक्ष के फल सब जमीन पर आ गिरे। फिर उसने द्वारपालों को कहा – 'देखी मेरी शक्ति? इन फलों की तरह ही मैं तुम लोगों के सिर धड़ से जुदा कर सकता हूं; परंतु मुझे यह कुछ नहीं करना है। जिस भोग के लिए ऐसा छल कपट और बंधुद्रोह करना पड़े उस भोग को धिक्कार है!' विश्वभूति ने उसी वक्त संभूति मुनि के पास जाकर दीक्षा ले ली। राजा विश्वनंदी को यह खबर मिली। उसे अपनी कृति पर दुःख हुआ। उसने : श्री महावीर चरित्र : 198 : Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्वभूति के पास जाकर क्षमा मांगी और उससे राज लेने का आग्रह किया; परंतु त्यागी विश्वभूति ने यह बात स्वीकार न की। एक. बार एकाकी विहार करते हुए विश्वभूति मुनि मथुरा आये। विशाखानंदी भी उस समय मथुरा आया था इसी शहर में उसका ससुराल था। विश्वभूति मुनि एक महीने के उपवास के बाद गोचरी लेने शहर में जा रहे थे। जब वे विशाखानंदी के मकान के पास पहुंचे तो नौकरों ने और उसने विश्वभूति को पहचाना। विशाखानंदी मुनि को देख यह सोच उन पर गुस्से हुआ कि, इसीके कारण से पिताजी ने मेरा तिरस्कार किया था। इतने ही में एक गाय दौड़ती हुई आयी और विश्वभूति मुनि से टकरायी। मुनि गिर पड़े। विशाखानंदी और उसके नौकर हंस पड़े। वह मुनि को उद्देश कर बोला 'अरे! आज तेरा झाड़ के फल गिराने का बल कहां गया?' इस तिरस्कार से मुनि गुस्से हुए। उन्होंने, उठकर, गाय को सींग पकड़कर उठाया, घुमाया और आकाश में उछाल दिया। इस पराक्रम को देखकर विशाखानंदी और उसके नौकर लज्जित हो गये। विश्वभूति मुनि ने यह नियाणा किया कि, मेरे तप के प्रभाव से भवांतर मैं बहुत बल शाली होऊं और मेरा अपमान करनेवाले विशाखानंदी को दंड दूं। . ... मरीचि का जीव विश्वभूति मुनि आयु पूर्णकर महाशुक्र देवलोक में उत्कृष्ट आयुवीला देवता हुआ। त्रिपृष्ठ वासुदेव का भव :- . . भरतक्षेत्र के पोतनपुर नामक नगर में रिपुप्रतिशत्रु नामक राजा राज्य करते थे। उनकी पटरानी भद्रा के गर्भ से चार स्वप्नों से सूचित एक पुत्र जन्मा। उसका नाम 'अचल' रखा गया। उसके बाद भद्रा ने एक सुंदर कन्या को जन्म दिया। उसका नाम मृगावती रखा गया। धीरे-धीरे यौवन ने वसंत ऋतु की मांति, मृगावती पर अपना साम्राज्य स्थापित किया। महादेवी भद्र को, अपनी प्रिय पुत्री को यौवनवती देख उसके विवाह की चिंता हुई। एक दिन मृगावती अपने पिता को प्रणाम करने गयी थी। उसके रूप लावण्य को देखकर राजा कामांध बना। मृगावती को अपनी गोद में बिठाकर वह : श्री तीर्थंकर चरित्र : 199 : Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसके गालों पर हाथ फैरने लगा। उसने मन ही मन उसके साथ विवाह करने का निश्चय किया। दूसरे दिन वह जब अपनी सभा में गया तब उसने शहर के सभी प्रतिष्ठित पुरुषों को बुलाया और पूछा – 'मेरे राज्य में कोई रत्न उत्पन्न हो तो उसका स्वामी कौन है?' सबने कहा – 'आप हैं।' राजा ने फिर पूछा – 'मैं उसका स्वामी हो सकता हूं।' सबने जवाब दिया – 'हां महाराज, आप हो सकते हैं। राजा ने फिर पूछा – 'सोचकर कहो, क्या मैं उस रत्न का उपभोग कर सकता हूं?' वे क्या जानते थे कि राजा छल करके उनसे बातें पूछ रहा है। सब ने शुद्ध भाव से कहा – 'हा कृपानाथ, आप कर सकते हैं। तब राजा बोला- 'मेरे घर जन्मे हुए कन्या रत्न से मैं ब्याह करना चाहता हूं।' राजा की बात सुनकर सभी सन्नाटे में आ गये। उनके मुंह उतर गये। किसी की जबान में शब्द नहीं था। राजा बोला - 'तुम लोगों ने ही संमति दी है कि मेरे राज्य में जो रत्न हो उसका मैं स्वामी हूं। अब चुप क्यों हो? मैं इस समय तुम्हारी मौजूदगी में गांधर्व विवाह करूंगा।' राजा ने मृगावती को बुलाकर शहर के सभी प्रतिष्ठित पुरुषों की उपस्थिति में उससे गांधर्व विवाह कर लिया। महादेवी भद्रा पति के इस घृणित कार्य से बड़ी लज्जित हुई और अपने पुत्र बलदेव अचल को साथ ले दक्षिण में चली गयी। राजकुमार अचल ने अपने बल एवं पराक्रम से माहेश्वरी नामक एक नया नगर बसाया। कुछ दिन वहां रह शहर को व्यवस्थित कर वह अपने पिता के पास चला गया। और पिता के दोष की उपेक्षा कर वह भक्ति सहित उनकी सेवा करने लगा। शहर के लोग राजा को रिपुप्रतिशत्रु की जगह प्रजापति कहकर पुकारने लगे, कारण वह अपनी प्रजासंतान का पति हुआ था। राजा ने मृगावती को पट्टरानी पद से सुशोभित किया। कालांतर में मरीचि का (विश्वभूति का) जीव महाशुक्र देवलोक से च्यवकर उसके गर्भ में आया। उस रात महादेवी ने वासुदेव के जन्म की सूचना देनेवाले सात शुभ स्वप्न देखे। समय पर एक पुत्र रत्न उत्पन्न हुआ। उसके पृष्ठ भाग में तीन : श्री महावीर चरित्र : 200 : Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हड्डियां थीं, इसलिए उसका नाम त्रिपृष्ठ रखा गया। यही इस चौबीसी में प्रथम वासुदेव हुआ है। [यह अठारहवाँ भव है ] राजकुमार अचल अपने भाई को खेलाता और आनंद से दिन बिताता । त्रिपृष्ठ बड़ा हुआ और दोनों भाइयों गाढ़ी प्रीति हो गयी। बड़े सुख से त्रिपृष्ठ बाल्यकाल को व्यतीत कर युवावस्था को प्राप्त हुआ। जब वह जवान हुआ तब उसका शरीर प्रमाण अस्सी धनुष था। उस तरफ़ रत्नपुर नगर के मयूरग्रीव नामक राजा की नीलांजना नामक रानी के गर्भ से अवग्रीव नामक प्रति वासुदेव का भी जन्म हो चुका था। वह बड़ा पराक्रमी एवं रणनिपुण था। धीरे-धीरे उसकी वीरता की धाक सब राजाओं पर बैठ गयी थी । प्रायः सभी राजा उसके आधीन हो गये थे। समय पर प्रति वासुदेव का चक्र भी उसकी आयुधशाला में उत्पन्न हुआ था। उसके प्रभाव से अवग्रीव ने भरत क्षेत्र के तीन खंडों पर विजय पताका फहरा दी थी। मागध वरदाम आदि तीर्थदेवों से भी उससे अपना आधिपत्य स्वीकार कराया था। एक बार उसने अवबिन्दु नामक नैमित्तिक को बुलाकर अपना भविष्य पूछा। अञ्चबिन्दु ने बड़ी आनाकानी के बाद कहा राजन्! आपके चंडवेग नामक दूत को जो पीटेगा और तुंगगिरि में रहनेवाले केसरी सिंह को जो मार डालेगा उसी के हाथ से आपकी मौत होगी।' यह सुनकर अवग्रीव बड़ा चिंतित हुआ। उसने शत्रु का पता लगाने के लिए तुंगगिरि के पास शंखपुरं प्रदेश में शाली के खेत तैयार कराये और उनकी रक्षा करने के लिए वह अपने अधीनस्थ राजाओं को भेजने लगा। / एक बार उसको पता लगा कि, पोतनपुर के दो राजकुमार बड़े बलवान हैं। उसे वहेम हुआ कि कहीं वे ही तो मेरे शत्रु नहीं है। उसने उनकी जांच करने के लिए अपने दूत चंडवेग को भेजा। चंडवेग बड़ा वीर पुरुष था। वह अपने दलबल सहित पोतनपुर पहुंचा और सीधा प्रजापति की राजसभा में चला गया। महाराज उस समय समस्त दरबारियों और दोनों राजकुमारों के साथ संगीत की मधुर ध्वनि सुनने में मग्न थे। चंडवेग के अचानक सभा में प्रवेश करने से राग रंग बंद हो गये, सभा में सन्नाटा छा : श्री तीर्थंकर चरित्र : 201 : —— Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गया और प्रजापति ने उसका यथायोग्य सत्कार किया। त्रिपृष्ठ इस नवागंतुकपर बड़ा नाराज हुआ। उसने अपने एक मंत्री से पूछा -- 'यह कौन है?' उसने जवाब दिया -- 'यह अश्वग्रीव प्रति वासुदेव का पराक्रमी चंडवेग दूत है।' अभिमानी त्रिपृष्ठ ने कहा -- 'इस दुष्ट को मैं जरूर दंड दूंगा। यह चाहे कितने ही बड़े राजा का दूत हो, मगर इजाजत लिये बिना सभा में आने का इसे कोई हक नहीं था।' मगर वहां वह कुछ नहीं बोला। उसने अपने आदमियों से कहा -- 'यह जब यहां से बिदा हो तब तुम मुझे खबर देना।' - थोड़े दिन के बाद प्रजापति ने चंडवेग को विदा दी। राजकुमार त्रिपृष्ठ को उसके जाने के समाचार दिये गये। दोनों भाइयों ने उसे मार्ग में जाते हुए को रोककर कहा -- 'रे दुष्ट! रे मूर्ख! तुंने घमंड के मारे नियमों का उल्लंघन कर राजसभा में प्रवेश किया है और हमारे राग-रंग में विघ्न डाला है। इसलिए आज तुझे इसकी सजा दी जायगी।' त्रिपंष्ठ ने तलवार निकाली। अचल ने उसे ऐसा करने से रोका और अपने आदमियों को इशारा किया। आदमियों ने चंडवेग से हथियार छीन लिये और उसे खूब पीटा। चंडवेग के साथी सभी भाग गये। दूत की ऐसी दुर्गती हुई सुनकर प्रजापति को दुःख हुआ। उसने आदमी भेजकर दूत को वापिस बुलाया, लड़के की कृति के लिए दुःख प्रदर्शित किया और उसे अनेक तरह से इनाम.इकराम देकर संतुष्ट किया। और इस घटना की खबर अश्वग्रील को न देने का उससे वादा कराया। अपमानित दूत अश्वग्रीव के पास पहुंचा। उसके पहले ही उसके साथियों ने जाकर पोतनपुर की घटना के समाचार सुना दिये थे। अपना वादा पूरा होने का कोई उपाय न देख दूत ने भी सारा वृत्तांत सुना दिया। सुनकर अश्वग्रीव को क्रोध हो आया; परंतु प्रजापति की क्षमायाचना के समाचार सुनकर कुछ शांति भी हुई। उसने विचारा कि नैमैतिक की एक बात तो सच्ची हुई है। अब दूसरी बात की सत्यता जानने के लिए भी उपाय करना चाहिए। उसने दूत भेजकर प्रजापति को शाली के खेत की रक्षा के लिए जाने का आदेश दिया। प्रजापति ने अश्वग्रीव की आज्ञा दोनों कुमारों को सुना दी। त्रिपृष्ठ : श्री महावीर चरित्र : 202 : Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यह सुनकर सिंह का बध करने जाने के लिए तैयार हो गया। दोनों भाइयों ने तुंगगिरि के खेतों के पास जाकर डेरे डाले। __ लोगों के द्वारा सिंह की अतुल शक्ति का पता चला। बड़े-बड़े बलवानो को उसने पलक मारते मार गिराया था। अच्छे अच्छे बहादुर उसके ग्रास बन गये थे। ऐसे विक्राल सिंह को मारना बड़ा कठिन कार्य था। परंतु त्रिपृष्ठ एवं अचलकुमार ने उसको उसकी गुफा में जा ललकारा। सिंह ने टेढी निगाह करके देखा और दो जवानों को अपनी गुफा के सामने खड़ा देखकर वापिस बेपरवाही से आंख बंद कर लीं। त्रिपृष्ट के नौकरों ने चारों तरफ से चिल्लाना और पत्थर फेंकना आरंभ किया। यह बात शेर को असह्य हुई। उसने उठकर गर्जना की। उसकी गर्जना सुनकर त्रिपृष्ठ के कई नौकर भय से गिर पड़े, पक्षी पेड़ों से नीचे आ रहे और पशु खाना और चलना फिरना छोड़ ताकने लगे। यह सब हुआ; परंतु दो जवान तो उसकी गुफा के सामने कुछ दूर स्थिर खड़े ही रहे। शेर ने गुफा से बाहर निकलकर खड़े हुए जवानों पर छलांग मारी। त्रिपृष्ठ ने लपक कर शेर के जबड़े पकड़े और चीर दिया। दो टुकड़े होने पर भी.शेर का दम न निकला। वह तड़प रहा था और यह सोचकर दुःखी था कि आज इस छोकरे ने मुझे मार डाला। हजारों बड़े-बड़े शस्त्रधारियों को मैंने पलक मारते यमधाम पहुंचाया था उसी मुझको, इस छोकरे ने क्षणभर मैं चीरकर फेंक दिया। त्रिपृष्ठ के सारथी ने-जो महावीर के भव में गौतम गणधर हुए थे - कहा -- 'हे सिंह, जैसे तं पशुओं में सिंह है वैसे ही ये त्रिपृष्ठ मनुष्यों में सिंह हैं और वासुदेव है। तेरा सद्भाग्य है कि, तूं इनके हाथ से मारा गया हैं।' सिंह को यह सुनकर संतोष हुआ और वह मरकर चौथी नरक में गया। ___त्रिपृष्ठ ने शेर का चमड़ा निकलवाया और उसे लेकर वह राजधानी को चला। अग्रीव को यह खबर मिली। उसको निश्चय हो गया कि मेरी मौत आ गयी है। उसने शंका में जीवन बिताना ठीक न समझा और प्रजापति को कहलाया कि, तुम्हारे लड़कों ने जो बहादुरी की उससे मैं बहुत खुश हूं। उन्हें शेर के चमड़े के साथ मेरे पास भेज दो। मैं उनको इनाम दूंगा।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 203 : Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिपृष्ठ बोला -- 'अश्वग्रीव को कहना कि, जो राजा एक शेर को नहीं मार सका उस राजा से इनाम लेने को त्रिपृष्ठ तैयार नहीं है। वीर वीरों से इनाम लेते हैं, मामूली आदमियों से नहीं।' यह सुनकर अश्वग्रीव के दूत को क्रोध हो आया और वह बोला - 'उद्धत छोकरे! तुम्हें मालूम नहीं है कि, तुम किसके!...' दूत अपनी बात पूरी भी न कर पाया था कि, त्रिपृष्ठ के आदमियों ने उसे पीटपाटकर वहां से निकाल दिया। अश्वग्रीव को जब ये समाचार मिले तो वह अपनी आज लेकर आया। त्रिपृष्ठ भी फौज लेकर लड़ने निकला। थोड़ी देर तक फौजें लड़ती रही। फिर त्रिपृष्ठ ने कहलाया -- 'वृथा फौज का नाश किया जा रहा है। आओ तुम और मैं लड़कर लड़ाई का फैसला कर लें। अचंग्रीव ने यह बात मान ली। दोनों ने भयंकर युद्ध किया और अंत में अश्वग्रीव उसीके चक्र द्वारा . मारा गया। अथग्रीव को मरा जान सभी राजाओं ने आ आकर त्रिपृष्ठ को अपना स्वामी स्वीकार किया और भेटें दे देकर उसकी कृपा चाही। त्रिपृष्ठ ने सबको अभय किया। वहां से त्रिपृष्ठ ने जाकर भरतार्द्धको जीता कोटिशिला को क्षणमात्र में अपने सिरसे भी ऊंचा उठाकर रख दिया और सारी पृथ्वी को अपने पराक्रम से जीतकर पोतनपुर का रास्ता लिया। पोतनपुर में देवताओं ने और राजाओं ने उन्हें अर्द्धचक्री पद पर अभिषिक्त किया। पृथ्वी पर जो-जो अलभ्य रत्न थे। वे सभी त्रिपृष्ठ को मिले। भरतार्द्ध में जितने उत्तम गवैये थे वे भी त्रिपृष्ठ के राज्य में आ गये। एक रात को गवैये गा रहे थे, और त्रिपृष्ठ शय्या पर लेटा हुआ था। उसने अपने द्वारपाल को हुक्म दिया, जब मुझे नींद आ जाय तब गवैयों को छुट्टी दे देना। त्रिपृष्ठ सो गया मगर मधुर संगीत के रसिया द्वारपाल ने गवैयों को छुट्टी न दी। सबेरा हुआ। त्रिपृष्ठ जागा और उसने क्रोध से पूछा -- 'अभी तक गवैये क्यों गा रहे हैं?' द्वारपाल ने डरते हुए जवाब दिया -- 'प्रभो! मधुर गायन के लोभ से मैंने इन्हें छुट्टी न दी।' त्रिपृष्ठ को और भी अधिक : श्री महावीर चरित्र : 204 : Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गुस्सा चढ़ा और उसने शीशा गरम करवाकर उसके कान में डलवा दिया। बेचारा द्वारपाल त्रिपृष्ठ के इस क्रूर कर्म से तड़पकर मर गया। त्रिपृष्ठ ने और भी ऐसे अनेक क्रूर कर्म किये थे। जिनसे उसने भयंकर असातावेदनी कर्म बांधा और अंत में मरकर वह सातवीं नरक में गया। त्रिपृष्ठ के भाई अचल बलभद्र वैराग्य पा, दीक्षा ले मोक्ष में गये। चक्रवर्ती प्रियमित्र का भव : मरीचि का जीव नरक से निकलकर केशरीसिंह हुआ। फिर मनुष्य तियंचादि के कई भवों में भ्रमणकर अंत में मनुष्य जन्म पाया। और शुभ कर्मों को उपार्जन कर अपर विदेह में, धनंजय की राणी धारिणी के गर्भ से जन्मा और प्रियमित्र नाम रखा गया। युवा होने पर उसने छः खंड पृथ्वी की साधना की और देवताओं ने तथा राजाओं ने बारह वर्ष तक उत्सव कर उसे चक्रवर्ती पद से सुशोभित किया। [यह २३ वाँ भव हुआ ] अनेक वर्षों तक न्याय पूर्वक राज्य कर प्रियमित्र ने पोट्टिल नाम के. आचार्य से दीक्षा ली और तपकर वह महा शुक्रदेवलोक में सर्वार्थ नामक विमान में देवता हुआ। (राजा नंदन का भव) : .महाशुक्र देवलोक से च्यवकर भरतखंड के छत्रा नामक नगर में जितशत्रु · राजा की भद्रा नामा रानी के गर्भ से मरीचि का जीव जन्मा । नाम • नंदन रखा गया। राजा जितशत्रु के दीक्षा लेने पर नंदन राजा सिंहासन पर बैठा। कई बरसों तक राज्य कर जब चौबीस लाख बरस की आयु हुई तब उसने पोट्टिलाचार्य से दीक्षा ली और बीस स्थानक की आराधना में मासखमण के पारणे मासखमण कर तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। नंदन - ऋषीजी ने ११८८६४५ मासखमण किये। : (प्राणत नामक देवलोक में देव ) : नंदन मुनि आयुष्य के अंत में अनशन ग्रहण कर प्राणत नामक देवलोक में पुष्पोत्तर विमान में देव हुए। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 205 : Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (भगवान महावीर का भव) : जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र के मगध प्रदेश में ब्राह्मण कुंड नाम का एक ब्राह्मणों का गांव था। उसमें कुडालस कुल का ऋषभदत्त नामक ब्राह्मण रहता था। उसके देवानंदा नाम की भार्या थी। वह जालंधर कुल में जन्मी थी। उसको आषाढ़ सुदि ६ के दिन चंद्रमा जब हस्तोत्तर (उत्तरफाल्गुनी) नक्षत्र में आया था, तब चौदह महास्वप्न आये और नंदन ऋषी का जीव दसवें देवलोक से च्यवकर देवानंदा की कोख में आया। सवेरे ही देवानंदा ने अपने पति से स्वप्नों की बात कही। ऋषभदत्त ने कहा- 'तुम्हारे गर्भ से एक महान आत्मा जन्म लेगा। वह चारों वेदों का पारगामी और परम निष्ठावान बनेगा।' यह सुनकर वह बहुत प्रसन्न हुई । प्रभु के गर्भ में आने के बाद ऋषभदत्त को बहुत मान और धन मिले। जब देवानंदा के गर्भ को बयासी दिन बीते तब सौधर्म देवलोक के इंद्र का आसन कंपा। सौधर्मेन्द्र ने अघधिज्ञान से प्रभु को देवानंदा के गर्भ में आया जान, सिंहासन से उतरकर वंदना की। फिर वह सोचने लगा 'तीर्थंकर कभी तुच्छ कुल में, दरिद्र कुल में या भिक्षुक कुल में उत्पन्न नहीं • होते। वे हमेशा इक्ष्वाकु आदि क्षत्रिय वंश में ही जन्मते हैं। महावीर प्रभु भिक्षुक कुल की स्त्री के गर्भ में आये, यह उन्हें, मरीचि के भव में किये हुए, कुलाभिमान का फल मिला है। अब मैं उनको किसी उच्च क्षत्रिय वंश में पहुंचाने का प्रयत्न करूं। इंद्र ने अपनी प्यादा सेना के सेनापति हरीणैगमेषी देव को बुलाया और हुक्म दिया – ''मगध में क्षत्रियकुंड' नाम का नगर है। उसमें इक्ष्वाकु - 1. ऋग्वेद में इस देश का कीकट नाम से उल्लेख है। अर्थवेद में इसको मगध देश ही लिखा है। हेमचंद्राचार्य ने अपने कोश में दोनों नाम दिये हैं। पन्त्रवणा सूत्र में आर्य देश गिनाते समय मगध सबसे पहले गिनाया गया है। इस समय . का बिहार प्रांत मगध देश कहा जा सकता है। इसमें जैनों और बौद्धों के बहुत से तीर्थ है। इससे वे उसे पवित्र मानते हैं। 2. बिहार प्रांत के बसाढ पट्टी के पास बसुकुंड नाम का एक गांव है। शोधक उसको क्षत्रियकुंड बताते हैं। : श्री महावीर चरित्र : 206 : Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वंश के सिद्धार्थ नामक राजा राज्य करते हैं। उनकी रानी वसिष्ठ गोत्र की त्रिशला गर्भवती है। उनके गर्भ में कन्या है। उसे ले जाकर ब्राह्मणकुंड की देवानंदा नामा ब्राह्मणी के गर्भ में रखना और देवानंदा के गर्भ को लाकर त्रिशला माता के गर्भ में रखना । ' हरीणैगमेषी देव ने इंद्र की आज्ञा का पालन किया। उसने जब देवानंदा का गर्भ हरण किया तब देवानंदा ने चौदहों महा स्वप्न अपने मुख से निकलते देखे। वह सहसा उठ बैठी तो उसे मालूम हुआ कि, उसका गर्भस्थ बालक किसीने हर लिया है। वह बहुत रोई चिल्लायी; परंतु सब बेकार था। गर्भस्थ बालक निकाल लिया गया था। उसका वापिस आना असंभव था। आसोज वदि १३ के दिन चंद्रमा जब उत्तराफाल्गुनी नक्षत्र में था तब हरणैगमेषी देव ने नंदन ऋषी के जीव को त्रिशलादेवी के गर्भ में रखा। त्रिशलादेवी को चौदह महास्वप्न आये। इंद्रादि देवों ने च्यवन कल्याणक मनाया। स्वप्न पाठकों ने स्वप्न फल सुनाया। गर्भ को जब सात महीने बीते उसके बाद एक दिन गर्भस्थ महावीर स्वामी ने सोचा कि, मेरे हिलने से माता को कष्ट होता है। इसलिए गर्भावास • 1. कल्पसूत्र और विशेषावश्यक में सिद्धार्थ को ज्ञात कुल का क्षत्रिय लिखा है, राजा नहीं। "क्षत्रियकुंड गांव में सिद्धार्थ नाम का क्षत्रिय है। उसकी भार्या त्रिशला की कोख में भगवान को ले जा।' (आगमोदय समिति का विशेषावश्यक भाग १ ला पेज ५९१) 'ऋषभदेव के वंश में जन्मे हुए ज्ञात नामक क्षत्रिय विशेषों के मध्य में जन्मे हुए काश्यपगोत्र के सिद्धार्थ नामक क्षत्रिय की भार्या वसिष्ठ गोत्र की 'त्रिशला नामक क्षत्राणी की कोख में रखने का निश्चय किया। (कल्पसूत्र सुख बोधिका पेज ८३) इतिहासज्ञों का मत है कि, क्षत्रियकुंड वैशाली का एक परा (SUBARBAN ) था । वैशाली में गणराज्य था। सिद्धार्थ क्षत्रियकुंड की तरफ से प्रतिनिधि और क्षत्रियकुंडवासियों के नेता थे। ये ज्ञात कुल के थे। आवश्यक चूर्णी में 'ऋषभदेव के अपने ही लोगों को ज्ञात बताया है । ज्ञातों का कुल ज्ञातकुल हुआ और उनका वंश ज्ञातवंश कहलाया था। इक्ष्वाकुवंश भी ऋषभदेव ही का है। इससे जान पड़ता है कि ज्ञातवंश और इक्ष्वाकुवंश एक ही वंश के दो नाम हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 207 : Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में योगी की तरह स्थिर रहुं। गर्म का हिलना बंद होने से त्रिशलादेवी को बड़ा दुःख हुआ। उन्होंने समझा कि, मेरा गर्भ नष्ट हो गया है। वे रोने लगी। सारे मुहल्लों में यह खबर फैल गयी। सिद्धार्थ आदि सभी दुःखी हुए। गर्भस्थ अवधिज्ञानी प्रभु ने माता-पिता का दुःख जानकर अपना अंगस्फूरण किया। गर्भ कायम जानकर माता पिता को और सभी लोगों को बड़ा आनंद हुआ। माता-पिता ने आनंद के अतिरेक में लाखों लुटा दिये। प्रभु ने गर्भवास ही में माता-पिता का अधिक स्नेह देखकर नियम किया कि जब-तक मातापिता जीवित रहेंगे तब तक मैं दीक्षा नहीं लूंगा। अगर मैं दीक्षा लूंगा तो इन्हें दुःख होगा और ये असाता वेदनी कर्म बांधेगे। चैत्रसुदि १३ के दिन आधी रात के समय, गर्भ को ज़ब ६ महीने और साढ़े सात दिन बीत चुके थे और चंद्र जब हस्तोत्तरा (उत्तराफाल्गुनी) नक्षत्र में आया था तब 'त्रिशलादेवी ने, सिंह लक्षणवाले पुत्ररत्न को जन्म दिया। उस समय भोगंकरा आदि छप्पन दिक्कुमारियों ने आकर प्रभु का और माता का सूतिका कर्म किया। सौधर्मेन्द्र का आसन कांपा। वह प्रभु का जन्म जानकर परिवार सहित सूतिका गृह में आया। उन्होंने दूर ही से प्रभु को और माता को प्रणाम किया. फिर इंद्र ने देवी को अवस्वापनिका निद्रा में सुलाया, माता की बगल में प्रभु का प्रतिबिंब रखा और प्रभु को उठा लिया। उसके बाद इंद्र ने अपने पांच रूप बनाये। एक रूप ने प्रभु को गोद में लिया, दूसरे रूप ने प्रभु पर छत्र रखा, तीसरे और चौथे रूप दोनों तरफ चंवर उड़ाने लगे और पांचवां रूप वज्र उछालता और नाचता कूदता आगे चला। इस तरह सौधर्मेन्द्र प्रभु को लेकर सुमेरु पर्वत पर पहुंचा। और वहां अतिकंबला नाम की शिला के शावत सिंहासन पर बैठा। दूसरे तरसठ इंद्र भी अपने आधीन देवताओं के साथे, स्नात्र कराने के लिए वहां आ पहुंचे। __ आभियोगिक देव तीर्थजल ले आये और सब इंद्रों ने, इंद्राणियों ने और सामानिक देवों ने अभिषेक किया। सब दो सौ पचास अभिषेक हुए। एक 1. त्रिशलादेवी वैशाली के लिच्छवी राजा चेटक की बहिन थीं। : श्री महावीर चरित्र : 208 : Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अभिषेक में चौसठ हजार कलश होते हैं। (जन्मोत्सव और. बलप्रदर्शन) : इस अवसर्पिणी काल के चौबीस वे तीर्थंकर महावीर स्वामी का शरीर-प्रमाण दूसरे तेईस तीर्थंकरों से बहुत ही छोटा था, इसलिए अभिषेक करने की संमति देने के पहले इंद्र के मन में शंका हुई कि, भगवान का यह बाल-शरीर इतनी अभिषेक-जल-धारा को कैसे सह सकेगा? (इस इन्द्र का यह प्रथम जन्माभिषेक का कार्य था) - अवधिज्ञान से भगवान ने यह बात जानी और उन्होंने अपने बाएँ पैर के अंगूठे से मेरु पर्वत को दबाया। पर्वत कांप उठा। प्रभुजन्म-महोत्सव के समय यह उपद्रव कैसे हुआ? इंद्र ने अवधिज्ञान से देखा। उसे प्रभु का बल विदित हुआ और उसने तत्काल ही क्षमा मांगी। अभिषेक, भक्तिपूजनादि की विधि समाप्त कर, इंद्र प्रभु को वापिस त्रिशला देवी की गोद में सुला, प्रभुप्रतिबिंब ले, माता की अवस्वापनिका निद्रा हर, घर में बत्तीस करोड़ मूल्य के रत्न, सुवर्ण, रजतादि की वृष्टि करवाकर प्रभु को या प्रभु की माता को कष्ट देने का कोई उपद्रव न करे ऐसी घोषणा करवाकर अपने स्थान पर गया। .. . . - सिद्धार्थ राजा ने सवेरे ही प्रभु का जन्मोत्सव मनाया, कैदियों को 1. तीर्थंकरों में कितना बल होता है? इसका उल्लेख शास्त्रों में इस तरह किया गया बारह योद्धाओं का बल एक गोद्धा (बैल) में होता है; दस बैलों का बल एक घोड़े में होता है; बारह घोडों का बल एक भैसे में होता है; पंद्रह भैसों का बल मत्तं हाथी में होता है; पांच सौ मत्त हाथियों का बल एक केसरी सिंह में होता है; दो हजार केसरी सिंहों का बल एक अष्टापद में होता है; दस लाख अष्टापदों का बल एक बलदेव में होता है; दो बलदेवों का बल एक वासुदेव में होता है; दो वासुदेवों का बल एक चक्रवर्ती में होता है; एक लाख चक्रवर्तियों का बल एक नागेन्द्र में होता है; एक करोड़ नागेन्द्रों का बल एक इंद्र में होता है ऐसे अनंतें इंद्रों का बल जिनेन्द्रों की चट्टी अंगुली में होता है। . इसलिए तीर्थंकर 'अतुल बलधारी' कहाते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 209 : Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़ दिया, प्रजाजनों को - राज्य का ऋण छोड़कर अथवा खजाने से कर्जा चुकवाकर ऋणमुक्त किया, सब तरह से 'कर' छोड़ दिये और राज्यभर में ऐसी व्यवस्था कर दी कि प्रजाजन दस दिन तक आनंदोत्सव करते रहें। बारह दिन सिद्धार्थ राजा ने प्रभु का नाम 'वर्द्धमान' रखा; कारण जब से भगवान गर्म में आये तब से सिद्धार्थ राजा के राज्य में धन-धान्यादि की वृद्धि हुई, शत्रु परास्त हुए और सब तरफ सुख शांति बढ़ी थी। (देव का गर्व हरण किया) : ____ जब वर्द्धमान स्वामी आठ वर्ष के हुए तब की बात है। वे अपनी उम्र के लड़कों के साथ एक उद्यान में खेल रहे थे। उस समय प्रसंगवश इंद्र ने वर्द्धमान स्वामी की वीरता और धीरता की प्रशंसा की। एक मिथ्यात्वी देव को मनुष्य की वीरता के बखान अच्छे न लगे। इसलिए वह तुरत वहां आया . जहां सभी बालक खेल रहे थे। . जब देव पहुंचा तब वे आमल की क्रीडा करते थे। वर्द्धमान स्वामी और कई लड़के झाड़ पर चढ़े हुए थे। देव भयंकर सर्प का रूप धरकर झाड़ के लिपट गया। उसे देखकर लड़के बहुत डरे। वर्द्धमान स्वामी ने लड़कों को धीरज बंधायी। फिर प्रभु नीचे उतरे। उन्होंने सर्प को पूंछ से पकड़कर एक झटका मारा। वह ढीला पड़ गया और झाड़े से उसके बंधन निकल गये। प्रभु ने उसे तिनके की तरह एक तरफ फैंक दिया। लड़के फिर दूसरा खेल खेलने लगे। उसमें जीतनेवाला दूसरे 1. पुत्र जन्मोत्सव के समय, युवराज के अभिषेक के समय और विजयोत्सव के समय कैदियों को छोड़ने की और कर बंद करने की प्राचीन पद्धति थी। 2. लड़के झाड़ पर चढ़ते है, एक लड़का उनको पकड़ता है। जब पकड़नेवाला झाड़ पर चढ़ता है तब दूसरे कुछ लड़के नीचे कूदकर या उतर कर, पकड़नेवाले की एक लकड़ी-जो अमुक गोल कुंडाले में रहती है - दूर फेंक देते हैं। इससे पकड़नेवाले लड़के को वह लकड़ी लेने जाना पड़ता है। जब तक वह लकड़ी कुंडाले में नहीं होती तब तक वह किसको नहीं पकड़ सकता। 'यही आमल की क्रीडा' है। : श्री महावीर चरित्र : 210 : Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लड़कों पर सवारी करता था। वर्द्धमान स्वामी जीते। वे सब राजकुमारों पर चढ़-चढ़ कर दांव लेने लगे। लड़के का रूप धारण किये हुए देव भी उनके अंदर था। उसकी घोड़ा बनने की पारी आयी। वह प्रभु को लेकर भागा और इतना ऊंचा हो गया कि उसके कंधे पर बैठे हुए वर्द्धमान स्वामी ऐसे मालूम होने लगे मानों वे आकाश में पहुंच गये हैं। लड़के भय से चिल्लाये। वर्द्धमान स्वामी ने अपने ज्ञानबल से उसकी दुष्टता जानी और उसके कंधे पर जोर से एक घूंसा मारा। वह दुःख से चिल्लाकर छोटे लड़कों सा हो गया। उसने प्रभु को कंधे से उतारा और अपने देवरूप से प्रभु को नमस्कार किया। फिर वह अपने स्थान पर चला गया। अध्ययन : जब वे 'आठ वर्ष के हुए तब पाठशाला में भेजने की विधि की, उस समय इंद्र का आसन कांपा । उसने अवधिज्ञान से प्रभु को पाठशाला भेजने की बात जानकर एक ब्राह्मण का रूप धरकर आया और उसने उपाध्याय से कुछ प्रश्न पूछे। उपाध्याय जवाब न दे सका तब प्रभु ने उसके प्रश्नों के उत्तर दिये। यह देखकर सभी लोगों को अचरज हुआ। फिर ब्राह्मण के रूप में आये हुए इंद्र ने कहा - 'हे उपाध्याय ! महावीर सामान्य बालक नहीं है। ये तो पूर्वोपार्जित पुण्य के कारण महान ज्ञानवान है। ' इंद्र ने महावीर स्वामी से शब्द - व्युत्पत्ति आदि व्याकरण संबंधी अनेक प्रश्न पूछे। उसे उन सबका योग्य उत्तर मिला। इससे उसको बहुत संतोष हुआ और उसने प्रभु के उत्तरों को जो उन्होंने इंद्र को और उसको दिये थे – संग्रह कर, जगत में जिनेन्द्र - व्याकरण के रूप में प्रसिद्ध किया। ब्याह और संतान : युवा होने पर वर्द्धमान स्वामी का ब्याह राजा समरवीर की पुत्री यशोदादेवी के साथ हुआ। वर्द्धमान स्वामी की इच्छा शादी करने की न थी; परंतु माता पिता की प्रसन्नता के लिए और अपने भोगावली कर्मों का उपभोग किये बिना छुटकारा न था इसलिए उन्होंने ब्याह किया था। यशोदादेवी की कोख से प्रियदर्शना नाम की एक कन्या हुई । : श्री तीर्थंकर चरित्र : 211 : Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उसका ब्याह जमाली नामक राजपुत्र के साथ हुआ। जमाली महावीर स्वामी की बहन सुदर्शना का पुत्र था। दीक्षा : जब वर्द्धमान स्वामी की आयु २८ बरस की हुई तब उनके मातापिता आयु पूर्ण कर के अच्युत देवलोक में गये। 1 महावीर स्वामी के बड़े भाई नंदिवर्द्धन राज्यगद्दी पर बैठे । कुछ दिनों के बाद महावीर स्वामी ने अपने बड़े भाई नंदिवर्द्धन से दीक्षा लेने की आज्ञा मांगी। भाई ने दुःख से कहा - 'बंधु ! अभी मातापिता के वियोग का दुःख भी नहीं मिटा है, फिर तुम वियोग-दुःख देने की बात क्यों करते हो?' प्रभु ने ज्येष्ठ बंधु की बात मानकर और थोड़े दिन घर पर ही रहना स्थिर किया। घर पर वे भावयति होकर संयम से समय बिलाने लगे। एक वर्ष के बाद लोकांतिक देवों की प्रार्थना से वरसी दान देकर महावीर स्वामी ने दीक्षा लेने की तैयारी की। नंदिवर्द्धन ने ५० धनुष लंबी, ३६ धनुष लंबी, ३६ धनुष ऊंची और २५ धनुष चौड़ी चंद्रप्रभा नाम की एक पालखी तैयार करायी। प्रभु उसमें विराजमान हुए और इंद्रादि देव उसे उठाकर 'ज्ञातखंड' नाम के उपवन में ले गये। प्रभु ने पालखी से उतर कर वस्त्राभूषणों का त्याग किया। इंद्र ने उनके कंधे पर देवदूष्य वस्त्र डाला। प्रभु ने पंच मुष्टि लोचकर सिद्धों को नमस्कार किया। मार्गशीर्ष कृष्णा दशमी के दिन चंद्र जब हस्तोत्तरा नक्षत्र में आया था तब चारित्र ग्रहण किया। उसी समय प्रभु को मनः पर्यवज्ञान उत्पन्न हुआ। जिस समय महावीर स्वामी ने दीक्षा ग्रहण की उस समय उनकी उम्र ३० वर्ष की हो चुकी थी । 1. सिद्धार्थ की आयु ८७ और त्रिशलादेवी की ८५, नंदीवर्द्धन की ९८, यशोदादेवी की ९०, सुदर्शना की ८५, प्रियद्रशना की ८५ वर्ष की थी। (म. च. पृ. २०८ ) : श्री महावीर चरित्र : 212 : Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आधे देवदूष्य वस्त्र का दान : जब प्रभु विहार करने के लिए चले तब रस्ते में 'सोम' नाम का एक ब्राह्मण मिला। वह बोला – 'हे प्रभु! आपके दान से सारा जगत (मगधदेश?) दरिद्रता से मुक्त हो गया है। मैं ही भाग्यहीन हूं कि मेरी दरिद्रता अब तक न गयी। प्रभो! मेरी निर्धनता भी दूर कीजिए।' प्रभु बोले – 'हे विप्र! मेरे पास इस समय कुछ नहीं है। देवदूष्य वस्त्र है। इसका आधा तूं ले जा।' सोम ब्राह्मण! आधा देवदूष्य वस्त्र फाड़कर ले गया। ब्राह्मण जब वह कपड़ा तूननेवाले के पास ले गया तब उसने कहा'हे ब्राह्मण! अगर तूं इसका आधा भाग ले आयगा तो इसकी कीमत एक लाख दीनार (सोने का सिक्का) मिलेगी।' ब्राह्मण वापिस महावीर स्वामी के पास गया। उनके साथ-साथ वह तेरह महीने तक फिरा। बाद में एक दिन प्रभु जब मोराक गांव से उत्तर वाचाल नामके गांव को जाते थे तब रास्ते में 'सुवर्णवालुका' नाम की नदी के किनारे झाडों में उनका आधा देवदूष्य वस्त्र फंस गया। ब्राह्मण ने तुरत दौड़कर वह वस्त्र उठा लिया। प्रभु ने पीछे फ़िर कर देखा और ब्राह्मण को वस्त्र उठाते देख आगे का रास्ता लिया। ब्राह्मण वह वस्त्रार्द्ध लेकर तूननेवाले के पास गया। तूननेवाले ने दोनों टुकड़ों को बेमालूम तूना और तब एक लाख दीनार में उस वस्त्र को बेच दिया। ब्राह्मण और तूननेवाला दोनों ने पचास पचास हजार दीनार ले ली। (गवाल-कृत उपसर्ग) : प्रभु दीक्षा लेकर पहले दिन कुमार' गांव में पहुंचे। वहां गांव के बाहर कायोत्सर्ग करके रहे। एक गवाल शाम को वहां आया और अपने बैलों को वहीं छोड़कर गांव में गायें दुहने चला गया। बैल फिरते हुए कहीं जंगल में चले गये। जब गवाला वापिस आया तब वहां बैल नहीं थे। उसने महावीर 1. क्षत्रियकुंड अथवा वैशाली से नालंदा जाते समय रास्ते में लगभग १७-१८ माइल पर एक कुस्मर नाम का गांव है। संभवत: यही गांव पहले 'कुमार' नाम से प्रसिद्ध हो। (दश उपासको पेज ३६) : श्री तीर्थंकर चरित्र : 213 : Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ स्वामी से बैलों के लिए पूछा; परंतु ध्यानस्थ वीर से उसे कोई जवाब न मिला। वह बैलों को ढूंढने जंगल में गया। सारी रात ढूंढता रहा; मगर उसे . कहीं बैल न मिले। बेचारा हारकर वापिस आया तो क्या देखता है कि बैल महावीर स्वामी के सामने बैठे हुए जुगाली कर रहे हैं। गवाले को बड़ा क्रोध आया। उसने सोचा – ध्यान का ढोंग करनेवाले इसी बाबे ने मेरे बैल छिपाये थे। इसका विचार बैल चुराकर भाग जाने का था। उसने प्रभु को अनेक भली बुरी बातें कहीं; परंतु प्रभु तो मौन ही रहे। वे बोलते भी कैसे? उन्होंने तो रातभर के लिए कायोत्सर्ग कर दिया था। वह महावीर स्वामी को मारने दौडा। इंद्र ने भगवान ने किस तरह यह रात बितायी ऐसा अबधिज्ञान से देखा तो उसी समय गवाले को प्रभु पर झपटते देखा। तत्काल ही गवाले को अपने दैवबल से वहीं स्तंभित कर इंद्र प्रभु के पास पहुंचा और गवाले को तिरस्कार कर बोला – 'मूर्ख! तूं क्या नहीं जानता कि ये सिद्धार्थ राजा के पुत्र वर्द्धमान स्वामी हैं?' वर्द्धमान स्वामी का नाम सुनते ही बेचारा गवाला भयभीत हुआ और वहां से चला गया। स्वावलंबन का इंद्र को उपदेश : जब प्रभु ने कायोत्सर्ग का त्याग किया तब इंद्र ने प्रदक्षिणा देकर वंदना की और कहा - 'प्रभो! बारह वर्ष तक आप पर निरंतर उपसर्ग होंगे इसलिए यदि आप आज्ञा दें तो मैं आपकी सेवा में रहूं।' प्रभु ने जलद गंभीरं वाणी में उत्तर दिया- 'हे इंद्र! अर्हत दूसरों की सहायता नहीं चाहते। अंतरंग शत्रु काम क्रोधादि को जीतने के लिए दूसरों की सहायता निकम्मी है। कर्मों का नाशकर केवलज्ञान प्राप्त करने के लिए किन्हीं तीर्थंकर ने आज तक न किसी की सहायता ली है और न भविष्य में लेंगे। वे हमेशां निजात्म- बल ही से कर्मशत्रुओं का नाश कर मोक्षलक्ष्मी को प्राप्त करते हैं। ' इंद्र मौन हो गया। वह क्या बोलता? प्रभु का कथन स्वावलंबन का और उन्नत बनने का राजमार्ग है। इसके विपरीत वह क्या कहता ? वह प्रभु : श्री महावीर चरित्र : 214 : Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ को नमस्कार कर वहां से चला। जाते वक्त सिद्धार्थ नाम के व्यंतर देव को उसने आज्ञा की - 'तूं-प्रभु के साथ रहना और ध्यान रखना कि कोई इन पर प्राणांत उपसर्ग न करे।' प्राणांत उपसर्ग होने पर भी तीर्थंकर कभी नहीं मरते। कारण १. उनका शरीर 'वज्रऋषभ नाराच' संहननवाला होता है। २. वे निरूपक्रम आयुष्यवाले होते हैं। छट्ठ (बेला) का पारणा : दूसरे दिन छट्ठ का पारणा करने के लिए कोल्लाक2 गांव में गये। वहां बहुल नामक ब्राह्मण के घर प्रभु ने परमान्न से (खीर से) पारणा किया। देवताओं ने उसके घर वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट किये। भक्तिजात उपसर्ग :- . दीक्षा के समय प्रभु के शरीर पर देवताओं ने गोशीर्ष चंदन आदि सुगंधित पदार्थों का विलेपन किया था। इससे अनेक भंवरे और अन्य जीवजंतु प्रभु के शरीर पर आ आकर डंख मारते थे और सुगंध का रसपान करने की कोशिश करते थे। अनेक जवान प्रभु के पास आ आकर पूछते थे – 'आपका शरीर ऐसा सुगंधपूर्ण कैसे रहता है? हमें भी वह तरकीब बताइए; वह औषधी दीजिए जिससे हमारा शरीर भी सुगंधमय रहे। परंतु मौनावलंबी प्रभु से उन्हें कोई जवाब नहीं मिलता। इससे वे बहुत क्रुद्ध होते और प्रभु को अनेक तरह से पीड़ा पहुंचाते। . ___ अनेक स्वेच्छा-विहारिणी स्त्रियां प्रभु के त्रिभुवन-मन-मोहन रूप को 1. आयु दो तरह की होती है। एक सोपक्रम और दूसरी निरुपक्रमा सात तरह के उपक्रमों में से घातों में से किसी भी एक उपक्रम से किसी की आयु जलदी समाप्त हो जाती है उसे सोपक्रम आयुवाला कहते हैं। व्यवहार की भाषा में हम कहते हैं इनकी आयु टूट गयी है। निरुपक्रम आयु कभी किसी भी आघात से नहीं टूटती। 2. क्षत्रिय कुंड से राजगृह जाते समय रास्ते में कहीं वह गांव होगा और अब इसका कोई निशान नहीं रहा है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 215 : Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ देखकर काम पीड़ित होती और दवा की तरह प्रभु-अंगसंग चाहती; परंतु वह न मिलता। वे अनेक तरह से प्रभु को उपसर्ग करती और अंत में हार कर चली जाती। दुइजंतक तापसों के आश्रम में : ___ महावीर स्वामी विहार करते हुए मोराक नामक गांव के पास आये। वहां दुइज्जंतक जाति के तापस रहते थे। उन तापसों का कुलपति सिद्धार्थ राजा का मित्र था। उसने प्रभु से मिलकर वहीं रहने की प्रार्थना की। प्रभु रात्रि की प्रतिमा धारण कर वहीं रहे। दूसरे दिन सवेरे ही जब वे विहार करने लगे तब कुलपति ने आगामी चातुर्मास वहीं व्यतीत करने की प्रार्थना की। प्रभु ने वह प्रार्थना स्वीकारी। अनेक स्थलों में विहार कर चातुर्मास के आरंभ में प्रभु मोराक गांव में आये। कुलपति ने प्रभु को घासफूस की एक झोंपड़ी में ठहराया। जंगलों में घास का अभाव हो गया था और वर्षा से नवीन घास अभी उगी न थी। इसलिए जंगल में चरने जानेवालें ढोर जहां घास देखते वहीं दौड़ जाते। कई ढोर तापसों के आश्रम की ओर दौड़ पड़े और उनकी झोंपड़ियों का घास खाने लगे। तापस अपनी झोंपड़ियों की रक्षा करने के लिए डंडे ले ले कर पिल पड़े। ढोर सब भाग गये। जिस झौंपड़ी में महावीर स्वामी रहते थे, उस तरफ कुछ ढोर गये और घास खाने लगे। प्रभु तो निःस्वार्थ, परहित परायण थे। भला वे ढोरों के हित में क्यों बाधा डालने लगे? वे अपने आत्मध्यान में लीन रहे और ढोरों ने उनकी झोंपड़ी की घास खाकर आत्मतोष किया। ताफ्स महावीर स्वामी की इस कृति को आलस्य और दंभपूर्ण समझने लगे और मन ही मन क्रुद्ध भी हुए। कुछ तापसों ने जाकर कुलपति को कहा – 'आप कैसे अतिथि को लाये हैं? वह तो अकृतज्ञ, उदासीन, दाक्षिण्य हीन और आलसी है। झौंपड़ी की घास ढोर खा गये हैं और वह चुपचाप बैठा देखता रहा है। क्या वह अपने को निर्मोही मुनि समझ चुप बैठा है? और क्या हम गुरु की सेवा करनेवाले मुनि नहीं है?' : श्री महावीर चरित्र : 216 : Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तापसों की शिकायत सुन कुलपति महावीर स्वामी के पास आया। उसने प्रभु को उपालंभ की तरह कहा – 'तुमने इस झौंपड़ी की रक्षा क्यों न की? तुम्हारे पिता सब की रक्षा करते रहे, तुम एक झौंपड़ी की भी रक्षा न कर सके? पक्षी भी अपने घौंसले को बचाते हैं पर तुम अपनी झोंपड़ी की घास भी न बचा सके? आगे से खयाल रखना।' कुलपति चला गया। उस बेचारे को क्या पता था कि देह तक से जिनको मोह नहीं है वे महावीर इस झौंपडी की रक्षा में कब कालक्षेप करनेवाले थे? अहिंसा के परम उपासक, ढोरों को पेट भरने से वंचित कर कब उनका मन दुखानेवाले थे? प्रभु ने सोचा – 'मेरे यहां रहने से तापसों का मन दुःखता है इसलिए यहां रहना उचित नहीं है। उसी समय प्रभु ने निम्न लिखित पांच नियम लिये १. जहां अप्रीति हो वहां नहीं रहना। २. जहां रहना वहां खड़े हुए कायोत्सर्ग करके रहना। ३. प्रायः मौन धारण करके रहना। ४. कर-पात्र से भोजन करना। .५. गृहस्थों का विनयं न करना। शूलपाणि यक्ष को प्रतिबोध (पहला चौमास) भगवान मोराक गांव से विहार करके 'अस्थिक नामक गांव में 1. वर्द्धमान नाम का एक गांव. था। उसके पास वेगवती नाम की नदी थी। धनदेव नामक एक सार्थवाह कहीं से माल भर के लाया। उस समय वेगवती नदी में पूर था। सामान्य बैल माल से भरी गाड़ी खींचकर नदी पार करने में असमर्थ थे। इसलिए उसने अपने एक बहुत बड़े हष्ट पुष्ट बैल को हरेक गाड़ी के आगे जोता। इस तरह उस बैल ने पांच सौ गड़ियां नदी पार की मगर बैल को इतनी अधिक महेनत पड़ी कि वह खून उगलने लगा। धनदेव ने गांव के लोगों को इकट्ठा कर उन्हें प्रार्थना की - 'आप मेरे इस बैल का इलाज कराने की कृपा करें। मैं इसके खर्चे के लिए आपको यह धन भेट करता हूं।' लोगों ने उसकी प्रार्थना स्वीकार की और धन ले लिया। धनदेव चला गया। गांव के लोग धन हजम कर गये। बैल की कुछ परवाह नहीं की। बैल मरकर व्यंतर देव हुआ। उसने देव होकर लोगों की क्रूरता, अपने विभंग ज्ञान से देखी और क्रुद्ध होकर गांव में महामारी का रोग फैलाया। लोग इलाज करके थक गये; : श्री तीर्थंकर चरित्र : 217 : Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आये। पहला चौमासा यहीं किया। पंद्रह दिन इस चौमासे के मोराक गांव में बिताये थे। और शेष साढ़े तीन महीने अस्थिक गांव में बिताये थे। गांव में • आकर शूलपाणि यक्ष के मंदिर में ठहरने की गांव के लोगों से महावीर स्वामी ने आज्ञा चाही। लोगों ने यक्ष का भय बताकर कहा – 'इस जगह जो कोई मनुष्य रात को ठहरता है उसे यक्ष मार डालता है, इसलिए आप अमुक दूसरे स्थान पर ठहरिए।' निर्भय हृदयी महावीर ने वहीं रहने की इच्छा प्रकट की और लाचार होकर गांव के लोगों ने अनुमति दी। . भगवान को अपने मंदिर में देख यक्ष बड़ा नाराज हुआं और उसने उनको अनेक तरह से कष्ट पहुंचाया। श्रीमद् हेमचंद्राचार्य ने उसका वर्णन इस तरह किया है - 'प्रभु जहां कायोत्सर्ग करके रहे थे वहां व्यंतर ने अहहास्य किया। उस भयंकर अट्टहास्य से चारों तरफ ऐसा मालूम होने लगा मानों आकाश फट गया है और नक्षत्र मंडल टूट पड़ा। 'मगर प्रभु के हृदय में इसका कोई मगर कुछ फायदा नहीं हुआ। फिर देवताओं की प्रार्थना करने लगे। तब व्यंतर देव बोला - 'मैं वही बैल हं जिसके लिए मिला हुआ धन तुम खा गये हो और जिसे तुमने भूख से तड़पाकर मार डाला है। मेरा नाम शूलपाणि है। अब मैं तुम सबको मार डालूंगा।' लोगों के बहुत प्रार्थना करने पर उसने कहा - 'मरे हुए मनुष्यों की हड्डियां इकठ्ठी को उस पर मेरा एक मंदिर बनवाओ। उसमें बैल के रूप में मेरी मूर्ति स्थापन करो और नियमित मेरी पूजा होती रहे इसका प्रबंध कर दो।' गांववालों ने शूलपाणि का मंदिर बनवा दिया और उसकी सेवा पूजा के लिए इंद्रशर्मा नामके एक ब्राह्मण को रख दिया। तभी से इस गांव का नाम वर्द्धमान की जगह अस्थिक गांव हो गया। 1. (त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र के गुजराती भाषांतर के फुट नोट में लिखा है कि 'काठियावाड़ का वढ़वाण शहर ही पुराना वर्द्धमान गांव है। वहीं शूलपाणि यक्ष का मंदिर भी है और उसकी प्रतिमा भी।' परंतु हमें यह अनुमान ठीक नहीं जान पड़ता। कारण १. मोराक मगध में था। मगध से चौमासे के १५ दिन बिताकर, बाकी साढ़े तीन महीने बिताने के लिए काठियावाड़ में आ नहीं सकते थे। आते तो आधे से ज्यादा चौमासा रास्ते ही में बीत जाता। २. चौमासा समाप्त होने पर फिर. भगवान मोराक गांव में जाते हैं। इससे साफ है कि अस्थि गांव या वर्द्धमान गांव कहीं मगध में या इसके आसपास ही होना चाहिए।] : श्री महावीर चरित्र : 218 : Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ असर नहीं हुआ, तब उसने भयंकर हाथी का रूप धारण किया; परंतु महावीर स्वामी ने उसकी भी परवाह न की। तब उसने भूमि और आकाश के मानदंड जैसे शरीरवाले पिशाच का रूप धरा; मगर प्रभु उससे भी न डरे तब उस दुष्ट ने यमराज के पाश के समान भयंकर सर्प का रूप धारण किया। अमोघ विष -के झरणे के समान उस सर्प ने प्रभु के शरीर को दृढ़ता के साथ कस लिये और डसने लगा। जब सर्प का भी कोई असर न हुआ तब उसने प्रभु के सिर, आंखें, मूत्राशय, नासिका, दांत, पीठ और नाक इन सात स्थानों पर पीड़ा उत्पन्न की। वेदना इतनी तीव्र थी कि, सात की जगह एक की पीड़ा ही किसी सामान्य मनुष्य के होती तो उसका प्राणांत हो जाता; मगर महावीर स्वामी पर उसका कुछ भी असर न हुआ।' जब शूलपाणि प्रभु को कोई हानि न पहुंचा सका तब उसे अचरज हुआ और उसने प्रभु से क्षमा मांगी। इंद्र का नियत किया हुआ सिद्धार्थ नाम का देव भी पीछे से आया और उसने शूलपाणि यक्ष को डराया' यक्ष शांत . रहा। तब सिद्धार्थ ने उसे धर्मोपदेश दिया। यक्ष सम्यक्त्व धारण कर प्रभु की भक्ति करने लगा। - रातभर महावीर स्वामी का शरीर उपसर्ग सहते सहते शिथिल हो गया था। इसलिए उन्हें सवेरा होते होते कुछ नींद आ गयी। उसमें उन्होंने दस स्वप्नं देखें। . .. गांव के लोग सवेरे ही मंदिर में आये। उन्होंने महावीर स्वामी को सुरक्षित और पूजित देखकर हर्षनाद किया। गांव के लोगों में उत्पल नाम का निमित्तं ज्ञानी भी था। उसने महावीर स्वामी को, जो स्वप्न आये थे .. 1. भगवान पर. रातभर उपसर्ग हुए मगर सिद्धार्थ न मालूम कहां लापता रहा। जब कष्ट सहकर महावीर ने कष्टदाता के हृदय को बदल दिया तब सिद्धार्थ देवता यक्ष को धमकाने आया। इससे मालूम होता है कि कर्म के भोग भोगने ही हैं किसी की मदद कोई काम नहीं देती। मनुष्य आप ही शांति से कष्ट सहकर दुःखों से मुक्त हो सकता है। पं. श्री कल्याण विजयजी ने 'श्रमण भगवान् महावीर' पुस्तक में सिद्धार्थ के मुख से कहलवाने की बातें संदिग्ध बतायी है। जहां आवश्यक था वहां भगवान स्वयं बोले हैं ऐसा लिखा है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 219 : Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उनका फल, बिना पूछे ही कहा।' फिर सभी महावीर स्वामी के धैर्य व तप की तारीफ करते हुए अपने-अपने घर गये। . महावीर स्वामी ने अर्द्ध अर्द्ध मासक्षपण करके चातुर्मास व्यतीत किया। चौमासा समाप्त होने पर वे अन्यत्र विहार कर गये। जब प्रभु विहार करने लगे तब यक्ष ने महावीर स्वामी के चरणों में नमस्कार किया और कहा- 'हे नाथ! आपके समान कौन उपकारी होगा कि जिसने अपने सुख की ही नहीं बल्के जीवन की भी परवाह न करके मुझे सन्मार्ग में लगाने के लिए, मेरे स्थान में रहकर मुझ पापी ने जो कष्ट दिये वे सब शांति से रहे। प्रभो! मेरे अपराधों की क्षमा कीजिए।' निर्वैर महावीर स्वामी उसे आश्वासन . देकर अन्यत्र विहार कर गये। 1. स्वप्न और उनके फल इस प्रकार हैं - १. पहले स्वप्न में ताड़वृक्ष के समान पिशाच को मारा; इसका यह अभिप्राय है कि आप मोह का नाश करेंगे। २. दूसरे स्वप्न में सफेद पक्षी 'देखा; इससे आप शुक्लध्यान में लीन होंगे। ३. तीसरे स्वप्न में आपने आपकी सेवा करता हुआ कोकिल देखा; इससे आप द्वादशांगी का उपदेश देंगे। ४. चौथे स्वप्न में आपने गायों का समूह देखा; जिससे आपके साधु, साध्वी और श्रावक, श्राविका रूप चतुर्विध संघ होगा। ५. पांचवें स्वप्न में आप समुद्र तैर गये; इसका मतलब यह है कि आप संसार-सागर को तैरेंगे। ६. छटे स्वप्न में उगता सूर्य देखा; इससे थोड़े ही समय में आपको. केवलज्ञान प्राप्त होगा। ७. सातवें स्वप्न में मानुषोत्तर पर्वत को आंतों से लिपटा हुआ देखा; इससे आपकी कीर्ति दिग्दिगांत में फैलेगी। ८. आठवें स्वप्न में मेरु पर्वत के शिखर पर चढे; इससे आप समवसरण के अंदर सिंहासन पर बैठकर धर्मोपदेश देंगे। ९. नवें स्वप्न में पद्म सरोवर देखा; इससे सारे देवता आपकी सेवा करेंगे। १०. दसवें स्वप्न में फूलों की दो मालाएँ देखी; इसका मतलब निमित्तज्ञानी न समझ सका इसलिए महावीर स्वामी ने खुद बताया कि- मैं साधु और गृहस्थ का ऐसे दो तरह का धर्म बताऊंगा। नोट :- स्वप्नों का क्रम कल्पसूत्र के अनुसार दिया है। त्रिषष्ठिशलाका पुरुष चरित्र में दसवां स्वप्न चौथा है और नवाँ स्वप्न छट्ठा है। 2. आधा महीना यानी पंद्रह दिन उपवास करके पारणा करना; फिर. पंद्रह दिन उपवास करके पारणा करना। इस तरह चौमासे के साढ़े तीन महीने में प्रभु ने केवल छ: बार आहारपानी लिया था। : श्री महावीर चरित्र : 220 : Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दूसरे के दुःख का खयाल : दीक्षा लिये को एक बरस हो जाने के बाद महावीर स्वामी विहार करते हुए फिर मोराक गांव आये और गांव के बाहर उद्यान में प्रतिमा धारण कर रहे। उस गांव में अच्छंदक नाम का एक ज्योतिषी रहता था और यंत्र मंत्रादि से अपनी आजीविका चलाता था। उसका प्रभाव सारे गांव में था। (उसके प्रभाव के कारण किसी ने प्रभु की पूजा प्रतिष्ठा नहीं की इसलिए) उसके प्रभाव को सिद्धार्थ न सह सका इससे और लोगों से प्रभु की पूजा कराने के इरादे से, उसने गांव के लोगों को चमत्कार दिखाया। इससे लोग 1अच्छंदक की उपेक्षा करने लगे। उसका मान घट गया और उसे रोटी 1. अच्छंदक का पूरा हाल त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र से यहां अनुदित किया जाता है – 'उस समय उस (मोराक) गांव में अच्छंदक नाम का एक पाखंडी रहता था। वह मंत्र, तंत्रादि से अपनी आजीविका चलाता था। उसके महात्म्य . को सिद्धार्थ व्यंतर सहन न कर सका इससे और वीर प्रभु की पूजा की अभिलाषा से सिद्धार्थ ने प्रभु के शरीर में प्रवेश किया। फिर एक जाते हुए गवाले को बुलाया और कहा - 'आज तूंने सौवीर (एक तरह की कांजी) के साथ कंगकूर (एक तरह का धान्य) का भोजन किया है। अभी तूं बैलों की रक्षा करने जा रहा है। यहां आते हुए तूंने एक सर्प को देखा था और आज रात को सपने में तूं खूब रोया था। गवाल! सच कह? मैंने जो कुछ कहा है वह यथार्थ है या नहीं?' गवाला बोला - 'बिलकुलं सही है।' उसके बाद सिद्धार्थ ने और भी कई ऐसी बातें कहीं जिन्हें सुनकर गवाले को बड़ा अचरज हुआ। उसने गांव में जाकर कहा-'अपने गांव के बाहर एक त्रिकाल की बात जाननेवाले महात्मा आये हैं। उन्होंने मुझे सब सच्ची बातें बतायी हैं।' लोग कौतुक से फूल, अक्षत आदि पूजा का सामान लेकर महावीर स्वामी के पास आये। उन्हें देखकर सिद्धार्थ बोला – 'क्या तुम मेरा चमत्कार देखने आये हो?' लोगों ने कहा – 'हां।' तब सिद्धार्थ ने उन्हें कई ऐसी बातें बतायी जिन्हें उन्होंने पहले देखी, सुनी या अनुभवी थी। सिद्धार्थ ने कई भविष्य की बातें भी बतायी। इससे लोगों ने बड़े आदर के साथ प्रभु की पूजा, वंदना की। लोग चले. गये। लोग इसी तरह कई दिन तक आते रहे और सिद्धार्थ उन्हें नयी नयी बातें बताता रहा। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 221 : Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक बार गांव के लोगों ने आकर कहा – 'महाराज! हमारे गांव में एक अच्छंदक नाम ज्योतिषी रहता है। वह भी आपकी तरह जानकार है।' सिद्धार्थ बोला – 'वह तो पाखंडी है। कुछ नहीं जानता। तुम्हारे जैसे भोले लोगों को ठगकर पेट भरा करता है।' लोगों ने आकर अच्छंदक को कहा - 'अरे! तूं तो कुछ नहीं जानता। भूत, भविष्य और वर्तमान की सारी बातें जाननेवाले महात्मा तो गांव के बाहर ठहरे हुए हैं।' यह सुन अपनी प्रतिष्ठा के नाश का खयालकर वह बोला – 'हे लोगो! वास्तविक परमार्थ को नहीं जाननेवाले तुम लोगों के सामने ही वह बातें बनाता है। अगर वह मेरे सामने कुछ जानकारी जाहिर करे तो मैं समझू कि, वह सचमुच ही ज्ञाता है। मेरे साथ चलो। मैं तुम्हारे सामने ही आज उसका अज्ञान प्रकट कर दूंगा।' यह कहकर क्रुद्ध अच्छंदक महावीर स्वामी के पास आया। गांव के कौतुकी लोग भी उसके साथ आये। अच्छंदक ने एक तिनका अपनी ऊंगलियों के बीच में पकड़कर कहा - 'बोलो, यह तिनका मुझसे टूटेगा या नहीं?' उसने सोचा था - अगर ये कहेंगे कि टूटेगा तो मैं उसे नहीं तोडूंगा, अगर कहेंगे नहीं टूटेगा तो मैं उसे तोड़ दूंगा। . और इस तरह उनकी बात को झूठ ठहराऊंगा। सिद्धार्थ बोला – 'यह नहीं टूटेगा।' वह ज्योंही उस तिनके को तोड़ने के लिए तैयार हुआ कि उसकी पांचों ऊंगलियां कट गयी। यह देखकर गांव के लोग हंसने लगे। इस तरह अपनी बेइज्जती होते देख अच्छंदक पागल की तरह वहां से चला गया। . जिस समय अच्छंदक और सिद्धार्थ की बातें हो रही थी उस समय इंद्र ने प्रभु का स्मरण किया था। उसने अवधिज्ञान द्वारा सिद्धार्थ और अच्छंदक की बातें जानी और प्रभु के मुख से निकली हुई बात मिथ्या न होने देने के लिए उसने अच्छंदक की ऊंगलियां काट डाली। .. अच्छंदक के चले जाने पर सिद्धार्थ बोला – 'वह चोर हैं।' लोगों ने पूछा - 'उसने किसका क्या चोरा है?' सिद्धार्थ बोला - इस गांव में एक वीर घोष नाम का सेवक है।' वह सुनते ही वीर घोष खड़ा हुआ और बोला – 'क्या आज्ञा है?' सिद्धार्थ बोला – 'पहले दस पल प्रमाण का एक पात्र तेरे घर से चुराया गया है?' वीरघोष ने कहा – 'हां,' सिद्धार्थ बोला – 'अच्छंदक ने उसे चुराया है। तेरे घर के पीछे पूर्व दिशा में सरगवा (खजूर) का एक पेड़ है। उसके नीचे एक हाथ का खड्डा खोदकर उसमें वह पात्र अच्छंदक ने गाड़ा है। जा ले आ।' वीरघोष गया और खोदकर पात्र ले आया। वह देखकर गांव के लोग अच्छंदक को बुरा भला कहने लगे। सिद्धार्थ फिर बोला – 'यहां कोई इंद्रशर्मा नाम का गृहस्थ है?' इंद्रशर्मा हाथ जोड़कर खड़ा हुआ और बोला - : श्री महावीर चरित्र : 222 : Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मिलनी भी कठिन हो गयी। यह देखकर अच्छंदक को बड़ा दुःख हुआ। वह प्रभु के पास आया और दीन वाणी में बोला – 'हे दयालु! आपकी तो जहां जायेंगे वहीं पूजा होगी; परंतु मेरे लिये तो इस गांव को छोड़कर अन्यत्र कहीं स्थान नहीं है। इसलिए आप दया कर कहीं दूसरी जगह चले जाइए।' प्रभु ने यह अभिग्रह ले ही रखा था कि, जहां अप्रीति उत्पन्न होगीमेरे कारण किसी को दुःख होगा - वहां मैं नहीं रहूंगा। इसलिए वे तुरत वहां से उत्तर वाचाल नामक गांव की तरह विहार कर गये। महावीर स्वामी विहार करते हुए श्वेतांबी नगरी की तरफ चले। रास्ते 'क्या आज्ञा है?' सिद्धार्थ बोला – 'पहले तुम्हारा एक मींढा खो गया था।' इंद्रशर्मा ने जवाब दिया - 'हां।' सिद्धार्थ ने कहा – 'उस मींढे को अच्छंदक मारकर खा गया है और उसकी हड्डियां बोरड़ी के झाड़ से दक्षिण में थोड़ी दूर पर गाड़ दी है। जाओ देख लो।' कई लोग दौड़े गये। उन्होंने खड्डा खोदकर देखा और वापिस आकर कहा – 'वहां हड्डियां हैं।' सिद्धार्थ बोला – 'उस पाखंडी के दुश्चरित्र की एक बात और है; मगर मैं वह बात न कहूंगा।' लोगों के बहुत आग्रह करने पर सिद्धार्थ बोला - 'अपने मुंह से वह बात मैं न कहूंगा; परंतु अगर तुम जानना ही चाहते हो तो उसकी औरत से पूछो।' । कुतूहली लोग अच्छंदक के घर गये। अच्छंदक अपनी स्त्री को दुःख दिया करता था। इससे वह नाराज थी और उस दिन तो अच्छंदक उसे पीट कर गया था, इससे और भी अधिक नाराज हो रही थी। इसलिए लोगों के, पूछने पर उसने कहा – “उस कर्मचांडाल का नाम ही कौन लेता है? वह पापी अपनी बहन के साथ भोग करता है। मेरी तरफ तो कभी वह देखता भी नहीं है।' लोग अच्छंदक को बुरा भला कहते हुए अपने घर गये। सारे गांव में अच्छंदक पापी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गांव में से उसे भिक्षा मिलनी भी बंद हो गयी। फिर अच्छंदक एकांत में वीर प्रभु के पास गया और दीन होकर बोला – 'हे भगवन्! आप यहां से कहीं दूसरी जगह जाइए। क्योंकि जो पूज्य होते हैं वे तो सभी जगह पुजते हैं और मैं तो यहीं प्रसिद्ध हूं। और जगह तो कोई मेरा नाम भी नहीं जानता। सियार का जोर उसकी गुफा ही में होता है। हे नाथ! मैंने अनजान में भी जो कुछ अविनय किया था उसका फल मुझे यहीं मिल गया है। इसलिए अब आप मुझ पर कृपा कीजिए।' उसके ऐसे दीन वचन सुनकर अप्रीतिवाले स्थान का त्याग करने के अभिग्रहवाले प्रभु वहां से उत्तर वाचाल नाम के गांव की तरफ विहार कर गये।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 223 : . Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ में गवालों के लड़के मिले। उन्होंने कहा – 'हे देवार्य! यह रास्ता सीधा श्वेतांबी जाता है; परंतु रास्ते में 'कनकखल' नाम का तापसों का आश्रम है। उसमें एक दृष्टि विष सर्प रहता है। उसके विष की प्रबलता के कारण पशु पक्षी तक इस रास्ते में नहीं जा सकते, मनुष्यों की तो बात ही क्या है? इसलिए आप इस रास्ते को छोड़कर उस दूसरे रास्ते से जाइए।' प्रभु ने अवधिज्ञान से सर्प को पहचाना' और उसका उद्धार करने के लिए उसी तरफ से जाना स्थिर किया। प्रभु जाकर चंडकौशिक के आश्रम में रहे। आश्रम के आसपास का सारा भूमिभाग भयंकर हो गया था। 1. यह सर्प पूर्व भव में एक साधु था। एक बार पारणे के दिन गोचरी के लिए क्षुल्लक के साथ गया। रास्ते में अजयणा से एक मेंढक मर गया।. क्षुल्लक ने कहा – 'महाराज आपके पैरों तले एक मेंढक मर गया है!'. साधु नाराज होकर बोला – 'यहां बहुत से मेंढक मरे पड़े हैं। क्या सभी मेरे पैरों तले दबकर मरे हैं?' क्षुल्लक यह सोचकर मौन हो रहा कि शाम को प्रतिक्रमण के समय महाराज इसकी आलोचना कर लेंगे।' मगर प्रतिक्रमण के समय भी साधु ने आलोचना नहीं की। तब क्षुल्लक ने मेंढक की बात याद दिलायी। इसको साधु ने अपना अपमान समझा और वह क्षुल्लक को मारने दौड़ा। अंधेरा था। मकान के बीच का थंभा साधु को न दिखा। थंभे से टकाराकर साधु का सिर फूट गया और वह साधुता की विराधना से मर। पूर्व तपस्या के कारण ज्योतिष्क देव हुआ। वहां से च्यवकर कनकखल नामक स्थान में पांच सौ तपस्वियों के कुलपति के घर जन्मा। नाम कौशिक रखा गया। वहां के तापसों का गोत्र भी कौशिका था। इसलिए सामान्य तया सभी कौशिक कहलाते थे। वह बहुत क्रोधी था, इससे इसका नाम 'चंडकौशिक' हुआ। चंडकौशिक का पिता मर गया तब वह खुद कुलपति हुआ। चंडकौशिक को अपने वन खंड पर बहुत मोह होने से वह किसी को वहां से, फल, पत्र, पुष्प आदि लेने नहीं देता था। इससे सभी तापस नाराज होकर वहां से चले गये। एक दिन वह कहीं गया हुआ था तब कुछ राजकुमार श्वेतांबी नगरी से आकर वन के फल, पुष्पादि तोड़ने लगे। वापिस आकर उसने इन लोगों को देखा और वह कुल्हाडी लेकर उन्हें मारने दौड़ा। रास्ते में पैर फिसलकर एक खड्डे में गिरा, उसके हात की कुल्हाड़ी उसके सिर पर पड़ी। सिर फूट गया और मरकर वहीं दृष्टि विष सर्प हुआ। उधर से जो कोई जाता वह उसकी दृष्टि के विष से मर जाता। : श्री महावीर चरित्र : 224 : Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहीं न पशुओं का संचार था न पक्षियों की उड्डान। वृक्ष और लताएँ सूख गये थे। जलस्रोत बहते बंद हो गये थे और भूमि कंटकाकीर्ण हो गयी थी। ऐसी भयावनी जगह में महावीर ध्यानस्थ हो कर रहे। सर्प को महावीर का आना मालूम हुआ। उसने प्रभु के सामने जाकर बिजली के समान तेजवाली दृष्टि डाली, मगर जैसे मिट्टी में पड़कर बिजली निकम्मी हो जाती है वैसे ही उसकी विष-दृष्टि निकम्मी हो गयी। सर्प के हृदय में आघात लगा। वह सोचने लगा, आज ऐसा यह कौन आया है कि जिसने मेरे प्राणहारी दृष्टि विष के प्रभाव को निरर्थक कर दिया है। अच्छा, देखता हूं कि मेरे काटने पर यह कैसे बचता है! सर्प ने जोर से महावीर के पैरों में काटा, फिर यह सोचकर वह दूर हट गया कि यह हृष्ट पुष्ट देह, जहर का असर होने पर कहीं मुझी पर न आ पड़े! महावीर स्वामी के पैर से बूंदें निकली। आश्चर्य था कि वे रक्त की बूंदे दुग्ध के समान सफेद थीं। चंडकौशिक ने और भी जोर से, अपनी पूरी ताकात लगाकर, महावीर स्वामी के पैरों में दांत गाड़े, जितना जहर था, सारा उगल दिया और तब दूर हट गया। दांत लगे हुए स्थान से दो पतली धाराएँ बहीं। एक थी सफेद रक्त की और दूसरी थी नीली जहर की सर्प हैरान था, क्रुद्ध था, बेबस था। उसने नासिका के अग्रभाग पर जमी हुई आंखों को देखा, उनमें विश्वप्रेम का अमृत भरा हुआ था। सर्प ने वह अमृत पान किया। उसके हृदय की कलुषता जाती रही। महावीर कायोत्सर्ग पार कर बोले – 'हे चंडकौशिक! समझ, विचारकर, मोहमुग्ध न हो।' - कलुषताहीन हृदय में महावीर स्वामी के इस उपदेश ने मानों बंजर भूमि को उर्वरा बना दिया। विचार करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया। उसको अपने पूर्वभवों की भूलों का दुःख हुआ। उसने शेष जीवन आत्मध्यान में, अनशन करके बिताना स्थिर किया। महावीर स्वामी को प्रदक्षिणा देकर उसने अपना मुंह, इस खयाल से एक बिल में डाल दिया कि कहीं मेरी नजर से प्राणी न मर जाये। झाड़ों पर चढ़कर गवालों के लड़कों ने देखा कि, महावीर स्वामी अभी जिंदा है और सर्प सिर नीचा किये उनके सामने पड़ा है। लड़कों ने समझा यह कोई भारी महात्मा मालूम होता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 225 : Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्होंने दूसरे गवालों को यह बात कही। उन्हें भी कुतूहल हुआ। वे डरतेडरते उस तरफ गये और दूर झाड़ की आड़ में खड़े होकर पत्थर फैंकने लगे। मगर पत्थर खाकर भी सर्प जब न हिला तब उन लोगों को विश्वास हो गया कि सर्प निकम्मा हो गया है। यह बात सब तरफ फैल गयी। वह रस्ता चालू हो गया। आते जाते लोग महावीर स्वामी को और सर्प को नमस्कार कर कर जाते। कई गवालों की स्त्रियां सर्प को स्थिर देख उसके शरीर पर घृत लगा गयी। उससे अनेक कीड़ियां आकर घृत खाने लगी। घी के साथ ही साथ उन्होंने सर्प के शरीर को भी खाना आरंभ कर दिया। मगर सर्प यह सोचकर हिला तक नहीं कि, कहीं मेरे शरीर के नीचे दबकर कोई कीड़ी मर न जाय। वह इस पीड़ा को अपने पापोदय का कारण समझ चुपचाप सहता रहा। कीड़ियों ने उसके शरीर को छलनी बना दिया। एक कीड़ी अगर हमें काट खाती है तो कितनी पीड़ा होती है? मगर सर्प ने पंद्रह दिन तक वह दुःख शांति से सहा और अंत में मकर सहस्रार देवलोक में देवता हुआ। चंडकौशिक का उद्धारकर महावीर स्वामी उत्तर वाचाल नामक गांव में आये और एक पखवाड़े का पारणा करने के लिए गोचरी लेने निकले। फिरते हुए नागसेन नामा गृहस्थ के घर पहुंचे। उस दिन नागसेन बड़ा प्रसन्न था, क्योंकि उसी दिन उसका कई बरसों से खोया हुआ लड़का वापिस आया था। उसने इसको धर्म का प्रभाव समझा और महावीर स्वामी को दूध से प्रतिलामित किया। देवताओं ने उसके घर वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट किये। __उत्तर वाचाल से विहारकर प्रभु श्वेतांबी नगरी पहुंचे। प्रभुनगर के बाहर रहे। श्वेतांबी का 'प्रदेशी' नामक राजा जिनभक्त था। वह सपरिवार वंदना करने आया था। सुद्रंष्ट्र नागकुमार का उपद्रव : महावीर स्वामी विहार करते हुए सुरभिपुर की तरफ चले। रास्ते में गंगा नदी आती थी। उसको पार करने के लिए सिद्धदंत नाम के नाविक की नौका तैयार थी। दूसरे मुसाफिरों के साथ महावीर स्वामी भी नौकापर बैठे। : श्री महावीर चरित्र : 226 : Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नौका चली, उस समय किनारे पर उल्लू बोला। मुसाफिरों में क्षेमिल नाम का शकुनशास्त्री भी था। उसने कहा 'आज हमको रास्ते में मरणांत कष्ट होगा; परंतु इन महात्मा की कृपा से हम बच जायेंगे । ' नौका बहते हुए पानी पर नाचती हुई चली जा रही थी। रास्ते में सुद्रंष्ट्र नामक नागकुमार देव ने अवधिज्ञान से जाना कि, ये जब त्रिपृष्ठ वासुदेव थे तब मैं सिंह था। उन्होंने उस समय मुझे बेमतलब मार डाला था। फिर उसने प्रभु को • डुबाकर मार डालना स्थिर किया। उसने संवर्तक नाम का महावायु चलाया। इससे तटों के झाड़ उखड़ गये, कई मकान गिर पड़े। नौका ऊंची उछल उछलकर पड़ने लगी। मारे भय के मुसाफिरों के प्राण सूखने लगे और वे अपने इष्ट देव को याद करने लगे। महावीर शांत बैठे थे। उनके चहरे पर भय का कोई चिह्न नहीं था। उन्हें देखकर दूसरे मुसाफिरों के हृदय में भी कुछ धीरज थी। नौका डूबूं डूबूं हो रही थी, उस समय कंबल और संबल' नाम के दो देवों ने अरिहंत पर होते उपसर्ग को देखकर नौका को सुरक्षित नदी के तीर पर पहुंचा दिया और धर्म का पालनकर प्रसन्नता अनुभव की । 1. मथुरा में. जिनदास नाम का एक सेठ रहता था। उसके साधुदासी नाम की स्त्री थी। उन्होंने परिग्रह-परिमाण का व्रत लिया था। उसमें ढोर पालने का भी पच्चक्खाण था। इसलिए वे गाय भैंस नहीं पालते थे। दूध एक अहीरण के यहां से मोल लेते थे। अहीरण नियमित अच्छा दूध देती थी। सेठानी उससे बहुत स्नेह रखती थी। और अक्सर उसको वस्त्रादि दिया करती थी। एक बार अहीरन के यहां विवाह का अवसर आया। नियमों के कारण जिनदत्त और साधुदासी न गये; परंतु विवाह के लिए जो सामान चाहिए सो दिया । इस उपकार का बदला चुकाने के लिए अहीर अहीरन उनके यहां बैलों के बछड़ों की एक सुंदर जोड़ी, सेठ सेठानी की इच्छा न होते हुए भी, बांध गये। बैलों का नाम कंबल और शंबल था। सेठ ने उन्हें अपने बालकों की तरह रखा। उनसे कभी कोई काम न लिया। एक बार शहर में मंडखिण नाम के किसी यक्ष का मेला था। उसमें लोग अक्सर पशुओं को दौड़ाने की क्रीड़ा किया करते थे। जिनदास का एक मित्र उस दिन चुपचाप कंबल और शंबल को खोल ले गया। बेचारे बैल कभी जुते : श्री तीर्थंकर चरित्र : 227 : Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पुष्प नामक सामुद्रिक को दर्शन से लाभ : नदी के तीर पर उतर कर प्रभु विहार कर गये। उनके पैरों के चिह्नों को पीछे से पुष्प नाम के सामुद्रिक ने देखा। उसने सोचा, इधर चक्रवर्ती गये हैं। चलूं उनकी सेवा करूं और कुछ लाभ उठाऊं। प्रभु स्थूणक नामक गांव के पास जा, कायोत्सर्ग कर रहे। पुष्प पदचिह्नों पर गया। मगर चिह्नवाले को साधु देख दुःखी हुआ। और सोचा यह शास्त्र झूठे है तब इंद्र को यह बात मालूम हुई। उसने आकर सामुद्रिक को सत्य हकिकत समझाकर मनवांछित धन दिया और उसे प्रभुदर्शन का फल दिया। नालंदा में दूसरा चौमासा : प्रभु विहार करते हुए राजगृह में आये और शहर के बाहर थोड़ी दूर पर नालंदा नामक स्थान में एक जुलाहे के, कपड़े बुनने के बड़े स्थान में, उसकी इजाजत लेकर रहे। दूसरा चौमासा प्रभु ने वहीं किया। प्रभु ने मासक्षमण (एक महीने का उपवास) कर कायोत्सर्ग किया। वहां गोशालक नाम का मंख प्रभु के पास नहीं थे, दौड़े नहीं थे। उस दिन खूब जुते और दौड़े इससे उनकी हड्डियां ढीली हो गयी। मित्र बैलों को चुप चाप वापिस बांध गया वे घर आकर पड़े रहे। जिनदास घर आया। उसने बैलों की खराब हालत देखी। उसने बैलों को खिलाना पिलाना चाहा। मगर उनने कुछ न खाया पिया। पीछे से उसे असली हाल मालूम हुआ। उसे बड़ा रंज हुआ। उसने बैलों को पच्चक्खाण कराया और उनके जीवन की अंतिम घड़ी तक सेठ पास बैठकर उनको नवकार मंत्र सुनाता रहा। इसके प्रभाव से वे मरकर कंबल और शंबल नागकुमार नाम के देव हुए। उन्होंने यह उपद्रव दूर किया। 2. मंखली नाम का एक मंख पाटियों पर चित्र बना, लोगों को बता भीख मांगकर खानेवाली जाति विशेष थी। उसके भद्रा नाम की स्त्री थी। वे दोनों चित्र बेचते हुए एक बार शखण गांव में गये। एक ब्राह्मण की गोशाला में ठहरे। वही भद्रा ने पुत्र प्रसव किया। उसका नाम 'गोशालक' रखा। वह जवान हुआ तब अपने मातापिता से लड़कर निकल गया और घूमता हुआ, नालंदा में जहां महावीर स्वामी ठहरे थे वहां पहुंचा। दूसरे दिन मासक्षमण का पारणा करने प्रभु विजय सेठ के, घर कर पात्र द्वारा, गोचरी लेने गये। सेठ ने भक्तिपूर्वक विधि सहित ': श्री महावीर चरित्र : 228 : Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आकर ठहरा। महावीर स्वामी ने मासक्षमण का पारणा विजय गृहपति के घर किया। देवताओं ने पांच दिव्य प्रकट किये। इससे गोशालक बड़ा प्रभावित हुआ। उसने से प्रार्थना की प्रभु 'आप मेरे धर्माचार्य हैं और मैं आपका धर्मशिष्य हूं।' महावीर कुछ न बोले। तब वह खुद ही अपने को उनका शिष्य बताने लगा। महावीर स्वामी ने दूसरे मासक्षमण का पारणा आनंद के यहां और तीसरे मासक्षमण का पारणा सुनंद के यहां किया था। चौमासा समाप्त होने पर महावीर वहां से विहार कर गये और चौथे मासक्षमण का पारणा कोल्लाक नाम के गांव में बहुल नामक ब्राह्मण के घर किया। एक बार कार्तिकी पूर्णिमा के दिन गोशालक ने सोचा ये बड़े ज्ञानी हैं तो आज मैं इनके ज्ञान की परीक्षा लूं। उसने पूछा 'हे स्वामी! आज मुझे भिक्षा में क्या मिलेगा?' सिद्धार्थ ने प्रभु के शरीर में प्रवेश कर उत्तर दिया –'बिगड़कर खट्टा बना हुआ कोद्रव और कूरका धान्य तथा दक्षिणा में खोटा रूपया तुझे मिलेगे।' गोशालक को दिनभर भटकने पर भी शाम को वही मिला। इसलिए गोशालक ने स्थिर किया कि जो भविष्य होता है वही होता है। 1 - गोशालक रात को आया; मगर महावीर वहां न मिले। इसलिए वह अपनी चीजें ब्राह्मणों को दे, सिर मुंडा कोल्लाक गांव में गया। वहां भगवान ने गोशालक को शिष्य की तरह स्वीकार किया। महावीर स्वामी ने कोल्लाक से स्वर्णखल को विहार किया। रास्ते में कई गवाले एक हांडी में खीर बना रहे थे। गोशालक ने कहा 'प्रभो! आइए हम भी खीर का भोजन करें फिर चलेंगे।' सिद्धार्थ बोला – 'हांडी प्रभु को प्रतिलाभित किया और उसके घर रत्नवृष्टि आदि पंच दिव्य प्रकट हुए। गोशालक यह सब देख सुनकर प्रभु का, अपने मन ही से, शिष्य हो गया। [श्री रामचंद्र जिनागम संग्रह का भगवती सूत्र, १५ वां शतक, पेज ३७०] 1. विशेषावश्यक, भगवती सूत्र और कल्पसूत्र में इस घटना का उल्लेख नहीं है। किन्तु त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र में ही है । 2. कल्पसूत्र में लिखा है कि, भगवान कुछ न बोले; परंतु भगवती सूत्र और त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र में गोशालक को शिष्य स्वीकारना लिखा है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 229 : Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फूट जायगी और खीर नहीं बनेगी।' ऐसा ही हुआ। गोशालक विशेष नियतिवादी बना। - स्वर्णखल से विहार कर प्रभु ब्राह्मण गांव गये। वहां नंद और उपनंद नाम के दो भाईयों के मुहल्ले थे। प्रभु को प्रतिलाभित किया। गोशालक उपनंद के घर गया। उपनंद के कहने से दासी उसको बासी मात देने लगी। गोशालक ने लेने से इन्कार किया। इसलिए उपनंद के कहने से दासी ने वह भात गौशालक के सिर पर डाल दिया। गोशालक ने शाप दिया – 'अगर मेरे गुरु का तपतेज हो तो उपनंद का घर जल जाय।' एक व्यंतर देव ने उपनंद का घर जला दिया। चंपा नगरी में तीसरा चौमासा।। ब्राह्मण गांव से विहार कर महावीर चंपा नगरी गये। चौमासा वही किया। वहां दो मासक्षमण करके चौमासा समाप्त किया। चंपा से विहार कर प्रभु कोल्लाक गांव में आये और एक शून्य गृह में कायोत्सर्ग करके रहे। गोशालक द्वार के पास बैठा। 1. ऐसी घटनाओं का उल्लेख 'श्रमण भगवान् महावीर' पुस्तक में नहीं है। [पं. श्री ___कल्याणविजयजी लिखित] 2. यह अंगदेश की राजधानी थी। जैनकथा के अनुसार पिता की मृत्यु के शोक से राजगृह में अच्छा न लगने से कोणिक (अजातशत्रु) राजा ने चंपे के एक सुंदर झाड़वाले स्थान में नयी राजधानी बसायी और उसका नाम चंपा रखा। भागवत की कथा के अनुसार हरिश्चंद्र के प्रपौत्र चंप ने इसको बसाया था। जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों संप्रदाय वाले उसे तीर्थ स्थान मानते हैं। उसके दूसरे नाम अंगपुर, मालिनी, लोमपादपुरी और कर्णपुरी आदि हैं। पुराने जैनयात्री लिखते हैं कि चंपा पटणा से १०० कोस पूर्व में है। उससे दक्षिण में करीब १६ कोस पर मंदारगिरि नाम का जैनतीर्थ है। वह अभी मंदारहिल नामक स्टेशन के पास है। चंपा का वर्तमान नाम चंपानाला है। वह भागलपुर से तीन माइल है। उसके पास ही नाथनगर भी है। (महावीर नी धर्मकथाओ, पेज नं. १७५) 3. गांव के ठाकूर का लड़का अपनी दासी को लेकर उस शून्य घर में आया। अंधकार में वहां किसी को न देख उसने अनाचार सेवन किया। जाते समय गोशालक ने दासी को हाथ लगाया। इससे युवक ने उसे पीटा। : श्री महावीर चरित्र : 230 : Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कोल्लाक से विहार कर महावीर पत्रकाल नामक गांव में आये और एक शून्य गृह में प्रतिमा धारण कर रहे। गोशालक द्वार के पास बैठा।' पत्रकाल से विहारकर महावीर कुमार गांव में आये। वहां 'चंपकरमणीय' नामक उद्यान में काउसग्ग करके रहे।2 कुमार गांव से विहार कर महावीर चोराक गांव में आये। वहां कायोत्सर्ग करके रहे। सिपाही फिरते हुए आये और उन्हें किसी राजा के जासूस समझकर पकड़ा और पूछा – 'तुम कौन हो?' मौनधारी महावीर कुछ न बोले। गोशालक भी चुप रहा। इससे दोनों को बांधकर सिपाहियों ने 1. ऊपर जैसी ही घटना पत्रकाल में भी हुई। यहां गोशाला हंसा, इससे पिटा। 2. यहां कृपनय नाम का एक कुम्हार रहता था। वह बड़ा शराबी था। पार्श्वनाथजी की परंपरा के मुनिचंद्राचार्य अपने शिष्यों सहित उसके मकान में ठहरे हुए थे। वे अपने शिष्य वर्द्धन को आचार्यपद सौंप जिनकल्प का अति दुष्कर प्रतिकर्म करते थे। गोशालक फिरता हुआ वहां जा पहुंचा। उसने चित्रविचित्र वस्त्रों को धारण करनेवाले और पात्रादिक रखनेवाले श्री पार्श्वनाथ की परंपरा के उपर्युक्त साधुओं को देखा। उसने पूछा – 'तुम कौन हो?' उन्होंने जवाब दिया – 'हम पार्श्वनाथ के निग्रंथ शिष्य हैं।' गोशालक हंसा और बोला-'मिथ्या भाषण करनेवालो, तुम्हें धिक्कार है! वस्त्रादि ग्रंथी को धारण करनेवाले तुम निग्रंथ कैसे हो? जान पड़ता है कि तुमने आजीविका के लिए यह पाखंड रचा है। वस्त्रादि के संग से रहित और शरीर में भी ममता नहीं रखनेवाले, जैसे मेरे धर्माचार्य है वैसे निग्रंथ होने चाहिए।' वे जिनेन्द्र को जानते नहीं थे, इससे बोले - 'जैसा लूं है वैसे ही तेरे धर्माचार्य भी होंगे। कारण, वे अपने आप ही लिंगसाधुपन ग्रहण करनेवाले मालूम होते हैं।' इससे गौशाला नाराज हुआ और उसने शाप दिया. – 'मेरे गुरु का तपतेज से तुम्हारा उपाश्रय जल जाय।' मगर उपाश्रय न जला। वह अफसोस करता चला गया। रात को मुनिचंद्र प्रतिमा धारण कर खड़े थे। कुपनय शराब में मत्त होकर आया। उसने मुनि को चोर समझकर इतना पीटा कि, उनकी मृत्यु हो गयी। वे शुभ ध्यान के कारण मरकर देवलोक में गये। देवों ने आकर उनके तप की महिमा की। प्रकाश देखकर गोशालक बोला - 'आखिर मेरा शाप फला।' सिद्धार्थ बोला – 'तेरा शाप नहीं फला, मुनि शुभ . ध्यान से मरे इससे देवता आये हैं। उसीका यह प्रकाश है।' कुतूहली गोशालक गया और सोते हुए शिष्यों को जगाकर उनका तिरस्कार कर आया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 231 : Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उन्हें कूए में डाला। फिर निकाला फिर डाला। इस तरह बहुत सी डुबकियां खिलायी। फिर सोमा व जयंति नाम की साध्वियों ने - जो पार्श्वनाथ के शासन की थी-उन्हें पहचाना और छुड़ाया। पृष्ठचंपा में चौथा चोमासा :___चोराक गांव से विहार कर प्रभु पृष्ठचंपा नगरी में आये, चौमासा वही किया वहां चार मासक्षमण (चार महीने का उपवास) करके विविध प्रकार की प्रतिमा - आसन से वह चौमासा समाप्त किया। वहां से विहार कर फिरते हुए महावीर कृतमंगल नाम के शहर में आये और कायोत्सर्ग करके नगर के बाहर रहे। 