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वज्रनाभ का जीव भरतखंड में प्रथम तीर्थंकर होगा। उस समय साधुओं को कैसा आहार दिया जाता है सो मैंने देखा था । मैंने खुद ने भी शुद्ध आहार ग्रहण किया था। इसलिए मैं शुद्ध आहार देने की रीति जानता था। इसीसे मैं प्रभु को शुद्ध आहार दिया और प्रभु ने ग्रहण किया।' लोग ये बातें सुनकर प्रसन्न हुए और आनंदपूर्वक अपने घर चले गये।
प्रभु वहां से विहारकर अन्यत्र चले गये । श्रेयांसकुमार ने जिस स्थान पर प्रभु ने आहार किया था वहां एक स्वर्ण- वेदी बनवायी और वह उसकी भक्तिभाव से पूजा करने लगा।
एक बार विहार करते हुए प्रभु बाहुबलि देश में, बाहुबलि के तक्षशिला नगर के बाहर उद्यान में आकर ठहरे। उद्यान-रक्षक ने ये समाचार बाहुबलि के पास पहुंचाए । बाहुबलि अत्यंत हर्षित हुए। उन्होंने प्रभु का स्वागत करने के लिए अपने नगर को सजाने की आज्ञा दी। नगर सजकर तैयार हो गया। बाहुबलि आतुरतापूर्वक दिन निकलने की प्रतीक्षा करने लगे और विचार करने लगें कि, सवेरे ही मैं प्रभु के दर्शन से अपने को और पुरजनों को पावन करूंगा। इधर प्रभु सवेरा होते ही प्रतिमास्थित समाप्त कर (समाधि छोड़) पवन की भांति अन्यत्र विहार कर गये।
बाहुबलि सवेरे ही अपने परिवार और नगरवासियों सहित बड़े जुलूस के साथ प्रभु के दर्शन करने को रवाना हुए। मगर उद्यान में पहुंचकर उन्हें मालूम हुआ कि प्रभु तो विहार कर गये हैं। बाहुबलि को बड़ा दुःख . हुआ। तैयार होकर आने में वक्त खोया इसके लिए वे बड़ा पश्चात्ताप करने लगे। मंत्रियों ने उन्हें समझाया और कहा - 'प्रभु के चरणों के वज्र, अंकुश चक्र, कमल, ध्वज और मत्स्य के जिस स्थान पर चिह्न हो गये हैं उस स्थान के दर्शन करो और भावसहित यह मानो कि, हमने प्रभु के ही दर्शन किये हैं।' बाहुबलि ने अपने परिवार और पुरजनों सहित उस जगह वंदना की और उस स्थान का कोई उल्लंघन न करे इस खयाल से उन्होंने वहां रत्नमय धर्मचक्र स्थापन किया। वह आठ योजन विस्तार वाला, चार योजन ऊंचा और एक हजार आरों वाला था। वह सूर्यबिंब की भांति सुशोभित था।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 31: