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________________ पीड़ित करेगी और दाह के दुःख से छः महीने के अंदर तूं छद्मस्थ ही मर जायगा !' महावीर बोले- 'हे गोशालक ! मैं छः महीने के अंदर न मरूंगा। मैं सोलह बरस तक और भी तीर्थंकर पर्याय में विचरण करूंगा। मगर तुम खुद ही सात दिन के अंदर पित्तज्वर से पीड़ित होकर कालधर्म को प्राप्त करोगे!' गोशालक को तेजोलेश्या का प्रतिघात हुआ। वह स्तब्ध हो रहा। महावीर स्वामी ने अपने शिष्यों से कहा - 'हे आर्यो! गोशालक जलकर राख बने हुए काष्ठ की तरह निस्तेज हो गया है। अब इससे धार्मिक प्रश्न करके इसको निरुत्तर करो। अब क्रोध करके यह तुम्हें कुछ नुकसान न पहुंचा सकेगा।' श्रमण निग्रंथों ने धार्मिक प्रतिचोदना (गोशालक के मत से प्रतिकूल प्रश्न) करके गोशालक को निरुत्तर किया। संतोषकारक उत्तर देने में असमर्थ होकर गोशालक बहुत खीझा। उसने निर्ग्रथों को हानि पहुंचाने का बहुत प्रयत्न किया; परंतु न पहुंचा सका। इसलिए अपने बालों को खींचता और पैर पछाड़ता हुआ हालाहल कुम्हारिन के घर चला गया। श्रावस्ती नगरी में यह बात चारों तरफ फैल गयी। लोग बातें करने लगे- 'नगर के बाहर कोष्ठक चैत्य में दो जिन परस्पर विवाद कर रहे हैं। एक कहते हैं 'तुम पहले मरोगे!' दूसरे कहते हैं - 'तुम पहले मरोगे!' इनमें सत्यवादी कौन है और मिथ्यावादी कौन है? कई महावीर को सत्यवादी बताते थे और कई गोशालक को सत्यवादी कहते थे; परंतु सात दिन के बाद जब गोशालक का देहांत हुआ तब सबको विश्वास हो गया कि महावीर ही सत्यवादी है। 1. गोशालक महावीर स्वामी के पास से निकलकर हालाहला कुम्हारिन के यहां आया। मद्य पीने लगा। बर्तनों के लिए तैयार की हुई मिट्टी उटा उठाकर अपने शरीर पर चुपड़ने लगा। जमीन पर लोट कर आक्रंदन करने लगा। उसकी हालत पागल की सी हो गयी। पुत्रा नाम का एक पुरुष गोशालक का भक्त था। वह रात के पहले और पिछले पहर में धर्म-जागरण किया करता था। एक दिन उसको शंका हुई कि हल्ला (कीट विशेष) 'का संस्थान कैसा होगा? चलूं अपने सर्वज्ञ गुरु से पूछें। .: श्री तीर्थंकर चरित्र : 273 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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