1. आरंभी, परिग्रहधारी और स्त्रीपुत्रादिवाले पाखंडी वहां रहते थे। वे दरिद्र स्थविर नाम से पहचाने जाते थे। उनके मुहल्ले में किसी देवता की मूर्ति थी। उस मंदिर में प्रभु गये उस दिन उत्सव था। इसलिए सभी सपरिवार वहां इकट्ठे हुए और गीत-नृत्य में रात बिताने लगे। यह देख गोशालक बोला – 'ये पाखंडी कौन है कि जिनकी औरतें भी शराब पीती है और इस तरह मत्त होकर नाचती है।' यह सुनकर दरिद्र स्थविर गुस्से हुए और उन्होंने गोशालक को गर्दनिया देकर बाहर निकाल दिया। माघ का महीना था और सर्दी जोर की पड़ रही थी। गोशालक सर्दी में सिकुड़ रहा था और उसके दांत बोल रहे थे। स्थविरों ने उसे माफ किया और अंदर बुला लिया। जब उसकी सर्दी मिटी तब उसने फिर यही बात कही। उन्होंने फिर निकाला, फिर बुलाया। उसने पुन: वही बात कही। फिर उसे निकाला, फिर बुलाया। तब वह बोला – 'अल्प बुद्धि पाखंडियो! सच्ची बात कहने से क्यों नाराज होते हो? तुम्हें अपने इस दुष्ट चरित्र पर तो क्रोध नहीं आता और मुझ सत्य भाषी पर क्यों क्रोध आता है?' जवान उसे मारने दौड़े; परंतु वृद्धों ने उन्हें यह कहकर मना किया कि यह इन महात्मा का सेवक मालूम होता है। इसकी बातों पर कुछ ध्यान न दो। १. गोशालक ने प्रभु से कहा – 'चलिए गोचरी लेने।' सिद्धार्थ बोला-'आज हमारे उपवास है।' गोशालक ने पूछा – 'आज मुझे कैसा भोजन मिलेगा?' सिद्धार्थ बोला- 'आज तुझे नरमांसवाला भोजन मिलेगा।' गोशालक यह निश्चित करके चला कि मांस की गंध भी न होगी ऐसी जगह भोजन करूंगा।' श्रीवस्ती में पितृदत्त नाम का एक गृहस्थ रहता था। उसके श्रीभद्रा नाम की स्त्री थी। उसके हमेशा मरी हुई संतान पैदा होती थी। उसे शिवदत्त निमित्तिया : श्री महावीर चरित्र : 232 : Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां से विहार कर प्रभु हरिद्रु नामक गांव में गये और वहां हरिद्रु वृक्ष के नीचे प्रतिमा धारण कर रहे। वहां कोई संघ आया था और रात को आग जलाकर रहा था। बड़े सवेरे आग बुझाये बिना लोग चले गये। आग सुलगती हुई भगवान के पास पहुंची। गोशालक भाग गया; परंतु प्रतिमाधारी भगवान वहां से न हटे और उनके पैर झुलस गये। हरि से विहार कर प्रभु लांगल गांव में गये और वहां प्रतिमा धारण कर वासुदेव के मंदिर में रहे। 1 लांगल से विहार कर प्रभु आवर्त्त नामक गांव में आये और वहां बलदेव के मंदिर में प्रतिमा धारण कर रहे | 2 आवर्त्त गांव से विहार कर प्रभु चोराक गांव में आये और वहां एकांत स्थान में प्रतिमा धारण कर रहे। 3 ने कहा कि मरे हुए बच्चें का मांस रुधिर सहित घी और शहद व दुग्ध में डालना और उसे पकाकर किसी भिक्षुक को खिला देना। भद्रा ने उस दिन वैसी ही खीर तैयार कर रखी थी। गोशालक फिरता हुआ वहीं पहुंचा और भद्रा ने उसे वह खीर खिला दी। सुभद्रा ने पहले ही से घर का नया दरवाजा बना रखा था। गोशालक स्थान पर पहुँचा। सिद्धार्थ ने उसे खीर की सारी बात कही। उसने उल्टी की तो उसमें से नखों के छोटे टुकड़े आदि निकले। गोशालक बड़ा नाराज हुआ और पितृदत्त के घर गया, परंतु घर का रूप बदल गया था इसलिए उसे घर न मिला। तब उसने शाप दिया 'यदि मेरे गुरु का तप हो तो यह सारा मुहल्ला जल जाय। ' किसी व्यंतर देव ने महावीर स्वामी की महिमा कायम रखने के लिए सारा मुहल्ला जला दिया। 1. यहां गोशालक ने लड़कों को डराया, इसलिए उनके मातापिता ने गोशालक को पीटा। वृद्धों ने प्रभु का भक्त जान छुड़ाया। 2. यहां भी बालकों को डराने से गोशालक पीटा गया। कुछ ने सोचा इसके गुरु को मारना चाहिए। वे महावीर को मारने दौड़े। तब किसी अर्हतभक्त व्यंतर ने बलदेव के शरीर में प्रवेश कर महावीर प्रभु की रक्षा की। - 3. गोशालक यहां भिक्षार्थ गया। एक जगह गोठ के लिए रसोई हो रही थी । गोशालक छिपकर देखने लगा कि, रसोई हुई या नहीं? इसको छिपा देख लोगों ने चोर समझा और पीटा। गोशालक ने शाप दिया - 'अगर मेरे गुरु के तप का प्रभाव हो तो इन लोगों का स्थान जल जाय। ' महावीर के भक्त व्यंतर ने स्थान जला दिया। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 233 : Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वहां से विहारकर प्रमु कलंबुक नामक गांव में गये। वहां मेघ और कालहस्ति नाम के दो भाई रहते थे। उस समय चोरों को पकड़ने के लिए कालहस्ती जा रहा था। महावीर स्वामी और गौशालक को उसने चोर समझा और पकड़कर भाई के सामने खड़ा किया। मेघ महावीर को पहचानता था, इसलिए उसने उन्हें छोड़ दिया। महावीर स्वामी ने अवधिज्ञान से जाना कि, अब तक मेरे बहुत से कर्म बाकी है। वे किसी सहायक के बिना नाश न. होंगे। आर्य देश में सहायक' मिलना कठिन जान उन्होंने अनार्य देश में विहार करना स्थिर किया। ___ कलंबुक गांव से विहार कर प्रभु क्रमशः अनार्य लाट देश में पहुंचे। लाट देश के निवासी क्रूरकर्मी थे। उन्होंने महावीर के ऊपर घोर उपसर्ग किये। उपसर्गो को शांति से सहकर महावीर ने अनेक अशुभ कर्मों की निर्जरा की। गोशालक ने भी प्रभु के साथ अनेक कष्ट सहे। ___पूर्ण कलश नामक गांव में जाते समय चोर मिले। चोरों ने अपशकुन हुए जान दोनों को मारने के लिए तलवार निकाली। इंद्र ने चोरों को मार डाला। भद्दिलपुर में पांचवां चौमासा : पूर्ण कलश से विहार कर प्रभु भद्दिलपुर आये। पांचवां चौमासा वहीं चौमासी तप (चार महीने का उपवास) करके बिताया। चौमासा समाप्त होने पर तप का पारणा कर वहां से प्रभु कदली सहायक का अर्थ उपसर्ग-कर्ता है। जितने अधिक उपसर्ग होते हैं उतने ही अधिक जल्दी कर्मों का नाश होता है। शर्त यह है कि उपसर्ग शांति से सहे जायें। 2. कल्पसूत्र में 'भद्रिकापुरी' और विशेषावश्यक में 'भद्रिका नगरी' लिखा है। : श्री महावीर चरित्र : 234 : Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समागम गांव में आये और कायोत्सर्ग करके रहे। गोशालक ने वहां सदाव्रत में भोजन किया। कदली समागम से विहार कर प्रभु जंबूखंड गांव में गये। और वहां से तुंबाक1 गांव में गये। वहां नंदीषेणाचार्य भी अपने शिष्यों सहित ठहरे हुए थे। जंबूखंड से विहार कर महावीर कूपिका गांव गये। वहां सिपाही दोनों को गुप्तचर जानकर, हैरान करने लगे। प्रगल्भा और विजया नाम की दो साध्वियों ने जो साधुपना न पाल सकने के कारण परिव्राजिकाएँ हो गयी - थी- उन्हें छुड़ाया। कूपिक गांव से प्रभु विशालपुर की तरफ चले । आगे दो रास्ते फटते थे। वहां गोशालक महावीर स्वामी से अलग होकर राजगृह की तरफ चला। वे विशाली पहुंचे। वहां एक लुहार का मकान सूना पड़ा था। लुहार बीमार होने से, छः महीने हुए कहीं गया हुआ था । महावीर स्वामी लोगों की आज्ञा लेकर लुहार के मकान में कायोत्सर्ग करके रहे। लुहार भी उसी दिन अच्छा होकर वापिस आया। अपने मकान में साधु को देखकर उसने 1. कल्पसूत्र और विशेषावश्यक में इसका नाम क्रमशः 'तंबाल' और 'तंबाक' लिखा है। 2. नंदीषेणाचार्य पार्श्वनाथ की शिष्य परंपरा में से थे। गोशालक ने इनके शिष्यों का भीं मुनिचंद्राचार्य के शिष्यों की तरह अपमान किया था। नंदीषेणाचार्य जिनकल्प की तूलना करने किसी चौक में कायोत्सर्ग कर रहे थे। चौकीदारों ने उन्हें चोर समझकर मार डाला। 3. गोशालक एक जंगल में पहुंचा। वहां चोरों ने उसे देखा। एक बोला 'कोई द्रव्यहीन नग्न पुरुष आ रहा है।' दूसरे बोले 'वह द्रव्यहीन और नग्न है तो भी उसे छोड़ना नहीं चाहिए। संभव है, वह कोई जासूस हो।' फिर वे झाड़ से उतरकर आये और एक-एक कर उस पर सवारी करने लगे। आखिर वह थककर गिर पड़ा तब चोर उसे छोड़कर चले गये। गोशालक महावीर को. छोड़ने के लिए पश्चात्ताप करता हुआ छ: महीने के बाद पुनः उनसे जाकर भद्रिकापुरी में मिला। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 235 : Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपशकुन समझा। वह घन लेकर उन्हें मारने दौड़ा। इंद्र ने अपनी शक्ति से वह घन उसी के सिर पर डाला और वह वहीं मर गया। विशाली से विहार कर प्रभु ग्रामक गांव आये और गांव के बाहर उद्यान में विभेलिक नामक यक्ष के मंदिर में कायोत्सर्ग करके रहे। यक्ष को पूर्व भव में सम्यक्त्व का स्पर्श हुआ था इसलिए उसने प्रभु की पूजा की। ग्रामक गांव से विहार कर प्रभु शालिशीर्ष नामक गांव में आये। वहां उद्यान में प्रतिमा धरकर रहे। कटपूतना नाम की वाण 1 व्यंतरी ने रातभर प्रभु पर उपसर्ग किये। शांति से उपसर्ग सहन कर प्रभु ने लोकावधि नाम का अवधिज्ञान प्राप्त किया। भद्रिकापुर में छट्ठा चौमासा : शालिशीर्ष से विहार कर प्रभु भद्रिकापुरी में आये। वहां चार मासक्षमण कर छट्टा चौमासा वहीं किया। वहीं पर गोशालक भी छः महीने के बाद पुनः महावीर प्रभु के पास आ गया। वर्षाकाल बीतने पर महावीर ने नगर के बाहर पारणा किया। आठ महीने तक भगवान ने मगध देश में विविध स्थानों में विहार किया। आलंभिका नगरी में सातवां चौमासा : चौमासे के आरंभ से पहले महावीर भगवान आलंभिका नगरी में आये। सातवां चौमासा वहीं व्यतित किया। चौमासा पूर्ण होने पर गांव के बाहर चौमासी तप का पारणा किया। आलंभिका से विहार कर प्रभु गोशालक सहित कुंडक गांव में आये। वहां वासुदेव के मंदिर में एक कोने में प्रतिमा धारण कर रहे। 2 1. कटपूतना का जीव प्रभु महावीर का जीव जब त्रिपृष्ठ वासुदेव था तब उनकी विजयवती नाम की रानी था। त्रिपृष्ठ से उसे उचित आदर नहीं मिलता था। इससे वह क्रोध करके मरी थी। अनेक भव भटकने के बाद मनुष्य भव में आयी और वहां बालतप कर वाणव्यंतरी हुई। प्रभु महावीर को देख, पूर्वभव का वैर यादकर उसने महावीर पर उपसर्ग किये। 2. गोशालक ने वहां वासुदेव की मूर्ति की कुचेष्ठा की। उसी समय वहां पुजारी आया। उसने इसे नग्न साधु समझ इसकी बुराई लोगों को बताने के लिए गांव के लोगों को बुलाया। लड़के और जवान उसे मारने लगे । बूढ़ों ने उसे पागल समझ छुड़वा दिया। : श्री महावीर चरित्र : 236 : Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंडक से विहार कर प्रभु मर्दन नामक गांव में आये और वहां बलदेव के मंदिर में प्रतिमा धारण कर रहे। मर्दन गांव से विहार कर प्रभु बहुशाल नामक गांव में गये। वहां शालवन नामक उद्यान में प्रतिमा धारण कर रहे। वहां एक व्यंतरी ने अनेक तरह के उपसर्ग किये। ____ बहुशाल से विहार कर महावीर स्वामी लोहार्गल नामक गांव में गये। वहां के जितशत्रु राजा का किसी अन्य राजा के साथ युद्ध हो रहा था। इसलिए राजकर्मचारियों ने इन दोनों को गुप्तचर समझकर पकड़ा और राजा के सामने उपस्थित किया। उस समय अस्थिक गांव का उत्पल निमित्तिया आया हुआ था। उसने प्रभु को पहचाना और राजा को उनका परिचय दिया। उन्होंने उन्हें क्षमायाचना कर छोड़ दिया। . लोहार्गल से विहार कर प्रभु पुरिमताल नगर गये और शहर के बाहर शकट नामक उद्यान में कायोत्सर्ग करके रहे।2 परिमताल से विहार कर प्रभु उष्णक नामक गांव की तरफ चले। रास्ते में किन्हीं वरवधू की दिल्लगी करने से लोगों ने गोशालक को बांधकर डाल दिया; परंतु पीछे से प्रभु का सेवक समझकर छोड़ दिया। 1. यहां भी गोशालक कुचेष्टा करने से पिटा गया। 2. पुरिमताल में एक वागुर नाम का धनाढ्य सेठ रहता था। उसके कोई संतान नहीं थी। वह अपनी सेठानी भद्रा सहित एक बार शकटोद्यान में गया। वहां एक जीर्ण मंदिर में मल्लिनाथजी की मूर्ति के सामने उसने बाधा ली कि अगर तुम्हारे प्रभाव से मेरे संतान होगी तो मैं तुम्हारा मंदिर अच्छा बनवाऊंगा और हमेशा के लिए. तुम्हारा भक्त हो जाऊंगा। किसी अर्हतभक्त व्यंतरी के प्रभाव से उसके संतान हुई और उसने अपनी प्रतिज्ञा पाली। भगवान महावीर आये उस दिन इंद्र ने उन्हें नमस्कार करने के लिए कहा। सेठ सेठानी ने वैसा किया। 3. रास्ते में बदसूरत वरवधू मिले। उन्हें देखकर गोशालक उनके सामने गया और बोला – 'वाह! कैसी विधाता की लीला है? दोनों तोंदवाले, दोनों कुबड़े और दौनों दांतले। हरेक बात में एकसे। तिल घटे न राई बढ़े।' इस तरह की गोशालक की बातें सुनकर बराती नाराज हुए और उन्होंने उसे पकड़ कर बांध दिया। पीछे से प्रभु का सेवक समझकर छोड़ दिया। आगे चलते हुए गवाले मिले। उसने पूछा – 'हे म्लेच्छो! हे बद शकलो! बताओ यह रास्ता कहां : श्री तीर्थंकर चरित्र : 237 : Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजगृह में आठवां चौमासा : विहार करते हुए प्रभु राजगृह में पहुंचे आठवां चौमासा चौमासी तंपकर वहीं बिताया। म्लेच्छ देशों में नवां चौमासा : --विहार करते हुए प्रमु म्लेच्छ देश में आये और नवां चौमासा वज्रभूमि, शुद्धभूमि और लाट अदि देशों में बिताया। .. यहां प्रभु को रहने के लिए स्थान भी न मिला, इसलिए कहीं खंडहर में और कहीं झाड़ तले रहकर वह चौमासा पूरा किया। इस चौमासे में दुष्ट प्रकृति म्लेच्छ लोगों ने महावीर को बहुत उपसर्ग किये। .... गोशालक का परिवर्तवाद : म्लेच्छ देश से विहार कर महावीर सिद्धार्थपुर आये और सिद्धार्थपुर से कूर्मग्राम को चले। गांव से थोड़ी दूर रास्ते में एक तिलका पौदा था। गोशालक ने पूछा – 'स्वामी! यह तिलका पौदा फलेगा या नहीं?' 'प्रभु ने उत्तर दिया –'हे भद्र! यह पौदा फलेगा और दूसरे सात फूलों के जीव हैं वे इस पौदे की फली में सात तिल रूप में जन्मेंगे।' गोशालक ने महावीर स्वामी की वाणी को मिथ्या करने के लिए उस प्रौदे को उखाड़ कर दूसरी जगह रख दिया। उसी समय किसी देवता ने महावीर की वाणी सत्य करने के लिए पानी बरसाया। महावीर स्वामी और गोशालक कूर्मग्राम चले गये। जाता है? उन्होंने कहा – 'मुसाफिर बे फायदा गालियां क्यों देता है?' गोशालक बोला – 'मैंने तो सच्ची बात कही है। क्या तुम म्लेच्छ और बद शकल नहीं हो?' इससे गवाले नाराज हुए और उन्होंने उसे बांधकर एक झाड़ी में डाल दिया। दूसरे मुसाफिरों ने दया कर उसके बंधन खोले। 1. अब तक के सब प्रश्नों का जवाब सिद्धार्थ देवने दिया था। इस प्रश्न का उत्तर स्वयं महावीर ने दिया। 2. भगवती सूत्र में और आवश्यक सूत्र में 'किसी देवता ने पानी बरसाया' ऐसा उल्लेख नहीं है। उनमें उसी समय पानी बरसना लिखा है। ; श्री महावीर चरित्र : 238 : Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तिल का पौदा किसी गाय के पैर से जमीन में घुस गया और धीरे-धीरे वह पुनः पौदे के रूप में आया और उसकी फली सातों पुष्पों के जीव तिल रूप में उत्पन्न हुए। कूर्मग्राम से विहार कर प्रभु जब वापिस सिद्धार्थपुर चले तब रास्ते में तिलके पौदेवाली जगह आयी। वहां गोशालक ने कहा – 'प्रभु, आपने कहा था कि तिल का पौदा फिर उगेगा और फूलों के सात तिल होंगे; मगर ऐसा तो नहीं हुआ।' महावीर बोले – 'हुआ है।' तब गोशालक ने पौदा जाकर देखा और उसकी फली तोड़ी तो उसमें से सात निकले। तब गोशालक ने परिवर्तवाद' के सिद्धांत को स्थिर किया। गोशाल को तेजोलेश्या प्राप्ति की विधि बतायी : प्रभु जब कूर्मग्राम पहुंचे तब वहां एक वैशिकायन नाम का तपस्वी 1. जिस शरीर से जीव मरता है पुनः उसीमें उत्पन्न होता है। इस तरह के सिद्धांत को परिवर्तवाद कहते हैं। 2. चंपा और राजगृह के बीच में एक मोबर नाम का गांव था। उसमें गोशंखी नामक कुण्बी रहता था। वह संतान हीन था। गोबर गांव के पास ही एक खेटक गांव था। लुटेरों ने उसे लूट लिया। गांव के कई लोगों को मार डाला। वेशका नाम की एक थोड़े ही दिन की प्रसुता सुंदर स्त्री को भी वे पकड़कर ले चले। बच्चे को लेकर वह जल्दी नहीं चल सकती थी, इसलिए लुटेरों ने बच्चे को रास्ते में एक झाड़ के नीचे रख दिया और वेशका को चंपानगरी में एक वेश्या के घर बेच दिया। थोड़े दिनों में वह एक प्रसिद्ध वेश्या हो गयी। लड़के को गोशंकी ने ले जाकर बच्चे की तरह पाला। जब वह जवान हुआ तब घी की गाड़ी भरकर चंपा में बेचने के लिए आया। शहर में वेश्या के घर जाने की इच्छा हुई। उसने वेशका के यहां जाना स्थिर किया। रात को जब वह चला तब रास्ते में उसके पैर पाखाने से भर गये, तो भी वह वापिस न फिरा। आगे उसने एक गाय बछड़े को खड़ा देखा। ये उसके कुल देवता थे जो उसे अधर्म से बचाने के लिए आये थे। जवान ने पैर का पाखाना बछड़े के शरीर से पोंछा। बछड़ा बोला – 'माता! वह अधर्मी मेरे शरीर पर विष्टा पोंछ रहा है।' गाय ने जवाब दिया – 'यह महान अधर्मी अपनी मां के साथ भोग करने जा रहा है।' युवक को अचरज हुआ। उसने वेश्या को जाकर उसका असली हाल पूछा। वेश्या ने बताया। फिर उसने आकर कुण्बी को पूछा। कुण्बी ने भी : श्री तीर्थंकर चरित्र : 239 : Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आया हुआ था और मध्याह्न काल में, दोनों हाथ ऊंचेकर सूर्यमंडल के सामने दृष्टि स्थिर कर आतापना ले रहा था। वह दयालु और समता भाववाला भी था। धूप की तेजी के कारण बीच-बीच में उसके सिर से जएँ खिर पड़ती थी, उन्हें उठाकर वह वापिस अपने सिर में रख लेता था। कौतुकी गोशालक ने जाकर उसे कहा – 'हे तापस! तूं मुनि है, या मुनीक (पागल) है या जूओं का पलंग है?' तापस कुछ न बोला। इससे दूसरी, तीसरी और चौथी बार उसके ऐसा कहने पर उसे गुस्सा आया और उसने गोशालक पर तेजोलेश्या रखी। महावीर ने दयाकर के उसको शीत लेश्या से बचा लिया। गोशालक ने पूछा – 'भगवन्! तेजो लेश्या कैसे प्राप्त होती है?' महावीर स्वामी ने उत्तर दिया – 'हे गोशालक! जो मनुष्य नियम करके छट्ठ का तप करता है और एक मुट्ठी उड़द के बांकले और एक चुल्लू जल से पारणा करता है। इस तरह जो छ: महीने तक लगातार छंट्ट का तप करता है, उसे तेजो लेश्या की लब्धि प्राप्त होती है।' __कूर्मग्राम से विहार कर प्रभु सिद्धार्थपुर आये। गोशालक यहां से तेजोलेश्या प्राप्त करने को तप करने के लिए श्रावस्ती नगरी चला गया। महावीर स्वामी सिद्धार्थपुर से विहार कर वैशाली आये। यहां सिद्धार्थ क्षत्रिय के मित्र शंक गणराज ने सपरिवार आकर प्रभु को वंदना की। वैशाली से विहार कर महावीर स्वामी वाणीजक गांव को चले। रास्ते में मंडिकीका नाम की एक नदी आती है। उसे एक नौका में बैठकर पार किया. उतरते समय उसने आपसे किराया मांगा। प्रभु के पास किराया कहां था? इसलिए नाविक ने उन्हें रोक रखा। शंख गणराज के भानजे चित्र ने आपको छुड़ाया। आप वाणीजक गांव में पहुंचे। वहां आनंद नामक एक श्रावक रहता था। वह नियमित छट्ट तप करता था और उत्कृष्ट श्रावकधर्म पालता था। इससे उसको अवधिज्ञान हो गया था। उसने आकर प्रभु की वंदनास्तुति की। उसे सही सही बातें बतायी। इससे उसका मन उदास हो गया और वह तप करने निकल गया। फिरता फिरता वह उस दिन कूर्मग्राम में आया था। उसकी माता का नाम वेशिका था इसीसे वह वैशिकायन के नाम से प्रसिद्ध हुआ। भगवती सूत्र, विशेषावश्यक और कल्पसूत्र में इसका नाम वैश्यायन लिखा है। : श्री महावीर चरित्र : 240 : Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रावस्ती नगरी में दसवां चौमासा : वाणिजक गांव से विहार कर प्रभु श्रावस्ती नगरी में आये और चातुर्मास वहीं बिताया। चातुर्मास पूरा होने पर प्रभु सानुयष्टिक गांव आये। वहां भद्रा, महाभद्रा और सर्वतोभद्रा नामक प्रतिमाएँ अंगीकार की। और पारणा किये बिना तीनों प्रतिमाएं की। फिर पारणा करने आनंद नामक गृहस्थ के घर गये। वहां उसकी बहुला नाम की दासी बासी अन्न फेंकने वाली थी। प्रभु को देखकर उसने कहा – 'हे साधो! तुम्हें यह अन्न कल्पता है?' महावीर ने हाथ लंबे किये। दासी ने वह अन्न हाथ में रख दिया। प्रभु ने उसे खाया। देवताओं ने पांच दिव्य प्रकट किये। वहां के राजा ने बहुला को दासीपन से मुक्त किया। संगम देवकृत २० उपसर्ग : सानुयष्टिक गांव से विहार कर महावीर म्लेच्छों से भरी हुई द्रढ़ भूमि में आये। वहां पेढ़ाला नामक गांव के पास पेढ़ाला नामक उद्यान के पोलास नामक चैत्य में एक शिला परं, अट्ठम तप सहित एक रात्रि की प्रतिमा से रहे। उस समय सौधर्मेन्द्र ने महावीर स्वामी को नमस्कार कर उनके धैर्य की 1. विशेषावश्यक में इस गांव का नाम सानुलष्ठ लिखा है। 2. इन प्रतिमाओं को अंगीकार करने की विधि यह है – १. भद्रा-छ8 का तप करे, एक पुद्गल पर दृष्टि स्थिर करे। पहले दिन दिनभर पूर्व की तरफ मुंह रखे, पहली रात रातभर दक्षिण की तरफ मुंह रखे; दूसरे दिन दिनभर पश्चिम की तरफ मुख रखे और दूसरी रात रातभर उत्तर की तरफ मुख रखे। २. महाभद्राइसमें दशम तप (चार उपवास) करे। एक पुद्गल पर नजर रखे। पहले दिन दिनरात पूर्व की तरफ मुंह रखे, दूसरे दिन दिनरात दक्षिण की तरफ मुंह रखे, तीसरे दिन दिनरात पश्चिम की तरफ मुंह रखे और चौथे दिन दिनरात उत्तर की तरफ मुंह रखे। ३. सर्वतो भद्रा - इसमें बावीशम (दस उपवास) का तप करे। इसमें दस दिन रात तक प्रतिदिन एक-एक दिशा की तरफ मुंह रखे। आठ दिशाओं में एक पुद्गल पर दृष्टि रखे। उर्द्ध और अधो दिशावाले दिन उर्द्ध और अधो पुद्गल पर दृष्टि रखे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 241 : Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रशंसा की। संगम नाम का एक देव उसको न सह सका। उसने महावीर स्वामी को ध्यान से च्युत करना स्थिर किया। उसने १८ प्रतिकूल और २ अनुकूल उपसर्ग किये। प्रतिकूल उपसर्ग ये है। १. धूल की बारिश बरसा कर उनको उसमें डुबो दिया। २. सूई के समान तीक्ष्ण मुखवाली कीडिया महावीर के शरीर पर लगा ... दी। उन्होंने शरीर को छलनी बना दिया। ३. प्रचंड डांस पैदा किये। उनके काटने से महावीर स्वामी के शरीर में से गाय के दूध जैसा रक्त निकलने लगा। ४. 'उण्होला'' पैदा कीं। वे प्रभु के शरीर पर ऐसी चिपकं गयी कि सारा शरीर उण्होलामय हो गया। ५. बिच्छू पैदा किये। उन्होंने तीक्ष्ण डंख मारे। . ६. नकुल (न्योले) पैदा किये। उन्होंने मांस काटा। ७. भयंकर सर्प पैदा किये। उन्होंने चारों तरफ से लिपटकर शरीर कों कस लिया और फिर फन मारना आरंभ किया। ८. चूहे पैदा किये। वे प्रभु के शरीर को काटकर उस पर पेशाब करने लगे। . ६. मदोन्मत्त हाथी पैदा किया। उसने सूंड में पकड़ पकड़कर महावीर को उछाला। १०. हथिनी पैदा की। उसने भी बहुत प्रहार किये। ११. फिर उसने एक भयंकर पिशाच का रूप धारण किया। १२. फिर उसने वाघ का रूप धरा। १३. प्रभु के माता पिता पैदाकर, उनसे करुण विलाप कराया। १४. फिर एक छावनी बनायी। उसमें से लोगों ने महावीर स्वामी के पैरों के बीच में आग जलायी और दोनों पैरों पर बर्तन रखकर रसोयी बनायी। १५. फिर एक चांडाल बनाया। उसने प्रभु के शरीर पर नोचकर खानेवाले पक्षी छोड़े। उन्होंने प्रभु के शरीर को नौचा। 1. एक प्रकार की कीड़ी। गुजराती में इसको घीमेल कहते हैं। : श्री महावीर चरित्र : 242 : Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. प्रचंड पवन चलाया। उससे प्रभु मंदिर में हवा के भयंकर झपाटों से इधर से उधर उड़ उड़कर टकराने लगे। १७. वंटोलिया' पवन चलाया। इससे चाक पर जैसे मिट्ट का पिंड फिरता है वैसे महावीर घूमे। १८. हजार भार का एक कालचक्र बनाया और उसे महावीर के सर पर डाला इससे महावीर घुटनों तक जमीन में धंस गये। जब इन प्रतिकूल उपसर्गों से महावीर स्वामी विचलित नहीं हुए तो उसने दो अनुकूल उपसर्ग किये। १६. उसने सुंदर प्रातःकाल किया। देवता की ऋद्धि बतायी और विमान __ में बैठकर कहा – 'हे महर्षि! मैं तुमसे प्रसन्न हूं। जो मांगो सो दूं। स्वर्ग, मोक्ष या चक्रवर्ती का राज्य। जो चाहिए सो मांग लो।' २०. एक ही समय में छहों ऋतुएँ प्रकट की; फिर जगमनमोहक देवांगनाएँ बनायी, हाव, भाव, कटाक्ष से उनको विचलित करने का यत्न किया।2. इस तरह रातभर उपसर्ग सहन करने के बाद प्रभु बालुक गांव की तरफ चले। रास्ते में संगम ने पांच सौ चोर पैदा किये और बहुतसा रेता बरसाया। चलते समय प्रभु के पैर पिंडलियों तक रेता में घुसते जाते थे और चोर प्रभु को 'मामा', 'मामा' करते इतने जोर से सीने से चिमटाते थे कि अगर सामाम्य.शरीर होता तो चूर चूर हो जाता। . इसी तरह उसने छ: महीने तक अनेक तरह के उपसर्ग किये। विशेष आवश्यक के अंदर संगम ने छः महीने तक क्या क्या उपसर्ग किये और महावीर स्वामी ने कहां कहां विहार किया उसका उल्लेख है। हम उसका अनुवाद यहां देते हैं। 1. चक्र की तरह फिरानेवाला वायु, भूतिया पवन 2. विशेषावश्यक में यह परिसह नहीं है। इसकी जगह उन्नीसवां और उन्नीसवें की जगह संवर्तक वायु का चलाना लिखा है। कल्पसूत्र में उन्नीसवां और बीसवां बीसवें में हैं और उन्नीसवें में लिखा है – 'प्रभात करके संगम ने महावीर को कहा कि सवेरा हो जाने पर भी, इस तरह ध्यान में कहां तक रहोगे।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 243 : Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'भगवान बालुका गांव में पहुचे और गोचरी गये। वहां उसने प्रभु को काणाक्षी रूप-काना-बना दिया, वहां से सुभोम गांव गये, वहां हाथ पसार के मांगनेवाले बनाये, वहां से सुक्षेत्र गांव गये। वहां विटका (नटका) रूप बना दिया। मलय गांव गये। वहां पिशाच का रूप बताया। हस्तिशीर्ष गांव गये वहां उनका शिवरूप(?) बनाया फिर प्रभु मसाण में जाकर रहे। वहां संगम ने हंसी की और इंद्र ने आकर सुखसाता पूछी। प्रभु तोसलिया गांव गये। वहां कुशिष्य का रूप धरकर संगम ने एक सेंघ लगायी। लोगों ने इन्हें पकड़कर पीटना आरंभ किया। घर में महाभूति नाम के इंद्रजालिए ने प्रभु को पहचानकर छुड़ाया। मोसली गांव गये। वहां भी संगम ने शिष्य बन संघ लगायी। सिद्धार्थ के मित्र सुमागध ने उन्हें छुड़ाया। पुनः तोसली गांव में गये। वहां चोर समझकर पकड़े गये। लोग रस्सी से बांधकर झाड़ पर लटकाने लगे। सात बार रस्सी टूट गयी। इससे निर्दोष समझकर छोड़ दिया। वहां से सिद्धार्थपुर गये। वहां भी चोर समझकर पकड़े गये। वहां कौशिक नामक घोड़े के व्यापारी ने प्रभु को छुड़ाया।' इस तरह छः महीने तक अनेक उपसर्ग करके भी जब संगम प्रभु के मन को क्षुब्ध न कर सका तब उसने लाचार होकर प्रभु से कहा – 'हे क्षमानिधि! आप मेरे अपराध क्षमा कीजिए और जहां इच्छा हो वहां निःशंक होकर विहार करिए। गांव में जाकर निर्दोष आहारपानी लीजिए।' महावीर स्वामी बोले – 'हम निःशंक होकर ही इच्छानुसार विहार करते हैं। किसीके कहने से नहीं।' फिर संगम देवलोक में चला गया। इंद्र ने उसे देवलोक से निकाल दिया। प्रभु गोकुल गांव में गये। वत्सपालिका नाम की गवालिन ने प्रभु को परमान्न से प्रतिलाभित किया। वहां से विहार कर प्रमु आलमिका नगर गये। वहां हरि नाम का विद्युत्कुमारों का इंद्र प्रभु को नमस्कार करने आया और नमस्कार कर बोला-'हे नाथ! आपने जो उपसर्ग सहे हैं उन्हें सुनकर ही हम कांप उठते हैं। सहन करना तो बहुत दूर की बात है। अब आपको, थोड़े उपसर्ग और सहन करने के बाद केवलज्ञान प्राप्त होगा।' : श्री महावीर चरित्र : 244 : Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आलभिका से विहार कर महावीर श्वेतांबी नगरी में आये। वहां हरिसह नामक विद्युत्कुमारेन्द्र वंदना करने आया। वेतांबी से विहार कर प्रभु श्रावस्ती नगरी में आये। वहां प्रतिमा धारणकर रहे। उस दिन लोग स्वामी कार्तिकेय की मूर्ति की बड़ी धूमधाम के साथ पूजा अर्चा और रथयात्रा करनेवाले थे। यह बात शक्रेन्द्र को अच्छी न लगी। इसलिए उसने मूर्ति में प्रवेश किया और चलकर प्रभु को वंदना की। भक्त लोगों ने भी महावीर स्वामी को, स्वामी कार्तिकेय का आराध्य समझकर उनकी महिमा की। .. ____ श्रावस्ती से विहारकर प्रभु कौशांबी नगरी में आये। वहां सूर्य और चंद्रमा ने अपने विमानों सहित आकर प्रभु को वंदना की। कौशांबी से विहार कर अनेक स्थलों में विचरण करते हुए प्रभु वाराणसी (बनारस) पहुंचे। वहां शक्रेन्द्र ने आकर प्रभु को वंदना की। वहां से राजगृही पधारे। वहां ईशानेन्द्र ने आकर वंदना की। राजगृही से विहारकर प्रभु मिथिलापुरी पहुंचे। वहां राजा जनक ने और धरणेन्द्र ने आकर प्रभु.को वंदना की। वैशाली में ग्यारहवां चौमासा. :... मिथिलापुरी से विहार कर महावीर स्वामी वैशाली आये और ग्यारहवां चौमासा वहीं बिताया। वहां उन्होंने समर नाम के उद्यान में, बलदेव के मंदिर के अंदर चार मासक्षमण कर प्रतिमा धारण की। भूतानंद नामक नागकुमारेन्द्र ने आकर प्रभु को वंदना की। वैशाली में जिनदत्त नाम का एक नगर सेठ था। उसकी संपत्ति चली जाने से वह जीर्णसेठ' के नाम से प्रसिद्ध हो गया था। वह हमेशा महावीर स्वामी के दर्शन करने आता था। उसके मन में यह अभिलाषा थी कि प्रभ को मैं अपने घर पर पारणा कराऊंगा और धन्यजीवन होऊंगा। चौमासा समाप्त हुआ। प्रभु ने ध्यान तजा। जीर्णसेठ ने प्रभु को भक्ति सहित वंदनाकर विनती की – 'प्रभो! आज मेरे घर पारणा करने पधारिए।' फिर उसने घर जाकर निर्दोष आहारपानी तैयार करा प्रभु के आने की, दरवाजे पर खड़े होकर प्रतिक्षा आरंभ की। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 245 : Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साधु तो किसी का निमंत्रण ग्रहण नहीं करते। कारण, निमंत्रण ग्रहण करना मानो उद्दिष्ट-अपने लिये बनाया हुआ - आहार ग्रहण करना है। साधु कभी अपने लिये बनाया हुआ आहार-पानी नहीं लेते। साधु-आचार के कठोर नियम पर चलने वाले महावीर स्वामी भला कब जीर्ण सेठ के घर जानेवाले थे? ... समय पर प्रभु आहार के लिए निकले और फिरते हुए नवीन सेठ के घर पहुंचे। सेठ धनांध था। वह किसी की परवाह नहीं करता था। मगर उस समय किसी साधु को घर से लौटा देना बहुत बुरा समझा जाता था इसलिए उसने अपनी दासी को कहा – 'इसको भीख देकर तत्काल ही यहां से विदा कर!' वह लकड़े के बर्तन में उड़द के उबाले हुए बाकले ले आयी। ऐषणीयनिर्दोष आहार समझकर प्रभु ने उसे ग्रहण किया। देवताओं ने उसके घर पंच दिव्य प्रकट किये। लोग उसकी प्रशंसा करने लगे। वह मिथ्याभिमानी कहने लगा कि, मैंने खुद प्रभु को परमान्न से पारणा कराया है। जीर्णसेठ प्रभु को आहार कराने की भावना से बहुत देर तक खड़ा रहा। उसके अंतःकरण में शुभ भावनाएँ उठ रही थी। उसी समय उसने आकाश में होता हुआ दुंदुभि नाद सुना। 'अहोदांन! अहोदान!' की ध्वनि से उसकी भावना भंग हुई। उसे मालूम हुआ कि, प्रभु ने नवीन सेठ के यहां पारणा कर लिया है। उसका जी बैठ गया और वह अपने दुर्भाग्य का विचार करने लगा। 1. महावीर स्वामी के विहारकर जाने के बाद पार्श्वनाथ भगवान के एक केवली शिष्य आये। उनसे राजा ने और नगरजनों ने आकर वंदना की और पूछा – 'हे भगवन! इस शहर में सबसे अधिक पुण्य उपार्जन करनेवाला कौन है? केवली ने उत्तर दिया – 'जीर्ण सेठ सबसे अधिक पुण्य पैदा करनेवाला है।' राजा ने पूछा – 'प्रभु को पारणा तो नवीन सेठ ने कराया है और अधिक पुण्य जीर्णसेठ ने कैसे पैदा किया?' केवली ने जवाब दिया – ‘भाव से तो जीर्ण सेठ ने ही पारणा कराया है और इसीसे उसने अच्युत देवलोक का आयु बाधा है। नवीन सेठ ने भावहीन, दासी के द्वारा आहार दिया है; परंतु तीर्थंकर को आहार दिया है इसलिए इस भव के लिए सुखदायक वसुधरादि पंच दिव्य इसके यहां प्रकट हुए हैं।' यह शुभ भावों से और शुभ भावरहित अरिहंत को पारणा कराने का फला : श्री महावीर चरित्र : 246 : Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैशाली में विहारकर प्रभु अनेक स्थानों में भ्रमण करते हुए सुसुमारपुर में आये और अष्टम तप सहित एक रात्रि की प्रतिमा धार अशोक खंड नामक उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे स्थित हुए। यहां चमरेन्द्र ने प्रभु की शरण में आकर अपना जीवन बचाया। दूसरे दिन प्रतिमा त्यागकर क्रमशः विहार करते हुए प्रभु भोगपुर नाम के नगर में आये। उसी गांव में माहेन्द्र नाम का कोई क्षत्रिय रहता था। उसे प्रभु को देखकर ईर्ष्या हुई। वह उन्हें लकड़ी लेकर मारने चला। उसी समय वहां सनत्कुमारेन्द्र आया था। उसने माहेन्द्र को धमकाया। फिर वह प्रभु को वंदन कर चला गया। भोगपुर से विहार कर प्रभु नंदी गांव और मेढक गांव होकर कोशांबी नगरी में आया। उस दिन पोष वदि एकम का दिन था। प्रभु ने भीषण नियम लिया – कठोर अभिग्रह किया, कोई सती राजकुमारी हो, किसी का दासीपन उसे मिला हो, उसके पैरों में बेड़ी हो, सिर मुंडा हुआ हो, सूप में उड़द के बाकले लेकर, रोती हुई एक पैर देहलीज के अंदर और एक बाहर रखे हुए मुझे आहार देने को तैयार हो उसीसे मैं आहार लूंगा। आहार के लिए फिरते हुए करीब छ: महीने गुजर गये तब प्रभु का अभिग्रह पूरा हुआ। उन्होंने बिना आहार छ: महीने में पांच दिन रहे तब ज्येष्ठ सुदि ११ के दिन, 1. बिभेल नामक गांव में एक धनिक रहता था। उसने लक्ष्मी का त्यागकर बालतप किया। उसके प्रभाव से, मरकर वह चमरचंचा नगरी में एक सागरोपम की आयुवाला. इंद्र हुआ। उसने अवधि ज्ञान से अपने से अधिक वैभवशाली और सत्ताधारी शकेन्द्र को देखा। इस पर चमरेन्द्र को ईर्ष्या हुई। वह शकेन्द्र से लड़ने सौधर्म देवलोक में गया। शकेन्द्र ने उस पर वज्र चलाया। वज्र को आते देख चमरेन्द्र भागा। वज्र ने उसका पीछा किया। शकेन्द्र भी उसके पीछे चला। चमरेन्द्र लघु रूप धारकर प्रभु के पैरों के बीच में छिप गया। शकेन्द्र ने अपने वज्र को पकड़ लिया और चमरेन्द्र को प्रभु-शरणागत समझकर क्षमा कर दिया। 2. यह मिति पोस वदि १ से छ: महीने में पांच दिन कम यानी पांच महीने और पच्चीस दिन की गिनती कर लिखी गयी है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 247 : Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उड़द के बाकलों से पारणा किया।' देवताओं ने वसुधारादि पंच दिव्य प्रकट किये। ___ कोशांबी से विहार कर प्रभु सुमंगल नाम के गांव में आये। वहां सनत्कुमारेन्द्र ने आकर प्रभु को वंदना की। . सुमंगल गांव से प्रभु सत्क्षेत्र गांव आये। वहां माहेन्द्र कल्प के इंद्र ने आकर प्रभु को वंदना की। सत्क्षेत्र से प्रभु पालक गांव गये। वहां भायल नाम का कोई बनिया यात्रा करने जाता था। उसने प्रभु को आते देखा और अपशकुन समझ क्रुद्ध हो तलवार निकाली। सिद्धार्थ देव ने उसकी तलवार से उसीको मार डाला। 1. चंपा नगरी में दधिवाहन राजा था। उसकी रानी धारिणी की कोख से एक रूपवान और गुणवती कन्या जन्मी। उसका नाम वसुमति रखा गया। कोशांबी का राजा शतानीक था। उसकी रानी मृगावती पूर्ण धर्मात्मा थी। एक बार किसी कारण से शतानीक ने चंपा नगरी पर चढ़ायी की। दधिवाहन हार गया। शहर लूटा गया। राणी धारिणी. और उसकी कन्या वसुमती को एक सैनिक पकड़ ले गया। रास्ते में सैनिक की कुदृष्टि धारिणी पर पड़ी। धारिणी ने प्राण देकर अपनी आबरु बचायी। वसुमती कोशांबी में बेची गयी। धनवाह सेठ उसको खरीदकर अपने घर ले गया। उसे पुत्री की तरह पालने की अपनी सेठानी को हिदायत की। वसुमती की वाणी चंदन के समान शीतलता उत्पन्न करनेवाली थी। इससे सेठ ने उसका नाम चंदनबाला रखा। इसी नाम से वह संसार में प्रसिद्ध हुई। जब चंदनबाला बड़ी हुई, यौवन का विकास हुआ, सौन्दर्य से उसकी देह कुंदनसी चमकने लगी तब मूला को ईर्ष्या हुई। सेठ का चंदनबाला पर विशेष हेत देखकर उसे वहम भी हुआ। उसने एक दिन, जब धनावह कहीं चला गया था, चंदनबाला को पकड़कर उसका सिर मुंडवा दिया और उसके पैरों में बेड़ी डालकर उसे गुप्त स्थान में कैद कर दिया। धनावह ने वापिस आया तब चंदनबाला की तलाश की। मूला मकान बंदकर कहीं चली गयी थी। नौकरों ने सेठ के धमका ने पर चंदनबाला का पता बताया। सेठ ने उसे बाहर निकाला। खाने को उस समय उबले हुए उड़द के बाकले रखे थे, वे एक सूप में डालकर उसे दिये और धनावह लुहार को बुलाने गया। चंदनबाला दहलीज में खड़ी हो किसी अतिथि की प्रतीक्षा करने लगी। उसी समय महावीर स्वामी आ गये और अपना अभिग्रह पूरा हुआ समझ बाकुलों से पारणा किया। [नोट - इसकी विस्तृत और सुंदर कंथा ग्रंथभंडार माटुंगा द्वारा प्रकाशित 'स्त्रीरत्न' नामक पुस्तक में पढ़िए।] । : श्री महावीर चरित्र : 248 : Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चंपानगरी में बारहवां चौमासा : पालक गांव से विहार कर प्रभु चंपानगरी में आये और बारहवां चौमासा वही लिया। वहां स्वातिदत्त नामक किसी ब्राह्मण की यज्ञशाला में चार मासक्षमण कर रहे। वहां पूर्णभद्र और माणिभद्र नाम के दो महर्द्धिक यक्ष आकर प्रभु की पूजा किया करते थे। स्वातिदत्त ने सोचा, जिनकी देवता आकर पूजा करते हैं, वे कुछ ज्ञान जरूर रखते होंगे। इसलिए उसने आकर प्रभु से जीव के संबंध में प्रश्न किये और संतोषप्रद उत्तर पाकर स्वातिदत्त प्रभु का भक्त बन गया। कानों में कीलें ठोकने का उपसर्ग : चंपानगरी से विहार कर प्रभु जृंभक, मेढ़क गांव होते हुए षण्मानि गांव आये। वहां गांव के बाहर कायोत्सर्ग करके रहे। उस समय, वासुदेव के भव में शय्यापालक के कान में तपाया हुआ शीशा डालकर जो असाता वेदनीय कर्म उपार्जन किया था वह उदय में आया। शय्यापालक का वह जीव इसी गांव में गवाला हुआ था। वह उस दिन प्रभु के पास बैलों को छोड़कर गायें दोहने गया। महावीर तो ध्यान में लीन थे। वे कहां बैलों की रखवाली करते? बैल जंगल में निकल गये। गवाले ने वापिस आकर पूछा'मेरे बैल कहां हैं?' कोई जवाब नहीं। 'अरे क्या बहरा है ?' कोई जवाब नहीं। 'अरे अधम! कान है या फूट गये हैं?' कोई जवाब नहीं। 