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मरीचि (किरणें ) फैलाता था, इससे उसका नाम मरीचि रखा गया। क्रमशः मरीचि जवान हुआ।
भगवान ऋषभदेव का सबसे पहला समवसरण विनीता के बाहर हुआ। मरीचि भी अपने कुटुंब के साथ समवसरण में गया और देशना सुन, धर्म ग्रहणकर साधु हो गया।
तेज
जब गरमियों के दिन आये तो समय पर आहारपानी न मिलने से, धूप में विहार करने के दुःख से और पसीने के मारे कपड़ों के गंदे हो मरीचिका मन बहुत व्याकुल हो उठा। वह सोचने लगा 'पर्वत के समान दुर्वह दीक्षाभार मैंने कहां उठा लिया? आखिर तक मुझसे इसका पालन न होगा। मगर गृहस्थ भी अब कैसे हुआ जाय ? इससे तो लोक हंसाई होगी। मगर इस भार को हलका करने का कोई रास्ता निकालना चाहिए। बहुत दिन तक विचार करने के बाद उसने स्थिर किया।
मुनि लोग त्रिदंड से विरक्त हैं और मैं तो त्रिदंड के आधीन हूं इसलिए मैं त्रिदंडधारी बनूंगा। केशलोच करने से महान पीड़ा होती है, मैं उस पीड़ा को सहन करने में असमर्थ हूं। इसलिए बाल उस्तरे से मुंडवाया करूंगा और शिर पर शिखा भी रखूंगा। मुनि महाव्रतधारी होते हैं मैं अणुव्रत का पालन करूंगा! मुनि कपर्दकहीन होते हैं मैं अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए पैसा रखूंगा। मुनि मोह हीन होने से धूप और पानी से बचने के लिए कोई साधन नहीं रखते, मैं अपनी रक्षा के लिए छत्री का उपयोग करूंगा और जूते पहनूंगा। मुनि शील से सुगंधित होते हैं, मैं सुगंध के लिए चंदन का तिलकं लगाऊंगा। मुनि कषायरहित होने से श्वेतवस्त्र धारण करते हैं, मगर मैं तो कषायवाला हूं इसलिए काषाय (रंगीन) वस्त्र पहनूंगा। सचित्त जल से अनेक जीवों की विराधना होती है इसलिए संकट सहकर भी मुनि सचित्त जल नहीं लेते; मगर मैं तो संकट सहने में असमर्थ हूं। इसलिए हमेशां सचित्त जल का उपयोग करूंगा। इस तरह सुख से रहने के लिए मरीचि ने गृहस्थ और साधु के बीच का मार्ग निकाला और त्रिदंडी संन्यास ग्रहण किया।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 195 :