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बाहुबली ने वहां अठाई महोत्सव किया। अनेक स्थानों से लाये हुए पुष्प वहां चढ़ाए। उनसे एक पहाड़ीसी बन गयी। फिर बाहुबलि नित्य उसकी पूजा
और रक्षा करनेवाले लोगों को वहां नियत कर, चक्र को नमस्कार कर, नगर में चला गया।
प्रभु तप में निष्ठा रखते हुए विहार करने लगे। भिन्न-भिन्न प्रकार के अभिग्रह करते थे। मौन धारण किये हुए यवनाडंब आदि म्लेछदेशों में भी प्रभु विहार करते थे और वहां के रहने वाले निवासियों को अपने मौनोपदेश से भद्रिक बनाते थे। अनेक प्रकार के उपसर्ग और परिसह सहन करते हुए प्रभु ने एक हजार वर्ष पूर्ण किये।
प्रभु विहार करते हुए अयोध्या नगरी में पहुंचे। वहां पुरिमताल नामक उपनगर की उत्तर दिशा में शकटमुख नामक उद्यान था उसमें गये। वहां अष्टम तप कर प्रतिमारूप में रहे। प्रभु ने वहां अपूर्वकरणं (आठवां) गुणस्थान में आरूढ़ हुए। प्रभु ने 'सविचार पृथकत्व वितर्क' युक्त शुक्ल ध्यान के प्रथम पाये को प्राप्त किया। उसके बाद 'अनिवृत्ति' (नवां) गुणस्थान तथा 'सूक्ष्म संपराय' (दसवां) गुणस्थान को प्राप्त किया और क्षण भर में प्रभु उसी ध्यान से लोभ का हननकर क्षीणकषायी हुए। तत्पश्चात् 'एकत्वश्रुत अविचार' नाम के शुक्ल ध्यान के दूसरे पाये को प्राप्त कर अंत्य क्षण में, तत्काल ही प्रभु ने 'क्षीणमोह' (बारहवें) गुणस्थान को पाया। उसी समय प्रभु के पांच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पांच अंतराय कर्म भी नष्ट हो गये। प्रभु के घातिया कर्म का हमेशा के लिए नाश हो गया।
इस तरह व्रत लेने के बाद एक हजार वर्ष बीतने पर फाल्गुन मास की कृष्णा ११ के दिन, चंद्र जब उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में आया था तब, सवेरे ही तीन लोक के पदार्थों को बताने वाला, त्रिकाल-विषयकज्ञान केवलज्ञान प्राप्त हुआ। उस समय दिशाएँ प्रसन्न हुई। वायु सुखकारी बहने लगा। नारकी के जीवों को भी क्षण भर के लिए सुख हुआ।
इंद्रादिक देवों ने आकर प्रभु का केवल ज्ञानकल्याणक किया। समवसरण की रचना हुई। सब प्राणी धर्मदेशना सुनने के लिए बैठे।
: श्री आदिनाथ चरित्र : 32 :