'ठहर मैं तुझे बराबर बहरा बना देता हूं।' कहकर वह गया और 'शरकट' 1 की सूखी लकड़ी काटकर लाया। उसको छीलकर बारीक कीलें बनायी और फिर उन्हें महावीर स्वामी के दोनों कानों में ठोक दीं। परंतु क्षमा के धारक महावीर ने उस पर जरा सा भी क्रोध न किया। वे इस तरह आत्मध्यान में लीन रहे मानों कुछ हुआ ही नहीं है। कानों से बाहर निकला हुआ जो भाग था उसे भी उसने काट डाला, जिससे कीलें आसानी से न निकल सके। गवाला चला गया। षष्मानि से विहार कर प्रभु मध्यम अपापा नगरी में आये । और सिद्धार्थ नामक वणिक के घर गोचरी के लिए गये। वहां उसने प्रभु को 1. इससे तीर बनते हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 249 : Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आहार पानी से, भक्तिसहित प्रतिलाभित किया। उस समय सिद्धार्थ का खरक नाम का एक वैद्य मित्र मोजूद था। उसने प्रभु के उतरे चहेरे को देखकर रोग का अनुमान किया और जांच करने पर कानों की कीले मालूम हुई। उसने सिद्धार्थ को यह बात कही। उसने प्रभु का इलाज करने की ताकीद की। प्रभ तो आहारपानी कर चले गये और उद्यान में जाकर ध्यानरत हुए। खरक वैद्य और सिद्धार्थ सेठ दो संडासियाँ और दूसरी जरूरी दवाएँ और आदमियों को लेकर प्रभु के पास गये। उन्होंने प्रभु को एक द्रोणी में बिठाकर आदमियों के द्वारा तेल की मालिश करवाई। फिर अनेक मनुष्यों से पकड़वाकर दोनों तरफ से संडासियों से पकड़ कर कीलें खींच ली। प्रभ के मुख से सहसा एक चीख निकल गयी। वैद्य ने कानों के.घावों में संरोहिणी नामक औषध लगा दी। फिर वे प्रभु से क्षमा मांगकर चले गये। अपने शुभाशयों से और शुभ कामों से उन्होंने देवायु का बंध किया। . . ___ महावीर स्वामी पर यह आखिरी परिसह था। परिसहों का आरंभ भी गवाले से हुआ और अंत भी गवाले से ही हुआ। . प्रभु के कानों में से जिस जंगल में कीले निकाली गयी थी उसका नाम महाभैरव हुआ। कारण कीलें निकालते समय प्रभु के मुख से भैरवनाद (भयानक आवाज) हुआ। लोगों ने उस जगह एक मंदिर भी बनवाया था। वहां से विहार कर प्रभु जुंभक नामक गांव के पास आये। और वहां ऋजुपालिका' नदी के उत्तर तटपर शामाक नामक किसी गृहस्थ के खेत में, एक जीर्ण चैत्य के पास शालतरू के नीचे छ? तप करके रहे और उत्कटिकासन से आतापना करने लगे। वहां विजय मुहूर्त में, शुक्ल ध्यान में लीन महावीर स्वामी क्षपक श्रेणी में आरूढ़ हुए और उनके चार घाति कर्मों का नाश हो गया। वैशाख सुदि १० के दिन चंद्र जब हस्तोत्तरा नक्षत्र में आया था, दिन के चौथे पहर में महावीर स्वामी को केवलज्ञान उत्पन्न हआ। इंद्रादि देवों ने आकर केवल-ज्ञान-कल्याणक मनाया। यहां 1. बंगाल में पारसनाथ हिल के पास इस नाम की एक नदी है। 2. मनुष्य जैसे गाय दुहने बैठता है वैसे बैठकर ध्यान करने को उत्कटिकासन कहते हैं। : श्री महावीर चरित्र : 250 : Page #264 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समवसरण में बैठकर प्रभु ने देशना दी; परंतु वहां कोई विरति परिणामवाला न हुआ। यानी किसीने भी व्रत अंगीकार नहीं किया। देशना निष्फल गयी। तीर्थंकरों की देशना कभी निष्फल नहीं जाती परंतु महावीर स्वामी की यह पहली देशना निष्फल गयी। शास्त्रकारों ने इसे एक 1 आश्चर्य माना है। महावीर स्वामी पर तीन कारणों से उपसर्ग किये गये। 2 1. शास्त्रों में ऐसे दस आश्चर्य माने गये हैं। वे इस प्रकार हैं। 2. तीर्थंकर केवली को पीड़ा - एक बार विहार करते हुए वीर प्रभु श्रावस्ती नगरी में समोसरे। उसी समय गोशालक भी वहां आया। वह कहता था 'मैं जिन हूं।' महावीर स्वामी को गौतम गणधर ने पूछा 'क्या यह जिन है?' महावीर ने कहा 'नहीं। वह मंख का पुत्र है। मेरे पास छ: बरस तक मेरे शिष्य की तरह रहकर बहुश्रुत हुआ है।' गोशालक को यह बात मालूम हुई। इससे नाराज होकर उसने महावीर पर तेजोलेश्या छोड़ी। इससे महावीर को छ: महीने तक कष्ट उठाना पड़ा। तीर्थंकरों को केवली होने के बाद कभी कोई कष्ट नहीं उठाना पड़ता; परंतु महावीर को उठाना पड़ा यह एक आश्चर्य हुआ। २. गर्भ. हरण - पहले किन्हीं जिनेश्वर का गर्भ संक्रमण नहीं हुआ; परंतु महावीर का हुआ। यह दूसरा आश्चर्य है । ३. स्त्री तीर्थंकर - तीर्थंकर हमेशा पुरुष ही होते हैं; परंतु मल्लिनाथजी स्त्री तीर्थंकर हुए। यह तीसरा आश्चर्य है। ४. निष्फल देशना - तीर्थंकरों का उपदेश कभी निष्फल नहीं जाता। मगर महावीर स्वामी का गया। यह चौथा आश्चर्य है। ५. दो वासुदेवों का मिलना - एक बार नारद पांडवों की पत्नी द्रौपदी के पास मिलने चले गये। नारद का द्रौपदी ने सम्मान नहीं किया। इससे नाराज होकर धातकी खंड के अपरकंका के राजा पद्मोत्तर को द्रौपदी के रूप का वर्णन सुनाया। पद्मोत्तर देव की सहायता से सोती हुई द्रौपदीं को उठा ले गया। कृष्ण को यह बात मालूम हुई। वे पांडवों सहित गये और पद्मोत्तर को हराकर द्रौपदी को ले आये। लौटते समय उन्होंने शंखनाद किया। वहां कपिल वासुदेव था। उसने भी समुद्र किनारे आकर शंखनाद किया। इस तरह दो वासुदेव एक स्थान पर एकत्र हुए। यह पांचवां आश्चर्य है। ६. सूर्य और चंद्र का आना श्रावस्ती नगरी में सूरज और चांद अपने मूल विमान सहित महावीर के दर्शन करने आये थे। यह छट्ठा आश्चर्य है। ७. युगलियों का इस क्षेत्र में आना कौशांबी का राजा वीरक नाम के जुलाहे की वनमाला नाम की सुंदर स्त्री को उठा ले गया। जुलाहा दुःख और क्रोध से पागल सा -- — : श्री तीर्थंकर चरित्र : 251 : Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपसर्गों के कारण औरं कर्ता : १. उनकी महत्ता का नाश करने के लिए। इनमें शूलपाणी और संगम इन दोनों देवों के और चंडकौशिक के उपसर्ग हैं। २. पूर्वभव का वैर लेने के लिए। इनमें सुद्रष्ट्रका, वाणव्यंतरी का और कानों में कीलें ठोकनेवाले गवाल के उपसर्ग हैं। ३. वहम के कारण। लोगों ने, यह समझकर कि इन्होंने हमारी अमुक वस्तु दबा ली है, ये किसी के गुप्तचर है अथवा इनका शकुन वनमाला वनमाला, पुकारता हुआ इधर उधर फिरने लगा। एक दिन वह राजमहलों में इसी तरह पुकारता हुआ गया। दैवयोग से उसी समय राजा और वनमाला ने उसे देखा! दोनों को पश्चात्ताप हुआ। और उसी समय बिजली पड़ने से वे मर गये। उनका मरना जान, वीरक का चित्त स्थिर हुआ। वह वैराग्यमय जीवन बिताने लगा। राजा और वनमाला मरकर हरिवर्ष क्षेत्र में युगलिया जन्मे। वीरक भी मरकर व्यंतरदेव हुआ। उसने विभंगज्ञान से इस युगल जोड़ी को पहचाना और उनको, नरक गति में डालने के इरादे से, इस क्षेत्र में ले आया और उनके शरीर व आयु कम कर दिये। उनके नाम हरि और हरिणी रखे। उन्हें सप्त व्यसनों में लीन किया। और तब वह अपने स्थान पर चला गया। हरि और हरिणी व्यसनों में तल्लीन मरे और नरक में गये। इस तरह वीरक ने उनसे वैर लिया। उनके वंश में जो जन्मे वे हरिवंश के कहलाये। . युगलिये न कभी इस क्षेत्र में आते हैं और न उनकी आयु या देह ही कम होते हैं; न वे नरक में जाते हैं परंतु ये बातें हुई। यह सातवां आश्चर्य है। ८. चमरेंद्र का सुधर्म देवलोक में जाना - पाताल में रहनेवाले असुर कुमारों का इंद्र कभी ऊपर नहीं जा सकता परंतु चमरेंद्र गया। यह आठवां आश्चर्य है। ९. उत्कृष्ट अवगाहनावालों का एक समय मोक्ष में जाना – उत्कृष्ट अवगाहनवाले १०८ एक समय में मोक्ष नहीं जाते; परंतु इस अवसर्पिणी में ऋषभदेव, भरत सिवाय उनके ९९ पुत्र और भरत के आठ पुत्र ऐसे १०८ उत्कृष्ट अवगाहनवाले एक समय में मोक्ष गये। यह नवां आश्चर्य है। १०. असंयमियों की पूजा - आरंभ और परिग्रह में आसक्त रहनेवालों की कभी पूजा नहीं होती; परंतु नवें और दसवें जिनेश्वर के बीच के काल में हुई। यह दसवां आश्चर्य है। इनमें से ९वां ऋषभदेव के समय में, ७ वां शीतलनाथजी के समय में, ५वां श्रीनेमिनाथजी के तीर्थ में, ३रा मल्लिनाथजी के तीर्थ में १० वां सुविधिनाथजी के तीर्थ में और शेष महावीर के समय में ये सब आश्चर्य हुए। (कल्पसूत्र से) : श्री महावीर चरित्र : 252 : Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशुभ हुआ है, इनको पानी में डाला, पकड़ा या पीटने को तैयार हुए या पीटा। इनमें गवाले का, लुहार का और म्लेच्छों के उपसर्ग हैं। उपसर्ग करनेवालों में देव, मनुष्य और तिर्यंच सभी हैं। इन उपसर्गों में अनेक उपसर्ग ऐसे हैं जिन्हें यदि महावीर प्रभु चाहते तो टाल सकते थे। जैसे म्लेच्छों के उपसर्ग और चंडकौशिक के उपसर्ग। उपसर्ग, यदि शांति से सहन किये जाये तो, कर्मों का नाश करने का रामबाण इलाज है। इस बात को महावीर प्रभु जानते थे, और इसलिए उन्होंने उनका आह्वान किया, शांति से उन्हें सहा, अपने कर्मों को क्षय किया, वे जगत्वंद्य बने और अनंत शांति एवं सुख के अधिकारी बने। ___महावीर स्वामी ने हमेशा शुभ मनोयोग, शुभ वचनयोग और शुभ काययोग से प्रवृत्ति की। अशुभ मन, वचन और काय के योगों को हमेशा रोका। कभी ऐसा विचार न किया जो दूसरे को हानि पहुंचाने का कारण हो, कभी ऐसा शब्द न बोले जिससे किसी का अंतःकरण दुःखी हो और कभी शरीर के किसी भी अंग को इस तरह काम में न लाये जिससे कि छोटे से छोटे प्राणी को भी कोई तकलीफ पहुंचे। न कभी भयंकर से भयंकर आघात और प्राणांत संकट के सामने ही उन्होंने सिर झकाया और न कभी स्वर्गीय प्रलोभन में ही वे मुग्ध हुए। वे सदा कर्मों को खपाने में लीन रहे। बारह बरस तक उन्होंने बिना शस्त्र, बिना कषाय और बिना किसी इच्छा के कर्म शत्रु से भयंकर युद्ध किया। सारी दुनिया को अपनी अंगुलियों पर नचानेवाले कर्मों से युद्ध किया, उन्हें हराया और विजेता बन महावीर कहलाये। केवलश्रीने-जो घातिकर्मों की आड़ में खड़ी थी-आगे चढ़कर उन्हें वरमाला पहनायी। वे आत्मलक्ष्मी को प्राप्तकर जगत का उपकार करने के लिए समवसरण के सिंहासन पर जा बिराजे। उपमाएँ : महावीर स्वामी के गुणों का उपमाएँ देकर, बहुत ही सुंदर वर्णन कल्पसूत्र में किया है। उसका अनुवाद हम यहां देते हैं। १. जैसे कांसे का पात्र जल से नहीं लींपा जाता उसी तरह वे भी स्नेहजल से न लींपे गये। निर्लेप रहे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 253 : Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. ३. ४. ५. ६. कलुषता - मन में किसी तरह की मलिनता - न रखनेवाले होने से वे शरद् ऋतु के - जल की तरह निर्मल हृदयी थे। सगे संबंधियों का या कर्म का मोहज़ल उन पर नहीं ठहर सकता था, इसलिए वे संसार-सरोवर में कमल के समान थे। ८. कछुआ जैसे अपने अंगों को छिपाकर रखता है, वैसे ही उन्होंने इंद्रियों को छुपाकर रखा था, इसलिए वे इंद्रियगोप्ता थे। गेंडे के जैसे एक ही सींग होता है वैसे ही राग द्वेष हीन होने से गेंडे के सींग की तरह एकाकी थे। परिग्रह रहित और अनियत निवास होने से वे पक्षी की तरह स्वतंत्र थे। ७. ६. १०. जैसे शंख रंग से नहीं रंगा जाता वैसे ही प्रभु भी किसी दुन्यवी रंग सेन रंगे गये। वे निरंजन रहे। 99. वे सभी स्थानों में उचित रूप से अस्खलित विहार करते थे और संयम में अस्खलित वर्तते थे, इसलिए वे जीव की तरह अस्खलित गतिवाले थे। वे देश, गांव, कुल आदि किसी के भी आधार की इच्छा नहीं रखते थे, इसलिए वे आकाश की तरह आधारहीन निरालंबी थे। किसी भी एक जगह पर नहीं रहने से वे वायु की तरह बंधन-हीन थे। १४. १५. थोड़ासा भी प्रमाद नहीं करनेवाले भारंड पक्षी की तरह वे अप्रमादी थे। १२. कर्म रूपी शत्रुओं के लिए वे गजराज थे। १३. स्वीकृत महाव्रत के भार को वहन करने के लिए वे वृषभ की तरह पराक्रमी थे। P परिसहादि पशुओं के लिए वे दुर्घर्ष सिंह थे। अंगीकार किये हुए तप और संयम में दृढ़ रहने से और उपसर्ग रूपी झंझावात से भी चलित न होने से विनिश्चल सुमेरु थे। : श्री महावीर चरित्र : 254: Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. हर्ष और विषाद के कारण प्राप्त होते हुए भी विकार हीन होने से वे गंभीर सागर थे। १७. हरेक के अंतःकरण को शांतिप्रदान करनेवाली भावनावाले होने से वे सौम्य चंद्रमा थे। १८. द्रव्य से शरीर की कांति द्वारा और भाव से उज्ज्वल भावना द्वारा देदीप्यमान होने से वे प्रखर सूर्य थे। १६. कर्ममल के नष्ट हो जाने से वे निर्मल स्वर्ण थे। २०. शीत उष्णादि सभी प्रतिकूल और अनुकूल परिसहों को सहन करने से वे क्षमाशील पृथ्वी थे। २१. ज्ञान और तपरूपी ज्वाला से प्रदीप्त वे जाज्वल्यमान अग्नि थे। महावीर स्वामी ने दीक्षा ली उसके बाद वे बारह वर्ष छः महीने और एक पक्ष तक यानी ४५१५ दिन छंद्मस्थ रहे। इतने समय में उन्होंने ३५१ तप किये, ४१६५ दिन निराहार रहे और ३५० दिन अन्न जल ग्रहण किया। . उनका ब्योरा हम नीचे देते हैं। सभी पारणे एकलठाणे से किये। पारणों की संख्या तपों के नाम . | संख्या . • सब मिलाकर दिनों की संख्या पूर्ण छः मासी १८० पांच दिन कम १ . १७५ . छ: मासी चौमासी... १०८० त्रिमासी १८० ढाई मासी १५० द्वि मासी ३६० डेढ मासी मासिक ३६० पाक्षिक १०८० 52 m won | ६० : श्री तीर्थंकर चरित्र : 255 : Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२ ४५८ २२-1 अट्टम छट्ट भद्र प्रतिमा महाभद्र प्रतिमा सर्वतोभद्र प्रतिमा ३५१ ४१६५० महावीर स्वामी के शासन की स्थापना :- .. महावीर स्वामी को केवलज्ञान होने के बाद पहले दिन उन्होंने जो देशना दी वह निष्फल गयी। वहां से विहार कर प्रभु अपापा नामक नगर में आये। वहां शहर के बाहर महसेन वन में देवताओं ने समवसरण की रचना की। बत्तीस धनुष ऊंचे चैत्यवृक्ष के तीन प्रदक्षिणा दे, 'तीर्थायनमः' कह आर्हती मर्यादा के अनुसार प्रमु सिंहासन पर बिराजे। नर, देव, पशु सभी अपने अपने स्थानों पर बैठे। फिर महावीर स्वामी ने संसारसागर से तैरने का मार्ग बताया। अनेक भव्य लोगोंने उस मार्ग पर चलना स्थिर किया। उन्हीं दिनों सोमिल नाम के एक धनिक ब्राह्मण ने अपापा में यज्ञ 1. तप २२९ हैं परंतु पारणे २२८ ही हुए हैं। इसका कारण यह है कि आखिरी छ? तप का पारणा केवलज्ञान होने बाद किया था। 2. प्रतिमाओं में दो पारणे अधिक माने गये हैं। परंतु ऐसा किये बिना दिनों का हिसाब नहीं बैठता। गुजराती महावीर स्वामी चरित्र के लेखक श्री नंदलाल लल्लुभाई ने भी ३५० पारणे ही माने हैं। यह संख्या तीस दिन का महीना मानकर दी गयी है। 3. आजकल यह शंका स्वाभाविक उत्पन्न होती है कि, मनुष्य अन्नजल के बिना जी कैसे सकता है। बेशक निर्बल मनवालों के लिए यह बहुत कठिन बात है। जहां एक बार भूखा रहना भी बहुत कठिन मालूम होता है वहां इतने उपवासों की कल्पना भी कैसे की जा सकती है; परंतु अन्य धर्मों के ग्रंथ और वर्तमान के उपवासचिकित्सा शास्त्री कहते हैं कि यह कोई कठिन बात नहीं है। : श्री महावीर चरित्र : 256 : Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आरंभ किया था। यज्ञकर्म कराने के लिए इंद्रभूति, अग्निभूति आदि ११ विद्वान ब्राह्मण आये थे। जिस समय यज्ञ चल रहा था उसी समय देवता महावीर स्वामी के दर्शन करने आ रहे थे। देवताओं को देख इंद्रभूति ने ब्राह्मणों को कहा – 'अपने यज्ञ का प्रभाव तो देखो कि, मंत्रबल से खिचें हुए देवता अपने विमानों में बैठ बैठकर चले आ रहे हैं। ' मगर देवता तो यज्ञभूमि को छोड़कर आगे चले गये। तब बाहर से आये हुए एक मनुष्य ने कहा- 'शहर के बाहर एक सर्वज्ञ आये हुए हैं। देव उन्हीं को वंदना करने और उनका उपदेश सुनने जा रहे हैं। सर्वज्ञ का नाम सुनते ही इंद्रभूति क्रोध से जल उठा। वह बोला- 'कोई पाखंडी लोगों को ठगता होगा। मैं अभी जाकर उसकी सर्वज्ञता की पोल खोलता हूं।' क्रोध से भरा हुआ। इंद्रभूति समवसरण में पहुंचा। मगर महावीर की सौम्य मूर्ति देखकर उसका क्रोध ठंडा हो गया। उसके हृदय ने पूछा 'क्या सचमुच ही ये सर्वज्ञ है?' उसी समय सुधासी वाणी में महावीर बोले'हे वसुभूतिसुत इंद्रभूति! आओ!' इंद्रभूति को आश्चर्य हुआ - ये मेरा नाम कैसे जानते हैं? उसके मन्नने कहा – तुझे कौन नहीं जानता है? तूं तो जगत्प्रसिद्ध है। - - 'इतने ही में जलद गंभीर वाणी सुनायी दी - 'हे गौतम! तुम्हारे मन शंका है कि, जीव है या नहीं?' अपने हृदय की शंका बतानेवाले के सामने इंद्रभूति का मस्तक झुक गया। मगर जब महावीर ने शंका का समाधान कर दिया तब तो इंद्रभूति 1 एक दम महावीर के चरणों में जा गिरे और उन्होंने अपने ५०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। 1. इंद्रभूति के पिता का नाम वसुभूति और माता का नाम पृथ्वी था। उनका गौ 'गौतम' था और जन्म मगध देश के गोबर गांव में हुआ था। इनकी कुल आयु ९२ वर्ष की थी। ये ५० बरस गृहस्थ, ३० बरस छद्मस्थ साधु और १२ बरस केवली रहे थे। इंद्रभूति के दूसरे दो भाई और थे। उनके नाम अग्निभूति और वायुभूति थे। वे भी पीछे से महावीर के शिष्य हुए थे। अग्निभूति की आयु ७४ बरस की थी। वे ४६ बरस गृहस्थ १२ छद्मस्थ साधु और १६ बरस केवली. रहें थे । वायुभूति की आयु ७० बरस की थी। वे ४२ बरस तक गृहस्थ, १० बरस तक छद्मस्थ साधु और १८ बरस तक केवली थे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 257 : Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इंद्रभूति के छोटेमाई अग्निभूति ने सुना कि इंद्रभूति महावीर का शिष्य हो गया है तो उसे बड़ा क्रोध आया। वह भी अपने पांच सौ शिष्यों को साथ ले महावीर को परास्त करने गया। मगर समवसरण में पहुंचने पर उसका दिमाग भी ठंडा हो गया। महावीर बोले – 'हे अग्निभूति! तुम्हारे मन में शंका है कि कर्म हैं या नहीं?' अगर कर्म हो तो वह प्रत्यक्षादि प्रमाण से अगम्य और मूर्तिमान है। जीव अमूर्त है। अमूर्त जीव मूर्तिमान कर्म को कैसे बांध सकता है?' . तुम्हारी यह शंका निर्मूल है। कारण, अतिशय ज्ञानी पुरुष तो कर्म की सत्ता प्रत्यक्ष जान सकते हैं; परंतु तुम्हारे समान छद्मस्थ भी अनुमान से इसे जान सकते हैं। कर्म की विचित्रता से ही संसार में असमानता है। कोई धनी है और कोई गरीब; कोई राजा है और कोई रैयत; कोई मालिक है और कोई नौकर; कोई नीरोग है और कोई रोगी। इस असमानता का कारण एक कर्म ही है। अग्निभूति के हृदय की शंका मिट गयी और वे भी अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर के शिष्य हो गये। - 'मेरे दोनों भाइयों को हरानेवाला अवश्य सर्वज्ञ होगा' यह सोच, वायुभूति शांत मन के साथ अपने शिष्यों के साथ समवसरण में गया और प्रभु को नमस्कार कर बैठा। महावीर बोले – 'हे वायुभूति! तुम्हें जीव और शरीर के संबंध में भ्रम है। प्रत्यक्षादि प्रमाण जिसे ग्रहण नहीं कर सकते वह जीव शरीर से भिन्न कैसे हो सकता है? जैसे पानी से बुदबुदा उठता है और वह पानी ही में लीन हो जाता है वैसे ही जीव भी शरीर ही से पैदा होता है और उसीमें लीन हो जाता है। मगर तुम्हारी धारणा मिथ्या है। कारण – यह जीव देश से प्रत्यक्ष है। इच्छा वगैरा गुण प्रत्यक्ष होने से जीव स्वसंविद् है यानी उसका खुद को अनुभव होता है। जीव देह और इंद्रिय से भिन्न है। जब इंद्रियां नष्ट हो जाती हैं तब वह इंद्रियों के अर्थ को स्मरण करता है और शरीर को छोड़ देता है। __ वायुभूति का संदेह जाता रहा और उसने भी अपने ५०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। : श्री महावीर चरित्र : 258 : Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ व्यक्त ने जब ये समाचार सुने तो वे भी महावीर के पास गये। महावीर बोले – 'हे व्यक्त, तुम्हारे दिल में यह शंका है कि, पृथ्वी आदि पंचभूत हैं कि नहीं। वे हैं ऐसा जो भास होता है वह जल में चंद्रमा होने का भास होने के समान है। यह जगत शून्य है। वेदवाक्य है कि 'इत्येश ब्रह्मविधिरंजसाविज्ञेयः' अर्थात् यह सारा जगत स्वप्न के समान है। और इस वाक्य का तुमने यह अर्थ कर लिया है कि सब शून्य है - कुछ नहीं है। यह तुम्हारी भ्रांति है। असल में इसका अभिप्राय यह है कि, जैसे सपने के अंदर की बातें व्यर्थ होती हैं। इसी तरह इस दुनिया का सुख भी व्यर्थ होता है। यह सोचकर मनुष्य को आत्मध्यान में लीन होना चाहिए।' व्यक्त का संशयं मिट गया और उसने भी अपने ५०० शिष्यों सहित महावीर स्वामी के पास दीक्षा ले ली। व्यक्त के समाचार सुनकर उपाध्याय सुधर्मा भी महावीर स्वामी के पास गये। प्रभु ने उनको कहा – 'हे सुधर्मा! तुम्हारे मन में परलोक के विषय में शंका है। तुम्हारी धारणा है कि जैसे गेहूं खाद में मिलकर गेहूं रूप में और चावल खाद में मिलकर चावल रूप में पैदा होता है वैसे ही मनुष्य भी मरकर मनुष्य रूप ही में जन्मता है; परंतु यह तुम्हारी धारणा भूल भरी है। मनुष्य योग और कषाय के कारण विविध रूप धारण करता है। वह जिस तरह की भावनाओं से प्रेरित होकर आचरण करता है वैसा ही जन्म उसे मिलता है। यदि वह सरलतां और मृदुता का जीवन बिताता है तो वह फिर से मनुष्य होता है, यदि वह कटुता और वक्रता का जीवन बिताता है तो वह पशु रूप 1. ये कोल्लाक गांव के रहनेवाले थे। इनके पिता का नाम धनुर्मित्र और माता का नाम वारुणी था। इनका गोत्र भारद्वाज था। इनकी आयु ८० बरस की थी। ये ४० बरस तक गृहस्थ, १२ बरस तक छद्मस्थ साधु और १८ बरस तक केवली रहे। 2. इनके पिता का नाम धम्मिल और माता का नाम भद्रिला था। अग्निवैश्यायन गोत्र के ये ब्राह्मण थे और कोल्लाक गांव के रहनेवाले थे। इनकी उम्र १०० बरस की थी। ये ५० बरस तक गृहस्थ ४२ बरस तक छद्मस्थ साधु और ८ बरस तक केवली रहे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 259 : Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ + में जन्मता है और यदि उसका जीवन परोपकार परायण होता है तो वह देव बनता है। .. सुधर्मा की शंका मिट गयी और उन्होंने भी अपने ५०० शिष्यों के साथ महावीर स्वामी के पास से दीक्षा ले ली। उनके बाद मंडिक' महावीर के पास आये। प्रभु ने कहा – 'हे मंडिक, तुमको बंध और मोक्ष के विषय में संशय है। यह संशय वृथा है। कारण, यह बात बहुत ही प्रसिद्ध है कि बंध और मोक्ष आत्मा का होता है। मिथ्यात्व और कषायों के द्वारा कर्मों का आत्मा के साथ जो संबंध होता है उसे बंध कहते हैं और इसी बंध के कारण जीव चार गति में परिभ्रमण करता है व दुःख उठाता है। सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यकचारित्र के द्वारा आत्मा का कर्मों से जो संबंध छूट जाता है उसे मोक्ष कहते हैं। मोक्ष से प्राणी को अनंत सुख मिलता है। जीव और कर्म का संयोग अमादि सिद्ध है। आग से जैसे सोना और मिट्टी अलग हो जाते हैं वैसे ही ज्ञान, दर्शन और चारित्र रूपी अग्नि से आत्मा और कर्म अलग हो जाते हैं। मंडिक का संशय जाता रहा और उन्होंने अपने ३५० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। उनके बाद मौर्यपुत्र अपने शिष्यों के साथ महावीर के पास आये। प्रभु बोले – 'हे मौर्यपुत्र! तुमको देवताओं के विषय में संदेह है। मगर वह संदेह मिथ्या है। इस समवसरण में आये हुए इंद्रादि देव प्रत्यक्ष है। इनके 1. मंडिक के पिता का नाम धनदेव और माता का नाम विजयदेवा था। ये मौर्य गांव के रहनेवाले वशिष्ट गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनका जन्म होते ही धनदेव की मृत्यु हो गयी थी। इसलिए विधवा विजयदेवा से धनदेव के मासियात भाई मौर्य ने ब्याह कर लिया था। मंडिक की उम्र ८३ बरस की थी। ये ५३ बरस गृहस्थ, १४ बरस छद्मस्थ साधु और १६ बरस केवली रहे। . 2. इनके पिता का नाम मौर्य और इनकी माता का नाम विजयदेवा था। ये मौर्य गांव के रहनेवाले काश्यप गोत्र के ब्राह्मण थे। इनकी उम्र ९५ बरस की थी। ये ६५ बरस गृहस्थ, १४ बरस छद्मस्थ और १६ बारस केवली रहे थे। विजयदेवा मंडिक के पिता धनदेव की पत्नी थी; मगर विधवा हो जाने के बाद उसने मौर्य के साथ शादी कर ली थी। : श्री महावीर चरित्र : 260 : Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय में शंका कैसी?' मौर्यपुत्र का भी संदेह मिट गया और उन्होंने भी अपने ३५० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। उनके बाद अकंपित' शिष्यों से सहित प्रभु के पास आये। प्रभु बोले- 'हे अकंपित! तुमको नारकी जीवों के संबंध में शंका है। परंतु नारकी जीव है। वे बहुत परवश हैं। इसलिए यहां नहीं आ सकते हैं और मनुष्य वहां जा नहीं सकते। इसलिए सामान्य मनुष्य को उनका ज्ञान नहीं हो सकता। सामान्य मनुष्य युक्तियों से उन्हें जान सकता है। क्षायिक ज्ञानवाला उन्हें प्रत्यक्ष देख सकता है। कोई क्षायिक ज्ञानवाला है ही नहीं यहा शंका भी बिलकुल व्यर्थ है। क्योंकि मैं क्षायिक ज्ञानी प्रत्यक्ष यहां मौजूद हूं।' अकंपित की शंका मिट गयी और उन्होंने अपने ३०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। उनके बाद अचलभ्राता अपने शिष्यों सहित महावीर के पास आये। प्रभु बोले – 'हे अचलभ्राता! तुम्हें पाप पुण्य में संदेह है। मगर यह शंका मिथ्या है। कारण, इस दुनिया में पाप पुण्य के फल प्रत्यक्ष है। संपत्ति, रूप, उच्च कुल, लोक में सन्मान अधिकार आदि बातें पुण्य का फल है। इनके विपरीत दरिद्रता, कुरूप, नीच कुल, लोक में अपमान इत्यादि बातें पाप का फल है।' .. .. अचल भ्राता की शंका मिट गयी और उन्होंने अपने ३०० शिष्यों के साथ दीक्षा ले ली। उनके बाद मेतार्य प्रभु के पास आये। प्रभु बोले – 'हे मेतार्य! 1. अकंपित के पिता का नाम देव और इनकी माता का नाम जयंती था। ये विमलपुरी के रहनेवाले गौतम गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी उम्र ७८ बरस की थी। ये ४८ बरस गृहस्थ, ९ बरस छद्मस्थ और २१ बरस केवली रहे। 2. अचलभ्राता के पिता का नाम वसु और उनकी माता का नाम नंदा था। वे कोशल नगरी के रहनेवाले हारीत गोत्रीय ब्राह्मण थे। उनकी उम्र ७२ बरस की थी। वे ४६ बरस गृहस्थ, १२ बरस छद्मस्थ और १४ बरस केवली रहे थे। 3. मेतार्य के पिता का नाम दत्त और इनकी माता का नाम करुणा था। ये वत्स देश के तुंगिक नामक गांव में रहनेवाले कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी उम्र ६२ बरस की थी। ये ३६ बरस गृहस्थ, १० बरस छद्मस्थ और १६ बरस केवली रहे थे। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 261 : Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तुमको परलोक के विषय में शंका है। तुम्हारा खयाल है कि, आत्मा पंच भूतों का समूह है। उनका अभाव होने से यानी समूह के बिखर जाने से आत्मा भी नष्ट हो जाता है। जब आत्मा ही नहीं रहता तो फिर परलोक किसको मिलेगा ? मगर तुम्हारी यह शंका आधारहीन है। कारण, जीव पंच भूतों से जुदा है। पांच भूतों के एकत्र होने से कभी चेतना नहीं उपजती। चेतना जीव का धर्म है और वह पंच भूतों से भिन्न है। इसीलिए पंचभूतों के नष्ट होने पर भी जीव कायम रहता है और वह परलोक में, एक देह को छोड़कर दूसरी देह में जाता है। किसी किसी को जातिस्मरण होने से पूर्व भव की बातें भी याद आती है।' मेतार्य की शंका मिट गयी और उन्होंने अपने ३०० शिष्यों के साथ प्रभु के पास से दीक्षा ले ली। उनके बाद प्रभास' प्रभु के पास आये। प्रभु बोले- 'हे प्रभास! तुम्हें मोक्ष के संबंध में संदेह है। मगर यह ठहर सके ऐसी शंका नहीं है। कारण, जीव और कर्म के संबंध का विच्छेद ही मोक्ष है। मोक्ष और कोई दूसरी चीज नहीं है। वेद से और जीव की अवस्था की विचित्रता से कर्म सिद्ध हो चुका . है। शुद्ध ज्ञान, दर्शन और चारित्र से कर्मों का नाश होता है। इससे ज्ञानी पुरुषों को मोक्ष प्रत्यक्ष भी होता है । ' प्रभास की भी शंका मिट गयी और उन्होंने भी अपने ३०० शिष्यों के साथ प्रभु के पास से दीक्षा ग्रहण कर ली। इस तरह ग्यारह प्रसिद्ध विद्वान ब्राह्मण महावीर के शिष्य हो गये। इससे महावीर के ज्ञान की चारों तरफ धाक बैठ गयी। ये ही ग्यारह महावीर के मुख्य शिष्य हुए और गणधर कहलाये। चंदनबाला शतानिक राजा के यहां थीं। वे भी महावीर स्वामी के पास आकर दीक्षित हो गयी। उनके साथ ही अनेक स्त्री पुरुषों ने दीक्षा ले 1. हिन्दुशास्त्रों में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि और आकाश को पंच भूत माना है। 2. प्रभास के पिता का नाम बल और उनकी माता का नाम अतिभद्रा था। ये राजगृह नगर के रहनेवाले कौडिन्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनकी उम्र ४० बरस की थी। ये १६ बरस गृहस्थ ८ बरस छद्मस्थ और १६ बरस केबली रहे थे। ! : श्री महावीर चरित्र : 262 : Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ली। हजारों नरनारी जो दीक्षित न हुए उन्होंने पंच अणुव्रत धारण कर श्रावकव्रत अंगीकार किया। इस तरह महावीर स्वामी का, साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविका का, चतुर्विध संघ स्थापित हुआ। फिर प्रभु ने गौतमादि गणधरों को उत्पाद, व्यय और ध्रौव्यात्मक त्रिपदी का उपदेश दिया और उससे गणधरों ने बारह' अंगों और चौदह पूर्वो की रचना की। इनमें से अकंपित और अचल भ्राता की वाचना एकसी, मेतार्य और प्रभास की वाचना एकसी हुई और दूसरे सात गणधरों की प्रत्येक की भिन्न भिन्न वाचनाएँ हुई। प्रभु ने त्रिपदी का एकसा उपदेश दिया; परंतु हरेक गणधर ने अपने ज्ञानविकास के अनुसार उसे समझा और तदनुसार सूत्रों की रचना की। इससे भिन्न भिन्न वाचनाओं के अनुसार महावीर स्वामी के नौ गण हुए। ग्यारह गणधरों के और उनकी वाचनाओं के नाम एक साथ यहां लिखे जाते हैं। १. इंद्रभूति-प्रसिद्ध नाम गौतम स्वामी। इनकी एक वाचना। २:: अग्नि भूति। इनकी दूसरी वाचना। ३. वायु भूति। इनकी तीसरी वाचना। ४. . व्यक्त। इनकी चौथी वाचना। ५. सुधर्मा। इनकी पांचवीं वाचना। ६. मंडिक। इनकी छट्ठी वाचना। 1. बारह अंग ये हैं - आचारांग (आयार), सूत्रकृतांग (सूयगड), ठाणांग, समवायांग, भगतती अंग, ज्ञातधर्मकथा, (नायधम्मकहा) उपासक, (उवासगदसा) अंतकृत, अनुत्तरापपातिकदशा (अणुत्तरोववाइय), प्रश्न व्याकरण (पण्हावागरण), विपाकश्रुत (विवाग) और दृष्टिवाद (दिट्ठिवाय)। 2. चौदह पूर्वो के नाम ये हैं - उत्पाद, अग्रायणीय, वीर प्रवाद, अस्तिनास्ति प्रवाद, ज्ञान प्रवाद, सत्य प्रवाद, आत्म प्रवाद, कर्म प्रवाद, प्रत्याख्यान प्रवाद, विद्या प्रवाद, कल्याणक, प्राणावाय, क्रियाविशाल और बिन्दुसार। [ये दृष्टिवाद अंग के अंदर रचे गये हैं। इनकी रचना बारह अंगों के पहले हुई इसलिए ये पूर्वांग कहलाये] : श्री तीर्थंकर चरित्र : 263 : Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ » पं० ७. मौर्यपुत्र। इनकी सातवीं वाचना। ८. अकंपित अचलभ्राता। इन दोनों गणधरों की समान वाचना होने से आठवीं वाचना। १०. मैतार्य - ११. प्रभास। इन दोनों की भी समान वाचना होने से नवीं वाचना। फिर समय को जाननेवाला इंद्र उठा और सुगंधित रत्नचूर्ण (वासक्षेप) से पूर्ण पात्र लेकर प्रमु के पास खड़ा रहा। इंद्रभूति आदि गणधर भी मस्तक झुकाकर खड़े रहे। तब प्रभु ने यह कहकर कि 'द्रव्य, गुण और पर्याय से तुमको तीर्थ की अनुज्ञा है।' पहले इंद्रभूति के मस्तक पर वासंक्षेप डाला। फिर क्रमशः दूसरे गणधरों के मस्तकों पर डाला। बाद में देवों चे मी प्रसन्न होकर ग्यारहों गणधरों पर वासक्षेप और पुष्पों की वृष्टि की। ... इसके पश्चात् प्रभु सुधर्मा स्वामी की तरफ संकेत कर बोले - 'ये दीर्घजीवी होकर चिरकाल तक धर्म का उद्योत करेंगे।' फिर सुधर्मास्वामी को सब मुनियों में मुख्य नियतकर गण की अनुज्ञा दी। इसके बाद साध्वियों में संयम के उद्योग की व्यवस्था करने के लिए प्रभु ने प्रथम साध्वी श्री चंदनबाला को प्रवर्तिनी पद पर स्थापित किया। . __इस तरह प्रथम पौरुषी (प्रहर) पूर्ण हुई। तब राजा ने जो बलि तैयार करायी थी उसे नौकर पूर्व द्वार से ले आया। वह आकाश में फैंकी गयी। आधी देवताओं ने ऊपर ही से ले ली। आधी भूमि पर पड़ी। उसमें से आधी राजा और शेष दूसरे लोग ले गये। प्रभु वहां से उठे और देवच्छंद में जाकर बैठे। गौतमस्वामी ने उनके चरणों में बैठकर देशना दी। उसके बाद कुछ दिन यही निवासकर प्रभु अपने शिष्यों सहित अन्यत्र विहार कर गये। राजा श्रेणिक को प्रतिबोध : कुशाग्रपुर में राजा प्रसेनजित था। इसके अनेक पुत्र थे। उनमें से : श्री महावीर चरित्र : 264 : Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक का नाम श्रेणिक था। श्रेणिक को मंभासार या बिंबसार भी कहते थे। श्रेणिक को बुद्धिमान और वीर जानकर प्रसेनजित ने राज्यगद्दी दी। प्रसेनजित ने राजगृह नगर बसाया था। अनेक बरसों के बाद, जब अभयकुमार श्रेणिक का मंत्री था तब, श्रेणिक ने वैशाली के अधिनायक चेटक की एक कन्या मांगी। चेटक ने यह कहकर कन्या देने से इन्कार किया कि – 'हैहय वंश की कन्या वाहीकुल (विदेशवंश) वाले को नहीं दी जा सकती।' अभयकुमार युक्ति करके चेटक की सबसे छोटी कन्या चेल्लणा को हर लाया था। चेल्लणा से श्रेणिक के एक पुत्र हुआ। उसका नाम कोणिक था। राणी चेल्लणा जैन थी और श्रेणिक बौद्ध। चेल्लणा के अनेक यत्न करने पर भी श्रेणिक जैन नहीं हुआ। एक बार श्रेणिक बगीचे में फिरने गया था। वहां एक युवक जैन मुनि को घोर तप करते देखा। उसके तप और त्याग को देखकर श्रेणिक का मन जैनधर्म की ओर झुका। भगवान महावीर विहार करते हुए राजगृही में आये। श्रेणिक महावीर के दर्शन करने गया और उपदेश सुन परम श्रद्धावान श्रावक हो गया। श्रेणिक के पुत्र, मेघकुमार, नंदीषेण आदि ने, अपने मातापिता की आज्ञा लेकर दीक्षा ले ली। ऋषभदत्त और देवानंदा को दीक्षा : प्रमु विहार करते हुए, एक बार ब्राह्मण कुंड गांव में आये। देवताओं 1. कुशाग्रपुर में बहुत आग लगने से प्रजा बहुत दुःखी होती थी। इससे राजा ने हुक्म निकाला कि जिसके घर से आग लगेगी वह शहर बाहर निकाल दिया जायगा। दैवयोग से राजा ही के यहां से इस बार आग लगी। अपने हुक्म के अनुसार व्यवहार करनेवाले न्यायी राजा ने शहर छोड़ दिया और एक माइल दूर डेरे डाले। धीरे-धीरे वहां महल बनवाये और लोग भी जा जाकर बसने लगे। आते जाते लोगों से कोई पूछता – 'कहां जाते हो?' वे जवाब देते – 'राजगृह (राजा के घर) जाते हैं।' इससे उस शहर का नाम राजगृह पड़ गया। 2. जैनशास्त्रों में इसका दूसरा नाम अशोकचंद्र और बौद्धग्रंथों में इसका नाम अजातशत्रु लिखा है। इसने अपने पिता राजा श्रेणिक को कैद कर दिया था। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 265 : Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ने समवसरण रचा। समवसरण में देवानंदा और ऋषभदत्त भी आये। महावीर को देखकर देवानंदा के स्तनों से दूध झरने लगा। वह एक टक महावीर स्वामी की तरफ देखने लगी। गौतम गणधर ने इसका कारण पूछा। महावीर ने कहा – 'मैं बयासी दिन तक इसकी कोख में रहा हूं। इसलिए वात्सल्य भाव से इसकी ऐसी हालत हुई है।' फिर महावीर स्वामी ने धर्मोपदेश दिया। देवानंदा और ऋषभदत्त ने दुनिया को असार जानकर दीक्षा ले ली। जमाली को दीक्षा : प्रभु विहार करते हुए एक बार क्षत्रियकुंड आये। वहां राजा नंदिवर्द्धन और प्रभु का जमाई 'जमाली' अपने परिवार सहित समवसरण में आये। प्रभु की देशना से वैराग्यवान होकर जमाली ने पांच सौ अन्य क्षत्रियों सहित दीक्षा ले ली। 1. जमाली महावीर के भानजे थे। इन्हीं के साथ महावीर की पुत्री प्रियदर्शा ब्याही __ गयी थी। जमाली ने दीक्षा लेने के बाद ग्यारह अंगों का अध्ययन किया। तब प्रभु ने उन्हें हजार क्षत्रिय मुनियों का आचार्य बना दिया। वे छट्ठ अट्ठम आदि का तप करने लगे। एक बार जमाली ने अपने मुनिमंडल सहित, स्वतंत्ररूप से विहार करने की .. आज्ञा मांगी। प्रभु ने अनिष्ट की संभावना से मौंन धारण किया। जमाली मौन को सम्मति समझकर विहार कर गये। विहार करते हुए वे श्रावस्ती नगरी पहुंचे। नगर के बाहर 'तेंदुक' नामक उद्यान के 'कोष्ठक' नामक चैत्य में रहे। विरस, शीतल, रुक्ष और असमय आहार करने से उन्हें पित्तज्वर आने लगा। एक दिन ज्वर की अधिकता के कारण उन्होंने सो रहने के लिए संथारा करने की अपने शिष्यों को आज्ञा दी। थोड़े क्षण नहीं बीते थे कि, जमाली ने पूछा – 'संथारा बिछा दिया?' शिष्य बोले-बिछा दिया। 