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उन्होंने वीश स्थानक का1 आराधन कर तीर्थंकर नाम कर्म - बाँधा । वीस स्थानकों में से केवल एक स्थानक का पूर्ण रूप से आराधन भी तीर्थंकर नामकर्म के बंध का कारण होता है। परंतु वज्रनाभ ने तो बीसों स्थानकों की आराधना की थी। खड्ग की धारा के समान प्रव्रज्या का चारित्र का - -चौदह लाख पूर्व तक अतिचार रहित उन्होंने पालन किया और अंत में दोनों प्रकार की संलेखना पूर्वक पादपोगमन अनशन - व्रत स्वीकारकर देह त्यागा। उनके पूर्वभव के पांचों मित्रों ने भी चारित्र लिया और निरतिचार चारित्र पालन कर देव हुए।
इच्छा हो वहां जा सकते हैं। इनके अलावा और भी अनेक लब्धियाँ हैं कि जिनसे किसी की भलाई या बुराई की जा सकती है।
1. इन्हें बीस पद भी कहते हैं। वे ये हैं १. अरिहंतपद - अर्हत और अर्हंतों : की प्रतिमा की पूजा करना उन पर लगाये हुए अवर्णवाद का निषेध करना और अद्भुत अर्थवाली उनकी स्तुति करना, २ . सिद्धपद-सिद्ध स्थान में रहे हुए सिद्धों की भक्ति के लिए जागरण तथा उत्सव करना और उनका यथार्थ कीर्तन करना, ३. प्रवचनपद - बाल, ग्लान और नव दीक्षित शिष्यादि यतियों पर अनुग्रह करना और प्रवचन यानी चतुर्विध जैनसंघ का वात्सल्य करना; ४. आचार्य पद अत्यंत सत्कार आहार, औषध और वस्त्रादि के दान द्वारा गुरुभक्ति करना, ५ . स्थविरपद - पर्यायस्थविर ( बीस वर्ष की दीक्षापर्यायवाला), वयस्थविर (साठ वर्ष की वयवाला ) और श्रुतस्थविर (समवायांगधारी) की भक्ति करना, ६. उपाध्यायपद - अपनी अपेक्षा बहुश्रुतधारी की अन्न-वस्त्रादि से भक्ति करना, ७. साधुपद - उत्कृष्ट तप करने वाले मुनियों की भक्ति करना, ८. प्रश्न, वाचन, मनन आदि द्वारा निरंतर द्वादशांगी रूप श्रुत का सूत्र अर्थ और उन दोनों से ज्ञानोपयोग करना, ९ दर्शन पद शंकादि दोषरहित स्थैर्य आदि गुणों से भूषित और शमादि लक्षणवाला दर्शन - सम्यक्त्व पालना, १०. विनयपद - ज्ञान, दर्शन, चारित्र और उपचार इन चारों का विनय करना, ११. चारित्रपद - मिथ्या-करणादिक दशविध समाचारी के योग में और आवश्यक में अतिचार रहित यत्न करना, १२. ब्रह्मचर्यपद - अहिंसादि मूल गुणों में और समिति आदि उत्तर गुणों में अतिचार - रहित प्रवृत्ति करना, १३. समाधिपद क्षण में प्रमाद का परिहार कर ध्यान में लीन होना; १४. तपपद
ज्ञानपद
क्षण
मन और
- पीड़ा न हो इस तरह तपस्या करना; १५. दानपद - मन, वचन
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 11 :
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शरीर को बाधा -
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