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ब्राह्मण के घर जन्मा। उसका जन्म होने के थोड़े ही दिन बाद उसके मातापिता की मृत्यु हो गयी। वह निराधार, बड़ी तकलीफें उठाता इधर उधर ठुकराता बड़ा हुआ। जब वह अच्छी तरह भलाई बुराई समझने लगा तब उसने एक दिन किसीसे पूछा - 'इसका क्या कारण है कि मुझे तो पेटभर अन्न और बदन ढकने को फटे-पुराने कपड़े भी बड़ी मुश्किल से मिलते हैं और कइयों को मैं देखता हूं कि उनके घरों में मेवे मिष्टान्न पड़े सड़ते हैं और कीमती कपड़ों से संदूकें भरी पड़ी है?' उसने जवाब दिया – 'यह उनके पूर्व भव में किये तप का फल है।' उसने सोचा- मैं भी क्यों न तप करके सब तरह की सुख सामग्रियां पाने का अधिकारी बनूं। उसने घरबार छोड़ दिये और वह खाकी बाबा बन वन में रहने कंदमूल खाने और पंचाग्नि तप करने लगा।
त्याग और संयम चाहे वे अज्ञानपूर्वक ही किये गये हों, कुछ न कुछ फल दिये बिना नहीं रहते। कमठ को इस अज्ञान तप ने भी फल दिया। लोगों में उसकी प्रतिष्ठा बढ़ी और वह पुजाने लगा। उस समय वह फिरता फिरता बनारस आया था और शहर के बाहर धूनी लगाकर पंचाग्नि तप कर
रहा था।
पार्श्वकुमार भी कमठ के पास पहुंचे। वहां जाकर उन्होंने देखा कि, उसके चारों तरफ बड़ी धूनियां हैं। उनमें बड़े-बड़े लक्कडों से अग्निशिखा प्रज्वलित हो रही है। ऊपर से सूरज की तेज धूप झुलसा रही है और कमठ पांचों तरफ की तेज आग को सहन कर रहा है। लोग उसकी उस सहन शक्ति के लिए धन्य धन्य कर रहे हैं और भेट पूजाएँ ला लाकर उसके आगे रख रहे हैं।
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पार्श्वकुमार ने अवधिज्ञान से देखा कि इन लकड़ों में से एक लकड़े में सर्प झुलस रहा है। वे बोले – 'हे तपस्वी! तुम्हारा यह कैसा धर्म है कि, जिसमें दया का नाम भी नहीं है। जैसे जलहीन नदी निकम्मी है और चंद्रहीन रात्रि निकम्मी है इसी तरह दयाहीन धर्म भी निकम्मा है। तुम तप करते हो और इसमें जीवों का संहार करते हो। यह तप किस काम का है ? '
: श्री पार्श्वनाथ चरित्र : 188 :