'ज्वरात जमाली तुरत जहां संथारा होता था वहां आये। मगर संथारा होते देखकर वे बैठ गये और बोले - साधुओ! आज तक हम भूले हुए थे। इसलिए असमाप्त कार्य को भी समाप्त हो गया कहते थे। यह भूल थी। जो काम समाप्त हो गया हो उसके लिए कभी मत कहो कि, वह हो गया है। तुमने कहा कि 'संथारा बिछ गया है।' वस्तुतः यह बिछ नहीं चुका था। इसलिए तुम्हारा यह कहना असत्य है। उत्पन्न होता हो उसे : श्री महावीर चरित्र : 266 : Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उत्पन्न हुआ कहना, और जो अभी किया जाता हो उसके लिए हो चुका कहना, ऐसा महावीर कहते हैं, वह अयोग्य है। कारण इसमें प्रत्यक्ष विरोध मालूम होता है। वर्तमान और भविष्य क्षणों के समूह के योग से जो कार्य हो रहा है उसके लिए 'हो चुका' कैसे कहा जा सकता है? जो बच्चा गर्भ में होता है उसके लिए कोई नहीं कहता कि, बच्चा पैदा हो गया। इसलिए हे मुनियो! जो कुछ मैं कहता हूं उसे स्वीकार करो। कारण, मेरा कहना-युक्तिसंगत है। सर्वज्ञ की तरह विख्यात महावीर मिथ्या कह ही नहीं सकते ऐसा कभी मत सोचो। क्योंकि कभी महापुरुषों में भी स्खलना-भ्रांति होती है। जमाली की यह बात जिनं साधुओं को युक्ति-युक्त न जान पड़ी वे जमाली को छोड़कर महावीर के पास चले गये। बाकी उन्हीं के पास रहे। जमाली की पूर्वावस्था की पत्नी प्रियदर्शना ने भी मोहवश जमाली के पक्ष को ही स्वीकार किया। एक बार महावीर स्वामी जब चंपानगरी के पूर्णभद्र वन में समोसरे थे तब जमाली उनके पास गये और बोले – 'हे भगवान! आपके अनेक शिष्य छद्मस्थ ही कालधर्म को प्राप्त हो गये हैं; परंतु मैं ऐसा नहीं हूं। मुझे भी केवलज्ञान और केवलदर्शन प्राप्त हुए हैं। इसलिए मैं भी सर्वज्ञ हूं।' जमाली का यह कथन सुनकर गौतम स्वामी ने पूछा – 'जमाली! अगर तुम सर्वज्ञ हो तो बताओ कि यह जीव और लोक शाश्वत (अपरिवर्तनशील) है या अशाश्वत ( परिवर्तनशील)' जमाली इसका कोई जवाब न दे सके। तब महावीर बोले – 'तत्त्व की दृष्टि से जीव और लोक दोनों शाश्वत हैं। द्रव्य की दृष्टि से अशाश्वत है।' जिस समय यह घटना हुई थी उस समय महावीर को केवलज्ञान हुए चौदह बरस हुए थे। महावीर के उपदेश से. भी जमाली ने जब अपने मत को न छोड़ा तब वे संघ बाहर कर दिये गये। एक बार जमाली फिरते हुए श्रावस्ती में गये। प्रियदर्शना भी वहीं 'ढंक' नामक कुम्हार की जगह में अपनी एक हजार साध्वियों के साथ उतरी थीं। ढंक श्रद्धावान श्रावक था। उसने प्रियदर्शना को जैनमत में लाने का निश्चय किया। एक दिन उसने प्रियदर्शना के वस्त्रपर अंगारा डाल दिया। प्रियदर्शना बोली - 'ढंक! तुमने मेरा वस्त्र जला दिया।' ढंक बोला – 'मैं आपकी मान्यता के अनुसार कहता हूं कि आप मिथ्या बोलती हैं। कपड़े का जरा सा भाग जला है। इसे आप कपड़ा जला दिया : श्री तीर्थंकर चरित्र : 267 : Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी की पुत्री प्रियदर्शना ने भी एक हजार स्त्रियों के साथ दीक्षा ले ली। (भगवती सूत्र में और विशेषावश्यक सूत्र में इनका नाम प्रियदर्शना, ज्येष्ठा और अनवद्यांगी भी लिखा है।) महावीर के प्रभाव से शत्रुओं में मेल :___-एक बार विहार करते हुए महावीर स्वामी कोशांबी आये। उस समय कोशांबी को घेर कर उज्ज्यनी का राजा चंडप्रद्योत पड़ा हुआ था। महावीर के कोशांबी में आने के समाचार सुन कोशांबी की महारानी मृगावती ने निर्भय होकर किले के फाटक खोल दिये और वह अपने परिवार सहित समवसरण में गयी। राजा चंडप्रद्योत भी प्रभु की देशना सुनने गया। देशना के अंत में राणी मृगावती ने उठकर अपना पुत्र उदयन चंडप्रद्योत को सौंपा और कहा - 'इसकी आप अपने पुत्र के समान रक्षा करें और मुझे दीक्षा लेने की आज्ञा दें। मैं इस संसार से उदास हूं।' कहती है। यह आपके सिद्धांत के विरुद्ध है। आप जलते हुए को जल गया नहीं कहतीं। ऐसा तो महावीर स्वामी कहते हैं।', . प्रियदर्शना बुद्धिमती थीं। उन्हें अपनी भूल मालूम हुई। उन्होंने महावीर स्वामी के पास जाकर प्रायश्चित्त कर पुनः शुद्ध सम्यक्त्व धारण किया। जमाली अंत तक अपने नवीन मंत की प्ररूपणा करते रहे। इनके मत का नाम 'बहुरत वाद था। इसका अभिप्राय यह है कि होते हुए काम को हुआ ऐसा न कहकर संपूर्ण हो चुकने पर ही हुआ कहना। [इस संबंध में विशेष जानने के लिए विशेषावश्यक सूत्र में गाथा २३०६ से २३३३ तक और भगवती सूत्र के नवें शतक के ३३ वें उद्देशक में देखना चाहिए।]. मृगावती कोशांबी के राजा शतानीक की पत्नी थी। जैनधर्म में उसकी पूर्ण श्रद्धा थी। एक बार राजा शतानीक ने सुंदर चित्रशाला बनवायी। एक चित्रकार चित्रकारो में किसी यक्ष की कृपा से ऐसा होशियार था कि किसी भी व्यक्ति के शरीर को कोई अंग देखकर उसका सारा चित्र बना देता था। चित्रशाला में चित्र बनाते समय उसे अचानक मृगावती रानी के पैर का अंगूठा दिख गया। इससे उसने रानी का पूरा चित्र बना डाला। चित्र बनाते वक्त चित्र की जांघ पर पीछी से काले रंग की बूंद, गिर पड़ी। चित्रकार ने उसे मिटा दी। दूसरी बार और गिरी जब तीसरी बार भी गिरी तब उसने सोचा, इसकी यहां आवश्यकता : श्री महावीर चरित्र : 268 : Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ होगी। उसने वह काला दाग न मिटाया। दाग जांघपर काला तिल हो गया। राजा शतानीक, चित्रशाला, तैयार होने पर, देखने आया। वहां उसने मृगावती का चित्र जांघ के तिलसहित हूबहू देखा। इससे उसे चित्रकार और रानी के चरित्र पर वहम हुआ। उसने नाराज होकर चित्रकार को कतल करने की आज्ञा दी। दूसरे चित्रकारों ने राजा से प्रार्थना की - 'महाराज! एक यक्ष की महेरबानी से यह किसी भी मनुष्य का, एक भाग देखकर, हूबहू चित्र बना सकता है। यह निरपराधी है।' राजा ने इसकी परीक्षा करने के लिए किसी कुबड़ी का मुंह बताया। चित्रकार ने उसका हूबहू चित्र बना दिया। इससे राजा की शंका जाती रही। मगर राजा ने यह विचार कर उसके दाहिने हाथ का अंगूठा कटवा दिया कि, यह फिर कभी ऐसे सुंदर चित्र दूसरी जगह न बना सके। चित्रकार बड़ा दुःखी हुआ; नाराज हुआ। उसने यक्ष की फिर आराधना की। यक्ष ने प्रसन्न होकर वर दिया - 'जा तूं बायें हाथ से भी ऐसे ही सुंदर चित्र बना सकेगा।' चित्रकार ने शतानीक से वैर लेना स्थिर किया और मृगावती का एक सुंदर चित्र बनाया। फिर वह चित्र लेकर उज्जैन गया। उस समय उज्जैन में चंडप्रद्योत नाम का राजा राज्य करता था। वह बड़ा ही लंपट था। चित्रकार के पास मृगावती का चित्र देखकर वह पागल सा हो गया। उसने तुरत शतानीक के पास दूत भेजा और कहलाया कि, तुम्हारी रानी मृगावती मुझे सौंप दो, नहीं तो लड़ने को तैयार हो जाओ। स्त्री को सौंपने की बात कौन सह सकता है? शतानीक ने चंडप्रद्योत के दूत को, अपमानित करके निकाल दिया। चंडप्रद्योत फौज लेकर कोशांबी पहुंचा; मगर शतानीक तो इसके पहले ही अतिसार की बीमारी होने से मर गया था। चंडप्रद्योत को आया जान मृगावती बड़ी चिंता में पड़ी। उसे अपना सतीधर्म पालने की चिंता थी, अपने छोटी उम्र के पुत्र उदयन की रक्षा करने की चिंता थी। बहुत - विचार के बाद उसने चंडप्रद्योत को छलना स्थिर किया और उसके पास एक दूत भेजा। दूत ने राजा को जाकर कहा - 'महारानी ने कहलाया है कि, मैं निश्चिंत होकर उज्जैन आ सकू इसके पहले मेरे पुत्र उदयन को सुरक्षित कर जाना जरूरी समझती हूं। इसलिए अगर आप कोशांबी के चारों तरफ पक्की दीवार बनवा दें तो मैं निश्चिंत होकर आपके साथ उज्जैन चल सकू।' विषयांध चंडप्रद्योत इस जाल में फंस गया और उसने कोशांबी के चारों तरफ. पक्का कोट बनवा दिया। जब कोट बनकर तैयार हो गया तब मृगावती ने चारों तरफ के दरवाजे बंद करवा दिये और दीवारों पर अपने सुभट चढ़वा दिये। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 269 : Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस श्रावक :. महावीर स्वामी के श्रावकों में से दस श्रावक मुख्य थे। वे महान समृद्धि शाली थे। भगवान के उपदेश से उन्होंने श्रावक व्रत अंगीकार किया था। उनके नाम और संक्षिप्त परिचय यहां दिया जाता है - १. आनंद - यह वणिजक ग्राम का रहनेवाला था। इसके पास बारह __करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं। गायों के ४ गोकुल थे। २. कामदेव - यह चंपा नगरी का रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और गायों के ६ गोकुल थे। ३. चुलनी पिता - यह काशी का रहनेवाला था। इसके पास २४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और ८० हजार गायों के ८ गोकुल थे। ४. सुरादेव - यह काशी का रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ थीं और ६० हजार गायों के ६ गोकुल थे। ५. चुल्लशतक - यह आलसिकां नगरी का रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ थीं और ६० हजार गायों के ६ गोकुल थे। ... ६. कुंडगोलिक - यह कांपिल्यपुर का रहनेवाला था। इसके पास १८ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ६० हजार गायों के ६ गोकुल थे। ७. शद्दालपुत्र - यह पौलाशपुर का रहनेवाला और जाति का कुम्हार अब चंडप्रद्योत की आंखें खुली; परंतु कोई उपाय नहीं था। वह शहर को घेर कर पड़ा रहा। कई महीने बीत गये। . भगवान महावीर विहार करते हुए कोशांबी में समोसरे। प्रभु का आगमन सुनकर मृगावती अपने परिवार सहित समवसरण में गयी। चंडप्रद्योत भी समवसरण में गया। प्रभु के दर्शन करके और उनकी देशना सुनकर उसके वैर और काम को शांत हो गये। मृगावती ने अवसर देख अपना पुत्र उदयन चंडप्रद्योत को सौंपा। और भगवान महावीर से दीक्षा ली। कोशांबी का नाश करने पर तुला हुआ चंडप्रद्योत, मृगावती की युक्ति से असफल हुआ और महावीर के प्रभाव से वैर भूलकर कोशांबी का रक्षक बन गया। 1. एक गोकुल में १० हजार गायें रहती थीं। : श्री महावीर चरित्र : 270 : Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ था। इसके पास ३ करोड़ स्वर्णमुद्राएँ और १० हजार गायों का एक गोकुल था। शहर के बाहर उसकी पांच सौ दुकानें थीं। ८. महाशतक - यह राजगृह का रहनेवाला था। इसके पास २४ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ८० हजार गायों के आठ गोकुल थे। ६. नंदिनीपिता - यह श्रावस्ती का रहनेवाला था। इसके पास १२ करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ और ४० हजार गायों के ४ गोकुल थे। १०. शालिनी पिता - यह श्रावस्ती का रहने वाला था। इसके पास १२ ___ करोड स्वर्ण मुद्राएँ और ४० हजार गायों के ४ गोकुल थे। महावीर स्वामी पर गोशालक का तेजोलेश्या रखना : महावीर स्वामी विहार करते हुए श्रावस्ती नगरी में आये और वहां कोष्टक नामक उद्यान में समोसरे। वहीं अपने आपको जिन कहनेवाला गोशालक भी आया हुआ था। और वह हालाहल नामक कुम्हारिन की दुकान में ठहरा हुआ था। गौतम स्वामी ने यह बात सुनी और महावीर स्वामी से पूछा – 'प्रभो! इस नगरी में गोशालक को जिन कहते हैं। यह योग्य है या अयोग्य?' महावीर स्वामी ने उत्तर दिया - 'यह बात अयोग्य है; क्योंकि वह जिन नहीं है।' गौतम स्वामी ने पूछा - 'वह कौन है?' महावीर स्वामी बोले - 'वह मेरा एक पुराना शिष्य है। मंख का पुत्र है। अष्टांग निमित्त का ज्ञान प्राप्त कर उससे लोगों के दिल की बात कहता है। मुझसे तेजोलेश्या की साधना सीख, उसे साधा है और अब मिथ्यात्वी हो तेजोलेश्या से अपने विरोधियों का दमन करता है।' . समवसरण में ये प्रश्नोत्तर हुए थे। इससे शहर के लोगों ने भी ये बातें सुनी थी। लोग चर्चा करने लगे, महावीर स्वामी कहते हैं कि गोशालक जिन नहीं है। वह तो मंख का बेटा है। गोशालक ने ये बातें सुनीं। वह बड़ा गुस्से हुआ। वह जब अपने स्थान में बैठा हुआ था तब उसने महावीर स्वामी के शिष्य आनंद मुनि को, जाते देख, बुलाया और तिरस्कार पूर्वक कहा – 'हे आनंद! तूं जाकर अपने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 271 : Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्मगुरु से कहना कि वे मेरी निंदा करते हैं इसलिए मैं उनको परिवार सहित जलाकर राख कर दूंगा।' ... आनंद बहुत डरे। उन्होंने जाकर महावीर से सारी बातें कहीं और पूछा – 'हे भगवन्! गोशालक क्या ऐसा करने की शक्ति रखता है?' महावीर स्वामी बोले – 'हे आनंद! गोशालक ने तप करके तेजोलेश्या प्राप्त की है। इसलिए वह ऐसा कर सकता है। तीर्थंकर को वह नहीं जला सकता। हां तकलीफ उनको भी पहंचा सकता है।' थोड़ी ही देर में आजीविक संघ के साथ गोशालक वहां आ गया। और क्रोध के साथ बोला – 'हे आयुष्यमान काश्यप! तुम मुझे मंखलीपुत्र गोशालक और अपना शिष्य बताते हो यह ठीक नहीं है। मंखलीपुत्र गोशालक तो मरकर स्वर्ग में गया है। उसका शरीर परिसह सहन करने के योग्य था, इसलिए मैंने उसके शरीर में प्रवेश किया है। एक सौ तेतीस बरसों में मैंने सात शरीर बदले हैं। यह मेरा सातवां शरीर है।' महावीर बोले – 'हे गोशालक! चार जैसे कोई आश्रयस्थान न मिलने से कुछ ऊन, सन या रूई के तुंतुओं से शरीर को ढककर अपने को छिपा हुआ मानता है, इसी तरह हे गोशालक! तुम भी खुद को बहानों के अंदर छिपा हुआ मानते हो; मगर असल में तुम गोशालक ही हो।' गोशालक अधिक नाराज हुआ। उसे अनेक तरह से महावीर का तिरस्कार किया और कहा – 'हे काश्यप! मैं आज तुझे नष्ट भ्रष्ट कर दूंगा।' गुरु की निंदा देख प्रभु के शिष्य सर्वानुभूति मुनि और सुनक्षत्र मुनि ने उसे गुरु का अपमान नहीं करने की सलाह दी; परंतु उसने क्रोध करके उन दोनों को जला दिया। फिर उसने महावीर पर सोलह देशों को भस्म करने की ताकात रखनेवाली तेजोलेश्या रखी; परंतु वह प्रभु पर कुछ असर न कर सकी। उनका शरीर कुछ गरम हो गया। फिर तेजोलेश्या लौटकर गोशालक के शरीर में प्रवेश कर गयी। तब गोशालक बोला – 'हे काश्यप! अभी तूं बच गया है पर मेरे तप से जन्मी हुई तेजोलेश्या तुझे पित्तज्वर से : श्री महावीर चरित्र : 272 : Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पीड़ित करेगी और दाह के दुःख से छः महीने के अंदर तूं छद्मस्थ ही मर जायगा !' महावीर बोले- 'हे गोशालक ! मैं छः महीने के अंदर न मरूंगा। मैं सोलह बरस तक और भी तीर्थंकर पर्याय में विचरण करूंगा। मगर तुम खुद ही सात दिन के अंदर पित्तज्वर से पीड़ित होकर कालधर्म को प्राप्त करोगे!' गोशालक को तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ। वह स्तब्ध हो रहा। महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों से कहा - 'हे आर्यो! गोशालक जलकर राख बने हुए काष्ठ की तरह निस्तेज हो गया है। अब इससे धार्मिक प्रश्न करके इसको निरुत्तर करो। अब क्रोध करके यह तुम्हें कुछ नुकसान न पहुंचा सकेगा।' श्रमण निग्रंथों ने धार्मिक प्रतिचोदना (गोशालक के मत से प्रतिकूल प्रश्न) करके गोशालक को निरुत्तर किया। संतोषकारक उत्तर देने में असमर्थ होकर गोशालक बहुत खीझा। उसने निर्ग्रथों को हानि पहुंचाने का बहुत प्रयत्न किया; परंतु न पहुंचा सका। इसलिए अपने बालों को खींचता और पैर पछाड़ता हुआ हालाहल कुम्हारिन के घर चला गया। श्रावस्ती नगरी में यह बात चारों तरफ फैल गयी। लोग बातें करने लगे- 'नगर के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन परस्पर विवाद कर रहे हैं। एक कहते हैं 'तुम पहले मरोगे!' दूसरे कहते हैं - 'तुम पहले मरोगे!' इनमें सत्यवादी कौन है और मिथ्यावादी कौन है? कई महावीर को सत्यवादी बताते थे और कई गोशालक को सत्यवादी कहते थे; परंतु सात दिन के बाद जब गोशालक का देहांत हुआ तब सबको विश्वास हो गया कि महावीर ही सत्यवादी है। 1. गोशालक महावीर स्वामी के पास से निकलकर हालाहला कुम्हारिन के यहां आया। मद्य पीने लगा। बर्तनों के लिए तैयार की हुई मिट्टी उटा उठाकर अपने शरीर पर चुपड़ने लगा। जमीन पर लोट कर आक्रंदन करने लगा। उसकी हालत पागल की सी हो गयी। पुत्रा नाम का एक पुरुष गोशालक का भक्त था। वह रात के पहले और पिछले पहर में धर्म-जागरण किया करता था। एक दिन उसको शंका हुई कि हल्ला (कीट विशेष) 'का संस्थान कैसा होगा? चलूं अपने सर्वज्ञ गुरु से पूछें। .: श्री तीर्थंकर चरित्र : 273 : Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सात दिन के बाद जब गोशालक कालधर्म पाया तब गौतम स्वामी पूछा – 'भगवन्, गोशालक मरकर किस गति में गया?' महावीर स्वामी ने उत्तर दिया – 'गोशालक ने अंतिम समय में अपने पाप का पश्चात्ताप किया जिससे उसे सम्यग्दर्शन हुआ और उस समय आयुष्य का बंध होने से मरकर अच्युत देवलोक में गया है। और अनेक भवभ्रमण करने के बाद वह मोक्ष में जायगा।' सिंह अनगार की शंका : श्रावस्ती से विहार कर प्रभु मेंढिक ग्राम में आये और साणकोष्ठक गया। पुत्राल जब हालाहला के यहां पहुंचा तब उसने गोशालक को नाचते, कूदते, गाते, रोते देखा। पुत्राल को गोशालक की ये क्रियाएँ अच्छी न लगीं। वह लौट गोशालक के शिष्य पानी लेकर आ रहे थे। उन्होंने पुत्राल को जल्दी-जल्दी घर की तरफ जाते देखा निमित्तज्ञान से उसके मन की बात जानकर वे बोले- महानुभाव! तुमको तृण गोपालिका का संस्थान, जानने की इच्छा है। आओ सर्वज्ञ गुरु से पूछ लो । गुरु का निर्वाण समय नजदीक है। इसलिए वे नृत्य, गान इत्यादि कर रहे हैं। पुंत्राल बोला महाराज! मैं घर जाकर आता हूं।' गोशालक के शिष्यों ने पुत्राल के आने के पहले ही गोशालक को ठीक तरह से बिठा दिया और पुत्राल का प्रश्न बता दिया। पुत्राल आया। गोशालक को नमस्कार करके बैठा । गोशालक बोला – 'तुम्हें तृण गोपालिका का संस्थान जानने की इच्छा है। वह संस्थान (आकृति) बांसं की जड़ के जैसा होता है। पुत्राल संतुष्ट होकर अपने घर गया। गोशालक ने एक दिन अपना देहावसान निकट जान अपने शिष्यों को बुलाया और कहा 'देखो, मैं सर्वज्ञ नहीं हूं सर्वज्ञता का मैंने ढोंग किया था। मैं सचमुच ही महावीर स्वामी का शिष्य गोशालक हूं। मैंने घोर पाप किया है। अपने गुरु पर तेजोलेश्या रखकर उन्हें बहुत कष्ट पहुंचाया है। और अपने दो गुरु भाइयों को जिन्होंने मुझे गुरुद्रोह नहीं करने की सलाह दी थी-मारकर मैं हत्यारा बना हूं। इसलिए मरने के बाद मेरे पैरों में रस्सी बांधना, मुझे सारे शहर में घसीटना और मेरे पापों का शहर के लोगों को ज्ञान करना । ' महावीर स्वामी पर तेजो लेश्या रखी उसके ठीक सातवें दिन गोशालक मरा और उसके शिष्यों ने अपनी गुरु की आज्ञा का पालन करने के लिए, हालाहला के घर ही में, उसको पैर से डोरी बांधकर घसीटा। : श्री महावीर चरित्र : 274 : Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम के चैत्य में उतरे। वहां गोशालक की तेजोलेश्या का प्रभाव हुआ। उन्हें रक्त अतिसार और पित्तज्वर की बीमारी हो गयी। वह दिन दिन बढ़ती ही गयी। प्रभु ने उसका कोई इलाज नहीं किया। लोगों में ऐसी चर्चा आरंभ हो गयी कि गोशालक के कथनानुसार महावीर बीमार हुए हैं और छ: महीने में वे कालधर्म को प्राप्त करेंगे। महावीर के शिष्य सिंह साणकोष्ठक से थोड़ी ही दूर मालुका वन के पास छ? तपकर, ऊंचा हाथ करके ध्यान करते थे। ध्यानांतरिका' में उन्होंने लोगों की ये बातें सुनी। उन्हें यह शंका हो गयी कि, महावीर स्वामी सचमुच ही छ: महीने में कालधर्म पायेंगे। इस शंका से वे बहुत दुःखी हुए और तप करने के स्थान से मालुका वन में जाकर जोर जोर से रोने लगे। अंतर्यामी श्रमण महावीर ने अपने साधुओं द्वारा सिंह मुनि को बुलाया और पूछा – 'हे सिंह! तुम्हे ध्यानांतरिका में मेरे मरने की शंका हुई और तुम मालुकावन में जकर खूब रोये थे न?' सिंह ने उत्तर दिया - 'भगवन! यह बात सत्य है।' महावीर स्वामी बोले - 'हे सिंह! तुम निश्चिंत रहो। मैं गोशालक के कथनानुसार छः महीने के अंदर कालधर्म को प्राप्त नहीं होऊंगा। मैं अब से सोलह बरस तक और गंध हस्ति की तरह जिनरूप से, विचरण करूंगा।' प्रभु का सिंह के आग्रह से औषध लेना : सिंह ने बड़ी ही नम्रता के साथ निवेदन किया – 'हे भगवन! आप और सोलह बरस तक विचरण करेंगे यह सत्य है; परंतु हम लोग आपके इस दुःख को देख नहीं सकते, इसलिए आप कृपा करके औषध का सेवनकर हमें अनुग्रहीत कीजिए।' महावीर स्वामी ने कहा – 'हे सिंह! मेंढिक गांव में जाओ। वहां रेवती नाम की श्राविका है। उसने मेरे निमित्त से दो कोहलों का पाक बनाया 1. एक ध्यान पूरा होने के बाद जब तक दूसरा ध्यान आरंभ नहीं किया जाता है तब तक का काल ध्यानांतरिका कहलाता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 275 : Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है; उसे मत लाना; परंतु अपने लिये मार्जारकृत (मार्जार नामक वायु को शांत करनेवाला) बीजोरा पाक बनाया है। उसे ले आना।' . सिंहमुनि रेवती के मकान पर गये। धर्मलाभ दिया। रेवती ने वंदनाकर सुखसाता पूछने के बाद प्रश्न किया – 'पूज्यवर आपका आना कैसे हुआ?' सिंह मुनि बोले – 'मैं भगवान के लिए औषध लेने आया हूं।' रेवती प्रसन्न हुई। उसने भगवान के लिए जो कुष्मांड पाक तैयार किया था वह बहोराने लगी। सिंह मुनि बोले – 'महाभागा! प्रभु के निमित्त से बनाये हुए इस पाक की आवश्यकता नहीं है। तुमने अपने लिये बीजोरा पाक बनाया है वह लाओ।' भाग्यवती रेवती ने इसको अपना अहोभाग्य जाना और बीजोरा पाक बड़े भक्ति-भाव से साथ सिंह मुनि को बोहरा दिया। इस शुद्ध दान से रेवती ने देवायु का बंध किया। सिंह मुनि बीजोरा पाक लेकर महावीर स्वामी के पास गये और यथाविधि उन्होंने वह प्रभु के सामने रखा। प्रभु ने उसका उपयोग किया और वे रोगमुक्त हुए। उस दिन गोशालक ने तेजो लेश्या रखी उसे छः महीने बीते थे। प्रभु के आरोग्य होने के समाचार सुनकर सभी प्रसन्न हुए। अनुक्रम से विहार करते हुए महावीर स्वामी पोतनपुर में पधारे और मनोरम नाम के उद्यान में समोसरे। पोतनपुर का राजा प्रसन्नचंद्र प्रभु को वंदना करने आया और प्रभु का उपदेश सुन, संसार को असार जान, दीक्षित हो गया। प्रभु के साथ रहकर राजर्षि प्रसन्नचंद्र सूत्रार्थ के पारगामी हुए। एक बार विहार करते हुए प्रभु राजगृह नगर के बाहर समोसरे। प्रसन्नचंद्र मुनि थोड़ी दूर पर ध्यान करने लगे। राजा श्रेणिक अपने परिवार और सैन्य सहित प्रभु के दर्शन को चला। रास्ते में उसने राजर्षि प्रसन्नचंद्र को, एक पैर पर खड़े हो ऊंचा हाथ किये आतापना करते देखा। श्रेणिक भक्ति सहित उनकी वंदनाकर के महावीर स्वामी के पास पहुंचा। और प्रदक्षिणा दे, वंदनाकर, हाथ जोड़, बैठा व बोला – 'भगवन्! मैंने इस समय आते हुए राजर्षि प्रसन्नचंद्र को उग्र तप करते देखा है। अगर वे इस समय कालधर्म को पावें तो कौनसी गति में जायेंगे?' : श्री महावीर चरित्र : 276 : Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महावीर स्वामी ने उत्तर दिया – 'सातवीं नरक में।' श्रेणिक को आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा -- 'क्या यह भी संभव है कि ऐसा महान तपस्वी भी नरक में जाये? संभव है मेरे सुनने में भूल हुई हो। उसने फिर पूछा – 'प्रभो! राजर्षि प्रसन्नचंद्र यदि अभी कालधर्म को प्राप्त करें तो कौन सी गति में जायेंगे?' महावीर स्वामी बोले – 'सर्वार्थसिद्ध विमान में।' श्रेणिक को और भी आश्चर्य हुआ। उसने पुनः पूछा – 'स्वामिन्! आपने दोनों बार दो बातें कैसे कहीं?' महावीर स्वामी बोले -- 'मैंने ध्यान के भेदों से दो बातें कहीं थी। तुमने पहले प्रश्न किया तब प्रसन्नचंद्र मुनि ध्यान में अपने मंत्रियों और सामंतों के साथ युद्ध कर रहे थे और दूसरी बार पूछा तब वे अपनी भूल की आलोचना कर रहे थे।' श्रेणिक ने पूछा --- 'ऐसी भूल का कारण क्या है?' प्रभु बोले - 'मार्ग में आते हुए तुम्हारे सुमुख और दुर्मुख नाम के दो सेनापतियों ने राजर्षि को देखा। सुमुख बोला – 'ऐसा घोर तप करनेवाले मुनि के लिए स्वर्ग या मोक्ष कोई स्थान दुर्लभ नहीं है।' यह सुनकर दुर्मुख बोला – 'क्या तुम नहीं जानते कि यह पोतनपुर का राजा प्रसन्नचंद्र है। इसने अपने बालकुमारं पर राज्य का भारी बोझा रखकर बहुत बड़ा अपराध किया है। इसके मंत्री चंपानगरी के राजा से मिलकर राजकुमार को राज्यच्युत करनेवाले हैं। इसकी स्त्रियां भी न जाने कहां चली गयी हैं? जिसके कारण यह अनर्थ हुआ या होनेवाला है उसका तो मुंह देखना भी पाप है। दुर्मुख की बातें सुनकर राजर्षि को क्रोध हो आया और वे अपने मंत्रियों और उनके साथियों के साथ मन ही मन युद्ध करने लगा। उस समय उनके परिणाम भयंकर थे। उसी समय तुमने पूछा कि वे कौन सी गति में जायेंगे और मैंने जवाब दिया कि वे सातवीं नरक में जायेंगे। 'मगर मन में युद्ध करते हुए जब उनके सभी हथियार बेकार हुए तब उन्होंने अपने सिर पर हाथ रखा तो उनका सिर उन्हें साफ मालूम : श्री तीर्थंकर चरित्र : 277 : Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हुआ। तुरंत उन्हें खयाल आया कि, मैं तो मुनि हूं। मुझे राज और कुटुंब से क्या मतलब? धिक्कार है मेरी ऐसी इच्छा को! मैं त्याग करके भी पूरा त्यागी न हो सका! भगवन्! मैं किस बिंटबना में पड़ा?' इस तरह अपनी भूल की आलोचना करने लगे। उसी समय तुमने दूसरी बार पूछा था कि, वे कौनसी गति में जायेंगे और मैंने जवाब दिया था कि सर्वार्थसिद्ध विमान में जायेंगे। कारण, उस समय उनके भाव अति निर्मल थे।' इस तरह अभी भगवान का कथन चल ही रहा था कि आकाश में दुंदुभिनाद सुनायी दिया। श्रेणिक ने पूछा – 'प्रभो! यह दुंदुभिनाद कैसा है?' प्रभु बोले – 'राजन! प्रसन्नचंद्र मुनि को केवलज्ञान उत्पन्न हआ है। उनका ध्यान निर्मलतम हुआ। वे शुक्ल ध्यान पर आरुढ़ हुए। उनके मोहिनी कर्म का और उसके साथ ही ज्ञानावरणी, दर्शनावरणी और अंतराय कर्म का भी क्षय हो गया। इनके क्षय होते ही उनको केवलज्ञान की प्राप्ति हुई है।'. शुभ या अशुभ ध्यान ही प्राणियों को सुख में या दुःख में डालते हैं। अंतिम केवली : राजा श्रेणिक ने पूछा – 'भगवन्! अंतिम केवली कौन होगा? उस समय विद्युन्माली नामक ब्रह्मलोक के इंद्र का सामानिक देवता अपनी चार देवियों के साथ प्रभु को वंदना करने आया हुआ था। उसे बताकर प्रभु ने कहा-'इस भरतक्षेत्र में इस अवसर्पिणी काल में यह पुरुष अंतिम केवली होगा।' श्रेणिक ने पूछा – 'क्या देवताओं को भी केवलज्ञान होता है?' प्रभु ने उत्तर दिया – 'नहीं यह देव सात दिन के बाद च्यवकर राजगृही के श्रेष्ठी ऋषभदत्त का पुत्र होगा। वैराग्य पाकर सुधर्मा का शिष्य होगा। जंबू नाम रखा जायगा। उसे केवलज्ञान होगा। उसके बाद कोई भी केवली नहीं होगा।' श्रेणिक ने पूछा – 'देवताओं का जब अंतकाल नजदीक आता है तब उनका तेज घट जाता है। इनका तेज क्यों कम नहीं हुआ?' : श्री महावीर चरित्र : 278 : Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभु ने उत्तर दिया – 'इनका तेज पहले बहुत था; इस समय कम है। इनके पुण्य की अधिकता के कारण इनका तेज एक दम चला नहीं गया है।' मेंडक से देव : उसी समय एक कोढ़ी पुरुष आकर वहां बैठा और अपने शरीर से झरते हुए कोढ़ को पोंछ-पोंछकर प्रभु के चरणों में लगाने लगा। यह देखकर श्रेणिक को बहुत क्रोध आया। प्रभु का इस तरह अपमान करनेवाला उन्हें वध्य मालूम हुआ; परंतु प्रभु के सामने वे चुप रहे। उन्होंने सोचा – 'जब यह यहां से उठकर जायगा तब इसका वध करवा दूंगा। प्रभु को छींक आयी। कोढ़ी बोला – 'मरो! कुछ क्षणों के बाद राजा श्रेणिक को छींक आयी। कोढ़ी बोला – 'चिर काल तक जीते रहो।' कुछ देर के बाद अभयकुमार को छींक आयी। कोढ़ी बोला – 'मरो या जीओ।' उसके बाद कालसौकरिक को छींक आयी। कोढ़ी बोला – 'न जी, न मर।' . कोढ़ी ने जब महावीर स्वामी को कहा कि मरो। तब तो श्रेणिक के क्रोध का कोई ठिकाना ही न रहा। उसने अपने सुभटों को हुक्म दिया कि यह कोढ़ी जब बाहर निकले तब इसे कैद कर लेना। - थोड़ी देर के बाद कोढ़ी बाहर निकला। सुभटों ने उसे घेर लिया; मगर सुभदों को अचरज में डाल, दिव्यरूप धारण कर वह कोढ़ी आकाश में उड गया। . सुभटों ने आकर श्रेणिक को यह हाल सुनाया। श्रेणिक अचरज में पड़े। उन्होंने प्रभु से पूछा – 'प्रभो! वह कोढ़ी कौन था?' . महावीर बोले – 'वह देव था।' श्रेणिक ने पूछा – 'तो वह कोढ़ी कैसे हुआ?' 'अपनी देवी-माया से।' कहकर प्रभु ने उसकी जीवन कथा सुनायी और कहा - 'देव से पहले की इसकी योनी मेंडक की थी। इसी शहर के बाहर की बावड़ी में यह रहता था। जब हम यहां आये तो लोग हमें वंदना करने आने लगे। पानी भरनेवाली स्त्रियों को हमारे आने की बातें करते इसने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 279 : Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुना। इसके मन में भी हमें वंदना करने की इच्छा हुई। वह बावड़ी से निकलकर हमें वंदना करने चला । रास्ते में आते तुम्हारे घोड़े के पैरों तले कुंचलकर मर गया। शुभ भावना के कारण मरकर वह दर्दुरांक नाम का देवता हुआ। अनुष्ठान के बिना भी प्राणी को उसकी भावना का फल मिलता है। उसने मेरे पैरों में गोशीर्ष चंदन लगाया था; परंतु तुम्हें वह कोढ़ - रस दिखायी दिया था।' श्रेणिक ने पूछा 'जब आपको छींक आयी तब वह अमांगलिक शब्द बोला और दूसरों को छींके आयी तब मांगलिक शब्द बोला, इसका क्या कारण है?' महावीर स्वामी ने उत्तर दिया- 'मुझे उसने कहा कि, 'मरो' इससे उसका अभिप्राय था कि तुम अब तक इस दुनिया में कैसे हो? मोक्ष में जाओ। तुम्हें कहा कि 'जीते रहो' इससे उसका यह अभिप्राय था कि तुम. इस शरीर में रहोगे इसीमें सुख है; क्योंकि मरकर तुम नरक में जाओगे। अभयकुमार को कहा कि 'जीओ या मरो' इसका यह मतलब था कि अगर तुम जीते रहोगे तो धर्म करोगे और मरोगे तो अनुत्तर विमान में जाओगे। इससे जीवन, मरण दोनों समान है। कालसौकरिक को कहा था कि 'न जी न मर' इससे यह अभिप्राय था कि अगर जीएगा तो पाप करेगा और मरेगा तो सातवीं नरक में जायगा ।' उस समय अपनी 'नरक गति मिटाने हेतु पूछा और प्रभुने उपाय बताये। और उसे अपने जैसा तीर्थंकर होने का फल कहा! साल राजा को दीक्षा : राजगृही से विहार कर प्रभु पृष्ठचंपा नामक नगरी में आये। वहां का राजा साल और युवराज महासाल- जो साल का छोटा भाई था और जिसे राजा ने युवराजपद दिया था - दोनों प्रभु को वंदना करने आये और उपदेश पा, वैराग्यवान हो प्रभु के शिष्य हो गये। उन्होंने अपना राज्य अपने भानजे 'गागली' को दिया। गागली के पिता का नाम पिठर' और माता का नाम 'यशोमती' था। पृष्ठचंपा से विहार कर प्रभु चंपानगरी पधारे। वहां प्रभु के मुख्य शिष्य : श्री महावीर चरित्र : 280 : Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गौतम स्वामी ने जिन लोगों की दीक्षा दी थी उन्हें केवलज्ञान हो गया; परंतु गौतम स्वामी को नहीं हुआ। इससे वे दुःखी हुए। उन्हें दुःखी देख महावीर स्वामी ने उन्हें कहा – 'हे गौतम! तुम्हें केवलज्ञान होगा; मगर कुछ समय के बाद। तुमको मुझ पर बहुत मोह है। इसलिए जब तक तुम्हारा मोह नहीं छूटेगा तब तक तुम्हें केवलज्ञान की प्राप्ति भी नहीं होगी।' अंबड संन्यासी का आगमन : अंबड़ नाम का परिव्राजक प्रभु को वंदना करने आया। उसके हाथ में छत्री और त्रिदंड थे। उसने बड़े ही भक्तिभाव से प्रभु को वंदना की और कहा-'हे वीतराग! आपकी सेवा करने की अपेक्षा आपकी आज्ञा पालना विशेष लाभकारी है। जो आपकी आज्ञा के अनुसार चलते हैं, उन्हें मोक्ष मिलता है। आपकी आज्ञा है कि हेय (छोड़ने योग्य) का त्याग किया जाय और उपादेय (ग्रहण करने योग्य) को स्वीकारा जाय। आपकी आज्ञा है कि आस्रव हेय है और संवर उपादेय है। आस्रव संसार-भ्रमण का हेतु है और संवर से मोक्ष की प्राप्ति होती हैं। दीनता छोड़ प्रसन्न मन से जो आपकी इस आज्ञा को मानते हैं वे मोक्ष में जाते हैं। आप इस विषय में मुझे उपदेश दे। फिर. प्रभु का उपदेश सुनने के बाद अंबड़ जब राजगृही जाने को तैयार हुआ तब प्रभु ने अंबड़ को कहे – 'तुम राजगृही में नाग नामक सारथी की स्त्री सुलसा' को धर्मलाभ कहना।' राजा दशार्णभद्र : चंपा नगरी से विहार कर, प्रभु दशार्ण देश में आये| वहां की सुलसा परम श्राविका थी। महावीर स्वामी ने सुलसा को ही धर्मलाभ क्यों कहलवाया? उसके परम श्राविकापन की जांच करनी चाहिए। यह सोचकर अंबड़ ने अनेक युक्तियों द्वारा उसे श्राविकापन से च्युत करने की कोशिश की: परंतु वह निष्फल हुआ। तब उसको विश्वास हुआ कि, महावीर स्वामी ने सुलसा के प्रति इतना भाव दिखाया वह योग्य ही था। यह देवी सोलह सतियों में से एक है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 281 : Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजधानी दशार्ण नाम की नगरी थी। वहां दशार्णभद्र नाम का राजा राज्य करता था। दशार्ण नगरी के बाहर प्रभु का समवसरण हुआ। राजा को यह खबर मिली। वह अपने पूर्ण वैभव के साथ प्रभु के दर्शन करने गया और प्रभु को वंदना कर उचित स्थान पर बैठा। उसको गर्व हुआ कि, मेरे समान वैभववाला दूसरा कौन है। इंद्र को राजा दशार्णभद्र के इस अभिमान की ख़बर पड़ी। उसने राजा को, उपदेश देना स्थिर कर एक अद्भुत रथ बनाया। वह विमान जलमय था। उसके किनारों पर कमल खिले हुए थे। हंस और सारस पक्षी मधुर बोल रहे थे। देव वृक्षों और देवलताओं से सुंदर पुष्प उसमें गिरकर वैर रहे थे। नील कमलों से वह विमान इंद्रनील मणिमय सा लगता था। मरकत मणिमय कमलिनी में सुवर्णमय विकसित कमलों के प्रकाश का प्रवेश होने से वह अधिक चमकदार मालूम हो रहा था। और जल की चपल तरंगों की मालाओं से वह ध्वजापताकाओं की शोभा को धारण कर रहा था। इसका विशेष वर्णन दशार्ण भद्र राजा के चरित्र से जानना। ___ ऐसे जलकांत विमान में बैठकर एक हाथी की सूंढ़ में अनेक वापिकाएँ एक-एक वापिका में कमल पर नृत्य करती देवांगनाओं के साथ इंद्र समवसरण में आया, इंद्र का वैभव देखकर दशार्ण-भद्र राजा के गर्व को धक्का लगा। उसे खयाल आया कि, मेरा वैभव तो इस वैभव के सामने तुच्छ है। छि: मैं इसी पर इतना फूल रहा हूं। क्यों न मैं भी उस अनंत वैभव को पाने का प्रयत्न करूं जिसको प्राप्त करने का उपदेश महावीर स्वामी दे रहे हैं। राजा ने वहीं अपने वस्राभूषण निकाल डाले और अपने हाथों ही से लोच भी कर डाला। देवता और मनुष्य सभी विस्मित थे। फिर दशार्णभद्र ने गौतम स्वामी के पास आकर यतिलिंग धारण किया और देवाधिदेव के चरणों में उत्साह पूर्वक वंदना की। दशार्णभद्र का गर्वहरण करने की इच्छा रखनेवाला इंद्र आकर मुनि के चरणों में झुका और बोला – 'महात्मन्! मैंने आपके वैभव-गर्व को अपने वैभव से नष्ट कर देना चाहा। वह गर्व नष्ट हुआ भी; परंतु वैभव को एकदम : श्री महावीर चरित्र : 282 : Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ छोड़ देने के आपके महान त्याग ने मुझे गर्व हीन कर दिया। त्यागी महात्मन्! मेरी भक्ति-वंदना स्वीकार कीजिए।' वैभवभोगी से वैभवत्यागी महान् होता है। दुनिया में उसकी कोई समता नहीं। धन्ना और शालिभद्र की दीक्षा : - धन्ना और शालिभद्र दोनों महान समृद्धिवान थे। राजगृही नगरी में रहते थे। एक बार राजा श्रेणिक को शालिभद्र को देखने की इच्छा पूर्ण करने हेतु शालिभद्र की माता ने अपने यहां आमंत्रण दिया। राजा श्रेणिक उसके घर आये। शालिभद्र सातवें खंड में रहते थे। उन्हें माता ने जाकर कहा - 'पुत्र! नीचे चलो। तुम्हारे स्वामी राजा आये हैं।' मेरे सिरपर भी स्वामी है' यह बात शालिभद्र को बहुत बुरी लगी और वे सब वैभव का त्याग करने लगे। शालिभद्र के बहनोई 'धन्ना' थे। उनको भी यह बात मालूम हुई। उन्हें भी वैराग्य हो आया। फिर जब भगवान महावीर विहार करते हुए वैभारगिरि पर आये। तब शालिभद्र और धन्ना ने भगवान के पास जाकर दीक्षा ले ली। • रोहिणेय चोर की दीक्षा : प्रभु राजगृही के अंदर समवसरण में विराजमान थे। उस समय एक पुरुष प्रभु के पास आया, चरणों में गिरा और बोला – 'नाथ! आपका उपदेश संसारसागर में गोता खाते हुए मनुष्य को पार करने में जहाज का काम देता है। धन्य है वे पुरुष जो आपकी वाणी श्रद्धापूर्वक सुनते हैं और उसके अनुसार आचरण करते हैं। भगवन्! मैंने तो एक बार कुछ ही शब्द सुने थे; परंतु उन्होंने भी मुझे बचा लिया है।' _ फिर उसने प्रभु से उपदेश सुना। सुनकर उसे वैराग्य हुआ। उसने पूछा- 'प्रभो! मैं यतिधर्म पाने के योग्य हूं या नहीं? क्योंकि मैंने जीवनभर चोरी का धंधा किया है और अनेक तरह के अनाचार सेवे हैं।' , प्रभु बोले – 'रोहिणेय! तुम यतिधर्म के योग्य हो।' : श्री तीर्थंकर चरित्र : 283 : Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर रोहिणेय चोर मुनि हो गये। प्रभु महावीर के उपदेश ने और धर्म के आचरण ने चोर को एक पूज्य पुरुष बना दिया। रांजा उदायन की दीक्षा : भगवान विहार करते हुए मरुमंडल के वीतभय नगर में पधारें। वहां के राजा उदायन ने प्रभु से उपदेश सुन, संसार से विमुख हो दीक्षा ग्रहण की। प्रभु विहार करते हुए राजगृही में पधारे। वहां श्रेणिक राजा की अनेक राणियों ने पति और पुत्रों के वियोग से उदास हो प्रमु के पास से दीक्षा ली। राजा कूणिक भी प्रभु के पास वंदना करने आया और उसने नम्रतापूर्लक हाथ जोड़कर पूछा – 'भगवन! जो चक्रवर्ती उम्रभर भोग को नहीं छोड़ते वे मरकर कहां जाते हैं?' प्रभु ने उत्तर दिया – 'वे मरकर सातवीं नरक में जातें हैं।' कूणिक ने फिर पूछा – 'मैं मरकर कहां जाऊंगा?' .... प्रभु बोले – 'तुम मरकर छट्ठी नरक में जाओगे।' कूणिक ने पूछा – 'सातवीं में क्यों नहीं?' प्रभु बोले – 'इसलिए कि तुम चक्रवर्ती नहीं हो।' कूणिक ने पूछा – 'मैं चक्रवर्ती क्यों नहीं हूं?' प्रभु बोले – 'इसलिए कि तुम्हारे पास चक्रादि रत्न नहीं है।' . कूणिक इससे बहुत दुःखी हुआ और वह चक्रवर्ती बनने का इरादाकर अपने महलों में चला गया। राजा हस्तिपाल के स्वप्नों का फल : ___ प्रभु विहार करते हुए अपना अंतिम समय जानकर अपापा पूरी में समोसरे। वहां का राजा हस्तिपाल प्रभु को वंदना करने आया। वंदना कर, अपने आसन पर बैठा। प्रभु ने उपदेश दिया – 'इस जगत में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नाम के चार पुरुषार्थ हैं। इनमें से अर्थ और काम तो नाम मात्र के पुरुषार्थ हैं। क्योंकि इनका परिणाम अनर्थ रूप होता है। वास्तव में पुरुषार्थ तो मोक्ष है। और उसका कारण धर्म है। धर्म संयम आदि दस तरह का है। वह : श्री महावीर चरित्र : 284 : Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संसार-सागर से जीवों को तारता है। संसार अनंत दुःख रूप है और मोक्ष अनंत सुख रूप है। इसलिए संसार को छोड़ने और मोक्ष को पाने का कारण एक मात्र धर्म ही है। जैसे लंगड़ा मनुष्य भी सवारी के सहारे दूर की मुसाफरी कर सकता है वैसे ही घोर कर्मी मनुष्य भी धर्म के सहारे मोक्ष में जा सकता है।' राजा ने नम्रतापूर्वक पूछा – 'भगवन्! मैंने रात को स्वप्न में क्रमशः हाथी, बंदर, क्षीरवाला, वृक्ष, कौआ, सिंह, कमल, बीज और कुंभ ये आठ चीजें देखी थीं। कृपा करके कहिए कि इनका फल क्या होगा?' प्रभु बोले :- . १. हाथी - अब से श्रावक समृद्धि के-दौलत के-क्षणिक सुख में लुब्ध .. होंगे। हाथी के समान शरीर रखते हुए भी आलसी होकर घर में पड़े रहेंगे। महासंकट में आ पड़ने पर भी और परचक्र का भय होने पर भी वे संयम नहीं लेंगे। यदि कुछ ले लेंगे तो कुसंग दोष से उसे छोड़ देंगे। कुसंग दोष में भी संयम पालनेवाले विरले ही होंगे। २. बंदर - दूसरे स्वप्न का फल है.