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________________ के हैं। उनमें से अंतिम स्थान में अर्थात् मोक्ष में तो केवल कर्म-मुक्त जीव ही रहते हैं। बाकी तीन में कर्मलिप्त जीव रहते हैं। नरक के जीवों के चौदह (१४) भेद किये गये हैं। स्वर्ग के जीवों के एकसौ अठानवें (१६८) भेद किये गये हैं और मनुष्य लोक के जीवों के ३०३ मनुष्यों के और ४८ तिर्यंचों के भेद किये गये हैं। मनुष्य लोक के कुछ क्षेत्रों में 'आरों का उपयोग होता है। इसलिए हम यहां मनुष्य लोक के विषय में थोड़ा सा लिख देना उचित समझते हैं। मनुष्य लोक में मुख्यतया ३ खंडों में मनुष्य बसते हैं। १. जम्बू द्वीप, २. धातकी खंड और ३. पुष्करार्द्धद्वीप। जंबुद्वीप की अपेक्षा धातकी खंड दुगुना है और पुष्करार्द्धद्वीप, धातकी खंड की बराबर ही है। यद्यपि पुष्कर द्वीप धातकी खंड से दुगुना है। तथापि उसके आधे हिस्से में ही मनुष्य बसते हैं। इसलिए वह धातकी खंड के बराबर ही माना जाता है। जंबुद्वीप में, भरत, ऐरवत, महाविदेह, हिमवंत, हिरण्यवंत, हरिवर्ष, रम्यकवर्ष, देवकुरू और उत्तर कुरू, ऐसे नौ क्षेत्र हैं। धातकी खंड में इन्हीं नामों के इनसे दुगुने क्षेत्र हैं और धातकी खंड के बराबर ही पुष्करार्द्ध में हैं। इनमें के आरंभ के यानी भरत, ऐरवत और महाविदेह कर्म-भूमि के क्षेत्र हैं और बाकी के 2अकर्म-भूमि के। इन्हीं कर्म भूमि के पंद्रह क्षेत्रों में-पांच भरत, पांच महाविदेह और पांच ऐरवत, इन में आरों का प्रभाव और उपयोग होता है और क्षेत्रो में नहीं। . महाविदेह में केवल चौथा 'आरा' ही सदा रहता है। भरत और ऐरवत में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी का व्यवहार होता है। प्रत्येक आरे में . निम्न प्रकार से जीवों के दुः ख सुख की घटा बढ़ी होती रहती है। १. एकांत सुषमा - इस आरे में आयु तीन पल्योपम तक की होती है। उनके शरीर तीन कोस तक होते हैं। भोजन वे चार दिन में एक बार 1. जहां असि (शस्त्र का) मसि (लिखने पढ़ने का) और कृषि (खेती का) व्यवहार होता है उसे कर्मभूमि कहते हैं। 2. जहां इनका व्यवहार नहीं होता है और कल्प वृक्षों से सब कुछ मिलता है उन्हें अकर्मभूमि कहते हैं। :: श्री तीर्थंकर चरित्र : 301 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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