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रथनेमि ने लज्जित होकर सिर झुका लिया। राजीमती रथनेमि को अनेक तरह से उपदेश दे अपने घर चली गयी और फिर कभी वह रथनेमि के घर न गयी। वह रात दिन धर्मध्यान में अपना समय बिताने लगी।
नेमिनाथ प्रभु चोपन दिन इधर उधर विहार कर पुनः सहसाम्र वन में आये। वहां उन्होंने वेतस (बैंत) वृक्ष के नीचे तेला करके काउसग्ग किया। उन्हें आसोज वदि ३० की रात को चित्रा नक्षत्र में केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ। इंद्रादि देवों ने आकर ज्ञान कल्याणक मनाने के लिए समवसरण की रचना की।
ये समाचार श्रीकृष्ण, समुद्रविजय वगैरा को भी मिले। वे सभी धूम धाम के साथ नेमिनाथ भगवान को वांदने आये। और वंदना कर समवसरण में बैठे। भगवान ने देशना दी। देशना सुनकर अनेकों ने यथायोग्य नियम लिये।
श्रीकृष्ण ने पूछा – 'प्रभो! वैसे तो सभी तुम पर स्नेह रखते हैं; परंतु राजीमती तुम्हें सबसे ज्यादा चाहती है। इसका क्या कारण है?' प्रभु ने धन
और धनवती के भव से अब तक के नवों भवों की कथा सुनायी। उसे सुनकर सबका संदेह जाता रहा। प्रभु से वरदत्त आदि अनेक पुरुषों ने और स्त्रियों ने भी दीक्षा ली और अनेक पुरुष स्त्रियों ने श्रावक श्राविका के व्रत लिये। इस तरह चतुर्विध संघ स्थापना कर प्रभु वहां से विहार कर गये।
भगवान नेमिनाथ विहार करते हुए महिलपुर नगर में पहुंचे। वहां देवकीजी के छः पुत्र-जो सुलसा के घर बड़े हुए थे - रहते थे। उन्होंने धर्मोपदेश सुनकर दीक्षा ली। एक बार वे सभी द्वारका गये। वहां गोचरी के लिए फिरते हुए दो साधु देवकीजी के घर पहुंचे। उन्हें देखकर देवकीजी बहुत प्रसन्न हुई और प्रासुक आहार पानी दिये।
उनके जाने के बाद दूसरे दो साधु आये। वैसा ही रूप रंग देखकर देवकीजी को आश्चर्य हुआ। फिर सोचा, शायद अधिक साधु होने से और आहार पानी की जरूरत होगी। इसलिए फिर से ये आये हैं। देवकीजी ने उन्हें आहारपानी दिया। थोड़ी देर के बाद और दो साधु आये। वही रूप, वर्ह
: श्री नेमिनाथ चरित्र : 166 :