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________________ नौका चली, उस समय किनारे पर उल्लू बोला। मुसाफिरों में क्षेमिल नाम का शकुनशास्त्री भी था। उसने कहा 'आज हमको रास्ते में मरणांत कष्ट होगा; परंतु इन महात्मा की कृपा से हम बच जायेंगे । ' नौका बहते हुए पानी पर नाचती हुई चली जा रही थी। रास्ते में सुद्रंष्ट्र नामक नागकुमार देव ने अवधिज्ञान से जाना कि, ये जब त्रिपृष्ठ वासुदेव थे तब मैं सिंह था। उन्होंने उस समय मुझे बेमतलब मार डाला था। फिर उसने प्रभु को • डुबाकर मार डालना स्थिर किया। उसने संवर्तक नाम का महावायु चलाया। इससे तटों के झाड़ उखड़ गये, कई मकान गिर पड़े। नौका ऊंची उछल उछलकर पड़ने लगी। मारे भय के मुसाफिरों के प्राण सूखने लगे और वे अपने इष्ट देव को याद करने लगे। महावीर शांत बैठे थे। उनके चहरे पर भय का कोई चिह्न नहीं था। उन्हें देखकर दूसरे मुसाफिरों के हृदय में भी कुछ धीरज थी। नौका डूबूं डूबूं हो रही थी, उस समय कंबल और संबल' नाम के दो देवों ने अरिहंत पर होते उपसर्ग को देखकर नौका को सुरक्षित नदी के तीर पर पहुंचा दिया और धर्म का पालनकर प्रसन्नता अनुभव की । 1. मथुरा में. जिनदास नाम का एक सेठ रहता था। उसके साधुदासी नाम की स्त्री थी। उन्होंने परिग्रह-परिमाण का व्रत लिया था। उसमें ढोर पालने का भी पच्चक्खाण था। इसलिए वे गाय भैंस नहीं पालते थे। दूध एक अहीरण के यहां से मोल लेते थे। अहीरण नियमित अच्छा दूध देती थी। सेठानी उससे बहुत स्नेह रखती थी। और अक्सर उसको वस्त्रादि दिया करती थी। एक बार अहीरन के यहां विवाह का अवसर आया। नियमों के कारण जिनदत्त और साधुदासी न गये; परंतु विवाह के लिए जो सामान चाहिए सो दिया । इस उपकार का बदला चुकाने के लिए अहीर अहीरन उनके यहां बैलों के बछड़ों की एक सुंदर जोड़ी, सेठ सेठानी की इच्छा न होते हुए भी, बांध गये। बैलों का नाम कंबल और शंबल था। सेठ ने उन्हें अपने बालकों की तरह रखा। उनसे कभी कोई काम न लिया। एक बार शहर में मंडखिण नाम के किसी यक्ष का मेला था। उसमें लोग अक्सर पशुओं को दौड़ाने की क्रीड़ा किया करते थे। जिनदास का एक मित्र उस दिन चुपचाप कंबल और शंबल को खोल ले गया। बेचारे बैल कभी जुते : श्री तीर्थंकर चरित्र : 227 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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