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मिलनी भी कठिन हो गयी। यह देखकर अच्छंदक को बड़ा दुःख हुआ। वह प्रभु के पास आया और दीन वाणी में बोला – 'हे दयालु! आपकी तो जहां जायेंगे वहीं पूजा होगी; परंतु मेरे लिये तो इस गांव को छोड़कर अन्यत्र कहीं स्थान नहीं है। इसलिए आप दया कर कहीं दूसरी जगह चले जाइए।'
प्रभु ने यह अभिग्रह ले ही रखा था कि, जहां अप्रीति उत्पन्न होगीमेरे कारण किसी को दुःख होगा - वहां मैं नहीं रहूंगा। इसलिए वे तुरत वहां से उत्तर वाचाल नामक गांव की तरह विहार कर गये।
महावीर स्वामी विहार करते हुए श्वेतांबी नगरी की तरफ चले। रास्ते 'क्या आज्ञा है?' सिद्धार्थ बोला – 'पहले तुम्हारा एक मींढा खो गया था।' इंद्रशर्मा ने जवाब दिया - 'हां।' सिद्धार्थ ने कहा – 'उस मींढे को अच्छंदक मारकर खा गया है और उसकी हड्डियां बोरड़ी के झाड़ से दक्षिण में थोड़ी दूर पर गाड़ दी है। जाओ देख लो।' कई लोग दौड़े गये। उन्होंने खड्डा खोदकर देखा और वापिस आकर कहा – 'वहां हड्डियां हैं।' सिद्धार्थ बोला – 'उस पाखंडी के दुश्चरित्र की एक बात और है; मगर मैं वह बात न कहूंगा।' लोगों के बहुत आग्रह करने पर सिद्धार्थ बोला - 'अपने मुंह से वह बात मैं न कहूंगा; परंतु अगर तुम जानना ही चाहते हो तो उसकी औरत से पूछो।' । कुतूहली लोग अच्छंदक के घर गये। अच्छंदक अपनी स्त्री को दुःख दिया करता था। इससे वह नाराज थी और उस दिन तो अच्छंदक उसे पीट कर गया था, इससे और भी अधिक नाराज हो रही थी। इसलिए लोगों के, पूछने पर उसने कहा – “उस कर्मचांडाल का नाम ही कौन लेता है? वह पापी अपनी बहन के साथ भोग करता है। मेरी तरफ तो कभी वह देखता भी नहीं है।' लोग अच्छंदक को बुरा भला कहते हुए अपने घर गये। सारे गांव में अच्छंदक पापी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। गांव में से उसे भिक्षा मिलनी भी बंद हो गयी। फिर अच्छंदक एकांत में वीर प्रभु के पास गया और दीन होकर बोला – 'हे भगवन्! आप यहां से कहीं दूसरी जगह जाइए। क्योंकि जो पूज्य होते हैं वे तो सभी जगह पुजते हैं और मैं तो यहीं प्रसिद्ध हूं। और जगह तो कोई मेरा नाम भी नहीं जानता। सियार का जोर उसकी गुफा ही में होता है। हे नाथ! मैंने अनजान में भी जो कुछ अविनय किया था उसका फल मुझे यहीं मिल गया है। इसलिए अब आप मुझ पर कृपा कीजिए।' उसके ऐसे दीन वचन सुनकर अप्रीतिवाले स्थान का त्याग करने के अभिग्रहवाले प्रभु वहां से उत्तर वाचाल नाम के गांव की तरफ विहार कर गये।'
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 223 : .