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में गवालों के लड़के मिले। उन्होंने कहा – 'हे देवार्य! यह रास्ता सीधा श्वेतांबी जाता है; परंतु रास्ते में 'कनकखल' नाम का तापसों का आश्रम है। उसमें एक दृष्टि विष सर्प रहता है। उसके विष की प्रबलता के कारण पशु पक्षी तक इस रास्ते में नहीं जा सकते, मनुष्यों की तो बात ही क्या है? इसलिए आप इस रास्ते को छोड़कर उस दूसरे रास्ते से जाइए।'
प्रभु ने अवधिज्ञान से सर्प को पहचाना' और उसका उद्धार करने के लिए उसी तरफ से जाना स्थिर किया। प्रभु जाकर चंडकौशिक के आश्रम में रहे। आश्रम के आसपास का सारा भूमिभाग भयंकर हो गया था। 1. यह सर्प पूर्व भव में एक साधु था। एक बार पारणे के दिन गोचरी के लिए
क्षुल्लक के साथ गया। रास्ते में अजयणा से एक मेंढक मर गया।. क्षुल्लक ने कहा – 'महाराज आपके पैरों तले एक मेंढक मर गया है!'. साधु नाराज होकर बोला – 'यहां बहुत से मेंढक मरे पड़े हैं। क्या सभी मेरे पैरों तले दबकर मरे हैं?' क्षुल्लक यह सोचकर मौन हो रहा कि शाम को प्रतिक्रमण के समय महाराज इसकी आलोचना कर लेंगे।' मगर प्रतिक्रमण के समय भी साधु ने आलोचना नहीं की। तब क्षुल्लक ने मेंढक की बात याद दिलायी। इसको साधु ने अपना अपमान समझा और वह क्षुल्लक को मारने दौड़ा। अंधेरा था। मकान के बीच का थंभा साधु को न दिखा। थंभे से टकाराकर साधु का सिर फूट गया और वह साधुता की विराधना से मर। पूर्व तपस्या के कारण ज्योतिष्क देव हुआ। वहां से च्यवकर कनकखल नामक स्थान में पांच सौ तपस्वियों के कुलपति के घर जन्मा। नाम कौशिक रखा गया। वहां के तापसों का गोत्र भी कौशिका था। इसलिए सामान्य तया सभी कौशिक कहलाते थे। वह बहुत क्रोधी था, इससे इसका नाम 'चंडकौशिक' हुआ। चंडकौशिक का पिता मर गया तब वह खुद कुलपति हुआ। चंडकौशिक को अपने वन खंड पर बहुत मोह होने से वह किसी को वहां से, फल, पत्र, पुष्प आदि लेने नहीं देता था। इससे सभी तापस नाराज होकर वहां से चले गये। एक दिन वह कहीं गया हुआ था तब कुछ राजकुमार श्वेतांबी नगरी से आकर वन के फल, पुष्पादि तोड़ने लगे। वापिस आकर उसने इन लोगों को देखा और वह कुल्हाडी लेकर उन्हें मारने दौड़ा। रास्ते में पैर फिसलकर एक खड्डे में गिरा, उसके हात की कुल्हाड़ी उसके सिर पर पड़ी। सिर फूट गया और मरकर वहीं दृष्टि विष सर्प हुआ। उधर से जो कोई जाता वह उसकी दृष्टि के विष से मर जाता।
: श्री महावीर चरित्र : 224 :