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जाता हो तो उसे ही खिलाकर फिर खाऊं। वह इधर-उधर किसी मुसाफिर की तलाश में फिरता रहा; परंतु कोई मुसाफिर बहुत देर गुजर जाने पर मी उधर से न निकला। वह दुर्भाग्य का विचार करता हुआ उस जगह लौटा जहां सब भोजन करने बैठे थे।
ज्योंही वह भोजन परोस कर खाना चाहता था त्योंही उसे सामने कुछ मुनि आते हुए दिखायी दिये। नयसार ने उठाया हुआ नवाला वापिस एक तरफ रखकर, उठा और मुनियों के पास जाकर हाथ जोड़कर बोला'मेरा सद्भाग्य है कि, आपके इस भयानक जंगल में, दर्शन हो गये। कृपानाथ! भोजन तैयार है आईये और कुछ लेकर मुझे उपकृत कीजिए। क्षुधापीड़ित मुनियों ने आहार पानी शुद्ध जानकर ग्रहण किया। जब मुनि आहार कर चुके तब नयसार ने पूछा – 'महाराज! इस भयानकं जंगल में आप कैसे आ चढ़े? भयानक पशुओं से भरे हुए इस जंगल में शस्त्रधारी भी आते हिचकिचाते हैं। आपने यह साहस कैसे किया?' मुनि बोले – 'हम बनजारे के साथ मुसाफरी कर रहे थे। रास्ते में एक गांव में हम आहारपानी लेने गये और बनजारे की बालद से छूट गये। चलते हुए रास्ता भूलकर इस जंगल में आ चढे हैं।'
चलिये मैं गांव का रास्ता बता दूं।' कह नयसार साधुओं को रास्ता बताने गया। जब वे रास्ते पर पहुंचे गये तब एक वृक्ष के नीचे बैठकर मुनियों ने नयसार को धर्म सुनाया और नयसार धर्म ग्रहण कर सम्यक्त्वी बना। फिर साधु अपने रास्ते गये और नयसार भी लक्कड़ राजधानी में रवाना कर अपने घर गया।
बहुत समय तक धर्म पाल अंत में मरकर नयसार का जीव सौधर्मदेवलोक में पल्योपम की आयुवाला देवता हुआ। मरीचि का भव :
इसी मरतक्षेत्र में विनीता नाम की नगरी में भगवान ऋषभदेव के पुत्र भरत चक्रवर्ती राज्य करते थे। नयसार का जीव देवलोक से उन्हीं के घर पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ। अपने सूर्य के समान तेज से वह चारों तरफ
: श्री महावीर चरित्र : 194 :