किं गच्छ के स्वामी आचार्य लोग . बंदर के समान चपल (अस्थिर) स्वभाव वाले, थोड़ी शक्ति वाले और व्रत-पालन में प्रमाद करने वाले होंगे। इतना ही नहीं जो धर्म में स्थिर होंगे उनके भावों को भी विपरीत बनायेंगे। धर्म के उद्योग में तत्पर तो विरले ही निकलेंगे। जो खुद धर्माचरण में शिथिल होते हुए भी दूसरों को धर्मोपदेश देंगे उनकी लोग ऐसे ही दिल्लंगी करेंगे जैसे गावों के लोग शहर में रहनेवाले (श्रम से - डरनेवाले) लोगों की किया करते हैं। हे राजन! भविष्य में इस तरह के प्रवचन से अज्ञात पुरुष आचाार्यादि होंगे। ३. क्षीरवृक्ष - तीसरे स्वप्न का फल यह है कि, सातों क्षेत्रों में द्रव्य का उपयोग करनेवाले, क्षीरवृक्ष के जैसे दातार श्रावक होंगे। उन्हें . लिंगधारी (वेषधारी) ठग रोक लेंगे, (अपने रागी बना लेंगे) ऐसे पाखंडियों की संगति से सिंह के समान सत्त्वशील आचार्य भी उन्हें : श्री तीर्थंकर चरित्र : 285 : Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वान के जैसे सारहीन मालूम होंगे। सुविहित मुनियों की विहारभूमि में ऐसे लिंगधारी शूलके जैसा त्रास देंगे। क्षीरवृक्ष के समान श्रावकों को अच्छे मुनियों की संगति नहीं करने देंगे। ४. काकपक्षी - इस स्वप्न का यह फल है कि, जैसे काकपक्षी विहार वापिका में नहीं जाते वैसे ही उद्धत स्वभाव के मुनि धर्मार्थी होते हुए भी अपने गच्छों में नहीं रहेंगे। वे दूसरे गच्छों के सूरियों के साथ, जो कि मिथ्याभाव दिखानेवाले होंगे, मूर्खाशय से चलेंगे। हितैषी अगर उनको उपदेश करेंगे कि इनके साथ रहना अनुचित है तो वे हितैषियों का सामना करेंगे। ५. सिंह - इस स्वप्न का यह फल है कि, जैन शासन जो सिंह के समान है - जातिस्मरणादि ज्ञानरहित और उसको धर्म के रहस्य को - समझनेवालों से शून्य होकर इस भरतक्षेत्र रूपी वन में विचरण करेगा-रहेगा। उसे अन्य तीर्थी तो किसी तरह की बाधा न पहुंचा सकेंगे; परंतु स्वलिंगी ही-जो सिंह के शरीर में पैदा होनेवाले कीड़ों की तरह होंगे - इसको कष्ट देंगे, जैनशासन की निंदा करायेंगे। ६. कमल - इस स्वप्न का यह फल है कि, - जैसे स्वच्छ सरोवर में होनेवाले कमल सभी सुगंधवाले होते हैं, वैसे ही उत्तम कुल में पैदा होनेवाले भी सभी धर्मात्मा होते हैं; परंतु भविष्य में ऐसा न होगा। वे धर्मपरायण होकर भी कुसंगति से भ्रष्ट होंगे। मगर जैसे गंदे पानी के गड्डे में भी कभी-कभी कमल उग आते हैं वैसे ही कुकुल और कुदेश में जन्मे हुए भी कोई मनुष्य धर्मात्मा होंगे; परंतु वे हीन जाति के होने से अनुपादेय होंगे। ७. बीज - इसका यह फल होगा कि क्षमादि गुणरूपी कमलों से अंकित और सुचरित्ररूपी जल से पूरित एकांत में रखे हुए कुंभ के समान महर्षि विरले ही होंगे। मगर मलिन कलश के समान शिथिलाचारी लिंगी (साधु) जहां-तहां दिखायी देंगे। वे ईर्ष्यावश महर्षियों से : श्री महावीर चरित्र : 286 : Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ झगड़ा करेंगे और लोग ( अज्ञानता के कारण) दोनों को समान समझेंगे। गीतार्थ मुनि अंतरंग में उत्तम स्थिति की प्रतीक्षा करते हुए और संयम को पालते हुए बाहर से दूसरों के समान बनकर रहेंगे।' A राजा हस्तिपाल की दीक्षा : राजा को वैराग्य हुआ और राजपाट सुखसंपत्ति को छोड़ उसने दीक्षा ली और घोर तप कर मोक्षपद को प्राप्त किया। कल्की राजा : गौतम स्वामी ने पूछा – 'भगवन! तीसरे आरे के अंत में भगवान ऋषभ देव हुए। चौथे आरे में अजितनाथ तेईस तीर्थंकर हुए जिनमें के अंतिम तीर्थंकर आप हैं। अब दुःखमा नाम के पांचवें आरे में क्या होगा सो कृपा करके फर्माइए!' महावीर स्वामी ने जवाब दिया 'हे गौतम! हमारे मोक्ष जाने के बाद तीन बरस और साढ़े आठ महीने बीतने पर पांचवां आरा आरंभ होगा। हमारे निर्वाण होने के उन्नीस सौ और चौदह बरस बाद पाटलीपुत्र में, म्लेच्छ कुल में एक लड़का पैदा होगा। बड़ा होने पर वह राजा बनेगा और कल्कि, रुद्र और चतुर्मुख नाम से प्रसिद्ध होगा । उस समय मथुरा के रामकृष्ण का मंदिर अकस्मात पुराना वृक्ष जैसे पवन से गिर जाता है. वैसे ही गिर पड़ेगा। क्रोध, मान, माया और लोभ उसमें इसी तरह से जन्मेंगे जैसे लक्कड़ में घुणा जाति का कीड़ा पैदा होता है। उस समय प्रजा को राजा का और चोरों का दोनों ही का भय बना रहेगा। गंध और रस का क्षय होगा। दुर्भिक्ष और अतिवृष्टि का प्रकोष रहेगा। कल्कि अठारह बरस का होगा तब तक महामारी का रोग रहा करेगा। फिर कल्कि राजा बनेगा। 'एक बार कल्कि राजा फिरने को निकलेगा। रास्ते में पांच स्तूपों को देखकर वह पूछेगा कि 'ये स्तूप किसने बनवाये हैं?' उसे जवाब मिलेगा कि-'पहले नंद नाम का एक राजा हो गया है। वह कुबेर के भंडारी जैसा धनिक था। उसने इन स्तूपों के नीचे बहुत सा धन गाड़ा है। आज तक : श्री तीर्थंकर चरित्र : 287 : 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उस धन को किसी राजा ने नहीं निकलवाया।' धन का लोभी राजा उन स्तूपों को खुदवाकर धन निकाल लेगा। . फिर वह यह सोचकर कि शहर में और स्थानों में भी धन गड़ा हुआ होगा, सारे शहर को खुदवा डालेगा। उसमें से एक लवणदेवी नाम की शिलामयी गाय निकलेगी। वह चौराहे में खड़ी कर दी जायगी। वह अपना प्रभाव दिखलाने के लिए मुनियों के - जो गोचरी जाते हुए उसके पास से निकलेंगे-अपना सींग अड़ा देगी। इसको साधु भविष्य में अति वृष्टि की सूचना समझेंगे और वहां से चले जायेंगे। कुछ भोजन वस्त्र के लोलुप यह कहकर वहीं रहेंगे कि कालयोग से जो कुछ होनहार है वह जरूर होगा। होनहार को जिनेश्वर भी नहीं रोक सकते हैं। _ 'फिर राजा कल्कि सभी धर्मों के साधुओं से कर लेगा। इसके बाद वह जैन साधुओं से भी कर मांगेगा। तब जैन साधु कहेंगे – 'हे राजन! हम अकिंचन हैं और गोचरी करके खाते हैं। हमारे पास क्या है सो हम तुम्हें दें? हमारे पास केवल धर्मलाभ है। वही हम तुमको देते हैं। पुराणों में लिखा है कि, जो राजा ब्रह्मनिष्ठ तपस्वियों की रक्षा करता है उसे उनके पुण्य का छट्टा भाग मिलता है। इसलिए हे राजन्! आप इस दुष्कर्म से हाथ उठाइए। आपका यह दुष्कर्म देश और शहर का अकल्याण करेगा।' 'इससे कल्कि बड़ा गुस्से होगा। उसको नगर के देवता समझायेंगे कि हे राजन्! निष्परिग्रही मुनियों को मत सताओ। ऐसे मुनियों को 'कर' के लिए सताकर तुम अपनी मौत को पास बुलाओगे।' . 'इसको सुनकर कल्कि डरेगा और मुनियों को नमस्कार कर उनसे क्षमा मांगेगा।' 'फिर शहर में, उसके (शहर के) नाश की सूचना देनेवाले बड़े-बड़े भयंकर उपद्रव होंगे। सत्रह रात दिन तक बहुत मेंह बरसेगा। इससे गंगा में(?) बाढ़ आयगी और पाटलीपुत्र को डुबा देगी। शहर में केवल प्रातिपद नाम के आचार्य, कुछ श्रावक, थोड़े शहर के लोग और कल्कि राजा किसी ऊंचे स्थान में चढ़ जाने से बच जायेंगे। शेष सभी नगरजन मर जायेंगे। 'पानी के शांत होने पर कल्कि नंद के पाये हुए धन से पुनः शहर : श्री महावीर चरित्र : 288 : Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बसायगा। लोग आयेंगे। शहर में और देश में सुख शांति होगी। एक पैसे का मटका भर के धान्य बिकेगा; तो भी खरीददार नहीं मिलेंगे। साधुसंत सुख से विचरण करेंगे। पचार बरस तक सुकाल रहेगा। 'जब राजा कल्कि की मौत निकट आयगी तब वह पुनः धर्मात्माओं को दुःख देने लगेगा। संघ के लोगों सहित प्रतिपद आचार्य को वह गोशाला में बंद कर देगा और उनसे कहेगा-अगर तुम्हारे पास पैसा देने को नहीं है तो जो कुछ मांगकर लाते हो उसी में का छट्ठा भाग दो। इससे कायोत्सर्ग पूर्वक संघ शक्रेन्द्र की आराधना करेगा। शासनदेवी जाकर कल्कि को कहेगी – 'हे राजन! साधुओंने इंद्र की आराधना के लिए कायोत्सर्ग किया है। इससे तेरा अहित होगा।' मगर कल्कि कुछ भी ध्यान नहीं देगा। 'संघ की तपस्या से इंद्र का आसन कांपेगा। वह अपने अवधिज्ञान से संघ का संकट जानकर कल्कि के शहर में आयगा और ब्राह्मण का रूप धरकर राजा के पास जाकर पूछेगा – 'हे. राजन्! तुमने साधुओं को क्यों कैद किया है?' 'तब कल्कि राजा कहेगा – 'हे वृद्ध! ये लोग मेरे शहर में रहते हैं; परंतु मुझे कर नहीं देते। इनके पास पैसे नहीं है, इसलिए मैंने इनको कहा कि, तुम अपनी भिक्षा का छट्ठा भाग मुझे दो; मगर वह भी देने को ये राजी नहीं हुए। इसलिए मैंने इनको गायों के बाड़े में बंद कर दिया है।' तब शक्रेन्द्र उनको कहेगा – 'उन साधुओं के पास तुझे देने के लिए कुछ भी नहीं है। भिक्षा वे इतनी ही लाते हैं जितनी उनको जरूरत होती है। अपनी भिक्षा में से वे किसी को एक दाना भी नहीं दे सकते। ऐसे साधुओं से भिक्षांश मांगते तुम्हें लाज क्यों नहीं आती? अगर अब भी अपना भला चाहते हो तो साधुओं को छोड़ दो वरना तुम्हारा अपकार होगा।' _ 'ये बातें सुनकर कल्कि नाराज होगा और अपने सुभटों को हुक्म देगा- 'इस ब्राह्मण को गर्दनिया देकर निकाल दो।' 'इंद्र कुपित होकर तत्काल ही कल्कि को भस्म कर देगा; उसके पुत्र दत्त को जैनधर्म का उपदेश देकर राज्यगद्दी पर बिठायगा, संघ को मुक्त : श्री तीर्थंकर चरित्र : 289 : Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर नमस्कार करेगा और फिर देवलोक में चला जायगा। कल्कि छियासी वर्ष की आयु पूर्ण कर तुरंत नरक भूमि में जायगा। 'राजा दत्त अपने पिता को मिले हुए अधर्म के फल को याद करके और इंद्र के दिये हुए उपदेश का खयाल करके सारी पृथ्वी को अरिहंत के चैत्यों से विभूषित कर देंगे। पांचवें आरे के अंत तक जैनधर्म चला करेगा। .. तीर्थंकर विचरण करते हैं तब कैसी हालत रहती है? 'तीर्थंकर जब विचरण करते हैं तब वह भरतक्षेत्र सब तरह समृद्ध और सुखी होता है। ऐसा जान पड़ता है मानों यह दूसरा स्वर्ग है। इसके गांव शहरों जैसे, शहर अलकापुरी जैसे, कुटुंबीजन राजा के जैसे, राजा कुबेर के भंडारी जैसा, आचार्य चंद्र के जैसे, पिता देव के जैसे, सासु माता के समान और ससुर पिता के समान होते हैं। लोग सत्य और शौच में तत्पर, धर्माधर्म के जाननेवाले, विनीत, देवगुरु के भक्त और स्वदारासंतोषी (अपनी स्त्री के सिवा सभी स्त्रियों को अपनी मां बहन समझनेवाले) होते हैं। उन लोगों में, विज्ञान, विद्या और कर ही डाला.जाता है। ऐसे समय में भी अरिहंत की भक्ति को नहीं जाननेवाले और विपरीत वृत्तिवाले कुतीर्थियों से मुनियों को उपसर्ग होते ही रहते हैं और दस आश्चर्य भी होते हैं। पांचवां आरा : 'इसके बाद दुःखमा नामक पांचवें.आरे में मनुष्य कषायों से युक्त, लुप्त धर्मबुद्धिवाले और बाड़ बिना के खेत की तरह मर्यादा रहित होंगे। जैसे-जैसे पांचवां काल आगे बढ़ेगा वैसे-वैसे लोग विशेष रूप से कुतीर्थियों द्वारा की गयी, भ्रमित बुद्धिवाले अहिंसा के त्यागी होंगे। गांव स्मशान के जैसे, शहर प्रेतलोक जैसे, कुटुंबी दासों के जैसे और राजा यमदंड के जैसे होंगे। राजा अपने सेवकों पर सख्ती करेंगे और सेवक लोगों को सतायेंगे, अपने संबंधियों को लूटेंगे। इस तरह मात्स्यन्याय' की प्रवृत्ति होगी। जो अंत में होगा वह मध्यम में आयगा और जो मध्य में होगा वह अंत में जायगा। 1. तालाब या समुद्र के अंदर की बड़ी मछली छोटी मछलियों को खाती हैं। मझली और छोटियों को खाती है। छोटी उनसे छोटियों को खाती हैं। बड़ा छोटे को खाय, इसका नाम मात्स्य न्याय है। : श्री महावीर चरित्र : 290 : Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ यानी जो हल्का है वह ऊंचा हो जायगा और जो ऊंचा है वह हल्का हो जायगा। इस तरह श्वेत ध्वजावाले ( ? ) जहाजों की तरह सभी चलित हो जायेंगे (अपने कर्तव्य को भूल जायेंगे ।) चोर चोरी से, अधिक भूत क बाधावा मनुष्य की तरह उद्दंडता एवं रिश्वत से और राजा करके बोझे से प्रजा को सताएँगे। लोग स्वार्थ-परायण, परोपकार से दूर, सत्य, लज्जा या दाक्षिण्य (मर्यादा) हीन और अपनों ही के वैरी होंगे। न गुरु शिष्य को शिष्य की तरह समझेगा न शिष्य ही गुरुभक्ति करेगा। गुरु शिष्यों को उपदेशादि ( और आचरण द्वारा) श्रुतज्ञान नहीं देगे। क्रमशः गुरुकुल का निवास बंद होगा, धर्म में अरुचि होगी और पृथ्वी बहुत से प्राणियों से आकुल व्याकुल हो जायेगी। देवता प्रत्यक्ष नहीं होंगे, पिता की पुत्र अवज्ञा करेंगे, बहुएँ सर्पिणी सी आचरण करेंगी । और सासुएँ कालरात्रि के जैसे प्रचंड होंगी। कुलीन स्त्रियाँ भी लज्जा छोड़कर भ्रूभंगी से, हास्य से, आलाप से अथवा दूसरी तरह के हावभावों और विलासों से वेश्या जैसी लगेंगी। श्रावक और श्राविकापन, का हास होगा, चतुर्विध धर्म का क्षय होगा और साधु साध्वियों को पर्व के दिन भी या स्वप्न में भी निमंत्रण नहीं मिलेगा। खोटे माप तील चलेंगे। धर्म में भी शठता होगी। सत्पुरुष दुःखी और दुष्ट पुरुष सुखी रहेंगे। मणि, मंत्र, औषध, तंत्र, विज्ञान, धन, आयु, फल, पुष्प, रस, रूप, शरीर की ऊंचाई और धर्म एवं दूसरे शुभ भावों की पांचवें आरे में दिन प्रति दिन हानि होगी । और उसके बाद छट्टे आरे में तो और भी अधिक हानी होगी। 'इस तरह पुण्यक्षय वाले काल के फैलने पर जिस मनुष्य की बुद्धि धर्म में होगी वह धन्य होगा। इस भरतक्षेत्र में दुःखमा काल के अंतिम भाग में दुःप्रसह नाम के आचार्य, फल्गुश्री नामा साध्वी, नायल नामक श्रावक और सत्यश्री नामा श्राविका, विमलवाहन नामक राजा और सुमुख नामक मंत्री होंगे। उस समय शरीर दो हाथ का, उम्र ज्यादा से ज्यादा बीस बरस की होगी। तप उत्कृष्ट छट्ट का होगा। दशवैकालिक का ज्ञान रखनेवाले चौदह पूर्वधारी समझे जायेंगे। और ऐसे मुनि दुःप्रसह सूरि तक संघ रूप तीर्थ को : श्री तीर्थंकर चरित्र : 291 : Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिबोध करेंगे। इसलिए उस समय तक अगर कोई यह कहे कि धर्म नहीं है तो वह संघ बाहर किया जाय।' - 'दुःप्रसहाचार्य बारह वर्ष तक घर में रहेंगे और आठ वर्ष तक साधुधर्म पाल अंत में अट्ठम तप करेंगे और आयु पूर्ण कर सौधर्म देवलोक में जायेंगे। उस दिन सबेरे चारित्र का, मध्याह्न में राजधर्म का और संध्या को अग्नि का उच्छेद होगा। इस तरह इक्कीस हजार वर्ष प्रमाण का दुःखमा काल पूरा होगा। 'फिर इक्कीस हजार वर्ष वाला एकांत दुःखमा नाम का.छट्ठा आरा शुरू होगा। वह भी इक्कीस हजार वर्ष तक रहेगा। उसमें धर्म-तत्त्व नष्ट होने से चारों तरफ हाहाकार मच जायगा. पशुओं की तरह मनुष्यों में भी माता और पुत्र की व्यवस्था नहीं रहेगी। रात दिन सख्त हवा चलती रहेगी। बहुत धूल उड़ती रहेगी। दिशाएँ धूएँ के जैसी होने से भयानक लगेंगी। चंद्रमा में अत्यंत शीतलता और सूरज में अत्यंत तेज धूप होगी। इससे बहुत ज्यादा सर्दी और बहुत ज्यादा गरमी के कारण लोग अत्यंत दुःखी होंगे। 'उस समय विरस बने हुए मेघ खारे, खट्टे विषेले विषाग्निवाले और वज्रमय होकर, उसी रूप में वृष्टि करेंगे। इससे लोगों में खांसी, वास, शूल, कोढ़, जलोदर, बुखार, सिरदर्द और ऐसे ही दूसरे अनेक रोग फैल जायेंगे। जलचर, स्थलचर और खेचर तिर्यंच भी महान दुःख में रहेंगे। खेत, वन, बाग, बेल, वृक्ष और घास का नाश हो जायगा। वैताढ्य और ऋषभकूट पर्वत एवं गंगा और सिंधु नदियां रहेंगे। दूसरे सभी पहाड़, खड्डे और नदियां समतल हो जायेंगे। भूमि कहीं अंगारों के समान दहकती, कहीं बहुत धूलवाली और कहीं बहुत कीचड़वाली होगी। मनुष्यों के शरीर दो हाथ प्रमाण वाले और खराब रंगवाले होंगे। उत्कृष्ट आयु पुरुषों की बीस वर्ष की और औरतों की सोलह वर्ष की होगी। उस समय स्त्री छः बरस की उम्र में गर्भधारण करेगी और प्रसव के समय अत्यंत दुःखी होगी। सोलह वर्ष की उम्र में तो वह बहुत से बालबच्चों वाली होगी और वृद्धा गिनी जायगी। वैताढ्य गिरि के नीचे उसके पास बिलों में लोग रहेंगे। गंगा और : श्री महावीर चरित्र : 292 : Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिंधु दोनों नदियों के तीर पर वैताढ्य के दोनों तरफ नौ नौ बिल हैं कुल बहत्तर बिल हैं, उनमें रहेंगे। तिर्यंच जाति मात्र बीज रूप से रहेगी। उस विषम काल में मनुष्य और पशु सभी मांसाहारी, क्रूर और अविवेकी होंगे। गंगा और सिंधु नदी के प्रवाह में बहुत मछलियाँ और कछुए होंगे। उनका पाट बहुत छोटा हो जायगा। लोग मछलियां पकड़कर धूप में रखेंगे। धूप की गरमी से वे पक जायेंगी। उन्हीं को लोग खायेंगे। इस तरह उनका जीवननिर्वाह होगा। कारण उस समय अन्न, फल, दूध, दही वगैरा कोई भी खाने की चीज नहीं मिलेगी। शैया, आसन वगैरा सोने बैठने के पदार्थ भी न रहेंगे। भरत और ऐरावत नाम के दसों क्षेत्रों में इसी तरह पांचवां और छट्ठा आरा इक्कीस, इक्कीस हजर बरस तक रहेंगे। अवसर्पिणी में जैसे अत्यंत (छट्ठा) और उपांत्य (पांचवां) आरा होते हैं, वैसे ही उत्सर्पिणी में अंत्य (पहला) और उपांत्य (दूसरा) आरा होते हैं। उत्सर्पिणी काल के आरे : 'उत्सर्पिणी में दुःखमा दुःखमा नाम का (अवसर्पिणी काल के छठे आरे जैसा) पहला आरा होगा। इस आरे के अंत में पांच जाति के मेघ बरसेंगे। प्रत्येक जाति का मेघ सात सात दिन तक बरसेगा। पहला पुष्कर मेघ बरसकर पृथ्वी को तृप्त करेगा। दूसरा क्षीर मेघ बरसकर अनाज पैदा करेगा। तीसरा घृत मेघ स्नेह (चिकनापन) पैदा करेगा। चौथा अमृतं मेघ औषधियां उत्पन्न करेगा। पांचवां रस मेघ पृथ्वी वगैरा को रसमय बनायगा। ___'इस तरह पैंतीस दिन तक दुर्दिन नाशक वृष्टि होगी। बाद में वृक्ष, औषध, लता इत्यादि हरियाली देखकर बिल में रहनेवाले मनुष्य खुश होकर बाहर निकलेंगे। उसके बाद भारतभूमि फलवती होगी। मनुष्य मांस खाना छोड़ देंगे। फिर जैसे जैसे समय बीतता जायगा वैसे ही वैसे मनुष्यों के रूप में, शरीर के संगठन में, आयुष्य में और नदियों में जल बढ़ेगा। इससे मनुष्य और तिर्यंच सभी नीरोग हो जायेंगे। 'दुःखमा काल के (उत्सर्पिणी के दूसरे) आरे के अंत में इस भारतवर्ष में सात कुलकर होंगे। १. विमलवाहन, २. सुदाम, ३. संगम, ४. सुपार्थ, ५. दत्त, ६. सुमुख, ७. संमुची। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 293 : . Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'उनमें के पहले विमलवाहन को जातिस्मरणज्ञान होगा। इससे वे गांव और शहर बसायेंगे, राज्य कायम करेंगे, हाथी, घोड़े, गाय, बैल वगैरे पशुओं का संग्रह करेंगे और शिल्प, लिपि और गणितादिका व्यवहार लोगों में चलायेंगे। बाद में जब दूध, दही, अग्नि आदि पैदा होंगे तब वह राजा अन्न पकाकर, लोगों को, उसे खाने का उपदेश देगा। 'इस तरह जब दुःखमा काल बीत जायगा तब शतद्वार नामक नगर में सातवें कुलकर राजा की रानी भद्रादेवी के कोख से श्रेणिक का जीव पुत्र रूप में उत्पन्न होगा। उनके आयुष्य और शरीरादि मेरे समान होंगे। उनका नाम पद्मनाभ होगा। वे ही उत्सर्पिणी काल में पहले तीर्थंकर होंगे। उसके बाद अवसर्पिणी काल की तरह उल्टी तरह के हिसाब से तेईस तीर्थंकरों के शरीर आयुष्य और अंतर में अभिवृद्धि होगी। उनके नाम क्रमशः इस तरह होंगे - 'श्रेणिका का जीव पद्मनाभ नामक पहले तीर्थंकर होंगे। सुपार्थ का जीव सूरदेव नामक दूसरे तीर्थंकर होंगे। पोट्टिल का जीव सुपार्श्व नामक तीसरे तीर्थंकर होंगे। द्रढ़ायु का जीव स्वयं प्रभु नाम के चौथे तीर्थंकर होंगे। कार्तिक सेठ का जीव सर्वानुभूति नामक पांचवें तीर्थंकर होंगे। शंख श्रावक का जीव देवश्रुत नामक छट्टे तीर्थंकर होंगे। नंद का जीव उदय नामक सातवें तीर्थंकर होंगे। सुनंद का जीव पेढाल नामक आठवें तीर्थंकर होंगे। कैकसी का जीव पोट्टिल नामक नवें तीर्थंकर होंगे। रेवती का जीव शतकीर्ति नामक दसवें तीर्थंकर होंगे। सत्यकी का जीव सुव्रत नामक ग्यारहवें तीर्थंकर होंगे। कृष्ण वासुदेव का जीव अमम नामक बारहवें तीर्थंकर होंगे। बलदेव का जीव अकषाय नामक तेरहवें तीर्थंकर होंगे। रोहिणी का जीव निष्पुलाक नामक चौदहवें तीर्थंकर होंगे। : श्री महावीर चरित्र : 294 : Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सुलसा का जीव निर्मम नामक पंद्रहवें तीर्थंकर होंगे। रेवती का जीक चित्रगुप्त नामक सोलहवें तीर्थंकर होंगे। गवाली का जीव समाधि नामक सत्रहवें तीर्थंकर होंगे। गार्गलु का जीव संवर नामक अठारहवें तीर्थंकर होंगे। द्वीपायन का जीव यशोधर नामक उन्नीसवें तीर्थंकर होंगे। कर्ण का जीव विजय नामक बीस वें तीर्थंकर होंगे। नारद का जीव मल्ल नामक इक्कीसवें तीर्थंकर होंगे। अंबड़ का जीव देव नामक बाईस वें तीर्थंकर होंगे। बारहवें चक्रवर्ती का जीव अनंतवीर्य नामक तेईसवें तीर्थंकर होंगे। और स्वाति का जीव भद्र नामक चौबीसवें तीर्थंकर होंगे।'' यह चौबीसी जितने समय में होगी उतने समय में १. दीर्घदंत, २. गूढदंत, ३. शुद्धदंत, ४. श्रीचंद्र, ५. श्रीभूति, ६. श्रीसोम, ७. पद्म, ८. महापद्म, ६. दर्शन, १०. विमल, ११. विमलवाहन और १२. अरिष्ठ नाम के बारह चक्रवर्ती। ___ १..नंदी, २. नंदीमित्र, ३. सुंदरबाहु, ४. महाबाहु, ५. अतिबल, ६. महाबल, ७. बल, ८. द्विपृष्ट और ६. त्रिपृष्ठ नाम के नौ वासुदेव (अर्द्धचक्री); १. जयंतं, २. अजित, ३. धर्म, ४. सुप्रभ, ५. सुदर्शन, ६. आनंद, ७. नंदन, ८. पद्म और ६. संकर्षण नाम के नौ बलदेव और १. तिलक, २. लोहजंघ, ३. वज्रजंघ, ४. केशरी, ५. बली, ६. प्रह्लाद, ७. अपराजित, ८. भीम और ६. सुग्रीव नाम के नौ प्रतिवासुदेव होंगे। इस तरह उत्सर्पिणी काल में तिरसठ शलाका पुरुष होंगे।' 1. ये नाम त्रिषष्ठि शलाका पुरुष चरित्र से लिये गये हैं। पूर्वभवों में पाठांतर भी हैं। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 295 : Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ केवलज्ञान का उच्छेद इसके बाद श्री सुधर्मास्वामी गणधर ने पूछा – 'भगवन्! केवलज्ञान कब उच्छेद होगा और अंतिम केवली कौन होगा?' . प्रभु ने उत्तर दिया – 'मेरे मोक्ष जाने के कुछ काल बाद तुम्हारे, जंबू नामक, अंतिम केवली होंगे। उनके बाद केवलज्ञान का उच्छेद हो जायगा। केवलज्ञान के साथ ही, मनःपर्यव ज्ञान, पुलाकलब्धि, परमावधि ज्ञान, क्षपक श्रेणी व उपशम श्रेणी, आहारक शरीर, जिनकल्प और त्रिविध (परिहार विशुद्धि, सूक्ष्मसंपराय और यथाख्यात चारित्र ये तीन) संयम भी विच्छेद हो जायेंगे। _ 'तुम्हारे शिष्य जंबू चौदह पूर्वधारी होकर मोक्ष में जायेंगे उनके शिष्य शय्यंभव भी द्वादशांगी के पारगामी होंगे। वे पूर्व में से दशवैकालिक सूत्र की रचना करेंगे। उनके शिष्य यशोभद्र सर्व पूर्वधारी होंगे और उनके शिष्य संभूतिविजय और भद्रबाहु, भी चौदह पूर्वधारी होंगे। संभूतिविजय के शिष्य स्थूलभद्र चौदह पूर्वधर होंगे। उनके बाद अंतिम चार पूर्वो का उच्छेद हो जायगा। उसके बाद महागिरि और सुहस्ति से वज्रस्वामी तक इस तीर्थ के प्रवर्तक दस पूर्वधर-होंगे। .... __महावीर प्रभु का परिवार - ११ गणधर, १४००० साधु, ३६००० साध्वियाँ, ७०० वैक्रिय लब्धिवाले, १३०० अवधिज्ञानी, ७०० केवलज्ञानी, ५०० मनः पर्यवज्ञानी, ३०० चौदह पूर्वधर, ४०० वादी मुनि, १५६०० श्रावक, ३१८०००श्राविकाएँ, मातंग यक्ष, सिद्धायिका शासन देवी हुई । : केवलज्ञान का उच्छेद : 296 : Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - मोक्ष (निर्वाण) उसी दिन प्रभु ने देखा, आज मैं मुक्त होनेवाले हूं और गौतम का मुझ पर बहुत ज्यादा स्नेह है। वह स्नेह ही उनको केवलज्ञान नहीं होने देता है। इसलिए उन्होंने गौतम स्वामी को कहा – 'गौतम, पास के गांव में देवशर्मा नाम का ब्राह्मण है। वह तुम्हारे उपदेश से प्रतिबोध पायगा इसलिए तुम उसको उपदेश देने जाओ।' गौतम स्वामी जैसी आपकी आज्ञा कह, नमस्कार कर देवशर्मा के यहां गये। उन्होंने उसे उपदेश दिया और वह प्रतिबोध पाया। उस दिन कार्तिक मास की अमावस और पिछली रात थी। भगवान के छट्ठ का तप था। जब चंद्र स्वाति नक्षत्र में आया तब प्रभु ने पचपन अध्ययन पुण्यफलविपाक संबंधी और पचपन अध्ययन पापफलविपाक संबंधी कहे। फिर उनने छत्तीस अध्ययन वाला अप्रश्न (यानी किसी के पूछे बिना) व्याकरण कहा। जब प्रभु प्रधान नामक अध्ययन कहने लगे तब इंद्रों के आसन कांपे। वे भगवान का मोक्ष निकट जान अपने परिवार सहित प्रभु के पास आये। फिर शक्रेन्द्र ने, साश्रु नयन, हाथ जोड़ प्रभु से विनती की – 'हे नाथ; आपके गर्भ, जन्म, दीक्षा और केवलज्ञान के समय हस्तोत्तरा नक्षत्र था। इस समय उसमें भस्मक ग्रह संक्रोत होने वाला है – आनेवाला है। आपके जन्म नक्षत्र में आया हुआ यह ग्रह दो हजार बरस तक आपकी संतति को (साधु, साध्वी और श्रावक, श्राविका को) तकलीफ देगा इसलिए जब तक भस्मक ग्रह आपके सामने आ जायगा तो आपके प्रभाव से प्रभावहीन हो जायगा - अपना फल न दिखा सकेगा। जब आपके स्मरण मात्र से ही कुस्वप्न, बुरे शकुन और बुरे ग्रह श्रेष्ठ फल देने वाले हो जाते हैं, तब जहां साक्षात् आप विराजते हों वहां का तो कहना ही क्या है? इसलिए हे प्रभो, एक क्षण के लिए अपना जीवन टिकाकर रखिए कि जिससे इस दुष्ट ग्रह का उपशम हो जाय।' प्रमु बोले – 'हे इंद्र, तुम जानते हो कि आयु बढ़ाने की शक्ति किसी में भी नहीं है फिर तुम शासन-प्रेम में मुग्ध होकर ऐसी अनहोनी बात कैसे : श्री तीर्थंकर चरित्र : 297 : Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कहते हो? आगामी दुषमा काल की प्रवृत्ति से तीर्थ को हानि पहुंचनेवाली है। उसमें भावी के अनुसार यह भस्मक ग्रह भी अपना फल दिखलायगा । उस दिन प्रभु को केवलज्ञान हुए उन्तीस बरस पांच महीने और बीस दिन हु थे। उस समय पर्यंकासन पर बैठे हुए प्रभु ने बादर काययोग में रहकर बादर मनोयोग और वचनयोग को रोका। फिर सूक्ष्म काययोग में स्थित होकर योगविचक्षण प्रभु ने बादर काययोग को रोका। तब उन्होंने वाणी और मन के सूक्ष्म योग को रोका। इस तरह सूक्ष्म क्रियावाला तीसरा शुक्ल ध्यान प्राप्त किया। फिर सूक्ष्म काययोग को - जिसमें सारी क्रियाएँ बंद हो जाती है - रोककर समुच्छिन्न- क्रिया नामक चौथा शुक्ल ध्यान प्राप्त किया। फिर पांच हस्व अक्षरों का उच्चारण किया जा सके इतने काल मानवाले, अव्यभिचारी ऐसे शुक्लध्यान के चौथे पाये द्वारा - पपीते के बीज की तरह कर्मबंध से रहित होकर, यथा स्वभाव ऋजुगति द्वारा ऊर्ध्व गमनकर मोक्ष में गये। उस वक्त जिनको लव मात्र के लिए भी सुख नहीं होता है ऐसे नारकी जीवों को भी एक क्षण के लिए सुख हुआ। वह चंद्र नाम का संवत्सर था, प्रीतिवर्द्धन नाम का महीना था, नंदिवर्द्धन नाम का पक्ष था और अग्निवेस' नाम का दिन था। उस रात का नाम देवानंदा± था। उस समय अर्च नाम का लव', शुल्क नाम का प्राण, सिद्ध नाम का स्तोक, स्वार्थसिद्ध नाम का मुहूर्त और नाग नाम का करण था। उस समय बहुत ही सूक्ष्म कुंथू कीट उत्पन्न हुए थे। वे जब स्थिर होते थे तब दिखते भी न थे। अनेक साधुओं ने और साध्वियों ने उन्हें देखा और यह सोचकर कि अब संयम पालना कठिन है, अनशन कर लिया। श्री पार्श्वनाथ मोक्ष जाने के बाद २५० वर्ष बाद कार्तिक वदि अमावस के दिन महावीर स्वामी मोक्ष में गये। - 1. इसका नाम उपशम भी है। 2. इसका दूसरा नाम निरति है । 3. सात स्तोक या ४९ श्वासोश्वास प्रमाण का एक कालविभाग | पावापुरी में देशना देते, सोलह प्रहर भविजन आंते । महावीर शीव वधु को पाते, कातिमावस्या कीप जलाते ॥ : मोक्ष (निर्वाण) : 298 : Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दीवाली पर्व उस समय राजाओं ने देखा कि, अब ज्ञानदीपक-भावदीपक बुझ गया है। इसलिए उन्होंने द्रव्यदीपक जलाये। दीपकप्रकाशन ने बाह्य जगत को प्रकाशित कर दिया। उस दिन की स्मृति में आज भी हिन्दुस्तान में कार्तिक वदि अमावस्या के दिन दीपक जलाते हैं और उस दिन को दीवाली पर्व के नाम से पहचानते हैं। ___ इंद्रादि देवों ने 'निर्वाणकल्याणक' मनाया और तब सभी अपने अपने स्थानों को चले गये। गौतम गणधर को ज्ञान और मोक्षलाभ जब देवशर्मा को उपदेश देकर श्री गौतमस्वामी लौटे तो मार्ग में उन्होंने भगवान के निर्वाण होने के समाचार सुने। सुनकर वे शोक-मग्न हो गये और सोचने लगे - रात ही में प्रभु निर्वाण प्राप्त करनेवाले थे, तो भी मुझे उन्होंने दूर भेज दिया। हाय दुर्भाग्य! जीवनभर सेवा करके भी अंत में उनकी सेवा से वंचित रह गया। ये धन्य हैं जो अंत समय में उनकी सेवा में थे; वे भाग्यशाली हैं जो अंतिम क्षणतक प्रभु के मुखारविंद से उपदेशामृत सुनते रहे। हे हृदय! प्रभु के वियोग-समाचार सुनकर भी तूं टूक-टूक क्यों नहीं हो जाता? तूं कैसा कठोर है कि इस वज्र पात के होने पर भी अटल है? वे फिर सोचने लगे, प्रभुने कितनी बार उपदेश दिया कि मोह-माया जगत के बंधन हैं, परंतु मैंने उस उपदेश का पालन नहीं किया। वे वीतराग थे, मोह-ममता से मुक्त थे। उनके साथ स्नेह कैसा? मैं कैसा भ्रांत हो रहा था। उपकारी प्रभु ने मेरी भ्रांति. मिटाने के लिए ही मुझे दूर भेज दिया था। धन्य प्रभो! आप धन्य हैं! जो आपके सरल उपदेश से निर्मोही न बना उसे आपने त्याग कर निर्मोही बनाया। सत्य है, आत्मा-निर्धांत आत्मा-किससे मोहमाया रखेगा? गौतम सावधान हो, प्रभु के पद चिह्नों पर चल, अपने स्वरूप को पहचान। अगर प्रभु के पास सदा रहना हो तो निर्मोही बन और आत्मस्वरूप में लीन हो। गौतम स्वामी को इसी तरह विचार करते हुए केवलज्ञान प्राप्त हुआ। फिर उन्होंने बारह वर्ष तक धर्मोपदेश दिया। अंत में वे राजगृह नगर में आये और भवोपग्राही कर्मों का नाश कर मोक्ष में गये। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 299 : Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिशिष्ट तीर्थंकर चरित-भूमिका इस भूमिका में उन बातों का वर्णन दिया है जो समान रूप से सभी तीर्थंकरों के होती हैं। वे बातें मुख्यतया ये है - .. १. तीर्थंकरों की माताओं के चौदह महा स्वप्न। २. पंच कल्याणका ३. अतिशय। ये बातें भूमिका रूप में इसलिए दी गयी हैं कि, प्रत्येक तीर्थंकर के . चरित्र में बार-बार इन बातों का वर्णन न देना पड़े। हरेक चरित्र में समयं बताने के लिए आरों का उल्लेख आयंगा। इसलिए आरों का परिचय भी इस भूमिका में करा दिया जाता है। आरे : समय विशेष को जैन शास्त्रों में आरा का नाम दिया गया है। एक कालचक्र होता है। और उस के दो भेद किये गये हैं। एक है 'अवसर्पिणी' यानी उतरता और दूसरा है 'उत्सर्पिणी' यानी चढ़ता। अवसर्पिणी के छः भेद हैं। जैसे- १. एकांत सुषमा, २. सुषमा, ३. सुषमा दुःखमा, ४. दुःखम सुषमा, ५. दुःखमा और ६. एकांत दुःखमा। इसी तरह उत्सर्पिणी के उल्टे गिनने से छः भेद होते हैं। अर्थात् १. एकांत दुःखमा, २. दुःखमा, ३. दुःखमा सुषमा, ४. सुषम दुःखमा, ५. सुषमा और ६. एकांत सुषमा। इन्हीं बारह भेदों का समय जब पूर्ण होता है तब कहा जाता है कि, अब एक कालचक्र समाप्त हो गया है। ___ नरक, स्वर्ग, मनुष्य लोक और मोक्ष ये चार स्थान जीवों के रहने 1. दिगंबर जैन आम्नाय में १६ स्वप्ने माने जाते हैं और श्वेतांबर जैन आम्नाय में चौदह। : गौतम गणधर को ज्ञान और मोक्षलाभ : 300 : Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ के हैं। उनमें से अंतिम स्थान में अर्थात् मोक्ष में तो केवल कर्म-मुक्त जीव ही रहते हैं। बाकी तीन में कर्मलिप्त जीव रहते हैं। नरक के जीवों के चौदह (१४) भेद किये गये हैं। स्वर्ग के जीवों के एकसौ अठानवें (१६८) भेद किये गये हैं और मनुष्य लोक के जीवों के ३०३ मनुष्यों के और ४८ तिर्यंचों के भेद किये गये हैं। मनुष्य लोक के कुछ क्षेत्रों में 'आरों का उपयोग होता है। इसलिए हम यहां मनुष्य लोक के विषय में थोड़ा सा लिख देना उचित समझते हैं। मनुष्य लोक में मुख्यतया ३ खंडों में मनुष्य बसते हैं। १. जम्बू द्वीप, २. धातकी खंड और ३. पुष्करार्द्धद्वीप। जंबुद्वीप की अपेक्षा धातकी खंड दुगुना है और पुष्करार्द्धद्वीप, धातकी खंड की बराबर ही है। यद्यपि पुष्कर द्वीप धातकी खंड से दुगुना है। तथापि उसके आधे हिस्से में ही मनुष्य बसते हैं। इसलिए वह धातकी खंड के बराबर ही माना जाता है। जंबुद्वीप में, भरत, ऐरवत, महाविदेह, हिमवंत, हिरण्यवंत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरू और उत्तर कुरू, ऐसे नौ क्षेत्र हैं। धातकी खंड में इन्हीं नामों के इनसे दुगुने क्षेत्र हैं और धातकी खंड के बराबर ही पुष्करार्द्ध में हैं। इनमें के आरंभ के यानी भरत, ऐरवत और महाविदेह कर्म-भूमि के क्षेत्र हैं और बाकी के 2अकर्म-भूमि के। इन्हीं कर्म भूमि के पंद्रह क्षेत्रों में-पांच भरत, पांच महाविदेह और पांच ऐरवत, इन में आरों का प्रभाव और उपयोग होता है और क्षेत्रो में नहीं। . महाविदेह में केवल चौथा 'आरा' ही सदा रहता है। भरत और ऐरवत में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का व्यवहार होता है। प्रत्येक आरे में . निम्न प्रकार से जीवों के दुः ख सुख की घटा बढ़ी होती रहती है। १. एकांत सुषमा - इस आरे में आयु तीन पल्योपम तक की होती है। उनके शरीर तीन कोस तक होते हैं। भोजन वे चार दिन में एक बार 1. जहां असि (शस्त्र का) मसि (लिखने पढ़ने का) और कृषि (खेती का) व्यवहार होता है उसे कर्मभूमि कहते हैं। 2. जहां इनका व्यवहार नहीं होता है और कल्प वृक्षों से सब कुछ मिलता है उन्हें अकर्मभूमि कहते हैं। :: श्री तीर्थंकर चरित्र : 301 : Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ करते हैं। संस्थान उनका ''समचतुरस्त्र' होता है। संहनन उनका 'वज्र ऋषभ नाराच होता है। वे क्रोध-रहित, निरभिमानी, निर्लोभी और अधर्मत्यागी होते हैं। उस समय उनको असि, मसि और कृषि का व्यापार नहीं करना पड़ता है। अकर्म-भूमि के मनुष्यों की भांति ही उन्हें भी उस समय दस कल्पवृक्ष सारे पदार्थ देते हैं। जैसे - १. 'मद्यांग' नामक कल्पवृक्ष मद्य देते 1. संस्थान छ: होते हैं। शरीर के आकार विशेष को संस्थान कहते हैं। १. सामुद्रिक शास्त्रोक्त शुभ लक्षणयुक्त शरीर को 'समचतुरस्र' संस्थान कहते हैं। २. 'नाभि' के ऊपर का भाग शुभ लक्षण युक्त हो और नीचे का हीन हो उसे 'न्यग्रोध' संस्थान कहते हैं। ३. नाभि के नीचे का भाग यथोचित हो और उपर का हीन हो उसे 'सादी' संस्थान कहते हैं। ४. जहां हाथ, पैर, मुख, गला आदि यथालक्षण हो और छाती, पेट, पीठ आदि विकृत हो उसे 'वामन' संस्थान कहते हैं। ५. जहां हाथ और पैर हीन हो बाकी अवयव उत्तम हो उसे 'कुब्जक' संस्थान कहते हैं। ६. शरीर के समस्त अवयव लक्षण-हीन हो उसे . 'हुंडक' संस्थान कहते हैं। 2. संहनन भी छ: होते हैं। शरीर के संगठन विशेष को संहनन कहते हैं। १. दो हाड़ दोनों तरफ से मर्कट बंध द्वारा बंधे हों, ऋषभ नाम का तीसरा हाड़ उन्हें पट्टी की तरह लपेटे हो और उन तीनों हड्डियों में एक हड्डी कीली की तरह लगायी हुई हो, वे वज्र के समान दृढ़ हो, ऐसे संहनन को 'वज्र ऋषभ नाराच' कहते हैं। २. उक्त हड्डिया हो; परंतु कीली लगायी हुई न हो उसे 'ऋषभनाराच' संहनन कहते हैं। ३. दोनों ओर हाड़ और मर्कट बंध तो हो; परंतु कीली और पट्टी के हाड़ न हो उसे 'नाराच' संहनन कहते हैं। ४. जहां एक तरफ मर्कटबंध और दूसरी तरफ कीली होती है उसे 'अर्द्धनाराच' संहनन कहते हैं। ५. जहां केवल कीली से हाड़ संधे हुए हो, मर्कट बंध पट्टी न हो उसे 'कीलक' संहनन कहते हैं। ६. जहां अस्थियां केवल एक दूसरे में अड़ी हुई ही हों, कीली, नाराच और ऋषभ न हो; जो जरा सा धक्का लगते ही भिन्न हो जाथ उसे 'छेवटु' संहनन कहते हैं। : परिशिष्ट तीर्थंकर चरित-भूमिका : 302 : Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हैं। २. 'भृतांग' पान - बर्तन देते हैं। ३. 'तूर्यांग' तीन प्रकार के बाजे देते हैं। ४-५. 'दीपशिखा' और 'ज्योतिष्क' प्रकाश देते हैं। ६. 'चित्रांग' विचित्र पुष्पों की मालाएँ देते हैं। ७. 'चित्ररस' नाना मांति के भोजन देते हैं। ८. 'मण्यंग' इच्छित आभूषण अर्थात् जेवर देते हैं। ६. 'गेहाकार' गंधर्व नगर की तरह उत्तम घर देते हैं और १०. 'अनग्न' नामक कल्पवृक्ष उत्तमोत्तम वस्त्र देते हैं। उस समय की भूमि शर्करा से (शक्कर से) भी अधिक मीठी होती है। इसमें जीव सदा सुखी ही रहते हैं। यह आरा चार कोटाकोटि 'सागरोपम का होता है। इसमें आयुष्य, संहनन आदि क्रमशः कम होता जाता है। 