SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 46
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ राजा भरत सदैव सवेरे ही उठकर अपनी दादी मरुदेवा माता के चरणों को नमस्कार करने जाते थे। मरुदेवा माता पुत्रवियोग में रो-रोकर अंधी हो गयी थी। भरत ने जाकर दादी के चरणों में सिर रखा और कहा'आपका पौत्र आपको प्रणाम करता है।' मरुदेवा ने भरत को आशीर्वाद दिया। उनकी आंखों से जल, धारा वह चली। हृदय भर आया। वे भराई हुई आवाज में प्रतिदिन ऐसे ही बोलती थी। ___ 'मरत! मेरी आंखों का तारा! मेरा लाड़ला। मेरे कलेजे का टुकड़ा ऋषभ मुझे, तुझे, समस्त राज्य-संपदा को, प्रजा को और लक्ष्मी को तण की भांति निराधार छोड़कर चला गया। हाय! मेरा प्राण चला गया; परंतु मेरी देह न गिरी। हाय! जिस मस्तक पर चंद्रकांति के समान मुकुट रहता था आज वही मस्तक सूर्य के प्रखर आताप से तप्त हो रहा है। जिस शरीर पर दिव्य वस्त्रालंकार सुशोभित होते थे वही शरीर आज डाँस, मच्छरादि जंतुओं का खाद्य और निवासस्थान हो रहा है। जो पहले रत्नजटित सिंहासन पर आरूढ़ होता था उसीके लिए आज बैठने को भी जगह नहीं है। वह गेंडे की तरह खड़ा ही रहता है। जिसकी हजारों सशस्त्र सैनिक रक्षा करते थे वही आज असहाय, सिंहादि हिंस्र पशुओं के बीच में विचरण करता है। जो सदैव देवताओं का लाया हुआ भोजन जीमता था उसे आज भिक्षान्न भी कठिनता से मिलता है। जिसके कान अप्सराओं के मधुर गायन सुनते थे वही आज सर्पो की कर्णकटु फूत्कार सुनता है। कहां उसका पहले का सुखवैभव और कहां उसकी वर्तमान भिक्षुक स्थिति! उसका उज्ज्वल, कमलनालसा सुकुमार शरीर आंज सूर्य के प्रखर आताप, शीतकाल के भयंकर तुषार और वर्षाऋतु के कठोर जलपात को सहकर काल और रुक्ष हो गया है। उसके भरे हुए गाल और उसका विकसित वदन सूख गये हैं। उसका वह सूखा हुआ मुंह हर समय मेरी आंखों के सामने फिरा करता है। हाय! मेरे लाल! तेरी क्या दशा है? भरत का भी हृदय भर आया। वे थोड़ी देर स्थिर रहे। आत्मसंवरण : श्री तीर्थंकर चरित्र : 33 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy