________________
१०. श्री शीतलनाथ् चरित्र
सत्त्वानां परमानन्द-कन्दोर्दोदनवान्बुदः । . स्याद्वादामृतनिस्यन्दी, शीतलः पातु वो जिनः ॥
मावार्थ - प्राणियों के उत्कृष्ट आनंद के अंकुर प्रकट होने में नवीन मेघ के समान और स्याद्वाद मत रूपी अमृत को वरसाने वाले श्री शीतलनाथ तुम्हारी रक्षा करें। प्रथम भव :
पुष्कर द्वीप में वज्र नामक विजय है। उसकी राजधानी सुसीमा नामक नगरी है। उसका राजा पद्मोत्तर था। उसने बहुत वर्षों तक राज्य किया। संसार से वैराग्य होने पर उसने त्रिसाद्य (स्रस्ताव) नामक आचार्य के पास दीक्षा ली, तीव्र तप सहित शुद्ध व्रतों को पाला और बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म बांधा। द्वितीय भव :
वह दशवें देवलोक में देव हुए। . . तीसरा भव :
वहां से च्यवकर पद्मोतर का जीव भरत क्षेत्र के भद्रिला नगर के राजा दृढ़रथ की रानी नंदा के उदर में, वैशाख वदि ६ के दिन पूर्वाषाढ़ा नक्षत्र में आया। इंद्रादि देवों ने च्यवनकल्याणक मनाया। गर्भ का समय पूर्ण होने पर नंदा रानी ने माघ वदि १२ के दिन पूर्वाषाढा नक्षत्र में श्री वत्स लक्षणयुक्त, पुत्र को जन्म दिया। छप्पन दिक्कुमारी एवं इंद्रादि देवों ने जन्मकल्याणक मनाया। राजा ने हर्षित होकर बहुत दान दिया। पहले राजा को गर्मी बहुत लगती थी, परंतु यह पुत्र गर्भ में आया, उसके बाद राजा ने एक दिन रानी का अंग छुआ, इसीसे राजा की बहुत दिनों की गर्मी शांत हो गयी। इस कारण से उन्होंने पुत्र का नाम शीतलनाथ रखा। .. .
: श्री शीतलनाथ चरित्र : 84 :