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________________ यह सुनकर अनंतवीर्य को यद्यपि क्रोध हो आया था, परंतु उसने जहर की चूंट पी ली और गंभीर स्वर में कहा – 'तुम ठीक कहते हो। इसका क्या फल होगा? राजा ने रत्नाभूषण, हाथी, घोड़े आदि बड़ी-बड़ी मूल्यवान वस्तुएँ नहीं मांगी है। मांगी है केवल दासियां। राजा की यह तुच्छ इच्छा भी क्या मैं पूरी न करूंगा? ठहर, मैं अभी ही तेरे साथ दासियों को भेज देता हूं।' विद्या के बल से अनंतवीर्य और अपराजित बर्बरी और किराती का रूप धारण कर दूत के साथ दमितारि की राजसभा में उपस्थित हुए। दूत ने अपने स्वामी को प्रणाम करने के बाद उन दोनों नर्तकियों को हाजिर किया। महाराज ने सौम्य दृष्टि से उनकी तरफ देखा और उनको अपनी कला दिखलाने के लिए कहा। महाराज की आज्ञा से उन नटियों ने अपनी नाट्यकला का अपूर्व . परिचय देना प्रारंभ किया। रंगमंच पर नाना प्रकार के अभिनय दिखाकर उन्होंने दर्शकों के हृदय पर विजय प्राप्त कर ली। उनकी कला में ऐसी निपुणता देखकर दमितारि उत्साह के साथ बोला – 'सचमुच ही संसार में तुम दोनों रत्न के समान हो। हे नटियो! मैं तुम पर प्रसन्न हूं। तुम आनंद से मेरी पुत्री कनकश्री की सखियां बनकर रहो और उसको नृत्य, गान आदि की शिक्षा दो।' पूर्ण यौवना सुंदरी कनकधी को कपटवेषी दोनों भाई अच्छी तरह नाट्यकला सिखाने लगे। बीच बीच में अपराजित अनंतवीर्य के रूप, गुण एवं शौर्य की प्रशंसा कर दिया करता था। एक दिन कनकश्री ने अपराजित से पूछा-'तुम जिसकी प्रशंसा करती हो वह कैसा है? मुझे पूरा हाल सुनाओ।' उसने कहा – 'अनंतवीर्य शुभा नगरी का राजा है। उसका रूप कामदेव के जैसा है। शत्रु का वह काल है, याचकों के लिए वह साक्षात लक्ष्मी है और पीड़ितों के लिए वह निर्भय स्थान है। उसके मैं क्या बखान करूं?' इस तरह अनंतवीर्य की तारीफ सुनकर कनकश्री उसको देखने के लिए लालायित हो उठी। उसके चहरे पर उदासी छा गयी। यह देखकर : श्री शांतिनाथ चरित्र : 110 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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