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१४. भगवान श्री महावीर चरित्र
कृतापराधेऽपि जने, कृपामन्थरतारयोः ।
ईषद्बाष्पान्योर्भद्रं, श्रीवीरजिननेत्रयोः ॥
भावार्थ - जिन आंखों में दया सूचित करनेवाली पुतलियां हैं और जो आंखें दया के कारण से आंसुओं से भीग जाती हैं, उन भगवान महावीर की, आंखों का कल्याण हो।' प्रथम भव :
. जंबूद्वीप के पश्चिम विदेह क्षेत्र में महावप्र नाम का प्रांत था। उसकी जयंती नाम की नगरी में शत्रुमर्दन नाम का राजा राज्य करता था। उसके राज्य में पृथ्वी प्रतिष्ठान नाम के गांव में नयसार नाम का स्वामीभक्त पटेल (गामेती) था। यद्यपि उसको साधु संगति का लाभ नहीं मिला था। तथापि वह सदाचारी और गुणग्राही था। एक बार वह राज्य के कारखानों के लिए लक्कड़ भिजवाने का हुक्म पाकर जंगल में गया।
भयानक जंगल में जाकर उसने लक्कड़ कटवाये। जब दुपहर का वक्त हुआ तब सभी मजदूर अपने-अपने डिब्बे खोलकर खाने लगे। नयसार ने सोचा, गांव में मैं हमेशा अभ्यागत को खिलाकर खाता हूं। आज मेरा मंद भाग्य है कि कोई अभ्यागत नहीं। देखू अगर कोई इधर-उधर से मुसाफिर 1. इस श्लोक के संबंध में एक ऐसी कथा प्रसिद्ध है कि 'संगम' नाम के देवताने
महावीर स्वामी पर छ: महीने तक उपसर्ग किये थे तो भी भगवान स्थिर रहे थे। उनकी दृढ़ता देखकर वह बोला – 'हे देव! हे आर्य! आप अब स्वेच्छापूर्वक भिक्षा के लिए जाइए। मैं आपको तकलीफ न दूंगा।' भगवान बोले- 'मैं तो स्वेच्छापूर्वक ही भिक्षा के लिए जाता हूं। किसी के कहने से नहीं जाता।' 'संगम' देव अपने देवलोक को चला। उसे जाते देख, प्रभु की आंखों में यह सोचकर आंसु आ गये कि बेचारे देव ने मुझ पर उपसर्ग कर बुरे कर्म बांधे हैं और उसके फल रूप में दुःख इसे भोगना पड़ेगा।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 193 :