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महावीर स्वामी ने उत्तर दिया – 'सातवीं नरक में।'
श्रेणिक को आश्चर्य हुआ। वह सोचने लगा -- 'क्या यह भी संभव है कि ऐसा महान तपस्वी भी नरक में जाये? संभव है मेरे सुनने में भूल हुई हो। उसने फिर पूछा – 'प्रभो! राजर्षि प्रसन्नचंद्र यदि अभी कालधर्म को प्राप्त करें तो कौन सी गति में जायेंगे?'
महावीर स्वामी बोले – 'सर्वार्थसिद्ध विमान में।'
श्रेणिक को और भी आश्चर्य हुआ। उसने पुनः पूछा – 'स्वामिन्! आपने दोनों बार दो बातें कैसे कहीं?'
महावीर स्वामी बोले -- 'मैंने ध्यान के भेदों से दो बातें कहीं थी। तुमने पहले प्रश्न किया तब प्रसन्नचंद्र मुनि ध्यान में अपने मंत्रियों और सामंतों के साथ युद्ध कर रहे थे और दूसरी बार पूछा तब वे अपनी भूल की आलोचना कर रहे थे।'
श्रेणिक ने पूछा --- 'ऐसी भूल का कारण क्या है?'
प्रभु बोले - 'मार्ग में आते हुए तुम्हारे सुमुख और दुर्मुख नाम के दो सेनापतियों ने राजर्षि को देखा। सुमुख बोला – 'ऐसा घोर तप करनेवाले मुनि के लिए स्वर्ग या मोक्ष कोई स्थान दुर्लभ नहीं है।' यह सुनकर दुर्मुख बोला – 'क्या तुम नहीं जानते कि यह पोतनपुर का राजा प्रसन्नचंद्र है। इसने अपने बालकुमारं पर राज्य का भारी बोझा रखकर बहुत बड़ा अपराध किया है। इसके मंत्री चंपानगरी के राजा से मिलकर राजकुमार को राज्यच्युत करनेवाले हैं। इसकी स्त्रियां भी न जाने कहां चली गयी हैं? जिसके कारण यह अनर्थ हुआ या होनेवाला है उसका तो मुंह देखना भी पाप है।
दुर्मुख की बातें सुनकर राजर्षि को क्रोध हो आया और वे अपने मंत्रियों और उनके साथियों के साथ मन ही मन युद्ध करने लगा। उस समय उनके परिणाम भयंकर थे। उसी समय तुमने पूछा कि वे कौन सी गति में जायेंगे और मैंने जवाब दिया कि वे सातवीं नरक में जायेंगे।
'मगर मन में युद्ध करते हुए जब उनके सभी हथियार बेकार हुए तब उन्होंने अपने सिर पर हाथ रखा तो उनका सिर उन्हें साफ मालूम
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 277 :