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अपराजित बोला
अनंतवीर्य के दर्शन होंगे।'
कनकश्री बोली 'मेरे ऐसे भाग कहां हैं कि मुझे अनंतवीर्य के दर्शन हों। अगर तूं मुझे उनके दर्शन करा देगी तो मैं जन्मभर तेरा अहसान मानूंगी।'
'भद्रे! शोक मत करो। अगर चाहोगी तो शीघ्र ही
'अच्छा ठहरो! मैं अभी अनंतवीर्य को लाती हूं।' कहकर अपराजित बाहर गया और थोड़ी ही देर में अनंतवीर्य को लेकर वापिस आया। कनकश्री उस अद्भुत रूप को देखकर मुग्ध हो गयी। उसने अपना जीवन अनंतवीर्य को सौंप दिया।
अनंतवीर्य बोला 'कनकंश्री अगर शुभा नगरी की महारानी बनना चाहती हो तो मेरे साथ चलो।' कनकश्री ने उत्तर दिया- 'मेरे बलवान पिता आपको जगत से विदा कर देंगे।'
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अपराजित हंसा और बोला – 'तुम्हारा पिता ही दुनिया में वीर नही है। अनंतवीर्य की विशाल वीर भुजाओं की तलवार तुम्हारा पिता न सह • सकेगा। तुम बेफिक्र रहो और इच्छा हो तो शीघ्र ही शुभा नगरी को चली चलो।' 'मैं तैयार हूं।' कहकर कनकश्री ने अपनी सम्मति दी। 'तब चलो। ' · कहकर अनंतवीर्य राजसभा की और बढ़ा। कनक श्री भी उसके पीछे चली। अपराजित भी असली रूप धर उनके पीछे हो लिया। ये तीनों राजसभा में पहुंचे। राजा और दरबारी सभी उन्हें आश्चर्य के साथ देखने लगे। अनंतवीर्य घनगंभीर वाणी में बोला - हे दमितारि और उसके सुभटो! सुनो! हम अनंतवीर्थ और अपराजित राजकन्या कनकश्री को ले जा रहे हैं। तुमने हमारी दासियां चाही थीं। वे तुम्हें न मिली; मगर आज हम तुम्हारी राजकन्या ले जा रहे है। जिनमें साहस हो वे आवे और हमारा मार्ग रोके । हमने तुम्हें सूचना दे दी है। पीछे से यह न कहना कि हम राजकन्या को चुराकर ले गये।' अनंतवीर्य कनकश्री को उठाकर वहां से चल निकला। अपराजित ने उसका अनुसरण किया।
दमितारि के क्रोध की सीमा न रही। उसने तत्काल ही अपने सुभटों
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 111 :