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किया और फिर बोले – 'देवी! धैर्य के पर्वत समान, वज्र के साररूप, महापराक्रमी, मनुष्यों के शिरोमणि, इंद्र जिनकी सेवा करते हैं ऐसे मेरे पिता की माता होकर आप ऐसा दुःख क्यों करती हैं? वे संसार सागर को पार करने के लिए उद्यम कर रहे हैं। हम उनके लिए विघ्न थे। इसलिए उन्होंने हमारा त्याग कर दिया है। भयंकर जीवजंतु उनको पीड़ा नहीं पहुंचा सकते। वे तो प्रभु को देखते ही पाषाणमूर्ति की भांति स्थिर हो जाते हैं। क्षुधा, तृषा, शीत, आतप और वर्षादि तो उनको हानि न पहुंचाकर उल्टे उनको, कर्म-शत्रुओं को नाश करने में, सहायता देते हैं। आप, जब उन्हें केवल ज्ञान प्राप्त होते की बात सुनेंगी तब मेरी बात पर विश्वास करेंगी।''
__ और उस दिन राज सभा में यमक और शमक नामके दो व्यक्ति आये। यमक ने नमस्कार कर निवेदन किया – 'महाराज! आज पुरिमताल उपनगर के शकटमुख नामक उद्यान में युगादि नाथ को केवल ज्ञान उत्पन्न हुआ है।' शमक ने निवेदन किया – 'स्वामिन! आपकी आयुधशाला में आज चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है।'
भरत विचार करने लगे कि, पहले मुझे किसकी पूजा करनी चाहिए। अंत में उन्होंने प्रभु की ही पूजा करने के लिए जाना स्थिर किया। यमक
और शमक को पुरस्कार देकर विदा किया। फिर वे मरुदेव माता के पास जाकर बोले – 'माता! आप हमेशा कहती थी कि, मेरा पुत्र दुःखी है। आज चलकर देखिए कि, आपका पुत्र कैसा सुख संपत्तिवाला है।'
मरुदेवा माता को हस्तिपर सवार कर अपने परिजन सहित भरत प्रभु को वंदन करने के लिए चले। दूर से भरत ने समवसरण का रत्नमयगढ़ देखकर कहा- 'माता! देवी और देवताओं के बनाये हुए प्रभु के इस समवसरण को देखिए, पिताजी की चरणसेवा के उत्सुक देवताओं का जयनाद सुनिये, आकाश में बजते हुए दुंदुभि की ध्वनि श्रवण कीजिए, ग्राम (राग का उठाव) और राग से पवित्र बनी हुई प्रभु का यशोगान करनेवाली गंधर्षों की हर्षोत्पादिनी गीती कर्णगोचर कीजिए।' '
पानी के प्रबल प्रवाह से जैसे अनेक दिनों का जमा हुआ कचरा भी
: श्री आदिनाथ चरित्र : 34 :