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सुदी ३ के दिन श्रेयांस कुमार का दिया हुआ यह दान अक्षय हुआ। इससे वह दिन पर्व हुआ और अक्षय तृतीया के नाम से ख्याति पाया। यह पर्वत्योहार आज भी प्रसिद्ध है। संसार में अन्यान्य व्यवहार भगवान श्रीऋषभदेव ने चलाये, मगर दान देने का व्यवहार श्रेयांसकुमार ने प्रचलित किया।
दुंदुभिनाद से और रत्नादि की वृष्टि से नगर के नर-नारी श्रेयांस के महल की ओर आने लगे। कच्छ और महाकच्छ आदि कुछ तापस भी, जो उस समय दैववशात् हस्तिनापुर आये थे, प्रभु के पारणे की बात सुनकर वहां आ गये। सबलोगों ने श्रेयांसकुमार को धन्यधन्य कहा, उसके पुण्य को संराहा और प्रभु को उपालंभ देते हुए कहा – 'हमारा, यद्यपि प्रभु ने पहिले पुत्रवत् पालन किया था, तथापि हमसे कोई पदार्थ भेट में नहीं लिया। हमने कितना अनुनय विनय किया, कितनी आर्त प्रार्थनाएँ की तो भी प्रभु हमारे पर दयालु नहीं हुए, परंतु तुम्हारी बात उन्होंने सहसा मान ली। तुम्हारी दी हुई भेट प्रभु ने तत्काल ही स्वीकार कर ली।
श्रेयांस कुमार ने उत्तर दिया - 'तुम प्रभु के ऊपर दोष न लगाओ। वे पहले की तरह अब राजा नहीं है। वे इस समय संसार-विरक्त, सावद्यत्यागी यति है। तुम्हारी भेट की हुई चीजें संसार भोगी ले सकता है, यति नहीं। सजीव फलादि भी प्रभु के लिए अग्राम है। इन्हें तो हिंसक ग्रहण कर सकता है। प्रभु तो केवल ४२ दोषरहित, एषणीय, कल्पनीय और प्रासुक अन्न ही ग्रहण कर सकते हैं।'
उन्होंने कहा – 'युवराज! आजतक प्रभु ने कभी यह बात नहीं कही थी। तुमने कैसे जानी?'
श्रेयांस कुमार बोले – 'मुझे भगवान के दर्शन करने से जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। सेवक की भांति मैं आठ भव से प्रभु के साथ साथ स्वर्ग और मृत्युलोक सभी स्थानों में रहा हूं। इस भव से तीन भव पहले भगवान विदेह भूमि में उत्पन्न हुए थे। वे चक्रवर्ती थे और मैं इनका सारथि था। इनका नाम वज्रनाभ था। उस समय इनके पिता वज्रसेन तीर्थंकर हुए थे। इन्होंने बहुत काल तक भोग भोगकर दीक्षा ली। मैंने भी इन्हीं के साथ दीक्षा ले ली। जब हमने दीक्षा ली थी तब भगवान वज्रसेन ने कहा था कि,
: श्री आदिनाथ चरित्र : 30 :