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हां कह दो वरना पढ़ें मंत्र ?' अरिष्टनेमि को यह सब देखकर विशेष हास्य आ गया और उस हास्य को उन्होंने स्वीकृति मान ली। नेमिकुमार ने कोई विरोध नहीं किया।
सब दौड़ गयी। कोई समुद्रविजय के पास गयी, कोई माताजी के पास गयी और कोई श्रीकृष्ण के पास गयी। महलों में और शहर में धूम मच गयी। राजा समुद्रविजय ने तत्काल श्रीकृष्ण को कहीं सगायी और ब्याह साथ ही साथ नक्की कर आने के लिए भेजा। श्रीकृष्ण मथुरा के राजा उग्रसेन की पुत्री राजीमती के साथ सगाई कर आये और कह आये कि हम थोड़े ही दिनों में ब्याह का नक्की कर लिखेंगे। तुम ब्याह की तैयारी कर
रखना।
कृष्ण के सौरीपुर आते ही समुद्रविजय ने जोशी बुलाये और उन्हें कहा- 'इसी महीने में अधिक से अधिक अगले महीने में ब्याह का मुहूर्त निकालो।' जोशी ने उत्तर दिया- 'महाराज ! अभी तो चौमासा है। चौमासे में ब्याह शादी वगैरा कार्य नहीं होते। समुद्रविजय अधीर होकर बोले - 'सब' हो सकते हैं। वे क्या कहते हैं कि, हमें न करो। बड़ी कठिनता से अरिष्टनेमि शादी करने को राजी हुआ है। अगर वह फिर मुकर जायगा तो कोई उसे न मनां सकेगा।'
जोशी ने 'जैसी महाराज की इच्छा' कहकर सावन सुदि ६ का मुहूर्त निकाला। घर-घर बांदनवार बंधे और राजमहलों में ब्याह के गीत गाये जाने लगे। ब्याहवाले दिन बड़ी धूम के साथ बरात रवाना हुई । अरिष्टनेमि का वह अलौकिक रूप देखकर सब मुग्ध हो गये। स्त्रियां ठगीसी खड़ी उस रूपमाधुरी का पान करने लगी।
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बरात मथुरा की सीमा में पहुंची। राजीमती को खबर लगी। वह श्रृंगार अधूरा छोड़ बरात देखने के लिए छत पर दौड़ गयी। गोधूलि का समय था। अस्त होते हुए सूर्य की किरणें नेमिनाथजी के मुकुट पर गिरकर उनके मुखमंडल को सूर्यकासा तेजोमय बना रहा था। राजीमती उस रूप को देखने में तल्लीन हो गयी। वह पास में खड़ी सखि - सहेलियों को भूल गयी, पृथ्वी, आकाश को भूल गयी, अपने आपको भूल गयी। उसके सामने
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 161 :