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अपराजित भी वेश बदले हुए वहां आ पहुंचा था। जब उसने देखा कि सब राजा लोग निरुत्तर हो गये हैं, तब उससे न रहा गया। वह आगे आया और उसने प्रीतिमती के प्रश्नों का उत्तर दिया। प्रीतिमती हार गयी और उसने अपराजित के गले में वरमाला डाल दी। जितशत्रु चिंता में पड़ा,- अफसोस ! मेरी
भूल से और अपनी हठ से आज यह सोने की प्रतिमा, इस अनजान राहगीर की पत्नी होगी। उसके भाग्य !
दूसरे राजा लड़ने को तैयार हुए। अपराजित ने उन सबको पराजित कर दिया। सोमप्रभ ने अपने भानजे को पहचाना और उसे गले लगाया। फिर उसने जितशत्रु वगैरा से अपराजित का परिचय करा दिया। उसका परिचय पाकर सबको बडा आनंद हुआ। धूमधाम के साथ अपराजित और प्रीतिमती का ब्याह हो गया। जितशत्रु के मंत्री की कन्या के साथ विमलबोध की भी शादी हो गयी। दोनों सुख से दिन बिताने लगे।
कई दिन के बाद हरिनंदी का एक आदमी वहां आया। उसे देखकर अपराजित को बड़ी खुशी हुई। वह उससे गले मिलकर माता पिता का हाल पूछने लगा। आदमी ने कहा 'आपके वियोग में वे मरणासन्न हो रहे हैं। कभी कभी आपके समाचार सुनकर उनको नये जीवन का अनुभव होता है। अभी आपकी शादी के समाचार सुनकर वे बड़े खुश हुए हैं; आपको देखने के लिए आतुर हैं और इसलिए उन्होंने बुलाने के लिए मुझे यहां भेजा है। प्रभु अब चलिये मातापिता को अधिक दुःख न दीजिए ।
अपराजित को मातापिता का हाल सुनकर दुःख हुआ। वह अपनी पत्नियों को लेकर राजधानी में गया। मातापिता पुत्र को और पुत्रवधुओं को देखकर आनंदित हुए।
मनोगति और चपलगति के जीव माहेन्द्र देवलोक से च्यवकर अपराजित के अनुज बंधु हुए।
राजा हरिनंदी ने अपराजित को राज्य देकर दीक्षा ली और तप करके वे मोक्ष गये।
एक बार अपराजित राजा फिरते हुए एक बगीचे के अंदर आ पहुंचा। वह बगीचा समुद्रपाल नामक सेठ का था । सुख सामग्रियों की उसमें
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 155 :