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उन्होंने दूसरे गवालों को यह बात कही। उन्हें भी कुतूहल हुआ। वे डरतेडरते उस तरफ गये और दूर झाड़ की आड़ में खड़े होकर पत्थर फैंकने लगे। मगर पत्थर खाकर भी सर्प जब न हिला तब उन लोगों को विश्वास हो गया कि सर्प निकम्मा हो गया है। यह बात सब तरफ फैल गयी। वह रस्ता चालू हो गया। आते जाते लोग महावीर स्वामी को और सर्प को नमस्कार कर कर जाते। कई गवालों की स्त्रियां सर्प को स्थिर देख उसके शरीर पर घृत लगा गयी। उससे अनेक कीड़ियां आकर घृत खाने लगी। घी के साथ ही साथ उन्होंने सर्प के शरीर को भी खाना आरंभ कर दिया। मगर सर्प यह सोचकर हिला तक नहीं कि, कहीं मेरे शरीर के नीचे दबकर कोई कीड़ी मर न जाय। वह इस पीड़ा को अपने पापोदय का कारण समझ चुपचाप सहता रहा। कीड़ियों ने उसके शरीर को छलनी बना दिया। एक कीड़ी अगर हमें काट खाती है तो कितनी पीड़ा होती है? मगर सर्प ने पंद्रह दिन तक वह दुःख शांति से सहा और अंत में मकर सहस्रार देवलोक में देवता हुआ।
चंडकौशिक का उद्धारकर महावीर स्वामी उत्तर वाचाल नामक गांव में आये और एक पखवाड़े का पारणा करने के लिए गोचरी लेने निकले। फिरते हुए नागसेन नामा गृहस्थ के घर पहुंचे। उस दिन नागसेन बड़ा प्रसन्न था, क्योंकि उसी दिन उसका कई बरसों से खोया हुआ लड़का वापिस आया था। उसने इसको धर्म का प्रभाव समझा और महावीर स्वामी को दूध से प्रतिलामित किया। देवताओं ने उसके घर वसुधारादि पांच दिव्य प्रकट किये।
__उत्तर वाचाल से विहारकर प्रभु श्वेतांबी नगरी पहुंचे। प्रभुनगर के बाहर रहे। श्वेतांबी का 'प्रदेशी' नामक राजा जिनभक्त था। वह सपरिवार वंदना करने आया था। सुद्रंष्ट्र नागकुमार का उपद्रव :
महावीर स्वामी विहार करते हुए सुरभिपुर की तरफ चले। रास्ते में गंगा नदी आती थी। उसको पार करने के लिए सिद्धदंत नाम के नाविक की नौका तैयार थी। दूसरे मुसाफिरों के साथ महावीर स्वामी भी नौकापर बैठे।
: श्री महावीर चरित्र : 226 :