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हैं। २. 'भृतांग' पान - बर्तन देते हैं। ३. 'तूर्यांग' तीन प्रकार के बाजे देते हैं। ४-५. 'दीपशिखा' और 'ज्योतिष्क' प्रकाश देते हैं। ६. 'चित्रांग' विचित्र पुष्पों की मालाएँ देते हैं। ७. 'चित्ररस' नाना मांति के भोजन देते हैं। ८. 'मण्यंग' इच्छित आभूषण अर्थात् जेवर देते हैं। ६. 'गेहाकार' गंधर्व नगर की तरह उत्तम घर देते हैं और १०. 'अनग्न' नामक कल्पवृक्ष उत्तमोत्तम वस्त्र देते हैं। उस समय की भूमि शर्करा से (शक्कर से) भी अधिक मीठी होती है। इसमें जीव सदा सुखी ही रहते हैं। यह आरा चार कोटाकोटि 'सागरोपम का होता है। इसमें आयुष्य, संहनन आदि क्रमशः कम होता जाता है। 1. आंख फुरकती है इतने समय में असंख्यात समय हो जाते हैं। अथवा वह
सूक्ष्मातिसूक्ष्म क्षणरूप काल जिसके भूतभविष्य का अनुमान न हो सके, जिसका फिर भाग न हो सके उसको 'समय' कहते हैं। ऐसे असंख्यात समयों की एक 'आवली' होती है। ऐसी दो सौ और छप्पन आवलियों का एक 'क्षुल्लक भव' होता है; इसकी अपेक्षा किसी छोटे भव की कल्पना नहीं हो सकती है। ऐसे उत्तर क्षुल्लक भव से कुछ अधिक में एक 'श्वासोच्छ्वास रूप प्राण की उत्पत्ति होती है। ऐसे सात प्राणोत्पत्ति काल को एक 'स्तोक' कहते हैं। ऐसे सात स्तोक को एक 'लव' कहते हैं। ऐसे सतहत्तर लव का एक मुहूर्त (दो घड़ी) होता है। इस (एक मुहूर्त में १,६७,७७,२१६ आवलियां होती है।) तीस मुहूर्त का एक "दिन रात' होता है। पंद्रह दिन रात का एक ‘पक्ष' होता है। दो पक्षों का एक महीना होता है। बारह महीनों का एक वर्ष होता है। (दो महीनों की एक 'ऋतु' होती है। तीन ऋतुओं का एक 'अयन' होता है। दो अयनों का एक वर्ष होता है।) असंख्यात वर्षों का एक पल्योपम होता है। दश कोटाकोटि पल्योपम का एक सागरोपम होता है। बीस कोटाकोटि सागरोपम का एक कालचक्र होता है। ऐसे 'अनंत' कालचक्र का एक पुद्गल परावर्तन होता है। (नोट - यहाँ 'अनंत' शब्द और 'असंख्यात' शब्द अमुक संख्या के द्योतक हैं। शास्त्रकारों ने इनके भी अनेक भेद किये हैं। इस छोटी सी भूमिका में उन सबका वर्णन नहीं हो सकता। इन शब्दों ('असंख्यात या' अनंत) से यह अर्थ न निकालना चाहिए कि संख्या ही न हो सके; जिसका कभी अंत ही न आवे।) अनंत शब्द दो प्रकार से प्रयुक्त है। एक तो जिसका अंत है और दूसरा जिसका अंत नहीं है। जैसे संसार अनादि अनंत तो यहां अनंत शब्द अंत रहित अर्थ में प्रयुक्त है। और वनस्पतिकाय की कायस्थिति अनंतकाल तो यहां अनंत शब्द अंत सहित अर्थ में प्रयुक्त है।
: श्री तीर्थंकर चरित्र : 303 :