SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 138
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जो सताता हो उसे दंड देना यह राजधर्म है - राजन्याय है। उसके अनुसार मुझे बाज को दंड देना और कबूतर को बचाना चाहिए। मगर मैं इस समय राज्यगद्दी पर नहीं बैठा हूं, इस समय मैं राजदंड धारण करनेवाला मेघरथ नहीं हूं। इस वक्त तो मैं पौषधशाला में बैठा हूं; इस समय मैं सर्वत्यागी श्रावक हूं। जब तक मैं पौषधशाला में बैठा हूं और जब तक मैंने सामायिक ले रखी हे तब तक मैं किसी को दंड देने का विचार नहीं कर सकता। दंड देने का क्या किसी का जरा सा दिल दुखे ऐसा विचार भी मैं नहीं कर सकता। ऐसा विचार करना, सामायिक से गिरना है; धर्म से पतित होना है। ऐसी हालत में मंत्रीजी! तुम्हीं कहो, दोनों पक्षियों की रक्षा करने के लिए मेरे पास अपना बलिदान देने के सिवा दूसरा कौन सा उपाय है? मुझे मनुष्य समझकर, कर्तव्यपरायण मनुष्य समझकर, धर्म पालनेवाला मनुष्य समझकर, शरणागत प्रतिपालक मनुष्य समझकर, यह कबूतर मेरी शरण में आया है; मैं कैसे इसको त्याग सकता हूं? और इसी तरह बाज को भूख से तड़पने के लिए भी कैसे छोड़ सकता हूं। इसलिए मेरा शरीर देकर इन दोनों पक्षियों की रक्षा करना ही मेरा धर्म है। शरीर तो नाशवान है। आज नहीं तो कल यह जरूर नष्ट होगा। इस नाशवान शरीर को बचाने के लिए मैं अपने यशः शरीर को, अपने धर्मशरीर का नाश न होने दूंगा।' अंतरिक्ष से आवाज आयी – 'धन्य राजा! धन्य!' सभी आश्चर्य से इधर उधर देखने लगे। उसी समय वहां एक दिव्य रूपधारी देवता खड़ा हुआ। उसने कहा – 'नृपाल! तुम धन्य हो। तुम्हें पाकर आज पृथ्वी धन्य हो गयी। बड़े से लेकर तुच्छ प्राणी तक की रक्षा करना ही तो सच्चा धर्म है। अपनी आहुति देकर जो दूसरे की रक्षा करता है वही सच्चा धर्मात्मा है। 'हे राजा! मैं ईशान देवलोक का एक देवता हूं। एक बार ईशानेन्द्र ने तुम्हारी, दृढ़ धर्मी होने की तारीफ की। मुझे उस पर विश्वास न हुआ और मैं तुम्हारी परीक्षा लेने के लिए आया। अपना संशय मिटाने के लिए तुम्हें तकलीफ दी इसके लिये मुझे क्षमा करो।' . देव अपनी माया समेट कर अपने देवलोक में गया। दोनों पक्षियों ने : श्री तीर्थंकर चरित्र : 125 :
SR No.002231
Book TitleTirthankar Charitra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayanandvijay
PublisherRamchandra Prakashan Samiti
Publication Year
Total Pages360
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy