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________________ तपस्या के अंत में वह किन्हीं साधु को प्रतिलाभित करने के लिए द्वार पर खड़ी रही। उसे सुव्रतमुनि दिखे। उसने बड़े भक्तिभाव के साथ प्रासुक अन्न से मुनि को प्रतिलाभित किया। फिर उसने धर्मोपदेश सुनने की इच्छा प्रकट की। मुनिजी ने कहा – 'साधु जब मिक्षार्थ जाते हैं तब कहीं धर्मोपदेश देने नहीं बैठते, इसलिए तूं व्याख्यान सुनने उपाश्रय में आना। 'साधु चले गये। श्रीदत्ता व्याख्यान सुनने उपाश्रय में गयी और वहां उसने सम्यक्त्व सहित श्रावकधर्म स्वीकार किया। धर्म पालते हुए एक बार श्रीदत्ता को संदेह हुआ कि मैं धर्म पालती हूं उसका फल मुझे मिलेगा या नहीं? भावी प्रबल होता है। एक दिन जब वह सत्ययशा मुनि को वंदना करके घर लौट रही थी। उस समय उसने विमान पर बैठे हुए दो विद्याधरों को आकाश मार्ग से जाते देखा। उनके रूप को देखकर श्रीदत्ता उन पर मोहित हो गयी। बाद में उसके हृदय में धर्म के प्रति जो संदेह उत्पन्न हुआ था उसको निवारण किये बिना ही वह मर गयी। प्राचीन काल में वैताढ्य गिरि पर शिवमंदिर नामक बड़ा समृद्धि शाली नगर था। उसमें विद्याधरों का शिरोमणि कनक पूज्य नामक राजा राज्य करता था। उसकी वायुवेगा नामकी धर्मपत्नी थी। उस दंपती का मैं कीर्तिधर नामक पुत्र हुआ। मेरी अनिलवेगा नाम की एक धर्मपत्नी थी। उसकी कोख से दमितारि नामक पुत्र हुआ। एक समय विहार करते हुए भगवान शांतिनाथ मेरे नगर की ओर होकर निकले और नगर के बाहर उपवन में विराजमान हुए मैंने भगवान का आगमन सुन, दौड़कर दर्शन किये। दर्शन मात्र से मुझे संसार से वैराग्य उत्पन्न हो गया और मैं दीक्षा लेकर इस पर्वत पर आया और तप करने लगा। अब घातिया कर्मों के नाश होने पर मुझे केवल ज्ञान प्राप्त हुआ है। उधर दमितारि की मदिरा नाम की रानी की कोख से श्रीदत्ता का जीव उत्पन्न हुआ और तुम उसकी पुत्री कनकश्री के रूप में विद्यमान हो। जिन धर्म के विषय में तुम्हें संदेह हुआ इसी कारण से तुम्हें यह दुःख भोगना पड़ा है।' : श्री शांतिनाथ चरित्र : 114 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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