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________________ शादी करने से मुखमोड़, संसार से उदास हो, दीक्षा लेने के इरादे से सौरीपुर लौट गये हैं तो उसके हृदय पर बड़ा आघात लगा। वह मूर्छित होकर भूमि पर गिर पड़ी। जब शीतोपचार करके वह होश में लायी गयी तो करुण आक्रंदन करने लगी। सखियां उसे समझाने लगीं – 'बहन! व्यर्थ क्यों रोती हो? स्नेह-हीन और निर्दय पुरुष के लिए रोना तो बहुत बड़ी भूल है। तुम्हारा उसका संबंध ही क्या है? न उसने तुम्हारा हाथ पकड़ा है, न सप्तपदी पढ़ी है और न तुम्हारे घर आकर उसने तोरण ही बांधा है। वह तुम्हारा कौन है जिसके लिए ऐसा विलाप करती हो? शांत हो। तुम्हारे लिए सैंकड़ों राजकुमार मिल जायेंगे।' राजीमती बोली – 'सखियों! यह क्या कह रही हो कि वे मेरे कौन है? वे मेरे देवता हैं, वे मेरे जीवन धन हैं, वे मेरे इस लोक और परलोक के साधक हैं। उन्होंने मुझको ग्रहण नहीं किया है, परंतु मैंने उनके चरणों में अपना सर्वस्व अर्पण कर दिया है। देवता भेट स्वीकार करें या न करें। भक्त का काम तो सिर्फ भेट अर्पण करना है। अर्पण की हुई वस्तु क्या वापिस ली जा सकती है? नहीं बहन! नहीं! उन्होंने जिस संसार को छोड़ना स्थिर किया है मैं भी उस संसार में नहीं रहूंगी। उन्होंने आज मेरा कर ग्रहण करने से मुख मोड़ा है; परंतु मेरे मस्तकर पर वासक्षेप डालने के लिए उनका हाथ जरूर बढ़ेगा। अब न रोऊंगी। उनका ध्यान कर अपने जीवन को धन्य बनाऊंगी।' राजीमती ने हीरों का हार तोड़ दिया, मस्तक का मुकुट उतार कर फैंक दिया, जेवर निकाल निकाल कर डाल दिये, सुंदर वस्त्रों के स्थान में एक सफेद साड़ी पहन ली और फिर वह नेमिनाथ के ध्यान में लीन हो गयी। वार्षिक दान देना समाप्त हुआ। नेमिनाथजी ने सहसाम्र वन में जाकर सावन सुदि ६ के दिन चित्रा नक्षत्र में दीक्षा ली। इंद्रादि देवों ने आकर दीक्षाकल्याणक किया। उनके साथ ही एक हजार राजाओं ने भी दीक्षा ली। दूसरे दिन प्रभु ने वरदत्त ब्राह्मण के घर क्षीर से पारणा किया। नेमिनाथजी के छोटे भाई रथनेमि ने एक बार राजीमती को देखा। वह उस पर आसक्त हो गया और उसको वश में करने के लिए उसके पास : श्री नेमिनाथ चरित्र : 164 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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