1. आंख फुरकती है इतने समय में असंख्यात समय हो जाते हैं। अथवा वह सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्षणरूप काल जिसके भूतभविष्य का अनुमान न हो सके, जिसका फिर भाग न हो सके उसको 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयों की एक 'आवली' होती है। ऐसी दो सौ और छप्पन आवलियों का एक 'क्षुल्लक भव' होता है; इसकी अपेक्षा किसी छोटे भव की कल्पना नहीं हो सकती है। ऐसे उत्तर क्षुल्लक भव से कुछ अधिक में एक 'श्वासोच्छ्वास रूप प्राण की उत्पत्ति होती है। ऐसे सात प्राणोत्पत्ति काल को एक 'स्तोक' कहते हैं। ऐसे सात स्तोक को एक 'लव' कहते हैं। ऐसे सतहत्तर लव का एक मुहूर्त (दो घड़ी) होता है। इस (एक मुहूर्त में १,६७,७७,२१६ आवलियां होती है।) तीस मुहूर्त का एक "दिन रात' होता है। पंद्रह दिन रात का एक ‘पक्ष' होता है। दो पक्षों का एक महीना होता है। बारह महीनों का एक वर्ष होता है। (दो महीनों की एक 'ऋतु' होती है। तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। दो अयनों का एक वर्ष होता है।) असंख्यात वर्षों का एक पल्योपम होता है। दश कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। बीस कोटाकोटि सागरोपम का एक कालचक्र होता है। ऐसे 'अनंत' कालचक्र का एक पुद्गल परावर्तन होता है। (नोट - यहाँ 'अनंत' शब्द और 'असंख्यात' शब्द अमुक संख्या के द्योतक हैं। शास्त्रकारों ने इनके भी अनेक भेद किये हैं। इस छोटी सी भूमिका में उन सबका वर्णन नहीं हो सकता। इन शब्दों ('असंख्यात या' अनंत) से यह अर्थ न निकालना चाहिए कि संख्या ही न हो सके; जिसका कभी अंत ही न आवे।) अनंत शब्द दो प्रकार से प्रयुक्त है। एक तो जिसका अंत है और दूसरा जिसका अंत नहीं है। जैसे संसार अनादि अनंत तो यहां अनंत शब्द अंत रहित अर्थ में प्रयुक्त है। और वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनंतकाल तो यहां अनंत शब्द अंत सहित अर्थ में प्रयुक्त है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 303 : Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २. सुषमा - यह आरा तीन कोटाकोटि सागरोपम का होता है। उसमें मनुष्य दो पल्योपम की आयुवाले, दो कोस ऊंचे शरीरवाले और तीन दिन में एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इसमें कल्प वृक्षों का प्रभाव भी कुछ कम हो जाता है। पृथ्वी के स्वाद में भी कुछ कमी हो जाती है और जल का माधुर्य भी कुछ घट जाता है। इसमें सुख की प्रबलता रहती है। दुःख भी रहता है मगर बहुत. थोड़ा। ३. सुषमा दुःखमा - यह आरा दो कोटाकोटि सागरोपम का होता है। इसमें मनुष्ये एक पल्योपम की आयुवाले, एक कोस ऊंचे शरीरवाले और दो दिन में एक बार भोजन करनेवाले होते हैं। इस आरे में भी ऊपर की तरह प्रत्येक पदार्थ में न्यूनता आती जाती है। इसमें सुख और दुःख दोनों का समान रूप से दौरादौरा रहता है। फिर भी प्रमाण में सुख ज्यादा होता है। ४. दुःखमा सुषमा - यह आरा बयालीस हजार कम एक कोटाकोटि सागरोपम का होता है। इसमें न कल्पवृक्ष कुछ देते हैं न पृथ्वी स्वादिष्ट होती है और न जल में ही माधुर्य रहता है। मनुष्य एक करोड़ पूर्व आयुष्यवाले और पांचसौ धनुष ऊंचे शरीरवाले होते हैं। इसी आरे से असि, मसि और कृषि का कार्य प्रारंभ होता है। इसमें दुःख और सुख की समानता रहने पर भी दुःख प्रमाण में ज्यादा होता है। ५. . दुःखमा - यह आरा इक्कीस हजार वर्ष का होता है। इसमें मनुष्य सात हाथ ऊंचे शरीरवाले और सौ वर्ष की आयु वाले होते हैं। - इसमें केवल दुःख का ही दौरादौरा रहता है। सुख होता है मगर बहुत ही थोड़ा। ६. एकांत दुखमा - यह भी इक्कीस हजार वर्ष का ही होता है। इसमें मनुष्य प्रारंभ में दो हाथ एवं २० वर्ष की आयु वाले बाद में घटते : परिशिष्ट तीर्थंकर चरित-भूमिका : 304 : Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ घटते एक हाथ ऊंचे शरीरवाले और सोलह वरस की आयुवाले होते हैं। इसमें सर्वथा दुःख ही होता है। इस प्रकार छठे आरे के इक्कीस हजार वर्ष पूरे हो जाते हैं, तब पुनः उत्सर्पिणी काल प्रारंभ होता है। उसमें भी उक्त प्रकार ही से छ: आरे होते हैं। अंतर केवल इतना ही होता है कि, अवसर्पिणी के आरे एकांत सुषमा से प्रारंभ होते है और उत्सर्पिणी के एकांत दुःखमा से। स्थिति भी अवसर्पिणी के समान ही उत्सर्पिणी के आरों की भी होती है। पाठकों को यह ध्यान में रखना चाहिए कि ऊपर आयु और शरीर की ऊंचाई आदि को जो प्रमाण बताया है वह आरे के प्रारंभ में होता है। जैसे-जैसे काल बीतता जाता है वैसे ही वैसे उनमें न्यूनता होती जाती है और वह आरा पूर्ण होता है तब तक उस न्यूनता का प्रमाण इतना हो जाता है, जितना अगला आरा प्रारंभ होता है उसमें मनुष्यों की आयु और शरीर की ऊंचाई आदि होते हैं। ऊपर जिन आरों का वर्णन किया गया है उनमें अवसर्पिणिकाल में । तीसरे और चौथे आरे में तीर्थंकर होते हैं और उत्सर्पिणी काल के भी तीसरे और चौथे आरे में तीर्थंकर होते हैं। वहां अवसर्पिणी में तीसरे आरे में एक तीर्थंकर और चौथे आरे में तेईस तीर्थंकर होते हैं और उत्सर्पिणी के तीसरे आरे में तेईस तीर्थंकर और चौथे आरे में एक तीर्थंकर होते हैं। अवसर्पिणी के तीसरे आरे के चौंराशीलाख पूर्व तीन वरस साढे आठ महिने शेष रहते हैं तब प्रथम तीर्थंकर का जन्म होता है। और उत्सर्पिणी काल में तीसरे आरे के तीनवरस साढे आठ महिने जाते हैं तब तीर्थंकर का जन्म होता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 305 : Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तीर्थंकरों की माताओं के चौदह स्वप्न अनादिकाल से संसार में यह नियम चला आ रहा है कि, जब-जबकिसी महापुरुष के, इस कर्मभूमि में आने का समय होता है। तब उसके कुछ चिन्ह पहेले से दिखायी दे जाते हैं। इसी माँति जब तीर्थंकर होनेवाला जीव गर्भ में आता है तब उनकी माताओं को चौदह स्वप्न आते हैं उनके दिखने का क्रम भी समान ही होता है। केवल प्रारंभ में फर्क हो जाता है। जैसे ऋषभ देवजी की माता मरुदेवी ने पहिले वृषभ-बैल देखा था; त्रिंशलादेवी ने पहिले सिंह देखा था आदि। ये स्वप्न चौदह महास्वप्नों के नामों से.पहिचाने जाते हैं। जो पदार्थ स्वप्न में दिखते हैं उनके नाम ये हैं १. वृषभ, २. हस्ति, ३. केसरीसिंह, ४. लक्ष्मीदेवी, ५. पुष्पमाला, ६. चंद्रमंडल, ७. सूर्य, ८. महाध्वज, ६. स्वर्ण कलश, १०. पद्मसरोवर, ११. क्षीरसमुद्र, १२. विमान, १३. रत्नपुंज और १४. निर्धूम अग्नि ये पदार्थ कैसे होते हैं उनका वर्णन शास्त्रकारों ने इस तरह किया है। १. वृषभ-उज्जवल, पुष्ट और उच्च स्कंधवाला, लम्बी और सीधी पूँछवाला, स्वर्ण के घूघरों की मालावाला और विद्युत्युक्त-विजलीसहित शरद ऋतु के मेघ समान वर्णवाला होता है। विशेष वर्णन 'कल्पसूत्र बालावबोध' से जानना।। हाथी-सफेद रंगवाला, प्रमाण के अनुसार ऊँचा, निरंतर गंडस्थल से झरते हुए मद से रमणीय, चलते हुए कैलाश पर्वत की भ्रान्ति करानेवाला और चार दाँतवाला होता है। ३. केशरीसिंह-पीली आँखोंवाला, लम्बी जीभवाला, धवल (सफेद) 'केशरवाला और शूरवीरों की जयध्वजा के समान पूँछवाला होता है। 1. शेर की गर्दन में जो बाल होते है उन्हें केशर कहते हैं। . . : परिशिष्ट तीर्थंकर चरित-भूमिका : 306 : Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४. लक्ष्मीदेवी- कमल के समान आँखोंवाली, कमल में निवास करनेवाली, दिग्गजेन्द्र अपनी सूँडों में कलश उठाकर जिसके मस्तक पर डालते हैं, ऐसी शोभायुक्त होती है। ५. पुष्पमाला - देव वृक्षो के पुष्पों से गूँथी हुई और धनुष के समान लम्बी होती है। ६. चंद्रमंडल-अपने ही तीर्थंकरों की माताओं को उनके ही मुख की भ्रान्ति करानेवाला, आनंद का कारण रूप और कांति के समूह से दिशाओं को प्रकाशित किये हुए होता है। ७. सूर्य- रात में भी दिन का भ्रम करानेवाला, सारे अंधकार का नाश करनेवाला, और विस्तृत होती हुई कांतिवाला होता है। महाध्वज-चपल कानों से जैसे हाथी सुशोभित होता है वैसे ही घूघरियों की पंक्ति के भारवाला और चलायमान पताका से शोभायुक्त होता है। ६. स्वर्ण कलश - विकसित कमलों से इसका मुख भाग अर्चित होता है, यह समुद्र-मंथन के बाद सुधाकुंभ - अमृत के कलश के समान और जल से परिपूर्ण होता है। - १०. पंद्म सरोवर-इसमें अनेक विकसित कमल होते है, भ्रमर उनपर गुंजार करते रहते हैं। ११. क्षीर समुद्र - यह पृथ्वी में फैली हुई शरद ऋतु के मेघ की लीला को चुरानेवाला और उत्ताल तरंगो के समूह से चित्त को आनंद देनेवाला होता है। १२. विमानं - यह अत्यंत कांतिवाला होता है। ऐसा जान पड़ता है कि, जब भगवान का जीव देवयोनि में था तब वह उसी में रहा था। इसलिए पूर्व स्नेह का स्मरण कर वह आया है। और तीर्थंकर का जीव नरक से आता है तो माता विमान के स्थान पर भवन देखती है । . ८. १३. रत्नपुंज - यह ऐसा मालूम होता है कि, मानों किसी कारण से तारे एकत्र हो गये हैं; या निर्मल कांति एक जगह जमा हो गयी है। १४. निर्धूम अग्नि- इसमें धुआँ नहीं होता। यह ऐसा प्रकाशित मालूम होता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 307 : Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ है कि, तीन लोक में जितने तेजस्वी पदार्थ हैं वे सब एकीभूत हो गये हैं। 1 जब ये चौदह स्वप्न आते हैं और तीर्थंकर, देवलोक से च्यवकर माता के गर्भ में आते हैं तब इन्द्रों के आसन काँपते हैं । इन्द्र उपयोग देकर देखते हैं। उनको मालूम होता है कि, भगवान का जीव अमुक स्थान में गर्भ गया है तब वे वहाँ जाते हैं और गर्भधारण करनेवाली माता को इन्द्र इस तरह स्वप्नों का फल सुनाते हैं :- [ यह कार्य प्रथम तीर्थंकर के समय में ही होता हैं ।] "हे स्वामिनी! तुमने स्वप्न में वृषभ देखा इससे तुम्हारी कूख से मोहरूपी कीचड में फंसे हुए धर्मरूपी रथ को निकालने वाला पुत्र होगा। आपने हाथी देखा इससे आपका पुत्र महान पुरुषों का भी गुरु और भाल का स्थानरूप होगा। सिंह देखा इससे आपका पुत्र पुरुषों में सिंह के समान धीर, निर्भय, शूरवीर और अस्खलित पराक्रमवाला होगा। . लक्ष्मीदेवी देखी इससे आपका पुत्र तीन लोक की साम्राज्यलक्ष्मी का पति होगा। पुष्पमाला देखी इससे आपका पुत्र पुण्य दर्शनवाला होगा: अखिल जगत् उसकी आज्ञा को माला की तरह धारण करेगा। पूर्णचंद्र देखा इससे आपका पुत्र मनोहर और नेत्रों को आनंद देनेवाला होगा। सूर्य देखा उससे तुम्हारा पुत्र मोहरूपी अंधकार को नष्ट कर जगत में उद्योत करने वाला होगा। धर्मध्वज देखा इससे आपका पुत्र आपके वंश में महान प्रतिष्ठा वाला और धर्म ध्वजी होगा। पूर्ण कुंभ देखा, इससे आपका पुत्र सर्व अतिशयों से पूर्ण यानी सर्व अतिशय युक्त होगा। 1. दिगम्बर आम्ना में 'दो मच्छ' और 'सिंहासन' ये दो स्वप्न अधिक हैं। तथा महाध्वज की जगह 'नाग भुवन' है। और सब समान हैं। : तीर्थंकरो की माताओं के चौदह स्वप्न : 308 : Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पद्मसरोवर देखा इससे आपका पुत्र संसार रूपी जंगल में पाप ताप से तपते हुए मनुष्यों का ताप हरेगा। क्षीर समुद्र देखा इससे आपका पुत्र अधृष्य - नहीं पहुँचने योग्य होने पर भी लोग उसके पास जा सकेंगे। विमान देखा इससे आपके पुत्र की वैमानिक देव भी सेवा करेंगे। रत्नपुंज देखा इससे आपका पुत्र सर्वगुण सम्पन्न रत्नों की खान के समान होगा। और जाज्वल्यमान निर्धूम अग्नि देखी इससे आपका पुत्र अन्य तेजस्वियों के तेज को फीका करनेवाला होगा। आपने चौदह स्वप्ने देखे हैं इससे आपका पुत्र चौदह राजलोक का स्वामी होगा।” : श्री तीर्थंकर चरित्र : 309 : Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पंच कल्याणक तीर्थंकरों के जन्मादि के समय इन्द्रादि देव मिलकर जो उत्सव करते हैं। उन दिनों को कल्याणक कहते हैं। इन दिनों को देवता अपना और प्राणीमात्र का कल्याण करनेवाले समझते हैं। इसीलिए इनका नाम कल्याणक रखा गया है। ये एक तीर्थंकर के जीवन में पांच दिन हैं। इसलिए इनका नाम पंचकल्याणक रखा गया है। इन पाँचों के नाम है १. च्यवन-कल्याणक २. जन्म-कल्याणक ३. दीक्षा-कल्याणक ४. केवलज्ञान-कल्याणकं और ५. निर्वाण-कल्याणक। इन पाँचो कल्याणकों के समय इन्द्रादि देव उत्सव करने के लिए कैसी तैयारियाँ करते हैं। उनका स्वरूप यहाँ लिखा जाता है। १. च्यवन-कल्याणक-भगवान का जीव जब माता के गर्भ में आता है तब इन्द्रों के आसन कंपित होते हैं। इन्द्र सिंहासन से उतरकर भगवान की शक्रस्तव से स्तुति करते हैं और फिर जिस स्थान पर भगवान उत्पन्न होनेवाले होते हैं प्रथम तीर्थंकर के समय में ही वहाँ जाकर भगवान की माता को जो चौदह स्वप्न आते हैं। उन स्वप्नों का फल सुनाते हैं। नंदीश्वर द्वीप पर अट्ठाई उत्सव करते हैं बस इस कल्याणक में इतना ही होता है। २. जन्म-कल्याणक-भगवान का जन्म होता है तब यह उत्सव किया जाता है। जब भगवान का प्रसव होता है तब दिक्कुमारियाँ आती हैं। सबसे पहेले अधोलोक की आठ दिशा-कुमारियाँ आती हैं। इनके नाम ये हैं, १. भोगकरा, २. भोगवती, ३. सुभोगा, ४. भोगमालिनी, ५. तोयधारा, ६. विचित्रा, ७. पुष्पमाला और ८. अनिंदिता। ये आकर भगवान को और उनकी माता को नमस्कार करती हैं। फिर भगवान की माता से कहती हैं कि, – "हम अधोलोक की दिक्कुमारियाँ हैं। तुमने तीर्थंकर भगवान को जन्म दिया है। उन्हीं का जन्मोत्सव करने यहाँ आयी हैं। तुम किसी तरह : तीर्थंकरो की माताओं के चौदह स्वप्न : 310 : Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ का भय न करना। उसके बाद वे पूर्व दिशा की ओर मुखवाला एक सूतिका गृह बनाती हैं। उसमें एक हजार स्तंभ होते हैं। फिर 'संवत' नामका पवन चलाती हैं। उससे सूतिका गृह के एक-एक योजन तक का भाग काँटों और कंकरों रहित हो जाता है। इतना होने बाद ये गीत गाती हुई भगवान के पास बैठती हैं। इनके बाद मेरु पर्वत पर रहनेवाली उर्ध्वलोक वासिनी, १. मेघंकरा, २. मेघवती, ३. सुमेघा, ४. मेघमालिनी, ५. तोयधारा, ६. विचित्रा, ७. वारिषणा और ८. वलाहिका, नामक आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं। वे भगवान और उनकी माता को नमस्कार कर विक्रिया से आकाश में बादलकर, सुगंधित जल की वृष्टि करती हैं। जिसमें अधोलोक वासिनी दिक्कुमारियों की साफ की हुई एक योजन जगह की धूल नष्ट हो जाती है; वह सुगंध से परिपूर्ण हो जाती है। फिर वे पंचवर्णी पुष्प बरसाती हैं। उनसे पृथ्वी अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई दिखती है। पीछे वे भी तीर्थंकरो के गुणानुवाद गाती हुई अपने स्थान पर बैठ जाती है। इनके बाद पूर्व रुचकाद्रि' ऊपर रहनेवाली १. नंदा, २. नंदोत्तरा, ३. आनंदा, ४. नंदिवर्धना, ५. विजया, ६. वैजयंती, ७. जयंती और ८. अपराजिता नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं। वे भी दोनों को नमस्कार कर अपने हाथों में दर्पण-आईने ले गीत गाती हुई पूर्व दिशा में खड़ी होती हैं। इनके बाद दक्षिण रुचकाद्रि में रहनेवाली १. समाहारा, २. सुप्रदत्ता, ३. सुप्रबुद्धा, ४. यशोधरा, ५. लक्ष्मीवती, ६. शेषवती, ७. चित्रगुप्ता और ८. वसुंधरा नाम की आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों माता-पुत्र को नमस्कार कर, हाथों में कंलश ले गीत गाती हुई दक्षिण दिशा में खड़ी रहती हैं। इनके बाद, पश्चिम रुचकाद्रि में रहनेवाली १. इलादेवी, २. सुरादेवी, ३. पृथ्वी, ४. पद्मावती, ५. एकनासा, ६. अनवमिका, ७. भद्रा, और ८. 1. रुचक नामक १३ वाँ द्वीप हैं। इसके चारों दिशाओं में तथा, चारों विदिशाओं में पर्वत है। उन्हीं में के पूर्वदिशावाले पर्वत पर रहनेवाली। इसी तरह दक्षिण रुचकाद्रि आदि दिशा विदिशाओं के लिए भी समझना चाहिए। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 311 : Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अशोका नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों को प्रणाम कर हाथों में पंखे ले गीत गाती हुई उत्तर दिशा में खड़ी हो जाती हैं। फिर ईशान, अग्नि, वायव्य और नैऋत्य विदिशाओं के अंदर रहनेवाली १. चित्रा, २. चित्रकनका, ३. सतेरा और ४. सूत्रामणि नामकी दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों को नमस्कार कर, अपनी अपनी विदिशाओं में दीपक लेकर गीत गाती हुई खड़ी होती हैं। इन सबके बाद रुचक द्वीप से १. रूपा, २. रूपासिका, ३. सुरूपा और ४. रूपकावती नामकी चार दिक्कुमारियाँ आती हैं। फिर भगवान के जन्मगृह के पास ही पूर्व, दक्षिण और उत्तर में तीन कदली गृहं बनाती हैं। प्रत्येक गृह में विमानों के समान सिंहासन सहित विशाल चौक रचती हैं। फिर भगवान को अपने हाथों में उठा, माता को चतुर दासी की भाँति सहारा दे, दक्षिण के चौक में ले जाती हैं। दोनों को सिंहासन पर बिठाती हैं और लक्षपाक तैल की मालिश करती हैं। वहाँ से उन्हें पूर्व दिशा के चौक में ले जाकर सिंहासन पर बिठाती हैं, स्नान करवाती हैं, सुगंधित काषायं वस्त्रों से उनका शरीर पौंछती हैं, गोशीर्ष चंदन का विलेपन करती हैं और दोनों को दिव्य वस्त्र तथा विद्युत्प्रकाश के समान विचित्र आभूषण पहनाती हैं। तत्पश्चात् वे दोनों को उत्तर के चौक में ले जाकर सिंहासन पर बिठाती हैं। वहाँ वे आभियोगिक देवताओं के पास से क्षुद्र हिमवंत पर्वत से गोशीर्ष चंदन का काष्ठ मँगवाती हैं। अरणिकी दो लकड़ियों से अग्नि उत्पन्न कर होम के योग्य तैयार किये हुए गोशीर्ष चंदन के काष्ठ से होम करती हैं। उससे जो भस्म होती है उसकी रक्षापोटली कर वे दोनों के हाथों में बाँध देती हैं। यद्यपि प्रभु और उनकी माता महामहिमामय ही हैं, तथापि दिक्कुमारियों का ऐसा भक्तिक्रम है, इसलिए वे करती ही हैं। तत्पश्चात् वे भगवान के कान में कहती हैं,- 'तुम दीर्घायु होओ।' फिर पाषाण के दो गोलों को पृथ्वी में पछाड़ती हैं। तब दोनों को वहाँ से सूतिका गृह में ले जाकर सुला देती हैं और गीत गाने लगती हैं। दिक्कुमारियाँ जिस समय उक्त क्रियायें करती हैं। उसी समय स्वर्ग में इन्द्र का सिंहासन कंपता है और सौधर्मेन्द्र सुघोषा घंटा बजवाता है। अन्य : पंच कल्याणक : 312 : Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ इन्द्र अपने-अपने विमान की घंटा बजवाते है। फिर सौधर्मेन्द्र पालक नामका एक असंभाव्य और अप्रतिम विमान रचवाकर तीर्थकरों के जन्म नगर को जाता है। वह विमान पाँच सौ योजन ऊँचा और एक लाख योजन विस्तृत होता है। उसके साथ आठ इन्द्राणियाँ और उसके आधीन के बत्तीस लाख विमान वासी लाखों देवता भी जाते हैं। विमान जब स्वर्ग से चलता है तब ऊपर बताया गया इतना बड़ा होता है। परंतु जैसे जैसे वह भरतक्षेत्र की ओर बढ़ता जाता है वैसे ही वैसे वह संकुचित होता जाता है। यानी इन्द्र अपनी वैक्रियलब्धि के बल से उसे छोटा बनाता जाता है। जब विमान सूतिकागृह के पास पहुँचता है तब वह बहुत ही छोटा हो जाता है। वहाँ पहुँचने पर सिंहासन में बैठे ही बैठे इन्द्र सूतिका गृह की परिक्रमा देता है और फिर उसे ईशान कोण में छोड़ आप हर्षचित्त होकर प्रभु के पास जाता है। फिर वह विमान मेरु पर्वत पर अन्य देव-देवियों को लेकर चला जाता है। यहाँ इंद्र पहले प्रभु को प्रणाम करता है फिर माता को प्रणाम कर कहता है, - "माता! मैं सौधर्म देवलोक का इन्द्र हूँ। भगवान का जन्मोत्सव करने के लिए आया हूँ। आप किसी प्रकार का भय न रखें।" इतना कहकर वह भगवान की मांता पर अवस्वापनिका नाम की निद्रा का प्रयोग करता है। इससे माता निद्रित-बेहोशी की दशा में होती जाती है। भगवान की प्रतिकृति का एक पुतला भी बनाकर उनकी बगल में रख देता है फ़िर वह अपने पाँच रूप बनाता है। देवता सब कुछ कर सकते हैं। एक स्वरूप से भगवान को अपने हाथों में उठाता है। दूसरे दो स्वरूपों से दोनों तरफ खड़ा होकर चँवर ढोलने लगता है। एक स्वरूप से छत्र हाथ में लेता है और एक स्वरूप से चोबदार की भाँति वज्र धारण करके आगे रहता है। इस तरह अपने पाँच स्वरूप सहित वह भगवान को आकाश मार्गद्वारा मेरु पर्वत पर ले जाता है। देवता जयनाद करते हुए उसके साथ जाते हैं। मेरु पर्वत पर पहुँचकर वह निर्मल कांतिवाली अति पांडुकंबला नाम की शिलासिंहासन-जो अर्हन्तस्नात्र के योग्य होती है उस पर, भगवान को अपनी गोद में लिए हुए बैठ जाता है। जिस समय वह मेरु पर्वत पर पहुँचता है उस समय 'महाघोष' ': श्री तीर्थंकर चरित्र : 313 : Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नामका घंटा बजता है, उसको सुन, तीर्थंकर का जन्म जान, अन्यान्य ६३ इन्द्र भी मेरु पर्वत पर आते हैं। . चौसठ इन्द्रों के नाम नीचे दिये जाते हैं। (वैमानिक देवों के इन्द्र १०) : १. सौधर्मेन्द्र - (इसके आने का वर्णन ऊपर दिया है।) .. २. ईशानेन्द्र, अपने अट्ठाईस लाख विमानवासी देवताओं सहित 'पुष्पक विमान में बैठकर आता है। ३. सनत्कुमार इन्द्र, बारह लाख विमानवासी देवताओं सहित 'सुमन' विमान में बैठकर आता है। ४. महेन्द्र इन्द्र, आठ लाख विमानवासी देवताओं सहित 'श्रीवत्स' विमान में बैठकर आता है। ५. ब्रह्मेन्द्र इन्द्र, चार लाख विमानवासी देवताओं सहित 'नंद्यावर्त' . विमान में बैठकर आता है। ६. लांतक इन्द्र, पचास हजार विमानवासी देवताओं सहित 'कामगव विमान में बैठकर आता है ७. शुक्र इन्द्र, चालीस हजार विमानवासी देवताओं सहित 'पीतिगम' विमान में बैठकर आता है ५. 'सहस्रार' इन्द्र, छः हजार विमानवासी देवताओं सहित 'मनोरम विमान में बैठकर आता है। 'आनत प्राणत' देवलोक का इन्द्र, चार सौ विमानवासी देवताओं सहित विमल' विमान में बैठकर आता है। १०. आरणाच्युत देवलोक का इन्द्र, तीन सौ विमानवासी देवताओं सहित 'सर्वतोभद्र' नाम के विमान में बैठकर आता है (भुवन-पतिदेवों के इन्द्र २०) :११. असुरकुमार निकाय के 'चमरचंच' नगरी का स्वामी 'चमरेन्द्र इन्द्र, अपने लाखों देवताओं सहित आता है। एवं . १२. 'बलिचंचा' नगरी का स्वामी 'बलि' इन्द्र, अपने देवताओं सहित आता है। : पंच कल्याणक : 314 : Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३. नागकुमार निकाय के धरण नामक इन्द्र, अपने नागकुमार देवताओं सहित आता है। एवं १४. भूतानंद नामका नागेन्द्र, अपने देवताओं सहित आता है। १५-१६. विद्यत्कुमार देवलोक के इन्द्र हरि और हरिसह आते हैं। १७-१८. सुवर्णकुमार देवलोक के इन्द्र वेणुदेव और वेणुदारी आते हैं। १६-२०. अग्निकुमार देवलोक के इन्द्र अग्निशिख और अग्निमाणव आते २१-२२. वायुकुमार देवलोक के इन्द्र वेलम्ब और प्रभंजन आते हैं। २३-२४. स्तनित्कुमार के इन्द्र सुघोष और महाघोष आते हैं। २५-२६. उदधिकुमार के इन्द्र जलकांत और जलप्रम आते हैं। २७-२८. द्वीपकुमार के इन्द्र पूर्ण और अविष्ट आते हैं। २६-३०. दिक्कुमार के इन्द्रं अमित और अमितवाहन आते हैं। सभी अपने देवताओं के साथ आते हैं। (व्यंतर योनि के देवेन्द्र १६) :३१-३२. पिशाचों के इन्द्र काल और महाकाल; ३३-३४. . भूतों के इन्द्र सुरूप और प्रतिरूप; ३५-३६. यक्षों के इन्द्र पूर्णभद्र और मणिभद्र; ३७-३८. राक्षसों के इन्द्र भीम और महाभीम; ३६-४०. किन्नरों के इन्द्र किन्नर और किंपुरुष ४१-४२. किंपुरुषों के इन्द्र सत्पुरुष और महापुरुष ४३-४४. महोरगों के इन्द्र अतिकाय और महाकाय; ४५-४६. गांधर्षों के इन्द्र गीतरति-गतियशः (वाण. व्यंतरों की दूसरी आठ निकाय के इन्द्र १६) :४७-४८. अप्रज्ञाप्ति के इन्द्र संनिहित और समानक; ४६-५०. पंचप्रज्ञाप्ति के इन्द्र धाता और विधाता; ५१-५२. ऋषिवादितना के इन्द्र ऋषि और ऋषिपालक; ५३-५४. भूतवादितना के इन्द्र ईश्वर और महेश्वर; ५५-५६. कंदितना के इन्द्र सुवत्सक और विलाशक; : श्री तीर्थंकर चरित्र : 315 : Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७-५८. महाक्रंदितना के इन्द्र हास और हासरितः ५६-६०. कुष्मांडना के इन्द्र श्वेत और महावेत; ६१-६२. पावकना के इन्द्र पवक और पवकपतिः (ज्योतिष्क देवों के इन्द्र २) :६३-६४. ज्योतिष्क देवों के इन्द्र-सूर्य और चन्द्रमा इस तरह वैमानिक के दस (संख्या १-१० तक) इन्द्र, भुवनपतिकी दस निकाय के बीस (संख्या ११-३० तक) इन्द्र, व्यंतरों के बत्तीस (संख्या ३१-६२) इन्द्र, और ज्योतिष्कों के दो (संख्या ६३-६४ तक) इंन्द्र कुल मिलाकर ६४ इन्द्र अपने लक्षावधि देवताओं सहित सुमेरु पर्वत पर भगवान का जन्मोत्सव करने आते हैं।2 __सबके आ जाने के बाद अच्युतेन्द्र जन्मोत्सव के उपकरण लाने की आभियोगिक देवताओं को आज्ञा देता है। वे ईशान कोण में जाते हैं।. वैक्रियसमुद्घातद्वारा उत्तमोत्तम पुग़लों का आकर्षण करते हैं। उनसे (१) सोने के (२) चाँदी के (३) रत्न के (४) सोने और चाँदी के (५) सोने और रत्न के (६) चाँदी और रत्न के (७) सोना चाँदी और रत्न के तथा (८) मिट्टी के इस तरह आठ प्रकार के कलश बनाते हैं। प्रत्येक प्रकार के कलश की संख्या आठ हजार होती है। कुल मिलाकर ढाई सौ अभिषेकों में इन घड़ों की संख्या एक करोड़ और साठ लाख की होती है। इनकी ऊँचाई पचीस योजन, चौड़ाई बारह योजन और इनकी नाली का मुँह एक योजन होता है। इसी प्रकार उन्होंने आठ तरह के पदार्थों से झारियाँ, दर्पण, रत्न के करंडिये, सुप्रतिष्टक (डिब्बियाँ) थाल, पात्रिकाएँ (रकाबियाँ) और पुष्पों की चंगेरियाँ भी तैयार की। इनकी संख्या कलशों ही की भाँति प्रत्येक की एक हजार और आठ थीं। लौटते समय वे मागधादि तीर्थों से मिट्टी, गंगादि महा नदियों से जल, 'क्षुद्र हिमवंत' पर्वत से सिद्धार्थ पुष्प (सरसों के फूल) श्रेष्ठ 1. भुवनपतिदेव रत्नप्रभा पृथ्वी में रहते हैं। रत्नप्रभा पृथ्वी का जाडापन १८०००० योजन है। 2. ज्योतिष्कों के असंख्यात इन्द्र हैं। वे सभी आते हैं। इसलिए असंख्यात इन्द्र आकर प्रभु का जन्मोत्सव करते हैं। असंख्यात के नाम चंद्र और सूर्य दो ही हैं इसलिए दो ही गिने गये हैं। । : पंच कल्याणक : 316 : Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गंध और सौषधि, उसी पर्वत के 'पद्म' नामक सरोवर में से कमल; इसी प्रकार अन्यान्य पर्वतों और सरोवरों से भी उक्त पदार्थ लेते आते हैं। __ सब पदार्थों के आ जाने पर अच्युतेन्द्र भगवान को, जिन घड़ों का ऊपर उल्लेख किया गया है उनसे, न्हवण कराता है, शरीर पौंछकर चंदन का लेप करता है, पुष्प चढ़ाता है, रत्न की चौकी पर चाँदी के चावलों से अष्टमंगल' लिखता है और देवताओं सहित नृत्य, स्तुति आदि करके आरती उतारता है। फिर शेष (सौधमेंद्र के सिवाय) ६२ इन्द्र भी इसी तरह पूजा प्रक्षालन पूजा करते हैं। तत्पश्चात् ईशानेन्द्र सौधर्मेन्द्र की भाँति अपने पाँच रूप बनाता है; और सौधर्मेन्द्र का स्थान लेता है। सौधर्मेन्द्र भगवान के चारों तरफ स्फटिक मणि के चार बैल बनाता है। उनके सींगों से फब्बारों की तरह पानी गिरता है। पानी की धारा चारों ओर से भगवान पर पड़ती है। न्हवण कराकर फिर अच्युतेन्द्र की भाँति ही पूजा, स्तुति आदि करता है। तत्पश्चात् वह फिर से पहेले ही की भाँति अपने पाँच रूप बनाकर भगवान को ले लेता है। ___ इस प्रकार विधि समाप्त हो जाने पर सौधर्मेन्द्र भगवान को वापिस उनकी माता के पास ले जाता है। सोने की आकृति माता की गोद से हटाकर भगवान को लेटा देता है, माता की अवस्वापनिका' नाम की निद्रा को हरण करता है, तीर्थंकरों के खेलने के लिए खिलौने रखता है और कुबेर को धनरत्न से प्रभु का भंडार भरने के लिए कहता है। कुबेर आज्ञा का पालन करता है। यह नियम है कि, अर्हत् स्तन-पान नहीं करते हैं, इसलिए उनके अंगूठे में इन्द्र अमृत का संचार करता है। इससे जिस समय उन्हें क्षुधा लगती है वे अपने हाथ का अंगूठा मुँह में लेकर चूम लेते हैं। फिर धात्रीकर्म (धाय का कार्य) करने के लिए पांच अप्सराओं को रखकर इन्द्र चला जाता है। ३. दीक्षाकल्याणक। तीर्थकरों के दीक्षा लेने का समय आता है 1. दर्पण, वर्धमान, क्लश, मत्स्य युगल, श्रीवत्स, स्वस्तिक, नंदावर्त और सिंहासन ये आठ मंगल कहलाते हैं। . : श्री तीर्थंकर चरित्र : 317 : Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तब लोकान्तिक देव 'तीर्थ प्रवर्तावो' ऐसी विनती करते है फिर तीर्थंकर वरसी दान देते हैं। इसमें एक वर्ष तक तीर्थंकर याचकों को जो चाहिए सो देंते हैं। नित्य एक करोड़ आठ लाख स्वर्ण मुद्राओं जितना दान देते हैं। एक वर्ष में कुल मिलाकर तीन सौ अठासी करोड़ अस्सी लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान में देते हैं। यह धन इन्द्र की आज्ञा से कुबेर भूमि आदि में गाड़ा हुआ बीन वारसी धन लाकर पूरा करता है। जब दीक्षा का दिन आता है तब इन्द्रों के आसन चलित होते हैं। इन्द्र भक्तिपूर्वक प्रभु के पास आते हैं और एक पालकी तैयारकर भगवंत को उसमें बैठाते हैं। फिर मनुष्य और देव सब मिलकर पालखी उठाते हैं, प्रभु को वन में ले जाते हैं। प्रभु वहाँ सब वस्त्रालंकार उतारकर डाल देते हैं और इन्द्र देवदुष्य वस्त्र उनके ( प्रभु के ) स्कंध पर रखते हैं । फिर वे केशलुंचन करते हैं। सौधर्मेन्द्र उन केशों को अपने पल्लों में ग्रहण कर क्षीर-समुद्र में. डाल आता है। तीर्थंकर फिर सावद्ययोग का त्याग करते हैं। अर्थात् 'करेमि सामाइयं' सूत्र द्वारा प्रतिज्ञा ग्रहण करते हैं। तीर्थंकर स्वयं बुद्ध होने से भंते शब्द का प्रयोग नहीं करते। उसी समय उन्हें 'मनः पर्यवज्ञान'' उत्पन्न होता है। इन्द्रादि देवता प्रभु से विनती करते हैं और अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। तीर्थंकर विहार करने लगते हैं। . • ४. केवलज्ञान-कल्याणक । सकलं संसार की समस्त चराचर की बात जिस ज्ञान द्वारा मालूम होती है उसे केवलज्ञान कहते हैं। जिस दिन यह ज्ञान उत्पन्न होता हैं, उसी दिन से, तीर्थंकर नामकर्म का उदय होता है। और तीर्थ की स्थापना करते हैं। जब यह ज्ञानं उत्पन्न होता है तब इन्द्रादि देव आकर उत्सव करते हैं। और प्रभु की धर्मदेशना सुनने के लिए समवसरण की रचना करते हैं। इसकी रचना देवता मिलकर करते हैं। यह एक योजन के विस्तार में रचा जाता है। वायुकुमार देवता भूमि साफ करते हैं। मेघकुमार देवता सुगंधित जल बरसाकर छिड़काव लगाते हैं। व्यंतर देव स्वर्ण-मणि और रत्नों से फर्श बनाते हैं; पंचरंगी फूल बिछाते हैं, और रत्न, मणि और मोतीयों के चारों तरफ तोरण बाँध देते हैं। रत्नादि की पुतलियाँ 1. इस ज्ञान के होने से पंचेन्द्रिय जीवों के मन की बात मालूम होती है। पंचकल्याणक : 318 : Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनाई जाती हैं, जो किनारो पर बड़ी सुन्दरता से सजायी जाती हैं। उनके शरीर के प्रतिबिंब परस्पर में पड़ते हैं इससे ऐसा मालूम होता है कि, वे एक दूसरी का आलिंगन कर रही हैं। स्निग्ध नीलमणियों के घड़े हुए मगर के चित्र, नष्ट, कामदेव-परित्यक्त निज चिह्नरूप मगर की भ्रान्ति उत्पन्न करते हैं। श्वेत छत्र ऐसे सुशोभित होते हैं मानों भगवान के केवलज्ञान से दिशाएँ प्रसन्न होकर मधुर हास्य कर रही हैं। फर्राति हुई ध्वजाएँ ऐसी जान पड़ती हैं मानों पृथ्वी ने नृत्य करने के लिए अपने हाथ ऊँचे किये हैं। तोरणों के नीचे स्वस्तिक आदि अष्ट मंगल के जो चिह्न बनाये जाते हैं वे बलि-पट्ट के समान मालूम होते हैं। समवसरण के ऊपरी भाग का यानी सबसे पहिला गढ़-कोट वैमानिक देवता बनाते हैं। वह रत्नमय होता है और ऐसा जान पड़ता है, मानो रत्नगिरि की रत्नमय मेखला (कंदोरा) वहाँ लायी गयी है। उस कोट पर भाँति-भाँति की मणियों के कंगूरे बनाये जाते हैं वे ऐसे मालूम होते हैं, मानों वे आकाश को अपनी किरणों से विचित्र प्रकार का वस्त्रधारी बना देना चाहते हैं। उसके बाद प्रथम कोट को घेरे हुए ज्योतिष्कपति दूसरा कोट बनाते हैं। उसका स्वर्ण ऐसा मालूम होता है, मानों वह ज्योतिष्क देवों की ज्योति का समूह है। उस कोट पर जो रत्नमय कंगूरे बनाये जाते हैं, वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों सुरों व असुरों की स्त्रियों के लिए मुख देखने को रत्नमय दर्पण रक्खे गये हैं। इसके बाद भुवनपति देव तीसरा कोट बनाते हैं। वह अगले दोनों को घेरे हुए होता है। वह ऐसा जान पड़ता है मानो वैताढ्य पर्वतं मंडलाकर हो गया है-गोल बन गया है। उस पर स्वर्ण के कंगूरे बनाये जाते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों देवताओं की वापिकाओं के (बावड़ियों के) जल में स्वर्ण के कमल खिले हुए हैं। प्रत्येक गढ़ में (कोट में) चार चार द्वार होते हैं। प्रत्येक द्वार पर व्यंतर देव धूपारणे (धूपदानियाँ) रखते हैं। उनसे इन्द्रमणि के स्तंभ-सी धूमलता (धुआँ) उठती है। समवसरण के प्रत्येक द्वार पर चार-चार रस्तोंवाली बावड़ियाँ बनायी जाती है। उनमें स्वर्ण के कमल रहते हैं। दूसरे कोट के ईशान कोण में प्रभु के विश्रामार्थ एक देवछंद (विश्राम-स्थान) बनाया जाता है अंदर के यानी प्रथम कोट के पूर्वद्धार के दोनों किनारे, स्वर्ण के समान वर्णवाले, दो वैमानिक देवता : श्री तीर्थंकर चरित्र : 319 : Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ द्वारपाल होकर रहते हैं। दक्षिण द्वार में दो व्यंतर देव द्वारपाल होते हैं। पश्चिम द्वार पर रक्तवर्णी दो ज्योतिष्क देव द्वारपाल होते हैं वे ऐसे जान पड़ते हैं मानों संध्या के समय सूर्य और चंद्रमा आमने सामने आ खड़े हुए हैं। उत्तर द्वार पर कृष्ण काय भुवनपति द्वारपाल होकर रहते हैं। दूसरे कोट के चारों द्वारों पर, क्रमशः अभय, पास, अंकुश और मुदगर को धारण करनेवाली श्वेतमणि, शोणमणि, स्वर्णमणि और नीलमणि के समान कांतिवाली, पहिले ही की तरह चार निकाय की (चार जातिकी) जया, विजया, अजिता और अपराजिता नामकी दो दो देवियाँ प्रतिहार (चोबदार) बनकर खड़ी रहती हैं। और अंतिम कोट के चारों दरवाजों पर तुंबर, खट्वांधधारी, मनुष्य-मस्तकमालाधारी और जटा मुकटमंडित नामक चार देवता द्वारपाल होते हैं। समवसरण के मध्य भाग में व्यंतर देव तीन कोस का ऊँचा एक चैत्य-वृक्ष बनाते हैं। उस वृक्ष के नीचे विविध रत्नों की एक पीठ रची जाती हैं। उस . पीठ पर अप्रतिम मणिमय एक छंदक (बैठक) रची जाती है। छंदक के मध्य में पाद पीठ सहित रत्नसिंहासन रचा जाता है। सिंहासन के दोनों बाजू दो यक्ष चामर लेकर खड़े होते हैं। समवसरण के चारों द्वार पर अद्भुत कांति के समूहवाला एक एक धर्मचक्र स्वर्ण के कलश में रखा जाता है। भगवान चार प्रकार के वैमानिक, भुवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क देवताओं से परिवेष्टित समवसरण में प्रवेश करने को रवाना होते हैं। उस समय सहस्र पत्रवाले स्वर्ण के नौ कमल बनाकर देवता भगवान के आगे रखते हैं। भगवान जैसे जैसे आगे बढ़ते जाते हैं, वैसे-वैसे देवता पिछले कमल उठाकर आगे धरते जाते हैं। भगवान पूर्व द्वार से समवसरण में प्रविष्ट होकर चैत्य-वृक्ष की प्रदक्षिणा करते हैं और फिर तीर्थ को! नमस्कार कर सूर्य जैसे अंधकार को नष्ट करने के लिए पूर्वासनपर आरूढ होता है वैसे ही मोह रूपी अंधकार को छेदने के लिए प्रभु पूर्वाभिमुख सिंहासन पर विराजते हैं। तब व्यंतर अवशेष तीन तरफ भगवान के रत्न के तीन प्रतिबिंब बनाते हैं। यद्यपि देवता प्रभु के अंगूठे जैसा रूप बनाने की भी शक्ति नहीं रखते हैं तथापि प्रभु के प्रताप से उनके बनाये हुए प्रतिबिंब प्रभु के स्वरूप 1. साधु, साध्वी, श्रावक और श्राविकाके समूह को तीर्थ कहते हैं। : पंच कल्याणक : 320 : Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैसे ही बन जाते हैं। प्रभु के मस्तक के चारों तरफ फिरता हुआ शरीर की कांति का मंडल (भामंडल) प्रकट होता है। उसका प्रकाश इतना प्रबल होता है कि उसके सामने सूर्य का प्रकाश भी जुगनु सा मालूम होता है। प्रभु के समीप एक रत्नमय ध्वजा होती है। वैमानिक देवियाँ पूर्व द्वार से प्रवेश करती हैं, तीन प्रदक्षिणा देती हैं और तीर्थंकर तथा तीर्थ को नमस्कार कर प्रथम कोट में, साधु साध्वियों के लिए स्थान छोड़कर उनके स्थान के मध्य भाग में अग्निकोण में खड़ी रहती हैं। भुवनपति, व्यंतर और ज्योतिष्क देवों की देवियाँ दक्षिण दिशा से प्रविष्ट होकर नैऋत्य कोण में खड़ी होती हैं। भुवनपति, ज्योतिष्क और व्यंतर देवता पश्चिम द्वार से प्रविष्ट होकर वायव्य कोण में बैठते हैं। वैमानिक देवता, मनुष्य और मनुष्य-स्त्रियाँ उत्तर द्वार से प्रविष्ट होकर ईशान दिशा में बैठते हैं। अपनी-अपनी योग्यतानुसार सभी के बैठने के स्थान नियत होते हैं। ये सब भी वैमानिक देवियाँ की स्त्रियों की भाँति ही पहिले प्रदक्षिणा देते . हैं, तीर्थंकर और तीर्थ को नमस्कार करते हैं और तब अपना स्थान लेते है। वहाँ पहिले आये हए-चाहे वे महान ऋद्धिवाले हों या अल्प ऋद्धिवाले हों जो कोई पीछे से आता है उसे नमस्कार करते है और पीछे से आनेवाला पहले से आकर बैठे हुओं को नमस्कार करता है। प्रभु के समवसरण में किसी को, आने की; कोई रोकटोक नहीं होती। वहाँ पर किसी तरह की विकथा (निंदा) नहीं होती; विरोधियों के मन में वहाँ वैरभाव नहीं रहता; वहाँ किसी को किसी का भय नहीं होता। दूसरे कोट में तिर्यंच आकर बैठते हैं और तीसरे गढ. में सबके वाहन रहते हैं। ५. निर्वाणकल्याणक। जब तीर्थंकरों के शरीर से आत्महंस उड़कर मोक्ष में चला जाता है, तब इन्द्रादि देव शरीर का संस्कार करने के लिए आते हैं। आभियौगिक देव नंदनवन में से गोशीर्ष चंदन के काष्ठ लाकर पूर्व दिशा में एक गोलाकार चिता रचते हैं। अन्य देवता क्षीरसमुद्र का जल लाते हैं। इससे इन्द्र भगवान के शरीर को स्नान कराता है, गोशीर्ष चंदन का लेप करता है, हंसलक्षणवाले श्वेत देवदुष्य वस्त्र से शरीर को आच्छादन करता है और मणियों के आभूषणों से उसे विभूषित करता है। दूसरे देवता भी इन्द्र : श्री तीर्थंकर चरित्र : 321 : Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ की भाँति ही शरीर को स्नानादि कराते हैं। फिर एक रत्न की शिबिका तैयार करते हैं। इन्द्र शरीर को उठाकर शिबिका में रखता है। इन्द्र ही उसको उठाता है। शिबिका के आगे-आगे कई देवता धूपदानियाँ लेकर चलते हैं। कई शिबिका पर पुष्प उछालते हैं, कई उन पुष्पों को उठाते हैं। कई आगे देवदुष्य वस्त्रों के तोरण बनाते हैं, कई यक्षकर्दम का (केशर कंकू का) छिड़काव करते हैं, इस तरह शिबिका चिता के पास पहुँचती है। इन्द्र प्रभु के शरीर कों चिता में रखता है। अग्निकुमार देवता चिता में अग्नि लगाता है। वायुकुमार देवता वायु चलाता है इससे चारों तरफ अग्नि फैलकर जलने लगती है। चिता में देवता बहुत सा कपूर और घड़े भर २ के घी डालते हैं जब अस्थि के सिवा सब धातु नष्ट हो जाती हैं। तब मेघकुमार क्षीर समुद्र का जल वरसाकर चिता ठंडी करता है। फिर सौधर्मेन्द्र ऊपर की दाहिनी डाढ़ लेता है, चमरेन्द्र नीचे की दाहिनी डाढ़ लेता है, ईशानेन्द्र ऊपर की बाई डाढ़ ग्रहण करता है और बलीन्द्र नीचे की बाई अढ लेता है। अन्यान्य देव भी अस्थियाँ लेते हैं। .. फिर वे जहाँ प्रभु का अग्निसंस्कार होता है उस स्थान पर तीन समाधियाँ बनाते हैं और तब सब अपने-अपने स्थान पर चले जाते हैं। १० अच्छेरा - १. ऋषभदेव तीर्थ में उत्कृष्टी अवगाहना वाले १०८ सिद्ध २. सुविधिनाथ - असंयतीपूजा ३. शीतलनाथ - युगलियां नरक में गये ४. मल्लिनाथ - स्त्री तीर्थंकर नेमिनाथ तीर्थ में - कृष्ण वासुदेव एवं कपिल वासुदेव का शंख मिलन। महावीर प्रभु - गर्भपरावर्त, केवलज्ञान के बाद उपसर्ग, चमरोत्पात, देशना निष्फल, १० चंद्र सूर्य का मूल विमान से आना। : पंच कल्याणक : 322 : Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय अतिशय-यानी उत्कृष्टता, विशिष्ट चमत्कारी गुण । जो आत्मा ईश्वर - स्वरूप होकर पृथ्वी मंडल पर आता है उसमें सामान्य आत्माओं की अपेक्षा कई विशेषताएँ होती हैं। उन्हीं विशेषताओं को शास्त्रकारोंने 'अतिशय ' कहा है। तीर्थंकरों के चौतीस अतिशय होते हैं। वे इस प्रकार हैं : १. शरीर अनंत रूपमय, सुगंधमय, रोगरहित, प्रस्वेद (पसीना ) रहित और मलरहित होता है। २. उनका रुधिर और मांस दुग्ध के समान सफेद और दुर्गन्ध-हीन होता है। ३. उनके आहार तथा निहार चर्मचक्षु - गोचर नहीं होते हैं। (यानी उनका भोजन करना और पाखाने पेशाब जाना किसी को दिखायी नहीं देता है। ) ४. उनके श्वासोच्छास में कमल के समान सुगंध होती है। ५. समवसरण केवल एक योजना का होता है, परंतु उसमें कोटाकोटि मनुष्य, देव और तिर्यंच बिना किसी प्रकार की बाधा के बैठ सकते हैं। ६. जहाँ वे होते हैं वहाँ से पच्चीस योजन तक यानी सौ कोस तक आसपास में कोई रोग नहीं होता है और जो पहले होता है वह भी नष्ट हो जाता है। यह अनिकाचित रोग के लिए कथन है। लोगों का पारस्परिक वैरभाव नष्ट हो जाता है। ७. ८. मरी का रोग नहीं फैलता है। ६. अतिवृष्टि-आवश्यकता से ज्यादा बारिश नहीं होती है। १०. अनावृष्टि - बारिश का अभाव नहीं होता है। ११. दुर्भिक्ष नहीं पड़ता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 323 : - Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२. उनके शासन का या किसी दूसरे के शासन का लोगों को भय नहीं रहता है। १३. उनके वचन' ऐसे होते हैं कि, जिन्हें देवता, मनुष्य और तिर्यंच सब अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं। १४. एक योजन तक उनके वचन समानरूप से सुनायी देते हैं। १५. सूर्य की अपेक्षा बारह गुना अधिक उनके भामंडल का तेज होता है। १६. आकाश में धर्मचक्र होता है। १७. चार जोड़ी (आठ) चँवर बगैर दुलाये ढुलते हैं। १८. पादपीठ सहित स्फटिक रत्न का उज्ज्वल सिंहासन होता है। १६. प्रत्येक दिशा में तीन-तीन छत्र होते हैं। . . २०. रत्नमय धर्मध्वज होता है। इसको इन्द्र-ध्वजा भी कहते हैं। . २१. नौ स्वर्ण कमल पर चलते हैं (दो पर पैर रखते हैं, सात पीछे, रहते हैं, जैसे-जैसे आगे बढ़ते जाते हैं वैसे ही वैसे देवता पिछले कमल उठाकर आगे रखते जाते हैं।) 