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स्थान पर गये। उनके जाने के बाद दमितारि ने अपने एक दूत को बुलाया और धीरे से उसको कुछ हुक्म दिया। दूत ने उसी समय शुभा नगरी को प्रस्थान किया और अनंतवीर्य की राजसभा में जाकर कहा – 'राजन्! आपकी सभा में बर्बरी और किराती नाम की जो दासियां हैं। उन्हें हमारे स्वामी दमितारि को मेंट करो, क्योंकि वे गायनवादनकला में अद्भुत है। और जो कोई अनोखी वस्तु अधीनस्थ राजा के यहां हो वह स्वामी के घर पहुंचनी चाहिए।'
. दूत के वचन सुनकर अनंतवीर्य ने कहा – 'हे दूत! तूं जा। हम विचार कर शीघ्र ही जवाब भेजेंगे।' दूत लौट गया और उसने राजा को कहा- 'लक्षण से तो ऐसा मालूम होता है कि वे तुरंत ही दासियों को स्वामी के चरणों में भेज देंगे।' ..
दोनों भाइयों के हृदय में दमितारि की इस अनुचित मांग से क्रोध की ज्वाला जल उठी; मगर दमितारि विद्याबल से बली होने के कारण वे उसको परास्त नहीं कर सकते थे। इसलिए थोड़ी देर चुपचाप सोते रहे। फिर अनंतवीर्य बोला - 'राजा दमितारि अपने विद्याबल से हमें इस प्रकार की घुड़कियां देता है। अगर हमारे पास भी विद्या होती तो उसे कभी ऐसा साहस न होता। अतः हमको भी चाहिए कि हम भी हमारे मित्र विद्याधर की दी हुई विद्या की साधना कर बलवान बनें।'
. वे ऐसा विचार कर ही रहे थे कि प्रज्ञप्ति आदि विद्याएँ प्रकट हुई। उन्होंने निवेदन किया- 'हे महानुभाव! जिन विद्याओं के विषय में आप अभी बातें कर रहे थे, हम वे ही विद्याएँ हैं। आपने हमें पूर्व जन्म में ही हमें साध ली थी। इसलिए अभी हम आपके याद करते ही आपकी सेवा में हाजिर हो गयी हैं। यह सुन दोनों भाइयों को बड़ा आनंद हुआ। विद्याएँ उनके आधीन हुई।
एक दिन दमितारि का दूत आकर राजसभा में बड़े अपमान जनक वचन बोला – 'रे अज्ञान राजा! तूने घमंड में आकर स्वामी की आज्ञा का उल्लंघन किया है और अभी तक अपनी दासियों को नहीं भेजा है। जानता है इसका क्या फल होगा?
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 109 :