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मुनि से अपने पूर्व भव की कथा सुनते ही कनकश्री को वैराग्य उत्पन्न हो गया। वह विनय पूर्वक अपने पति से निवेदन करने लगी - 'प्राणेश! उस जन्म में मैंने ऐसे दुष्कृत्य किये जिससे ये फल भोग रही हूं। न जाने आगे क्या होने वाला है। इसलिए मुझे शीघ्र ही दीक्षा ग्रहण करने की आज्ञा प्रदान कीजिए।' अपनी प्रिया की यह प्रार्थना सुनकर अनंतवीर्य को बड़ा विस्मय हुआ। तो भी उसने कहा – 'प्रिये! अपने नगर में चलकर स्वयंप्रम भगवान से दीक्षा लेना।' कनकश्री ने पति की बात मान ली।
सबके साथ अनंतवीर्य अपनी राजधानी में पहुंचा। वहां जाकर क्या देखता है कि, दमितारि की पहले भेजी हुई सेना से घिरा हुआ उसका पुत्र अनंतसेन बड़ी वीरता से लड़ रहा है। इस तरह अपने भतीजे को शत्रु के चंगुल में देखकर अपराजित को बड़ा क्रोध आया। उसने क्षणभर में सारी सेना को मार भगाया। फिर वासुदेव ने सबके साथ नगर में प्रवेश किया। बड़े समारोह के साथ अनंतवीर्य का अर्द्ध-चक्रिपने का अभिषेक हुआ।
एक समय विहार करते हुए स्वयंप्रभु भगवान स्वेच्छा से शुभा नगरी के बाहर उद्यान में आकर ठहरे। सब लोग दर्शनों को गये। कनकश्री ने इस समय अपने पति की आज्ञा से दीक्षा ग्रहण कर ली। उसी दिन से वह तप करने लगी और उसने क्रम से एकावली, मुक्तावली, कनकावली, भद्र, महाभद्र और सर्वतोभद्र इत्यादि तप किये। अंत में वह केवलज्ञान प्राप्त कर मोक्ष गयी। . वासुदेव अनंतवीर्य अपने भाई अपराजित के साथ राज्यलक्ष्मी भोगने लगे। अपराजित की वीरता नाम की एक स्त्री थी। उससे सुमति नाम की एक कन्या उत्पन्न हुई। वह बाल्यावस्था से बड़ी धर्मनिष्ठा थी। वह आवक के बारह व्रत अखंड पालन करती थी। एक दिन वह उपवास के उपरांत पारणा करने बैठने ही वाली थी कि उसे द्वार की तरफ से एक मुनि आते हुए दिखे। उसने झट उठते ही, अपने ही थाल के अन्न से मुनि को प्रतिलामित किया। उसी वक्त वहां वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट हुए। 'त्यागी । महात्माओं को दिया हुआ दान अनंतगुणा फलदायी होता है।' मुनि वहां से
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 115 :