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________________ कहीं न पशुओं का संचार था न पक्षियों की उड्डान। वृक्ष और लताएँ सूख गये थे। जलस्रोत बहते बंद हो गये थे और भूमि कंटकाकीर्ण हो गयी थी। ऐसी भयावनी जगह में महावीर ध्यानस्थ हो कर रहे। सर्प को महावीर का आना मालूम हुआ। उसने प्रभु के सामने जाकर बिजली के समान तेजवाली दृष्टि डाली, मगर जैसे मिट्टी में पड़कर बिजली निकम्मी हो जाती है वैसे ही उसकी विष-दृष्टि निकम्मी हो गयी। सर्प के हृदय में आघात लगा। वह सोचने लगा, आज ऐसा यह कौन आया है कि जिसने मेरे प्राणहारी दृष्टि विष के प्रभाव को निरर्थक कर दिया है। अच्छा, देखता हूं कि मेरे काटने पर यह कैसे बचता है! सर्प ने जोर से महावीर के पैरों में काटा, फिर यह सोचकर वह दूर हट गया कि यह हृष्ट पुष्ट देह, जहर का असर होने पर कहीं मुझी पर न आ पड़े! महावीर स्वामी के पैर से बूंदें निकली। आश्चर्य था कि वे रक्त की बूंदे दुग्ध के समान सफेद थीं। चंडकौशिक ने और भी जोर से, अपनी पूरी ताकात लगाकर, महावीर स्वामी के पैरों में दांत गाड़े, जितना जहर था, सारा उगल दिया और तब दूर हट गया। दांत लगे हुए स्थान से दो पतली धाराएँ बहीं। एक थी सफेद रक्त की और दूसरी थी नीली जहर की सर्प हैरान था, क्रुद्ध था, बेबस था। उसने नासिका के अग्रभाग पर जमी हुई आंखों को देखा, उनमें विश्वप्रेम का अमृत भरा हुआ था। सर्प ने वह अमृत पान किया। उसके हृदय की कलुषता जाती रही। महावीर कायोत्सर्ग पार कर बोले – 'हे चंडकौशिक! समझ, विचारकर, मोहमुग्ध न हो।' - कलुषताहीन हृदय में महावीर स्वामी के इस उपदेश ने मानों बंजर भूमि को उर्वरा बना दिया। विचार करते करते उसे जातिस्मरण ज्ञान हो आया। उसको अपने पूर्वभवों की भूलों का दुःख हुआ। उसने शेष जीवन आत्मध्यान में, अनशन करके बिताना स्थिर किया। महावीर स्वामी को प्रदक्षिणा देकर उसने अपना मुंह, इस खयाल से एक बिल में डाल दिया कि कहीं मेरी नजर से प्राणी न मर जाये। झाड़ों पर चढ़कर गवालों के लड़कों ने देखा कि, महावीर स्वामी अभी जिंदा है और सर्प सिर नीचा किये उनके सामने पड़ा है। लड़कों ने समझा यह कोई भारी महात्मा मालूम होता है। : श्री तीर्थंकर चरित्र : 225 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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