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साफ हो जाता है, उसी तरह आनंदाश्रु के प्रबल प्रवाह से मरुदेवा माता की आंखों में आये हुए जाले साफ हो गये। उन्हें स्पष्ट रूप से दिखायी देने लगा। उन्होंने अतिशय सहित तीर्थंकरों के समवसरण-वैभव को देखा। उन्हें बड़ा आनंद हुआ। वे प्रभु के उस सुख में तल्लीन हो गयी। और सोचा, कौन पुत्र? कौन माता? कोई किसीका नहीं?' मैं इसके मोह में पागल बनी थी? यह तो निस्पृही है। मुझे इस संसार से क्या लेना देना? इस प्रकार के विचारों से तत्काल ही समकाल में अपूर्वकरण के क्रम से क्षपकश्रेणी आरूढ़ हुई, घातिया कर्मों का नाश होने से उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। वे अंतकृत केवली हुई। उसी समय उनके आयु आदि अघाति कर्म भी नाश हो गये। उनकी आत्मा हाथी के होदे में ही देह को छोड़कर मोक्ष में चली गयी। इस अवसर्पिणी काल में मरुदेवी माता सबसे प्रथम सिद्ध हुई। देवताओं ने उनके शरीर को, सत्कार करके क्षीर-समुद्र में निक्षिप्त किया - डाला।
. मरत समवसरण में पहुंचे। प्रभु के तीन प्रदक्षिणा दे, प्रणामकर इंद्र . के पीछे जा बैठे। भगवान ने सर्व भाषाओं को स्पर्श करने वाली (अर्थात् सभी अपनी-अपनी भाषा में समझ सके ऐसी) पैंतीस अतिशयवाली और योजनगामिनी वाणी से देशना दी। उसमें संसार का स्वरूप और उससे छूटने का उपाय बताया तथा सम्यक्त्व के प्रकारों, पंच महाव्रत और श्रावक के बारह व्रतों का विवेचन किया।
प्रभु की देशना सुनकर भरत राजा के पुत्र ऋषभसेन ने भरत के अन्यान्य पांच सौ पुत्रों और सात सौ पौत्रों सहित दीक्षा ले ली। भरत के पुत्र मरीची ने भी दीक्षा ली। ब्राह्मी ने भी उसी समय दीक्षा ले ली। सुंदरी ने भी दीक्षा लेना चाहा; परंतु भरत ने आज्ञा नहीं दी। इसलिए वह श्राविका हुई। भरत ने भी श्रावक के व्रत ग्रहण किये। मनुष्य तिर्यंच और देवताओं की पर्षदा में से, कइयों ने मुनिव्रत ग्रहण किया, कई श्रावक बनें और कइयों ने केवल सम्यक्त्व ही धारण किया। तापसों में से कच्छ और महाकच्छ को छोड़कर और सभी ने प्रभु के पास आकर फिर से दीक्षा ले ली। उसी समय से ऋषभसेन (पुंडरीक) आदि साधुओं, ब्राह्मी आदि साध्वियों, भरत आदि
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 35 :