________________
अनेक तरह की भेटें भेजने लगा। राजीमती यद्यपि किन्हीं भेटों का उपभोग नहीं करती थी तथापि उन्हें यह सोचकर रख लेती थी कि ये मेरे प्राणेश्वर के अनुज की भेजी हुई भेटें हैं। कभी-कभी वह समुद्रविजयजी और शिवादेवी के पास जाती। वहां रथनेमी भी उससे मिलता और हंसी मजाक करता। वह निश्चल भाव से उसके परिहास का उत्तर देती और अपने घर लौट जाती। इससे रथनेमि समझता कि, यह भी मुझ पर अनुरक्त है।
एक दिन एकांत में रथनेमि ने कहा – 'हे स्त्रियों के गौरवरूप राजीमती! तुम इस वैरागी के वेश में रहकर क्यों अपना यौवन गुमाती हो? मेरा भाई वज्रमूर्ख था। वह तुम्हारी कदर न कर सका। तुम्हारे इस रूप पर, इस हास्य पर और इस यौवन पर हजारों राज, हजारों ताज और वैराग्य के भाव न्योछावर किये जा सकते हैं। मैं तुम्हारे चरणों में अपना जीवन समर्पण करने को तत्पर हूं, मैं शादी करूंगा। तुम मुझ पर प्रसन्न होओ और यह वैरागियों का वेश छोड़ दो।!'
राजीमती इसके लिए तैयार न थी। उसके हृदय में एक आघात लगा। वह मूर्छित बैठी रही। जब उसका जी कुछ ठिकाने आया तब वह बोली - 'रथनेमि! मैं फिर किसी वक्त इसका जवाब दूंगी।'
. राजीमती बड़ी चिंता में पड़ी। उसे एक उपाय सूझा। उसने मींडल पिसवाया और उसको पुड़िया में बांधकर रथ नेमि के घर का रस्ता लिया। जब वह पहुंची दैवयोग से रथनेमि अकेला ही उसे मिल गया। वह बोली - 'रथनेमि! मुझे बड़ी भूख लगी है। मेरे लिये कुछ खाने को मंगवाओ।' ___रथनेमि ने तुरत कुछ दूध और मिठाई मंगवाये। राजीमती ने उन्हें खाया और साथ ही मींडल की फाकी भी ले ली। फिर बोली – 'एक परात मंगवाओ।' परात आयी। राजीमती ने जो कुछ खाया पिया था सब वमन कर दिया। फिर बोली - 'रथनेमि! तुम इसे पी जाओ।' वह क्रुद्ध होकर बोला'तुमने क्या मुझे कुत्ता समझा है?' राजीमती हंसी और बोली - 'तुम्हारी लालसा तो ऐसी ही मालूम होती है। मुझे नेमिनाथ ने वमन कर दिया है। तुम मेरी लालसा कर रहे हो। यह लालसा वमित पदार्थ खाने ही की तो है। हे रथनेमि! तुमने मेरा जवाब सुन लिया। बोलो अब तुम्हारी क्या इच्छा है?'
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 165 :