1. वचन ३५ गुणवाले होते हैं। १. सब जगह समझे जा सकते हैं। २. एक योजन तक वे सुनायी देते हैं। ३. प्रौढ ४. मेघ के समान गंभीर ५. सुस्पष्ट शब्दों में ६. संतोषकारक ७. हर एक सुननेवाला समझता है कि वे वचन मुझ को कहे जाते हैं। ८. गूढ आशयवाले ९. पूर्वापर विरोध रहित। १०. महापुरुषों के योग्य, ११. संदेह-विहीन १२. दूषण रहित अर्थ वाले। १३. कठिन विषय को सरलता से समझाने वाले। १४. जहाँ जैसे शोभे वहाँ वैसे बोले जा सकें। १५. षड् द्रव्य और नौ तत्त्वों को पुष्ट करनेवाले। १६. हेतु पूर्णी. १७. पद रचना सहित। १८. छः द्रव्य और नौ तत्त्वों की पटुता सहित। १९. मधुर। २०. दूसरे का मर्म समझ में न आवें ऐसी चतुराईवाले। २१. धर्म, अर्थ प्रतिबद्ध। २२. दीपक के समान प्रकाश-अर्थ सहित। २३. परनिंदा और स्वप्रशंसा रहित। २४. कर्ता, कर्म, क्रिया, काल और विभक्ति सहित। २५.. आश्चर्यकारी। २६. उनको सुननेवाला समझे कि वक्ता सर्व गुण संपन्न है। २७. धैर्यवाले। २८. विलम्ब रहित। २९. भ्रांति रहित। ३०. प्रत्येक अपनी भाषा में समझ सकें ऐसे। ३१. शिष्ट बुद्धि उत्पन्न करने वाले। ३२. पदों का अर्थ अनेक तरह से विशेष रुप से बोले जायँ ऐसे। ३३. साहसपूरण। ३४. पुनरुक्ति-दोष-रहित और ३५. सुननेवाले को दुःख न हो वैसे। ': अतिशय : 324 : Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२. मणि का, स्वर्ण का और चाँदी का इस तरह तीन गढ़ होते हैं। २३. चार मुँह से देंशना-धर्मोपदेश-देते हैं। (पूर्व दिशा में भगवान बैठते हैं.और शेष तीन दिशाओं में व्यंतर देव तीन प्रतिबिंब रखते हैं।) २४. उनके शरीरप्रमाण से बारह गुना अशोक वृक्ष होता है। वह छत्र, घंटा और पताका आदि से युक्त होता है। २५. काँटे अधोमुख-उल्टे हो जाते हैं। २६. चलते समय वृक्ष भी झुककर प्रणाम करते हैं। २७. चलते समय आकाश में दुंदुभि बजती हैं। २८. योजन प्रमाण में अनुकूल वायु होता है। २६. मोर आदि शुभ पक्षी प्रदक्षिणा देते फिरते हैं। ३०. सुगंधित जल की वृष्टि होती है। ३१. जल-स्थल में उद्भूत पांच वर्णवाले सचित फूलों की, घुटने तक ____ आ जायँ इतनी, वृष्टि होती है। ३२. केश, रोम, डाढ़ी, मूंछ, और नाखून (दीक्षा लेने के बाद) बढ़ते . नहीं हैं। ३३. · कम से कम चार निकाय के एक करोड़ देवता पास में रहते हैं। ' ३४. सर्व ऋतुएँ अनुकूल रहती हैं। ____ इनमें से प्रारंभ के चार (१-४) अतिशय जन्म ही से होते हैं इसलिए वे स्वाभाविक-सहजातिशय कहलाते हैं। फिर ग्यारह (५-१५) अतिशय केवलज्ञान होने के बाद उत्पन्न होते हैं। ये 'कर्मक्षनजातिशय' कहलाते हैं। इनमें के सात (६-१२) उपद्रव तीर्थंकर विहार करते हैं, तब भी नहीं होते हैं यानी विहार में भी इनका प्रभाव वैसा ही रहता है। अवशेष उन्नीस (१६-३४) देवता करते हैं। इसलिए वे 'देवकृतातिशय' कहलाते हैं। ऊपर जिन अतिशयों का वर्णन किया गया है उनको शास्त्रकारों ने . संक्षेप में चार भागों में विभक्त कर दिया है। जैसे - १. अपायापगमातिशय २. ज्ञानातिशय ३. पूजातिशय और ४. वचनातिशय। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 325 : Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १. जिनसे उपद्रवों का नाश होता है उन्हें 'अपायापगमातिशय' कहते हैं। ये दो प्रकार के होते हैं। स्वाश्रयी और पराश्रयी। (अ) जिनसे अपने संबंध के अपाय-उपद्रव द्रव्य' से और भाव से नष्ट होते हैं वे 'स्वाश्रयी' कहलाते है। (ब) जिनसे दूसरों के उपद्रव नष्ट होते हैं उनको 'पराश्रयी' अपायापगमातिशय कहते हैं। अर्थात जहाँ भगवान विचरण करते हैं वहाँ से प्रत्येक दिशा में पच्चीस योजन तक प्रायः रोग, मरी, वैर, अतिवृष्टि, अनावृष्टि, दुष्काल आदि उपद्रव नहीं होते हैं। २. ज्ञानातिशय-इससे तीर्थंकर लोकालोक का स्वरूप भली प्रकार से जानते हैं। भगवान को केवल ज्ञान होता है, इससे कोई भी बात उनसे छिपी हुई नहीं रहती हैं। ३. पूजातिशय-इससे तीर्थंकर सर्वपूज्य होते हैं। देवता, इन्द्र, राजा, . महाराजा, बलदेव, वासुदेव, चक्रवर्ती आदि सभी भगवान की पूजा करते हैं। ... ४. वचनातिशय-इससे देव, तिर्यंच और मनुष्य सभी भगवान की वाणी को अपनी-अपनी भाषा में समझ जाते हैं। इसके ३५ गुण होते हैं। (जिनका वर्णन तेरहवें अतिशय के फुट नोट में किया जा चुका है।) ये चार मूलातिशय कहलाते हैं। , एक बार भगवान के समवसरण में चक्रवर्ती भरत के प्रश्न करने पर प्रभु ने कहा कि, इस अवसर्पिणी काल में भरतक्षेत्र में मेरे बाद तेईस तीर्थंकर होंगे और तेरे बाद ११ चक्रवर्ती तथा ६ वासुदेव ६ बलदेव और ६ प्रतिवासुदेव होंगे। 1. सारे रोग द्रव्य उपद्रव हैं। 2. अंतरंग के अठारह दूषण भाव उपद्रव हैं। अठारह उपद्रव-दोष ये हैं- १. दानान्तराय २. लाभान्तराय ३. भोगान्तराय ४. उपभोगान्तराय ५. वीन्तिराय ६. हास्य ७. रति ८. अरति ९. शोक १०. भय ११. जुगुप्सा-निंदा १२. काम १३. मिथ्यात्व १४. अज्ञान १५. निद्रा १६. अविरति १७. राग और १८. द्वेष। : अतिशय : 326 : Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ x es w u तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें १. “तीर्थंकर का नाम २. च्यवन तिथि ३. किस देवलोक से आये जन्म स्थान जन्म तिथि पिता का नाम ७. माता का नाम ८. जन्म नक्षत्र जन्म राशि १०... लंछन ११. शरीर प्रमाण १२. आयु प्रमाण १३. शरीर का रंग ' १४. पद १५... विवाहित या अविवाहित १६... कितने मनुष्यों के साथ दीक्षा ली? १७. . दीक्षा की जगह १५.. . दीक्षा के दिन कौन सा तप? १६. दीक्षा के बाद प्रथम पारणे में क्या मिला? २०. प्रथम पारणा किसके घर किया? २१. कितने दिन का पारणा किया २२. दीक्षा तिथि २३. कितने समय तक छद्मस्थ रहे? २४.. केवलज्ञान होने का स्थान २५. ज्ञानोत्पत्ति के दिन कौनसा तप था? २६. किस वृक्ष के नीचे केवलज्ञान हुआ? २७. केवलज्ञान की तिथि : श्री तीर्थंकर चरित्र : 327 : Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८. गणधरों की संख्या २६. साधुओं की संख्या . ३०. साध्वियों की संख्या ३१. उनके साधुओं मैं वैक्रियलब्धिवाले ३२. वादी ३३. अवधिज्ञानी ३४. केवलज्ञानी ३५. मनः पर्यवज्ञानी ३६. चौदह पूर्वी ३७. श्रावकों की संख्या ३८. श्राविकाओं की संख्या ३६. शासन के यक्ष का नाम ४०. शासन की यक्षिणी का नाम ४१. प्रथम गणधर का नाम ४२. प्रथम आर्या का नाम । ४३. मोक्ष-स्थान ४४. मोक्ष-तिथि ४५. मोक्ष के दिन तप ४६. किस आसन से मोक्ष गये ४७. पूर्व के तीर्थंकर मोक्ष गये उनके कितने बरस बाद मोक्ष गये? ४८. गण-नाम ४६. योनि-नाम ५०. मोक्ष गये तब उनके साथ कितने साधु मोक्ष गये थे। ५१. सम्यकत्व पाने के बाद उनके जीव ने कितने भव किये। ५२. किस कुल में जन्म ५३. गर्भवास में कितने महीने रहे सूचना :- आगे के कोष्ठकों में यहाँ ऊपर संख्याओं के सामने जो सवाल दिये हैं उन्हीं सवालों के जवाब क्रमशः प्रत्येक तीर्थंकर के लिए संख्याओं के सामने दिये गये हैं। ऊपर तीर्थंकरों के नाम देखकर उन्हीं के संबंध की नीचे की ५३ बातें समझ लेना। तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 328 : Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २ ३ वृष श्री ऋषभदेवजी १ श्री अजितनाथजी २ श्री संभवनाथजी ३ | श्रीअभिनंदनजी ४ | अषाढ़ वदि ४ - वैशाख सुदि १३ फाल्गुन सुदि ८ | वैशाख सुदि ४ सर्वार्थ सिद्धि | विजय विमान । | ऊपर के ग्रैवेयक जयंत विमान ४ | विनिता नगरी | अयोध्या | श्रावस्ती अयोध्या ५ | चैत्र वदि ८ | महा सुदि ८ महासुदि १४ माघ सुदि २ ६ नाभिकुलकर | जितशत्रु |जितारी संवर राजा ७ मरुदेवी | विजया सेना सिद्धार्था | उत्तराषाढा रोहिणी मृगशिर पुनर्वसु धन मिथुन मिथुन १० | वृषभ (बैल) | हस्ति (हाथी) अश्व (घोड़ा) बंदर | ५००धनुष | ४५०धनुष | ४ सौ धनुष ३५० धनुष १२ | ८४ लाख पूर्व |७२ लाखं पूर्व ६० लाख पूर्व | ५० लाख पूर्व १३ | स्वर्णसा |र्वणसा. र्वणसा र्वणसा राजा राजा | राजा राजा १५ | विवाहित विवाहित विवाहित विवाहित ४००० के साथ १ हजार के साथ १ हजार के साथा १ हजारकेसाथ विनीता नगरी अयोध्या : | श्रावस्ती अयोध्या दो उपवास |२ उपवास २ उपवास २ उपवास गन्ने का रस परमान्न (क्षीर) परमान्न (क्षीर) | क्षीर श्रेयांसराजा | ब्रह्मदत्त सुरेन्द्रदत्त इन्द्रदत्त २१ | एक वर्ष बाद . २ दिन बाद दो दिनके बाद | २ दिन २२ | चैत्र वदि ८ महा वदि १० मगसर सुदि १५ | माघ सुदि १२ | १ हजार वर्ष १२वर्ष १४ वर्ष १८ वर्ष २४ | पुरिमताल अयोध्या श्रावस्ती अयोध्या २५ | तीन उपवास | २ उपवास २ उपवास २ उपवास २६ वटवृक्ष सालवृक्ष प्रियालवृक्ष प्रियंगुवृक्ष (सप्तवर्ण) | (शाल) (प्रियाल) २७ फाल्गुन वदि ११ पोष वदि ११ कार्तिक वदि ५ | पोष वदि १४ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 329 : Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री ऋषभदेवजी १ श्री अजितनाथजी २ श्री संभवनाथजी ३ | श्रीअभिनंदनजी ४ ६५ २८ ८४ १०२ ११६ २६ ८४ हजार १ लाख २ लाख ३ लाख ३० ३ लाख ३ लाख ३० हजार | ३ लाख ३६ हजार ६लाख ३० हजार ३१ २० हजार ६सौ | २० हजार ४ सौ १६ हजार ८ सौ १६ हजार ३२] १२६५० १२ हजार ४ सौ | १२ हजार ११ हजार ३३ ६ हजार ६ हजार ४ सौ ६ हजार ६ सौ । ६ हजार ८ सौ ३४ | २० हजार २२ हजार १५ हजार . | १४ हजार ३५/ १२६५० १२५५० १२१५० . | ११६५० ३६ | ४७५० | ३७२० २१५० | १५ सौ. ... ३७| ३ लाख ५ ह. | २ लाख ६८ ह. २ लाख ६३ ह. |. २ लाख ६८ ह. ३८ ५ लाख ५४ ह. ५ लाख ४५ ह. | ६ लाख ३६ ह. | ५ लाख २७ ह... ३६ गोमुख यक्ष महा यक्ष त्रिमुख यक्ष । नायक यक्ष चक्रेश्वरी | अजितबला . दुरितारि कालिका पुंडरीक सिंहसेन | चारु , वज्रनाम ब्राह्मी | फाल्गुनी श्यामा । अजिता अष्टापद समेत शिखर | समेत शिखर समेत शिखर माघ वदि १३ | चैत्र सुदि ५ चैत्र सुदि ५ । वैशाख सुदि ८ ६ उपवास | एक मास एक मास । | एक मास कायोत्सर्ग | कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग ४७| | ५० लाख को.सा. | ३० लाख को.सा. | १० लाख को.सा ४८/ मानव गण मनुष्य गण देव गण देवगण ४६ | नकुल योनि । सर्प योनि | सर्प योनि | छाग (बकरा) योनि ५०/ १० हजार १ हजार १ हजार १ हजार ५१] १३ भव ३ भव | ३ भव ३ भव ५२ इक्ष्वाकु वंश इक्ष्वाकु वंश इक्ष्वाकु वंश | इक्ष्वाकु वंश ५३ ६ महीने ४दिन ८ महिने २५दिन ६ महीने ६दिन | मास २८दिन ८ c m oc or o c पद्मासन : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 330 : Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ लाल श्वेत १ | श्रीसुमतिनाथजी ५. श्री पद्मप्रमजी ६ श्री सुपार्श्वनाथजी ७) श्री चंदप्रभुजी ८ २] श्रावण सुदि २ | माघ वदि ६ भाद्रवा वदि ८ चैत्र वदि ५ वैजयंत विमान | नव ग्रैवेयक छठा ग्रैवेयक वैजयंत ४ | अयोध्या कोसांबी बनारस चंद्रपुरी | वैशाख सुदि ८ | कार्तिक वदि १२ जेठ सुदि १२ पोष वदि १२ मेघराजा श्रीधर राजा प्रतिष्ठ राजा महासेन राजा | मंगला . सुसीमा पृथ्वी लक्ष्मणा मघा चित्रा विशाखा अनुराधा ६ सिंह कन्या तुला . वृश्चिक क्रोंच पक्षी | पद्म (कलम) साथिया । चंद्रमा | ३ सौ धनुष | ढाई सौ धनुष २ सौ धनुष १५० धनुष १२| ४० लाख पूर्व | ३० लाख पूर्व . २० लाख पूर्व १० लाख पूर्व १३ | सुवर्णसा सुवर्णसा १४ | राजा राजा राजा राजा विवाहित | विवाहित विवाहित विवाहित १६ | १हजार १हजार १हजार १हजार १७ | अयोध्या |कोसांबी बनारस चन्द्रपुरी १८ | नित्यमुक्त : | २ उपवास |२ उपवास २ उपवास | क्षीर ... क्षीर क्षीर क्षीर २० पद्म के घर | सोमसेन के घर | माहेन्द्र के घर | सोमदत्त के घर दो दिन .. दो दिन दो दिन दो दिन २२ वैशाख सुदि ६ | कार्तिक वदि १३ ज्येष्ठ सुदि १३ | पोष वदि १३ २३ | २० बरस ६ महीने |६ महीने ३ महीने २४ | अयोध्या |कोसांबी बनारस चन्द्रपुरी दो उपवास | चौथ मुक्त दो उपवास २ उपवास २६ | साल वृक्ष | छत्र वृक्ष सरीस वृक्ष नाग वृक्ष (प्रियंगु) . २७ | चैत्र सुदि ११ चैत्र सुदि १५ फाल्गुन वदि ६ | फाल्गुन वदि ७ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 331 : Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुसुम भृकुटी ... श्रीसुमतिनाथजी ५ श्री पद्मप्रभजी ६ | श्री सुपार्थनाथजी ७ श्री चंदप्रभुजी ८ २८/१ सौ १०७ ६३ २६ ३ लाख २० ह. | ३ लाख ३० ह. | | ३ लाख २ लाख ५० ह, | ५ लाख ३० ह.| ४ लाख २० ह. | ४ लाख ३० ह. | ३ लाख ८० ह. ३१ | १८ हजार ४ सौ १६१०८ १५ हजार ३ सौ । १४ हजार ३२ / १० हजार ४ सौ ६ हजार ६ सौ । ८ हजार ४ सौ । ७ हजार ६ सौ ११ हजार १० हजार ६ हजार ८ हजार ३४.१३ हजार १२ हजार ११ हजार .. १० हजार १०४५० १० हजार ३ सौ ६१५० ८ हजार ३६ / २ हजार ४ सौ | २ हजार ३ सौ | २०३० २ हजार .. ३७/ २ लाख ८१ ह. २ लाख ७६ ह. २ लाख ५७ ह. | २ लाख ५० ह. ३८५ लाख १६ ह. | ५ लाख ५ ह. | ४ लाख ६३ ह. | ४ लाख ७६ ह. ३६ तुंबरु | मातंग विजय ४० महाकाली | श्यामा .शांता (अच्युता) | (ज्वाला) ४१) चरम | प्रद्योतन विदर्भ दिन्न ४२ काश्यपि सोमा सुमना ४३ | समेत शिखर | समेत शिखर समेत शिखर समेत शिखर चैत्र सुदि६ | मगसर वदि ११ फागण यदि ७ । भाद्रवा वदि ७ ४५/ १ महीना १ महीना एक महीना । एक महीना ४६ | कायोत्सर्ग कायोत्सग | कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग ४७६ लाख ६० हजार ६ हजार ६ सौ कोटि सागर | कोटि सागर कोटि सागर कोटि सागर राक्षस राक्षस राक्षस ४६ मूषक महिष ५०/ १ हजार ३०८ १ हजार ३ भव | ३ भव | तीन भव ३ भव ५२] इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३) ६ महीने ६दिन | ६ महीने ६ दिन ६ महीने १६दिन :महीने ७ दिन | रति देव मृग मृग ५ सौ : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 332 : Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ s x w 9 N १) श्री सुविधिनाथजी ६ श्री शीतलनाथजी १० श्री श्रेयांसनाथजी११ श्री वासुपूज्यजी१२ फाल्गुन वदि ६ वैशाख वदि ६ । ज्येष्ठ वदि ६ | ज्येष्ठ सुदि ६ आनत देवलोक प्राणत देवलोक | अच्युत देवलोक प्राणत देवलोक काकंदी नगरी | भद्दिलपुर | सिंहपुरी चंपापुरी ५| मगसर वदि ५ | महा वदि १२ | फाल्गुन वदि १२ फाल्गुन वदि१४ सुग्रीव दृढरथ विष्णु वसुपूज्य रामाराणी नंदा विष्णुदेवी जया मूल | पूर्वाषाढा | श्रवण शतभिषाखा ६| धन धन . मकर कुंभ १० मत्स्य | साथिया(श्रीवत्स) गैंडा मैंसा ११ एक सो धनुष ६० धनुष . ८० धनुष ७० धनुष १२ २ लाख पूर्व | १ लाख पूर्व | ८४ लाख वर्ष ७२ लाख वर्ष १३ | श्वेत . | सुवर्णसा सुवर्णसा लाल १४| राजा राजा राजकुमार १५| विवाहित विवाहितं . | विवाहित विवाहित १६ एक हजार | १ हजार : १ हजार ६०० | काकंदी . | भद्दिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी २ उपवास | दो उपवास दो उपवास दो उपवास क्षीर.. क्षीर क्षीर पुष्प . . पुनर्वसु . नंद दो दिन दो दिन | दो दिन दो दिन मागसर वदि६ । महा वदि १२ । फाल्गुन वदि १३ | फाल्गुन वदि ३० २३) चार महीने तीन महीने दो महीने एक महीना काकंदी भद्दिलपुर सिंहपुरी चंपापुरी २५/ २ उपवास | दो उपवास दो उपवास दो उपवास २६ | साली वृक्ष | प्रियंगु वृक्ष | तिंदुक वृक्ष पाडल वृक्ष (मल्ली ) राजा . क्षीर सुनंद : श्री तीर्थंकर चरित्र : 333 : Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री सुविधिनाथजी ६ श्री शीतलनाथजी १० श्री श्रेयांसनाथजी११ श्री वासुपूज्यजी१२ २७ कार्तिक सुदि ३ पोष वदि १४ महा वदि ३० महा सुदि २ २८८८ गणधर ८ १ ७६ ६६ २६ २ लाख १ लाख ८४ हजार ७२ हजार ३० | ३ लाख १ लाख २० हजार १ लाख ३ हजार १ लाख ३ हजार ३१ | १३ हजार ११ हजार १० हजार ३२ | ६ हजार ५ हजार ४ हजार ७ सौ. ३३ ८ हजार ४ सौ ६ हजार ५ हजार ४ सौ ६ हजार ५ सौ ६ हजार ६ हजार १३ सौ ३४ ७ हजार ५ सौ ३५ ७ हजार ५ सौ ३६ १५ सौ ३७ | २ लाख २६ ह. ३८ ४ लाख ७१ ह. ३६ अजित ४० सुतारिका ४१ वराहक ४२ वारुणी ४३ समेतशिखर १२ हजार ५ हजार ८ सौ ७ हजार २ सौ ७ हजार ७ हजार ५ सौ १४ सौ ४८ राक्षस ४६ वानर २ लाख ८६ ह. ४ लाख ५८ ह: ब्रह्मा अशोका नंद सुयशा समेत शिखर ४४ भादरवा सुदि ६ वैशाख वदि २ ४५ एक महीना एक महीना २ लाख ७६ ह. ४ लाख ४८ ह. ईश्वर (मनुज) मानवी कच्छप धारिणी समेत शिखर श्रावण वदि ३ एक महीना ४६ काउसग्ग काउसग्ग काउसग्ग ४७ ६० कोटिसागर ६ कोटि सागर ६६ ला. ३६ ह. ६ हजार ५.सौ १२ सौं १०० सागर न्यू. १ कोटि सागर | देव वानर २ लाख १५ ह. ४ लाख ३६ ह. कुमार चंडा सुभूम धरणी चंपापुरी अषाढ सुदि १४ एक महीना काउसग्ग ५४ सागर मानव नकुल : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 334 : राक्षस अश्व Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ।। । | श्री सुविधिनाथजी ६ श्री शीतलनाथजी १० श्री श्रेयांसनाथजी११ श्री वासुपूज्यजी१२ ५० एक हजार | एक हजार | एक हजार ६ सौ ५१ | ३ भव' तीन भव तीन भव तीन भव ५२ | इक्ष्वाकुवंश | इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३ | ८ महीने २६ । ६ महीने ६ ६ महीने ६ ८ महीने २० दिन दिन दिन दिन | रेवती पुष्प १ विमलनाथजी १३ | अनंतनाथजी १४ | धर्मनाथजी १५ । शांतिनाथजी १६ २ वैशाख सुदि १२/ श्रावण वदि ७ । वैशाख सुदि ७ | भादरवा वदि७ ३ सहस्त्रार प्राणत. देवलोक | विजय विमान सर्वार्थ सिद्ध . देवलोक ४ कंपिलपुरी अयोध्या रत्नपुरी गजपुर५ महा सुदि ३ वैशाख वदि १३ | महा सुदि ३ जेठ वदि १३ ६ कृतवर्म सिंहसेन विश्वसेन ७ श्यामा | सुयशा सुव्रता अचिरा ८. उत्तराभाद्रपद भरणी ६ मीन. मीन कर्क मेष . १० वराह (सूअर) | श्येन . वज्र हरिण ११ ६० धनुष ५० धनुष ४५ धनुष ४० धनुष १२ ६० लाख वर्ष | तीस लाख वर्ष | १० लाख वर्ष १ लाख वर्ष १३ स्वर्णसा | स्वर्णसा स्वर्णसा स्वर्णसा विमलनाथजी १३ . अनंतनाथजी १४ | धर्मनाथजी १५ शांतिनाथजी १६ १४ राजा राजा राजा चक्रवर्ती १५ विवाहित | विवाहित विवाहित विवाहित १६ १ हजार १ हजार १ हजार १ हजार १७ कंपिलपुर अयोध्या रत्नपुरी गजपुर १८ दो उपवास दो उपवास | दो उपवास दो उपवास : श्री तीर्थंकर चरित्र : 335 : Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलनाथजी १३ | अनंतनाथजी १४ धर्मनाथजी १५ | शांतिनाथजी १६ १६ | क्षीरक्षीरक्षीर क्षीर जयराजा विजय राजा धनसिंह सुमित्र | दो दिन दो दिन दो दिन २ दिन । | महासुदि ४ वैशाख वदि १४ महासुदि १३ जेठ वदि १४ २३ | २ मास |३ वर्ष २ वर्ष एक वर्ष २४ | कंपिलपुरी अयोध्या रत्नपुरी | गजपुर | दो उपवास दो उपवास दो उपवास | दो उपवास २६ | जंबू वृक्ष | अशोक वृक्ष दधिपर्ण वृक्ष । | नंदी वृक्ष (अश्वत्थ) २७ | पोष सुदि६ वैशाख वदि १४ पोष सुदि १५ । पोष सुदि ६ २८ ५७ ५० ४३ . २६ / ६८ हजार ६६ हजार ६४ हजार ६२ हजार, ३० | १ लाख ८ सौ ६२ हजार ६२ हजार ४ सौ| ६१ हजार ६ सौ ३१ ६ हजार ८ हजार ६ हजार ३२ सौ २४ सौ ३३ | ४८ सौ |४३ सौ ३ हजार ३४ | ५५ सौ ५ हजार ४५ ३५ | ५५ सौ ५ हजार ४ हजार |१हजार सौ सौ ३७ / २ लाख ८ ह. २ लाख ६ ह. २ लाख ४ ह. | १ लाख ६० ह. ३८ | ४ लाख २४ ह. ४ लाख १४ ह. ४ लाख १३ ह. ३ लाख ६३ ह. ३६ | षण्मुख | पाताल किन्नर गरुड ४० | विदिता | अंकुशा कंदर्पा निर्वाणी | मंदर जस अरिष्ट चक्रयुध ४२ धरा पद्मा आर्यशिवा सुची (श्रुति) ४३ | समेतशिखर समेतशिखर समेतशिखर . समेतशिखर ४४ | आषाढ वदि ७ | चैत्र सुदि ५ . जेठ सुदि ५ जेठ वदि १३ ३६ सौ २- सौ * ३६ सौ * ४३ सौ * ३६ / ११ सौ : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 336 : Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विमलनाथजी १३ | अनंतनाथजी १४ धर्मनाथजी १५ । शांतिनाथजी १६ | एक मास | एक मास | एक मास १ मास ४६ | कायोत्सर्ग कायोत्सर्ग | कायोत्सर्ग काउसग्ग ४७ | ३० सागरोपम | ६ सागरोपम | ४ सागरोपम पोनपल्योपम कम तीन सागरोपम ४८ | मनुष्य देव मनुष्य ४६ | छाग (बकरा) | हस्ति (हाथी) | (बिल्ली) हस्ति ५०६ हजार . |७ हजार . १०८ . ५१ | तीन भव | ३ भव ३ भव १२ भव ५२ इक्ष्वाकुवंश | इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश ५३ | ८ महीने २१ ६ महीने ६ दिन ८ महीने २६ ६ महीने ६ दिन दिन ६ सौ १ | कुंथुनाथजी १७ । अरनाथजी १८ मल्लिनाथजी १६ | मुनिसुव्रतजी २० २ श्रावण वदि ६ | फाल्गुन सुदि २ फाल्गुन सुदि ४ | श्रावण सुदि १५ सर्वार्थसिद्धि । | सर्वार्थसिद्धि जयंत विमान | अपराजित विमान ४ | गजपुर . गजपुर मथुरा राजगृही ५ | वैशाख वदि १४ मार्गशीर्ष सुदि १०मगसर सुदि ११ | जेठ वदि ८ | सूरराजा. सुदर्शन कुंभ राजा सुमित्र ७ | श्रीराणी देवीराणी प्रभावती पद्मावती ८ | कृत्तिका नक्षत्र | रेवती नक्षत्र अश्विनी ६ | वृष मीन मेष मकर १० | बकरा नंदावर्त कलश कछुआ ११ | ३५ धनुष ३० धनुष |२५ धनु २० धनुष १२ ६५ हजार वर्ष | ८४ हजार वर्ष ५५ हजार वर्ष | ३० हजार वर्ष श्रवण : श्री तीर्थंकर चरित्र : 337 : Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंथुनाथजी १७ अरनाथजी १८ मल्लिनाथजी १६ | मुनिसुव्रतजी २० १३ | स्वर्णसा | स्वर्णसा नीला श्याम १४ | चक्रवर्ती चक्रवर्ती राजकुमारी | राजा १५ | विवाहित विवाहित अविवाहित | विवाहित (६४ ह. स्त्रि.) (६४ ह. स्त्रि.) १६ | १हजार के साथ| १ हजार के साथ | ३ सौ - | १ हजार | गजपुर गजपुर राजगृही १८ | दो उपवास दो उपवास तीन उपवास दो उपवास क्षीर क्षीर क्षीर २० | व्याघ्रसिंह अपराजित विश्वसेन | ब्रह्मदत्त | दो दिन दो दिन दो दिन दो दिन २२ चैत्र वदि५ मगसर सुदि ११ मगसर सुदि ११ । फाल्गुन सुदि क्षीर .. ३३ २३ | १६ बरस | ३ बरस एक दिन | ११ महीने गजपुर गजपुर मथुरा . | राजगृही | दो उपवास | दो उपवास दो उपवास | दो उपवास २६ | तिलक वृक्ष |आम का पेड़ अशोक,वृक्ष | चंपक वृक्ष २७ | चैत्र सुदि ३ कार्तिक मगसर सुदि ११ | फाल्गुन सुदि १२ | वदि १२ २८ ३५ २८ . २६ | ६० हजार |५० हजार ४० हजार ३० हजार ३० | ६० हजार ६ सौ ६० हजार ५५ हजार ५० हजार ३१ | ५१ सौ |७३ सौ २ हजार २ हजार | १६ सौ १४ सौ २५ सौ | २६ सौ २२ सौ | २८ सौ २२ सौ . | १८ सौ ३५ | ३३४० १७५० : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 338 : * * * ३४ | ३२ सौ * |२५५१ Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कुंथुनाथजी १७ । अरनाथजी १८ मल्लिनाथजी १६ | मुनिसुव्रतजी २० ३६ / ६७० ६१० ६६८ ५ सौ | १ लाख ७६ ह. | १ लाख ८४ ह. | | १ लाख ८३ ह. | १ लाख ७२ ह. ३ लाख ८१ ह. | ३ लाख ७२ ह. | ३ लाख ७० ह. | ३ लाख ५० ह. गंधर्व यझेंद्र कुबेर वरुण बला धारिणी धरणप्रिया नरदत्ता सांब कुंभ अभीक्षक मल्ली दामिनी रक्षिता वधुमती पुष्पवती समेतशिखर . | समेतशिखर समेतशिखर | समेतशिखर वैशाख वदि १ | मगसर सुदि १० फाल्गुन सुदि १२/ जेठ वदि ६ | एक महीना एक महीना एक महीना | एक महीना काउसग्ग काउसग्ग काउसग्ग काउसग्ग | आधा पल्योपम | पाव, पल्योपम एक क्राड ५४ लाख वर्ष एक ह.को. वर्ष कम हजार वर्ष ४८ | राक्षस देव | देव देव ४६ | बकरा . हाथी . अश्व (घोड़ा) वानर ५० | १ हजार साधु | १ हजार साधु | ५ सौ साधु | १ हजार साधु ५१ | ३ भव. ३ भव तीन भव . तीन भव ५२ | इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश इक्ष्वाकुवंश | हरिवंश ५३ ६ महीने ५ दिन | ६ महीने ८ दिन ६ महीने ७ दिन ६ महीने ८ दिन ४५ : श्री तीर्थंकर चरित्र : 339 : Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ M० चित्रा ६/ मेष सर्प १ | नमिनाथजी २१ । नेमिनाथजी २२ पार्श्वनाथजी २३ । महावीर स्वामी२४ | आसो सुदि १५ कार्तिक वदि १२ चैत्र वदि ४ आषाढ सुदि ६ प्राणत देवलोक | अपराजित प्राणत | प्राणत | मथुरा सौरीपुर बनारस क्षत्रीकुंड ५ श्रावण वदि ८ श्रावण सुदि ५ पोष वदि १० | चैत्र सुदि १३ विजय | समुद्र विजय अश्वसेन सिद्धार्थ ७ वप्रा | शिवादेवी वामादेवी | त्रिशलादेवी | अश्विनी विशाखा | उत्तरा फाल्गुनी कन्या तुला . कन्या १० | कमल शंख. केशरीसिंह ११ | १५ धनुष . दस धनुष हाथ ७ हाथ .. १२ | १० हजार वर्ष १ हजार वर्ष १ सौ वर्ष ७२ वर्ष १३ | पीला वर्ण श्याम वर्णानीला वर्ण पीला वर्ण १४ | राजा | राजकुमार राजकुमारः। राजकुमार १५ | विवाहित अविवाहित विवाहित । विवाहित १६ | एक हजार १ हजार के साथ ३ सौ के साथ | अकेले १७ | मथुरा | सौरीपुर बनारस क्षत्रीकुंड १८ | दो उपवास | दो उपवास दो उपवास दो उपवास क्षीर क्षीर २० दिनकुमार वरदिन्न . धन्य बहुल ब्राह्मण दो दिन | दो दिन दो दिन दो दिन २२ आषाढ वदि ६ श्रावण सुदि६ पोष वदि ११ मागसर वदि क्षीर क्षीर १० २३ ६ महीने चौपन दिन चौरासी दिन बारह बरस ६|| मा. ऋजुबालुका २४ | मथुरा | गिरनार बनारस नदी २५ | दो उपवास तीन उपवास तीन उपवास | दो उपवास : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 340 : Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | महावीर स्वामी२४ नमिनाथजी २१ । नेमिनाथजी २२ । | पार्श्वनाथजी २३ बकुल वृक्ष वेडस वृक्ष धातकी वृक्ष २७ | मगसर सुदि ११ आसो वदि ३० | चैत्र वदि ४ साल वृक्ष वैशाख सुदि १० 99 + * * * ७५० ३५० | १७ | ११ १० २० हजार १८ हजार १६ हजार १४ हजार ४१ हजार · | ४० हजार ३८ हजार ३६ हजार ५ हजार |.१५ सौ ११ सौ ७ सौ १ हजार ८ सौ . ६ सौ ४ सौ १६ सौ १५ सौ १ हजार ४ सौ ३४ | १६ सौ १५ सौ . १ हजार ३५ | १२५० १ हजार ३६ / ४५० ४०० ३०० ३७/ १ लाख ७० । १ लाख ६६ १ लाख ६४ १ लाख ५६ हजार हजार हजार हजार ३ लाख.४८ । ३ लाख ३६ ३ लाख २७ ३ लाख १८ हजार . हजार हजार हजार भृकुटी. गोमेध पार्श्व मातंग . ४० | गांधारी अम्बिका पद्मावती सिद्धायिका शुभ . . वरदत्त आर्यदिन्न इन्द्रभूति ४२ | अनिला यक्षदिन्ना पुष्पचूडा चंदनबाला ४३ | समेत शिखर | गिरनार समेत शिखर । | पावापुरी ४४ | वैशाख वदि १० आषाढ सुदि ८ | श्रावण सुदि ८ | कार्तिक वदि ३० ४५ | १ मास एक मास एक मास दो दिन ४६ / काउसग्ग पद्मासन काउसग्ग पद्मासन ४७ | ६ लाख वर्ष ५ लाख वर्ष ८३७५० वर्ष | २५० वर्ष : श्री तीर्थंकर चरित्र : 341 : Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ | मनुष्य महिष अकेले ४८ देवगण राक्षस ४६ अश्व महिष ५०/ १ हजार साधु | ५३६ साधु ५१ तीन भव ६ भव ५२| इक्ष्वाकुवंश | हरिवंश ५३ ६ महीने ८ | ६ महीने र दिन दिन | राक्षस . मृग ३३ साधु १० भव इक्ष्वाकुवंश ६ महीने ६ दिन २७ भवं इक्ष्वाकुवंश ६ महीने सात दिन चक्रवर्ती नाम | आयु कायमान जनक |जननी | नगरी १ | भरत ८४ लाख पूर्व ५०० ध. ऋषभदेव सुमंगला. विनीता २ | सगर ७२ लाख पूर्व ४५० ध. सुमित्र यशोमती- अयोध्या ३ | मघवा । | ५ लाख वर्ष | ४२ ध. समुद्रविजय | भद्रादेवी | श्रावस्ती ४ सनत्कुमार ३ लाख वर्ष | ४१ ध. | अश्वसेन । सहदेवी हस्तिनापुर ५ शांतिनाथ | १ लाख वर्ष । ४० ध. | विश्वसेन. | अचिरा | गजपुर ६ कुंथुनाथ ६५ हजार वर्ष | ३५ ध. | सूरराज | श्रीदेवी | गजपुर ७ अरनाथ ८४ हजार वर्ष ३० ध. | सुदर्शन | देवी | गजपुर | सुभूम ६० हजार वर्ष | २८ ध. कृतवीर्य तारादेवी हस्तिनापुर महापद्म ३० हजार वर्ष | २० ध. | पद्मोत्तर ज्वालादेवी| वाराणसी हरिषेण १० हजार वर्ष | १५ ध महाहरि | मेरादेवी कांपिल्यपुर जय ३ हजार वर्ष | १२ ध. | विजय । वप्रादेवी | राजगृह १२ ब्रह्मदत्त । ७०० वर्ष । ७ ध. | ब्रह्मराज | चुलनी कांपिल्यपुर : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 342 : Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ८४ लाख ७२ लाख ३ स्वयंभू ६० लाख ४ |पुरुषोत्तम | ३० लाख ५ पुरुषसिंह १० लाख ६ पुरुषपुंडरिक ६५ हजार ७ दत्त ५६ हजार १ ת लक्ष्मण १२ हजार ६ श्रीकृष्ण १० हजार 9 २ ३ ४ ५ ६ ७ नाम ८ त्रिपृष्ठ द्विपृष्ठ नाम अचल विजय भद्र सुप्रभ सुदर्शन आनंद माता भद्रादेवी कायवासुदेव जनक प्रजापति ८० धनुष ७० धनुष ६० धनुष ५० धनुष ४५ धनुष सुभद्रा सुप्रभा सुदर्शना विजया विजयन्ती बलदेव का विवरण आयु ८४ लाख वर्ष ७५ लाख वर्ष ६५ लाख वर्ष ५५ लाख वर्ष १७ लाख वर्ष ८५ हजार वर्ष नंदन अपराजिता ५० हजार वर्ष रामचंद्र - अपराजिता १५ हजार वर्ष बलभद्र रोहिणी १२ हजार वर्ष ब्रह्मराज भद्रराज | पृथ्वीदेवी | द्वारिका सोमराज सीतादेवी द्वारिका शिवराज महाशिर अग्निसिंह २० धनुष २६ धनुष १६ धनुष दशरथ १० धनुष वसुदेव जननी नगरी मृगावती पोतनपुर पद्मादेवी द्वारिका अमृतादेवी अम्बपुर लक्ष्मीदेवी चक्रपुर शेषवती काशी सुमित्रा अयोध्या देवकी मथुरा विवरण वासुदेव -बलदेव के पिता एक, तनुमान नगरी भी एक ही, बलभद्र पांचवे देव-लोक में शेष सभी मोक्ष में गये। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 343 : वासुदेव नियमा नरक में ही जाते हैं। त्रिषृष्ठ ७, दत्त ५, लक्ष्मण ४, श्रीकृष्ण ३, शेष ६ट्टी नरक में गये हैं। Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नव प्रतिवासुदेव १ अश्वग्रीव, २ तारक, ३ मेरक, ४ मधुकैटभ, ५ निशम्भ, ६ . बलि, ७ प्रह्लाद, ८ रावण, ६ जरासंघ ये नौ प्रतिवासुदेव हुए है। इनको इनके ही चक्र से वासुदेव मारते हैं और वे राज्य के अधिपति बनते हैं। ये प्रतिवासुदेव भी नियमानरक में जाते हैं। - c किंपुरुषा सुजात नागराज विहरमान जिन कोष्टक विहरमानजिन जनक | जननी | लंछन ___ स्त्री सीमंधर श्रेयांस | सत्यकी | वृषभ । रुक्मिणि युगमंधर सुदृढ़ सुतारा गज प्रियंगुदेवी बाहु . सुग्रीव विजया हरिण | मोहिनी सुबाहु निसढ़ भूनंदा मर्कट देवसेन देवसेना जयसेना स्वयंप्रम मित्रप्रभ | · सुमंगला | चन्द्र वीरसेना ऋषभानन कीर्ति वीरसेना जयावती अनंतवीर्य मेघ मंगलावती । | विजयावती सुरप्रम भद्रादेवी चन्द्र विमलादेवी विशाल विजय विजयावंती सूर्य नन्दसेना वज्रधर पद्मराज सरस्वती वृषम | विजयवती चंद्रानन वल्मीक पद्मावती लीलावती चन्द्रबाहु देवानंद रेणुकादेवी कमल सुगंधादेवी ईश्वर कुलसेन यशोज्ज्वला कमल भद्रावती भुंजग महाबल महिमादेवी चन्द्र गंधसेना नेमिप्रभ वीरसिंह सेनादेवी वीरसेन भूमिपाल भानुमती रायसेना महाभद्र देवराज उमादेवी सूरिकांता देवयशा सर्वभूति | गंगादेवी | चंद्र । पद्मावती २०| अजितवीर्य | राजपाल कनीनिका | सूर्य । रत्नमाला मोहिनी : तीर्थंकरों के संबंध की जानने योग्य जरूरी बातें : 344 : Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २-६-१०-१४-१८ वीश विहरमान भगवंत पुष्कलावती विजय और पुंडरीकिनी नगरी में १-५-६-१३-१७ वे जिन, वप्रविजय विजयानगरी में वे जिन, वत्सविजय सुसीमा नगरी में ३-७-११-१५ - १८ वे जिन तथा नलिनावती विजय, वीतशोका नगरी में ४-८-१२-१६- २० वे विहरमान जिन जानना । सभी का शरीर वर्ण समान, आयु ८४ लाख पूर्व, शरीरमान ५०० धनुष केवलज्ञानी की संख्या १० लाख मतांतर से २ क्रोड सामान्यमुनिवरों की संख्या १०० क्रोड मतांतर से २००० कोड की सभी को समान समझना। वहां बत्तीस मुंडा का एक कवल ऐसें ३२ कवल का आहार यानि १०२४ मूंडा का आहार एक समय का है। मुनि के मुख का माप उत्सेध अंगुल से ५० हाथ का, पात्रे का तलिया १७ धनुष लंबा । एक मुखवस्त्रिका की अपने यहां की १ लाख साठ हजार मुहपत्तियाँ होती है। यहां से ४०० गुनी लंबी ४०० गुनी चौड़ी होने से यह माप आता है। - पंचशप्ततीस्थान चतुष्पदी पेज ६६ शासन में १ ऋषभदेव ३ | सुविधिनाथ ५ श्रेयांसनाथ ७ विमलनाथ ६ धर्मजिन महावीर प्रभु 99 हुए है। रुद्रनाम भीमावली रुद्र रुद्र ११ सुप्रतिष्ठ पुंडरीक अजितनाभ सत्यकी शासन २ अजितनाथ ४ शीतलनाथ ६ वासुपूज्य अनंतनाथ ८ १० शांतिजिन रुद्रनाम जितशत्रु विश्वानल : श्री तीर्थंकर चरित्र : 345 : अचल अजितधर पेढाल ये ग्यारह मुनि निरतिचार संयमधर घोर तपस्वी एकादशांगधारी Page #359 --------------------------------------------------------------------------  Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (1) फ्रिज पदार्थ के सत्त्व को नष्ट कर देता है / डॉक्टर का मुंह देखना हो तो फ्रीज का पदार्थ उपयोग में ले / (2) मोबाईल और कम्प्युटर देश की सेवा नहीं परदेश की सेवा कर रहे हैं। (3) माता-पिता अपने बच्चों को बिनजरूरी ट्युशनों से बचाने का ख्याल रखें। (4) अंग्रेजी माध्यम के पूर्व, धर्म का माध्यम अपनी संतोनों को समझावें / (5) आप अपने गुरुजनों की सेवा का आदर्श अपनी संतानों को बतायें / कहकर नहीं, करके / (6) टी.वी. पाप वर्द्धक है / पाप एकान्त में होता है / अतः टी.वी. घर से न निकाल सको तो कम से कम खुल्ले में तो न रखों / घर पर आने वाले साधु साध्वियों को उसके दर्शन न करवाओ। (7) प्रवेश द्वार पर भूमि पर वेल कम लिखवाकर ज्ञान की आशातना करते हो इससे बचना आवश्यक है / (8) संसार में रहकर धर्म करने की बात, दीक्षा की प्रतिपालना में अशक्त व्यक्तियों के लिए योग्य है पर जो दीक्षा की प्रतिपालना करने में सक्षम है वे ऐसी बात करे यह अपने आप से विश्वासघात है। (9) आपकी संतान नौवी क्लास में पढ़ने गयी तो अब उसकी निगरानी अवश्य रखों / संतान की निगरानी आपके और संतान के जीवन के लिए अति आवश्यक है / Mesco Prints : 080-22380470