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________________ लाल तथा सीधे थे। पांवों में यव थे। अंगुलियों के अग्रभाग में प्रदक्षिणावर्त थे। उनके करकमल के मूल में तीन रेखाएँ शोभती थी। उनका वक्षस्थल स्वर्णशिला के समान, विशाल, उन्नत और श्रीवत्सरत्नपीठ के चिह्नवाला था। उनके कंधे ऊँचे और दृढ़ थे। उनकी बगलें थोड़े केशवाली, उन्नत तथा गंध, पसीना और मलरहित थी। भुजाएँ घुटनों तक लंबी थी। उनकी गर्दन गोल, अदीर्घ और तीन रेखाओंवाली थी। मुख गोल, कांति के तरंगवाला कलंकहीन चंद्रमा के समान था। दोनों गाल कोमल, चिकने और मांसपूर्ण थे। कान कंधे तक लंबे थे। अंदर का आर्वत बहुत ही सुंदर था। होठ बिंबफल के समान लाल और बत्तीसों दांत कुंद-कली के समान सफेद थे। नासिका अनुक्रम से विकासवाली और उन्नत थी। उनके चक्षु अंदर से काले, सफेद, किनारे पर लाल और कानों तक लंबे थे। मांफने काजल के समान श्याम थीं। उनका ललाट विशाल, मांसल, गोल, कठिन, कोमल और समान अष्टमी के चंद्रमा के समान सुशोभित था। इस प्रकार नाना प्रकार के सुलक्षणवाले प्रभु सुर, असुर और मनुष्य सभी के सेवा करने योग्य थे। इंद्र उनका हाथ थामता था, यक्ष चमर ढालते थे, धरणेन्द्र द्वारपाल बनता था और वरुण छत्र रखता था; तो भी प्रभु लेशमात्र भी, गर्व किये बिना यथारुचि विहार करते थे। कई बार प्रभु बलवान इंद्र की गोद में पैर रख, चमरेन्द्र के गोदरूपी पलंग में अपने शरीर का उत्तर भाग स्थापन कर, देवताओं के आसन पर बैठे हुए दिव्य संगीत और नृत्य सुनते और देखते थे। अप्सराएँ प्रभु की हाजिरी में खड़ी रहती थी; परंतु प्रभु के मन में किसी भी तरह की आसक्ति नहीं थी। जब भगवान की उम्र एक बरस से कुछ कम थी, तब की बात है। कोई युगल-अपनी युगल संतान को एक ताड़ वृक्ष के नीचे रखकर-रमण करने की इच्छा से क्रीड़ागृह में गया। हवा के झोंके से एक तांडफल बालक के मस्तक पर गिरा। बालक मर गया। बालक मर गया। बालिका माता पिता के पास अकेली रह गयी। __ थोड़े दिनों के बाद बालिका के मातापिता का भी देहांत हो गया। बालिका वनदेवी की तरह अकेली ही वन में घूमने लगी। देवी की तरह सुंदर रूपवाली उस बालिका को युगल पुरुषों ने आश्चर्य से देखा और फिर वे उसे : श्री आदिनाथ चरित्र : 18 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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