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का भय न करना। उसके बाद वे पूर्व दिशा की ओर मुखवाला एक सूतिका गृह बनाती हैं। उसमें एक हजार स्तंभ होते हैं। फिर 'संवत' नामका पवन चलाती हैं। उससे सूतिका गृह के एक-एक योजन तक का भाग काँटों और कंकरों रहित हो जाता है। इतना होने बाद ये गीत गाती हुई भगवान के पास बैठती हैं।
इनके बाद मेरु पर्वत पर रहनेवाली उर्ध्वलोक वासिनी, १. मेघंकरा, २. मेघवती, ३. सुमेघा, ४. मेघमालिनी, ५. तोयधारा, ६. विचित्रा, ७. वारिषणा और ८. वलाहिका, नामक आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं। वे भगवान और उनकी माता को नमस्कार कर विक्रिया से आकाश में बादलकर, सुगंधित जल की वृष्टि करती हैं। जिसमें अधोलोक वासिनी दिक्कुमारियों की साफ की हुई एक योजन जगह की धूल नष्ट हो जाती है; वह सुगंध से परिपूर्ण हो जाती है। फिर वे पंचवर्णी पुष्प बरसाती हैं। उनसे पृथ्वी अनेक प्रकार के रंगों से रंगी हुई दिखती है। पीछे वे भी तीर्थंकरो के गुणानुवाद गाती हुई अपने स्थान पर बैठ जाती है।
इनके बाद पूर्व रुचकाद्रि' ऊपर रहनेवाली १. नंदा, २. नंदोत्तरा, ३. आनंदा, ४. नंदिवर्धना, ५. विजया, ६. वैजयंती, ७. जयंती और ८. अपराजिता नामकी आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं। वे भी दोनों को नमस्कार कर अपने हाथों में दर्पण-आईने ले गीत गाती हुई पूर्व दिशा में खड़ी होती हैं।
इनके बाद दक्षिण रुचकाद्रि में रहनेवाली १. समाहारा, २. सुप्रदत्ता, ३. सुप्रबुद्धा, ४. यशोधरा, ५. लक्ष्मीवती, ६. शेषवती, ७. चित्रगुप्ता और ८. वसुंधरा नाम की आठ दिक्कुमारियाँ आती हैं और दोनों माता-पुत्र को नमस्कार कर, हाथों में कंलश ले गीत गाती हुई दक्षिण दिशा में खड़ी रहती हैं।
इनके बाद, पश्चिम रुचकाद्रि में रहनेवाली १. इलादेवी, २. सुरादेवी, ३. पृथ्वी, ४. पद्मावती, ५. एकनासा, ६. अनवमिका, ७. भद्रा, और ८. 1. रुचक नामक १३ वाँ द्वीप हैं। इसके चारों दिशाओं में तथा, चारों विदिशाओं
में पर्वत है। उन्हीं में के पूर्वदिशावाले पर्वत पर रहनेवाली। इसी तरह दक्षिण रुचकाद्रि आदि दिशा विदिशाओं के लिए भी समझना चाहिए।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 311 :