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को आज्ञा दी – 'वीरो! जाओ और उन दुष्टों को शीघ्र ही पकड़कर मेरे सामने लाओ।' . आज्ञा की देर थी। 'मारो' 'पकड़ो' की आवाज से कानों के पर्दे फटने लगे। कोलाहलपूर्ण एक विशाल सेना ने टिड्डीदल की तरह अनंतवीर्य का पीछा किया। अनंतवीर्य ने अपने विद्याबल से सेना बना ली। वह दमितारि की सेना से दुगनी थी। अब घोर संग्राम होने लगा। रणांगण में वीर योद्धा अपनी रणविद्या का परिचय देने लगे। मार काट के सिवाय वहां और कुछ नहीं था। दमितारि की सेना कटते कटते हतोत्साह हो गयी। उसी समय वासुदेव अनंतवीर्य ने अपने पांचजन्य शंख की नाद से शत्रुसेना को बिलकुल ही हतवीर्य कर दिया। . दमितारि अपनी फौज की यह हालत देखकर रथ पर चढ़कर रणांगण में आया। उसने अनंतवीर्य को ललकारा। अनंतवीर्य मी.उससे कब हटनेवाले थे? दोनों वीर अपने-अपने दिव्य शस्त्रों द्वारा युद्ध करने लगे। बहुत देर तक इसी तरह लड़ने के बाद दमितारि ने अपने चक्र का सहारा लिया और उसको चलाने से पहले अनंतवीर्य से कहा – 'रे दुर्मति! अगर जीवन चाहता है तो अब भी कनकधी को मुझे सौंप और मेरी आधीनता स्वीकार कर, वरना यह चक्र तेरा प्राण लिये बिना न रहेगा।'
__ ये वचन सुनकर अनंतवीर्य ने हंसकर उत्तर दिया – 'मूर्ख! तूं किस घमंड में मूला है? मैं तेरे चक्र को काटूंगा, तुझे मारूंगा और तेरी कन्या को लेकर विजय दुंदुभि बजाता हुआ अपनी राजधानी में जाउंगा।' इतना सुनते ही दमितारि ने वासुदेव पर अपना चक्र चला दिया। चक्र अनंतवीर्य के हाथ में आया। अब अनंतवीर्य ने उस चक्र का प्रयोग किया। चक्र ने अपनी करतूत बतलायी। उसने दमितारि का शिरच्छेद कर दिया।
उसी समय आकाश में आकर देवताओं ने विद्याधरों को अनंतवीर्य का प्रभुत्व स्वीकार करने की संमति दी और कहा – 'हे विद्याधरों! यह अनंतवीर्य विष्णु (वासुदेव) है और अपराजित उनका भाई बलभद्र है। इनसे
: श्री शांतिनाथ चरित्र : 112 :